Saturday 24 November 2012

वार्तालाप



मैं धर्म और धर्म ग्रन्थों में पूरी श्रद्धा रखती हूँ मगर इसका मतलब यह नहीं कि मैं अंधविश्वास को मानती हूँ। लेकिन इतना भी ज़रूर है कि जिन चीजों को मैं नहीं मानती उनका अनादर भी नहीं करती ऐसा सिर्फ इसलिए ताकि जो लोग उस चीज़ को मानते हैं या उसमें विश्वास रखते हैं उनकी भावनाओं को मैं ठेस नहीं पहुंचाना चाहती। एक दिन ऐसे ही धर्म की बातों को लेकर एक सज्जन से बात हो रही थी। सामने वाले का कहना था कि किसी भी धर्म में कही गयी अधिकांश बातें केवल उस धर्म के पंडितों या मौलवियों या यूं कहें कि उस धर्म के मठाधीशों द्वारा बनायी गयी हैं जिनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं, काफी हद तक यह बात मुझे भी सही लगी, लेकिन इस विषय को लेकर मेरे विचार थोड़े अलग है। मेरा ऐसा मानना है कि यदि यह सच भी है तो उस वक्त के हिसाब से बिलकुल ठीक था। क्यूंकि उस समय जो परिस्थिथियाँ रही होंगी शायद उसके मुताबिक यह नियम बनाए गए होंगे या बनाने पड़े होंगे। ताकि लोग उस बात को माने और स्वयं उसका अनुसरण करें ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उस धर्म को आगे बढ़ाया जा सके और यह भी संभव है कि उस वक्त कुछ लोग इन बातों को मानने के लिए तैयार नहीं होंगे शायद इसलिए उन्हें (भगवान के नाम पर या खुदा के नाम पर) जो भी कहें लें, एक डर बनाकर बताया गया कि यदि आप इस नियम का नियम अनुसार पालन नहीं करोगे तो ऊपर वाला आपको यह दंड देगा। जिसके चलते वह लोग भी उन नियमों का पालन करने लगे होंगे तभी तो धर्म आगे बढ़ सका। अब पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है मेरे हिसाब से तो यह अनुमान मात्र है इसलिए हो सकता है। हक़ीक़त क्या है यह तो राम ही जाने, हांलांकी इस सबके चलते यहाँ यह ज़रूर गलत हुआ कि वह डर भी धर्म के साथ आगे बढ़ा और बहुत हद तक अंधविश्वास में बदल गया।

फिर बात निकली वृत उपवास से जुड़ी कथा और कहानियों की सामने वाले व्यक्ति अर्थात उन सज्जन का कहना था कि मुझे इसमें ज़रा भी विश्वास नहीं इन सब वृत कथाओं में डर दिखाया गया है कि देखो यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो भगवान रुष्ट होकर तुम्हें यह दंड देंगे या वो दंड देंगे। जबकि भगवान भला अपने भक्तों का बुरा क्यूँ चाहेंगे भगवान ने कभी नहीं कहा कि मेरा पूजन करो, ऐसे करो या वैसे करो, लेकिन हर वृत कथा में कहा गया है कि फलाना वृत करने से भगवान प्रसन्न हो जाएँगे और बदले में यह फल देंगे और यदि वृत करने वाले ने अंजाने में यदि कोई भूल कर दी कुछ तो भगवान रुष्ट होकर दंड देंगे ,यह कौन सी बात हुई। इस बात पर मेरा कहना था कि मैं यहाँ आपकी बात से सहमत नहीं हूँ। मेरे विचार से अधिकतर वृत कथाओं में किसी भी वृत या उपवास को करने की सलाह किसी न किसी ऋषि मुनि ने दी है स्वयं भगवान ने नहीं और दंड का डर इसलिए दिखाया है ताकि लोग उसका अनुसरण करें और धर्म आगे बढ़ सके। उदाहरण के तौर पर यदि सत्यनारायण भगवान की वृत कथा की बात की जाये तो, जहां तक मेरी समझ कहती है सत्यनारायण भगवान की कथा के माध्यम से लोगों को यह समझाने का प्रयास किया गया है कि लोग अपने जीवन में निर्धारित किए गए लक्ष्य को पूरा करें अर्थात जो भी काम करने का निर्णय उन्होने अपने जीवन में लिया है उस लक्ष्य की प्राप्ति करें कोई भी कार्य बीच में ही अधूरा न छोड़ें। इसके अतिरिक्त एक कारण यह भी हो सकता है कि हमारे ऋषि मुनियों ने यह सोचा हो कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में से लोग थोड़ा समय प्रभु भक्ति के लिए भी निकाल कर कुछ समय सादा जीवन जीने का भी प्रयास करें।  

अब पता नहीं किसकी बात सही किसकी गलत हाँ मगर मैं यह नहीं कहती कि अंधी भक्ति करो ज़रा सा कुछ नियम इधर का उधर हो जाये तो "हाय अब क्या होगा" कहकर बैठ जाओ मैं सिर्फ इतना कहती हूँ और मानती हूँ कि अपने सामर्थ के अनुसार जितना हो सके पूर्ण श्रद्धा के साथ उतना ही करो और उस ऊपर वाले को कभी अपना दोस्त भी समझो, क्यूंकि चाहे ज़िंदगी में सुख आए या दुख शरण में तो उसी की जाना है। क्यूंकि जब कभी हम ज़िंदगी से हताश हो जाते है या निराश हो जाते हैं तब तब हमें केवल भगवान ही याद आते है फिर किसी भी रूप में क्यूँ ना आए जैसे माता-पिता उन्हें भी तो भगवान का ही दर्जा दिया जाता है। यहाँ तक के किस्से कहानियों में भी बच्चों को यही शिक्षा दी जाती है। तो फिर जब हर परिस्थिति में भगवान को पूजना ही है तो क्यू ना एक दोस्त बनाकर पूजा जाये बजाय डर के मारे पूजने के, अरे भई जब आप स्वयं इंसान होकर एक दूसरे को अंजाने में की गयी गलतियों के लिए माफ कर सकते हो। तो वह तो स्वयं भगवान है वो तो कर ही देंगे। फिर भला उनसे डर कैसा, मगर नहीं हमेशा मन के अंदर एक डर रहा करता है पूजन के वक्त कि कहीं कोई गलती न हो जाये। यह भी सही नहीं क्यूंकि भगवान तो वो शक्ति है जिसके लिए यह कहा गया है कि

  जाकि रही भावना जैसी, तिन देखी प्रभू मूरत वैसी..


तो क्यूँ न उन्हें बिना किसी डर और आशंका के हमेशा प्यारे से दोस्त के नाते ही देखा जाये इस विषय में आप सब की क्या राय है दोस्तों ?

Sunday 18 November 2012

ज़िंदगी के रंग ....


ज़िंदगी भी क्या-क्या रंग दिखती है किसी को खुशी तो किसी को ग़म दिखती है बड़ा ही अजीब फलसफ़ा है ज़िंदगी का यह किसी-किसी को ही रास आती है जाने क्यूँ ऊपर वाला किसी के दामन में खुशियाँ डालता है तो किसी के दामन में कुछ कभी न खत्म होने वाले कांटे। जिन्हें सब कुछ अच्छा और आराम से मिल जाता है वह कभी खुश होकर उस ऊपर वाले का शुक्रिया तक अदा नहीं करते और कुछ लोगों को ज़िंदगी भर का ग़म मिले या किसी बात का मलाल रहे तब भी वह उस खुदा का, उस ईश्वर का शुक्र अदा करना नहीं भूलते ऐसा ही एक अनुभव मुझे भी हुआ। मेरे घर के सामने एक परिवार रहता है उनकी एक बेटी है जिसकी उम्र शायद 13-14 साल के आस पास की होगी और एक बेटा है जिसकी उम्र शायद 18 के आस पास होगी मगर वह एक मानसिक रोगी है। उनकी बेटी मेरे बेटे के स्कूल में ही पढ़ती है और हर रोज़ शाम को छुट्टी के वक्त उसके पापा और भाई उसे लेने स्कूल आते हैं।

 पिछले कुछ दिनों से मैं उस बच्चे को देख रही हूँ बड़ा ही प्यारा लड़का है उसको देखकर कभी-कभी दया भी आती है और अच्छा भी बहुत लगता है मानसिक रूप से ठीक ना होते हुए भी उसके अंदर ज़िंदगी को देखने का ,ज़िंदगी को जीने का, एक अलग ही जज़्बा है जो शायद हम आप जैसे लोगों में भी वैसा नहीं होता जैसा उस बच्चे में मुझे दिखता है। उस लड़के को मैं रोज़ देखती हूँ और उसे देखकर मुझे एक ही गीत याद आता है "तुझ से नाराज़ नहीं ज़िंदगी हैरान हूँ मैं" हांलांकी महज़ आप किसी को रोज़ देखकर उसके विषय में इतने अच्छे से नहीं जान सकते कि उसके बारे में किसी तरह की कोई राय बनाई जा सके। मगर फिर भी उस बच्चे के पिता उसके साथ बहुत खुश नज़र आते हैं मगर उसकी बहन को देखकर लगता है कि शायद उसे उसके भाई का यूं उसे लेने आना अच्छा नहीं लगता, ऐसा लगता है मगर वास्तविकता यही है या नहीं यह मैं नहीं जानती यह मेरा केवल अंदाज़ा है जो गलत भी हो सकता है और सही भी, वैसे तो मैं चाहूंगी कि ईश्वर करे इस विषय मेरा अंदाज़ा गलत ही हो मगर सब कुछ सोचो तो ऐसा लगता कि एक हम और आप जैसे समान्य लोग है जो बेटा -बेटा कर कर-कर के ही मरे जाते हैं और बेटियों से कतराते हैं जबकि बच्चे के जन्म के वक्त तो सभी की यह दुआ होनी चाहिए कि जो भी हो स्वस्थ हो मगर नहीं अपने यहाँ तो चाहे जैसे हो बस बेटा हो...

खैर मैं तो उस लड़के के बारे में कह रही थी और बात बेटा-बेटी पर पहुँच गयी, बहुत शौक है उसे फुटबाल खेलने का मगर ऊंची गेंद आते देखकर बहुत डर जाता है वो, पर खेलने का जोश कम नहीं होता उसका, स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों के साथ खेलना चाहता वो, मगर बच्चे उसे गेंद देते ही नहीं क्यूंकि उस वक्त बच्चे खुद अपनी मस्ती में इतना मग्न होते हैं कि उसकी विवशता को समझ ही नहीं पाते। समय भी छुट्टी का रहता है तो उस वक्त कोई अध्यापक भी वहाँ मौजूद नहीं होता कि बच्चों को समझा सके कि उसे भी खेलने का मौका दो मगर फिर भी उसकी अपनी तरफ से पूरी कोशिश रहती है कि वह खेले और बच्चों की तरह भागे, दौड़े, मारे मगर बेचारा कर नहीं पाता, जानती हूँ यहाँ बेचारा शब्द बहुत ही गलत लगता है। मगर जब ऐसा कुछ देखती हूँ तो खुद को बहुत असहाय सा महसूस करने लगती हूँ क्यूंकि मैं चाहकर भी उसकी मदद नहीं कर सकती। ऐसे मामलों में खुद आगे बढ़कर किसी से कुछ कहना लोगों को बुरा लग सकता है और फिर स्वयं उसके पिता आगे नहीं आते शायद वह अपने बच्चे को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हो, ऐसे मैं यदि कोई भी अंजान व्यक्ति उसकी मदद करे तो हो सकता है कि उस व्यक्ति की सहानभूति उनकी भावनाओं को आहत कर दे वैसे तो ऐसे बच्चे सदा ही अभिभावकों के दिल के ज्यादा करीब होते हैं मगर कई बार इसका उल्टा भी होता है कई बार बाकी अन्य भाई बहन अपने किसी ऐसे भाई या बहन के प्रति जो मानसिक रूप से ठीक ना हो एक अलग सी भावना रखते है। यह अभिभावकों की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने अन्य बच्चों में उस खास बच्चे के प्रति सामान्य व्यवहार रखें ताकि बाकी बच्चे भी उससे सामान्य व्यवहार ही करें क्यूंकि बच्चे वही करते हैं जो देखते हैं। मैंने कुछ परिवारों में ऐसे बच्चों के भाई बहनो कों उस खास बच्चे के प्रति शर्म महसूस करते देखा है तो कहीं अत्यधिक प्यार जिसका एक सबसे अच्छा उदहारण थी फिल्म "अंजली" जो बहुत से ऐसे परिवारों का जीता जागता प्रमाण है।

मेरे विचार से तो यह पूरी तरह सबसे पहले अभिभावकों की और उसके बाद समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह ऐसे बच्चों के प्रति एक सकरात्मक रवैया रखते हुए उन से साधारण बच्चों की तरह व्यवहार करें मगर होता उसका उल्टा ही है। हांलांकि इस मामले में बहुत सी समाजसेवी संस्थाएं निरंतर काम कर रही है। मगर फिर भी ऐसे खास लोगों को आम लोगों में शामिल कराना किसी एक बड़ी लड़ाई लड़ने से कम बात नहीं है। आजकल का तो पता नहीं कि अपने इंडिया में इस जैसे बच्चों के लिए अब क्या-क्या व्यवस्थायें उपलब्ध कर दी गयी हैं। मगर इस विषय में यहाँ बहुत कुछ देखने को मिलता है यहाँ ऐसे खास बच्चों के लिए हर तरह की सुविधा उपलब्ध है। जैसे यहाँ उनके साथ भी आम बच्चों की तरह ही व्यवहार किया जाता है। उन्हें साधारण बच्चों के साथ एक से ही स्कूल में एक ही कक्षा में भी पढ़ाया जाता है। पिकनिक पर ले जाया जाता है,  पुस्तकालय ले जाया जाता है, उनके लिए अलग तरह के कमरों और शौचालयों की व्यसथा होती है ताकि उन्हें किसी अडचन का सामना न करना पड़े, यहाँ तक की बसों और रास्तों पर भी उनके लिए व्यवस्था होती है। कुल मिलकर हर तरह से कोशिश कि जाती है कि वो भी समाज में आगे चलकर सामान्य नागरिकों की तरह ज़िंदगी बसर कर सके और एक हम लोग हैं जो अभी तक बेटा बेटी के भेद भाव से ही उबर नहीं पाये हैं।

हो सकता है यहाँ कुछ लोगों को ऐसा लगे कि यह सब करके सरकार खुद ही उन बच्चों को कहीं न कहीं यह एहसास दिला रही है कि वो आम लोगों से अलग है मगर जहां तक मेरी सोच कहती है यह सब उनकी सुविधा के लिए है ना कि उन्हें यह एहसास दिलाने के लिए कि वह अलग हैं खैर इस बात के पीछे भी कई कारण हो सकते हैं जैसे कि हमारा देश इतना बड़ा है कि शायद वहाँ इन बातों का ध्यान इतनी अच्छी तरह रख पाना संभव ना हो और यह हमारे देश के सामने बहुत ही छोटा सा देश है और यहाँ की जनसंख्या भी बहुत कम है इसलिए भी शायद ऐसा हो, हमारे यहाँ तो आधी आबादी खाने कमाने के चक्करों में ही खत्म हो रही ही और जो समान्य वर्ग है उनका इतना बजट नहीं कि वो ऐसे खास लोगों का बड़े स्तर पर इलाज करवा सकें वरना अगर चिकित्सा पद्धती की बात कि जाये तो वो यहाँ की तुलना में हमारे यहाँ कहीं ज्यादा अच्छी है मगर साथ ही महंगी भी बहुत है इसलिए हम चाहकर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते। उस परिवार को देखकर जो लगा वो मैंने लिखा अंदर की बात क्या है यह तो मैं नहीं जानती। मगर बाहर जैसा दिखता है उसके मुताबिक तो मन करता है उनका उदाहरण दिखाना चाहिए ऐसे लोगों को जो बेटे की चाह में बेटी का तिरस्कार करते हैं या बेटे की चाह में बजाय एक स्वस्थ बच्चे की इच्छा रखने के केवल बेटे की इच्छा रखते हैं।  इन सब बातों को सोचने पर लगता है कि कुछ भी कहो जो अलग है वो अलग है उसे लाख कोशिश करने पर भी हम अपने जैसा नहीं बना सकते मगर इतना तो कर ही सकते हैं कि कम से कम उसे खुद में यह महसूस ना होने दें कि वो हम से अलग है। बल्कि हमारी कोशिश तो यह होनी चाहिए कि उसके अलग होने के एहसास को भी उसके सामने ऐसे रखें कि वह खुद को खास समझे हीन नहीं....मुझे तो ऐसा ही लगता है आप सब की क्या राय है ?

Sunday 11 November 2012

इंगलिश विंगलिश


हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री की तरफ से हिन्दी फिल्म प्रेमियों को एक नायाब तोहफा है यह फिल्म(इंगलिश विंगलिश), इस फिल्म की जितनी तारीफ की जाये कम है। वैसे मुझे यह फिल्म देखने में थोड़ी देर ज़रूर हो गयी मगर इस फिल्म को देखने के बाद लगा कोई बात नहीं "देर आए दुरुस्त आये" क्यूंकि यह फिल्म तो पहले दिन पहला शो देखने वाली फिल्म है। सालों बाद हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी कोई फिल्म आई जिसको देखकर दिल बाग-बाग हो गया। सच दिल को छू गयी। यह फिल्म एक बार फिर न जाने क्यूँ मुझे ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों का वो दौर याद आ गया जब एक आम मध्यमवर्गीय लोगों की ज़िंदगी को बिलकुल ज़मीन से जुड़कर ही पर्दे पर दिखाया जाता था। जिसमें उस फिल्म के हर पात्र से जनता कहीं न कहीं खुद को जुड़ा हुआ पाती थी। ठीक वैसा ही मैंने इस फिल्म में हर पात्र को कहीं न कहीं खुद से जुड़ा हुआ ही पाया। वैसे इस साल कई सारी अच्छी फिल्में आई ऐसा मैंने सुना था, मगर अफसोस कि मैं सभी देख नहीं पायी जैसे (बर्फी) यह फिल्म देखने की भी मेरी बहुत तमन्ना थी। मगर नहीं देख नहीं पायी वैसे देखने को तो यह फिल्म मैं ऑनलाइन देख ही लूँगी मगर वो क्या है ना, कि मुझ जैसे लोगों को अच्छी फिल्म देखने का सही मज़ा सिनेमाघर में ही आता है। जैसा कि इस फिल्म को देखने के बाद आया, न जाने क्यूँ इस फिल्म को देखने के बाद दिल को एक सुकून सा मिला कि आज भी हमारे देश में अच्छे निर्माता निर्देशकों के साथ ही श्रीदेवी और अमिताभ बच्चन जी जैसे महान कलाकार भी मौजूद है गर्व होता है इन्हे पर्दे पर देखकर। वैसे बाल्की जी की यह दूसरी फिल्म थी बच्चनजी के साथ, मेरा मतलब है वैसे तो यह फिल्म उनकी धर्मपत्नी गोरी शिंदे जी ने निर्देशित की है मगर इसे बाल्की जी की फिल्म भी कहा जा सकता है। खैर भले ही इस फिल्म में बच्चनजी का बहुत छोटा सा किरदार है मगर बहुत ही दमदार है। इसे पहले बाल्की जी ने बच्चनजी के साथ एक फिल्म और बनाई थी जिसका नाम था (चीनी कम) यह भी एक बेहतरीन फिल्म थी।

ऐसा मुझे लगता है,क्यूंकि हर मामले में पसंद अपनी-अपनी ख्याल अपना-अपना होता है और जैसा कि आप सब जानते ही हैं कि मैं बच्चन जी की बहुत बड़ी पंखी हूँ और मैंने आज तक उनकी कोई फिल्म नहीं छोड़ी है :-)फिर चाहे वो फिल्म (लास्ट इयर)ही क्यूँ न हो इसका नाम बहुत कम लोगों ने सुना है कि इस नाम की भी उनकी कोई फिल्म कभी आई भी थी।  मगर यहाँ मैं बताती चलूँ कि उनकी यह फिल्म आई थी जो इंगलिश में थी साथ में अर्जुन रामपाल भी था। खैर यहाँ में (लास्ट इयर) की नहीं बल्कि (इंगलिश विंगलिश)फिल्म की चर्चा करने आयी हूँ। मगर क्या करूँ मैं बच्चन जी कोई फिल्म नहीं छोड़ती न फिर चाहे उसमें उनकी छोटी सी सहायक भूमिका ही क्यूँ न रही हो या फिर अतिथि भूमिका ही क्यूँ न रही हो जैसे वो पूरानी (गोलमाल) हो या (गुड्डी)या फिर(राम जी लंदन वाले) सब देखी हैं मैंने, इसलिए इसे भी छोड़ ना सकी और ऊपर से श्रीदेवी 15-16 साल बाद उनकी कोई फिल्म आयी है और आज भी उनका अभिनय और खूबसूरती बिलकुल वैसी है जैसे पहले हुआ करती थी। न जाने कैसे यह लोग चरित्र में ऐसे कैसे उतर जाते हैं कि इंसान इनके बजाए खुद को इनमें देखने लगता है। फिल्म शुरू होते ही मेरा तो मन किया था सिटी मारने को, और बच्चन जी के आने पर तो ज़ोर से ज़ोर से सिटी मारने और ताली बजाने का मन था मेरा, मगर अफसोस यह हो न सका....क्यूँकि फिल्म पुरानी होने के कारण भीड़ भाड़ ज़रा भी नहीं थी। वरना यदि होती तो मैं सिटी ज़रूर मारती। 

खैर अब बहुत हो गयी मेरी बातें अब फिल्म पर आते हैं। एक अच्छी फिल्म वो होती है जो दर्शक को "गुड पर मक्खी" की तरह चिपका कर रखे जो आपको एक पल के लिए भी पलक झपकाने तक का मौका न दे, ठीक वैसी ही फिल्म है यह "इंगलिश विंगलिश" एक साधारण से परिवार की एक बहुत आम साधारण सी औरत की कहानी जिसे ठीक से इंगलिश बोलनी नहीं आती जिसके कारण उसे हर रोज़ अपने परिवार वालों से जाने अंजाने में मज़ाक और अपमान सहना पड़ता है और फिर अचानक एक दिन उसे अपनी बहन की बेटी की शादी में सम्मिलित होने के लिए (न्यूयॉर्क) जाना पड़ता है और फिर शुरू होते है उसके छोटे-छोटे संघर्ष जिनसे बखूबी निपटते हुए नायिका अंत में अपने परिवार में अपना खोया हुआ मान सम्मान फिर से पा लेती है। पूरी कहानी यहाँ मैं नहीं बताऊँगी क्यूंकि जिन लोगों ने अब तक यह फिल्म देखी नहीं है मैं नहीं चाहती उनका इस बेहतरीन एवं अतुल्य फिल्म को देखने का सारा मज़ा चला जाये। मगर इस बीच दो संवादों ने मुझे बहुत प्रभावित किया एक तो बच्चन जी ने बोला है कि "हर किसी की ज़िंदगी में कुछ न कुछ पहली बार ही होता है और यह पहली बार ज़िंदगी में केवल एक ही बार आता है इसलिए अब हमें इन अंग्रजों से डरने की जरूरत नहीं बल्कि अब हमारी बारी है इन्हें डर दिखाने की इसलिए इस पहली बार का बिंदास और बेबाकी से खुलकर मज़ा लीजिये" और दूसरी बात नायिका की खूबसूरती में एक फ्रेंच इंसान के द्वारा बोला गया यह संवाद की "उसकी आंखे इतनी खूबसूरत हैं जैसे दूध में कॉफी की दो बूंदें"

सच मेरे तो दिल को छू गयी यह फिल्म, इस फिल्म की दूसरी बात जो मुझे अच्छी लगी वो यह कि कभी-कभी दो अंजान लोग जो एक दूसरे की भाषा तक नहीं समझते, मगर फिर भी एक अच्छे इंसान होने के कारण वह कितनी आसानी से हमारे कितना करीब आ जाते हैं। यह जानते हुए भी कि सामने वाला हमारी भाषा, हमारी बोली नहीं समझता। फिर भी कभी-कभी उससे अपने मन की बात कह देना भी दिल को कितना सुकून पहुंचा जाता है और हैरानी की बात तो यह होती है कि वह बात समझे न समझे, हमारी भाषा समझे न समझे, मगर जज़्बात समझ जाता है। ठीक प्यार की तरह जिसकी अपनी कोई भाषा या परिभाषा नहीं होती मगर फिर भी हर प्रांत का इंसान उस जज़्बे को समझता है, महसूस कर सकता है। इससे याद आया इसी फिल्म का एक और बढ़िया संवाद कि यूं तो हर इंसान प्यार का भूखा होता है और हर इंसान को केवल प्यार चाहिए मगर तब भी सिर्फ प्यार से बात नहीं बनती प्यार के साथ-साथ एक औरत को मान सम्मान की भी उतनी ही जरूरत होती है जितनी कि प्यार की,

खैर यहाँ बात हो रही थी भाषा की, इससे पता चलता है भाषा का भी कितना बड़ा महत्व है ना हमारी ज़िंदगी में, सोचो अगर यह भाषा न होती तो क्या होता। फिर भी हमें अपनी भाषा की कोई कदर नहीं है अंग्रेज़ी बोलना आजकल सांस लेने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है आज की तारीख़ में इंसान oxygen के बिना ज़िंदा रह सकता है मगर इंगलिश के बिना नहीं, कमाल है न!!! जाने कब बदलेगी यह मानसिकता कि जिसे इंगलिश नहीं आती उसे कुछ नहीं आता। ऐसी मानसिकता रखने वालों के लिए एक करारा जवाब है यह फिल्म, मेरे हिसाब से कोई भी नई भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं। भाषाएँ सभी अपने आप में बहुत ही मधुर और सम्माननीय हैं, मगर इसका मतलब यह नहीं कि हम अपनी मातृभाषा को ही भुला देने और केवल दूसरों के सामने खुद को स्मार्ट दिखने के लिए अपनी भाषा को छोटा समझते हुए केवल दिखावे के लिए उस भाषा का प्रयोग करें जो हमारी है ही नहीं बल्कि होना तो यह चाहिए कि हम औरों की और सामने वाला हमारी दोनों ही एक दूसरे की भाषाओं का तहे दिल से आदर सम्मान करें ना की पीठ पीछे परिहास। 

खैर बहुत हो गया ज्ञान, वापस फिल्म पर आते हैं इस फिल्म से हमें एक और बहुत अच्छा संदेश मिलता है कि हमें भाषा भले ही न आए किसी दूसरे प्रांत की, मगर हमें उसकी भावनाओं का ख़्याल रखना ज़रूर आना चाहिए। क्यूंकि दिल तो एक ही होता है और उसमें भावनाएँ भी एक सी ही होती है इसलिए अंजाने में भी किसी का दिल दुखाना ठीक बात नहीं जो अक्सर हम भूल जाते हैं, यह सोचकर कि अरे सामने वाले को थोड़ी न हमारी भाषा आता ही है कुछ भी बोल लो,और इस तरह का फूहड़ता भरा परिहास यहाँ बड़ी आसानी से देखने को मिलता है वो भी ज़्यादातर हम हिंदुस्तानियों के द्वारा जो सारासर गलत है, सच है "अपने बच्चों को सब कुछ सिखाया जा सकता है मगर दूसरों की भावनाओं की कदर करना भला कोई कैसे सिखाये" यह दोनों भी इसी फिल्म के संवाद है जो अपने आप में एक बहुत बड़ा प्रश्न है और भी बहुत कुछ है इस फिल्म में देखने सुनने और सीखने लायक क्यूंकि संवाद भले ही कितने भी साधारण क्यूँ न लग रहे हों आपको मगर दो बड़े कलाकारों द्वारा अपनी कला के माध्यम से इसे भावों के रूप में ढालकर देखने का तरीका अर्थात निर्देशन इतना कमाल का है कि आप जज्बाती हुए बिना नहीं रह पाते और लाख चाहने पर भी आँखें नाम हो जी जाती है मगर अब बस पहले ही बहुत कुछ कह चुकी हूँ इस फिल्म के विषय में इसलिए अब कुछ नहीं अब तो बस इतना ही यदि आप एक सच्चे हिन्दी फिल्म प्रेमी है और एक अच्छी और बेहतरीन या फिर एक अतुल्य फिल्म में अंतर करना जानते हैं तो एक बार यह फिल्म ज़रूर देखिएगा....जय हिन्द                                  

Sunday 4 November 2012

ज़रा एक बार सोच कर देखिये





मैं जानती हूँ आज मैं जो कुछ भी लिख रही हूँ उससे बहुत से लोग असहमत होंगे खासकर वह लोग जो यह समझते है या मानते हैं कि मैं अपनी पोस्ट में हमेशा पुरुषों का पक्ष लेती हूँ। जो कि सरासर गलत बात है मैं किसी का पक्ष या विपक्ष सोचकर नहीं लिखती बस वही लिखती हूँ जो मुझे महसूस होता है मगर फिर भी कुछ लोग हैं, जिन्हें ऐसा लगता है कि मुझे लिखना ही नहीं आता। जी हाँ इस ब्लॉग जगत में लिखते मुझे दो साल हो गये यह मेरा पहला अनुभव है जहां मुझे अपने कुछ आलोचकों से यह जानने को मिला कि मुझे लिखना ही नहीं आता। इस बात से एक बात और भी साबित होती है कि जिन लोगों को ऐसा लगता है वह लोग भी मेरी पोस्ट पढ़ते ज़रूर है भले ही मेंट न करें क्योंकि उनका यह कहना ही इस बात का प्रमाण है कि मैं चाहे अच्छा लिखूँ या बुरा वह मेरा लिखा पढ़ते है। तभी तो यह तय कर पाते हैं कि मैंने अच्छा लिखा या बुरा इसलिए मैंने सोचा आज मैं उन सभी लोगों को यह बताती चलूँ कि मैं केवल वो लिखती हूँ जो मुझे महसूस होता है, जो मेरा अपना, या मेरे अपनों का या मेरे आस-पास के लोगों का अनुभव होता है। मगर फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो सीधी बात को भी टेढ़ी नज़र से देखते है और अपनी सोच के आधार पर किसी भी व्यक्ति या विषय के प्रति अपनी ही एक धारणा बना लेते है और यह सोचने लगते है कि जो उन्हें दिख रहा है या दिखता है वही सच होता है।

खैर मैं यहाँ अपनी सफ़ाई नहीं दे रही हूँ न ही मेरा ऐसा कोई इरादा है लेकिन जब पानी सर से ऊपर हो जाए तो बोलना ही पड़ता है। अब बात करते हैं कुछ नारीवादी लोगों की, वैसे मेरे हिसाब से तो नारी के पक्ष में कही जाने वाली कोई भी बात फिर चाहे उस बात को स्वयं नारी कहे या कोई पुरुष नारीवादी करार देना ही नहीं चाहिए। मगर यह बात कुछ वैसी है जैसे कोई चलन या आम बोल चाल की भाषा में प्रयोग किया जाने वाला कोई शब्द (नारीवादी विचारधारा) लेकिन जब ऐसा कोई विषय उठाया जाता है जिसमें नारी के प्रति किसी तरह का कोई चिंतन दर्शाया जा रहा हो, या उसके मान सम्मान या अधिकारों के प्रति कोई बात कही जा रही हो तो लोग उसे नारीवादी पोस्ट कहने लगते है, जो कि गलत है। क्यूंकि पुरुष भी तो हमारे ही समाज का एक अंग हैं फिर हम यदि किसी भी विषय पर कुछ सोचते हैं तो उन्हें अलग कैसे कर सकते है यहाँ मेरी सोच यह है कि स्त्रियों से संबन्धित विषयों में भी सभी की सोच एक दिशा में होनी चाहिए तभी कुछ बात बन सकती है। क्यूंकि वह लोग भी हमारे समाज का एक अहम हिस्सा हैं कोई शत्रु तो नहीं है। जो हर बार हम उन्हें अलग करके सोचते हैं।

अब सवाल यहाँ यह उठता है कि हमेशा ऐसे सारे विषय एक नारी के द्वारा ही क्यूँ लिखे जाते हैं। जबकि समाज की सभी नारियां तो इन बातों से पीड़ित नहीं है फिर एक नारी ही हमेशा ऐसा सब कुछ क्यूँ सोचती है। समाज में रहने वाले सभी पुरुष तो खराब नहीं है फिर वो क्यूँ आगे आकर इन विषयों पर कुछ नहीं लिखते यहाँ शायद लोग कहें कि वह किसी तरह के झमेलों में फंसना नहीं चाहते इसलिये वह ऐसे विषयों पर नहीं लिखते या फिर लिखते भी हैं तो बहुत कम, माना कि नारी और पुरुष की तुलना हमारे समाज में सदियों से विद्यमान है मगर क्या आपको नहीं लगता कि हम इस तरह की बातें करके उन्हें और भी हवा दे रहे हैं। क्यूंकि यहाँ मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह कि बातों से यह भेद भाव और भी ज्यादा गहरा हो जाता है और शायद जिन्हें महसूस नहीं होता उन्हें भी महसूस होने लगता है।

हो सकता है आप लोगों को ऐसा न लगता हो क्योंकि इस विषय में सबकी अपनी सोच, विचार और राय हो सकती है। मगर मुझे जो लगा मैं वही लिखने का प्रयास कर रही हूँ, नारी के अधिकारों के लिए माँग उसकी सुरक्षा के लिए आए दिन होते आंदोलन, समान अधिकार पाने की लड़ाई इत्यादि के बारे में लिखते लिखते वाकई हमारी सोच सिर्फ नारीवादी होने तक ही सिमित हो गयी है (यहाँ नारीवादी लिखने से मेरा तात्पर्य है वह बातें जिसमें केवल हर तरह से नारी का जि़क्र हो) मैं कहती हूँ, क्या ऐसे चिल्लाने से अर्थात आंदोलन करने से, या इस तरह की पोस्ट लिखने से कुछ बदलने वाला है? जो लोग नारी शब्द को पकड़ कर बस शुरू हो जाते हैं। पिछले कुछ महीनों से इस मामले में तो मेरा अनुभव यह रहा है कि जिन लोगों को अपने ब्लॉग पर या अपनी पोस्ट पर कमेंट बढ़ाने का शौक होता है केवल वही लोग इस एक नारी शब्द को पकड़कर लिखते रहते है इस श्रेणी में आप मुझे भी सम्मिलित कर सकते हैं क्यूंकि मैंने स्वयं भी नारी से जुड़े विषयों पर बहुत लिखा है और यह पाया है कि मेरी जिस किसी पोस्ट में नारी के विषय में लिखा होता है उस पोस्ट पर कमेंट की झड़ी लगी होती है और जिस पोस्ट में ऐसा कुछ ना हो उस पोस्ट पर लोग आते ही नहीं और तो और यहाँ मैंने कुछ ऐसे लोगों को भी देखा हैं जो केवल नारी शब्द देखकर ही शुरू हो जाते है। पोस्ट में असल बात क्या कहना चाहा है लेखक/लेखिका ने उस बात कि तरफ ध्यान ही नहीं देते। अब ऐसे लोगों को कोई नारीवादी न कहे तो क्या कहे।

लेकिन मेरा इस पोस्ट को लिखने का मुख्य बिन्दु यह है कि इस तरह कि नारी मुक्ति मोर्चा टाइप पोस्ट लिखने से कुछ होने जाने वाला नहीं है आज सभी कहते हैं नारी ने अपने आपको अब हर तरह से सक्षम बना लिया है अब वो किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं उसके अधिकारों के लिए बहुत सी संस्थाएँ आगे आयी है और नारी मुक्ति जैसे कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है नारी अब अबला नहीं है कमजोर नहीं है समाज बदल रहा है लोगों की सोच में परिवर्तन आ रहा है न सिर्फ आम ज़िंदगी में बल्कि शायद रूपहले परदे पर भी, बहुत अच्छी बात है....अगर वास्तव में यह हक़ीक़त है तो, ? मगर मुझे तो वास्तविकता कुछ और ही नज़र आती है जब से नारी ने अपने अधिकारों के प्रति और अपने सम्मान के प्रति अपनी आवाज़ उठायी है तब से समाज में बलात्कार के मामलों में, या नारी उत्पीड़न के मामलों में कुछ ज्यादा ही तेज़ी आयी है यानि बजाय समस्यायेँ सुलझनें के हालत और भी ज्यादा बद से बदतर होते जा रहे हैं। कुल मिलाकर मुझे नहीं लगता कि इस तरह के आंदोलन से कोई फर्क पड़ने वाला है। फर्क किस चीज़ से पड़ेगा फ़िलहाल तो यह कहना बहुत ही मुश्किल काम है क्योंकि आजकल जो हालात नज़र आते हैं उसमें तो इस समस्या से निजात पाने का कोई तरीक़ा कम से कम मुझे तो नज़र नहीं आता। मगर शायद फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि इस समस्या से निजात पाने के लिए यदि स्त्री और पुरुष दोनों ही साथ मिलकर चलें तो ज़रूर कुछ हो सकता है अकेली महिलाओं के हँगामाखड़ा करने से कोई हल निकलने वाला नहीं इन मुद्दों का, जरूरत है उन लोगों के आगे आकर काम करने की जिन्हें वास्तव में ऐसा लगता है कि वह एक दूसरे के सच्चे मित्र है विपरीत लिंग होते होते हुए भी एक दूसरे को अच्छी तरह समझते है फिर चाहे वो दोनों स्त्री पुरुष मित्र हों या पति पत्नी या फिर एक ही जगह काम करने वाले सहकर्मी, जब दोनों ही कि सोच एक ही दिशा में होगी तभी इस समस्या का निदान हो सकता है और हमारे देश में सदियों से विद्यमान कुछ कुप्रथाओं और अंधविश्वास का खात्मा भी केवल इसी एक दिशा सोच से ही हो सकता ना कि यूं एक दूसरे से प्रथक होकर इस दिशा में दिशा हीन होते हुए कार्य करने से।

ज़रा एक बार इस नज़र से भी सोचकर देखिये आपको क्या लगता है ?