Monday 27 November 2017

स्कूल कि गुठली और मैं ~


यूँ देखा जाये तो परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। समय के साथ हर चीज़ में परिवर्तन आ जाता है । फिर चाहे वह कोई इंसान हो या अनुशासन बदलाव तो आखिर बदलाव ही है। अपने जमाने की बात सोचो तो लगता है, हम तो बहुत कठोर अनुशासन में पले बढ़े लोग हैं। फिर चाहे वह स्कूल का मामला हो या घर का कोई भी ऐसा कदम जो सार्वजनिक रूप से अनुचित माना जाता है, उसे उठाने से पहले हम सो बार सोचते होंगे कि हम जो करने जा रहे हैं वह कितना सही है और कितना गलत। उसके बाद यदि पकड़े गए तो अंजाम क्या होगा। किन्तु आज की पीढ़ी को देखते हुए लगता है कि वह हमारी तुलना में काफी निडर है। उन्हें जैसे अंजाम का कोई डर ही नहीं होता कि यदि पकड़े गए तो क्या होगा। 


यूँ देखा जाए तो अब स्कूलों में भी अनुशासन उतना सख्त नहीं रहा, जितना अपने समय हुआ करता था नहीं ? यहाँ तक कि मैंने एक लड़की होने के पश्चयात अपने अध्यापकों से चपत से लेकर डस्टर, स्केल, आदि सभी चीजों से मार खाई है लड़कों कि तो बात ही क्या और एक आज का ज़माना है आज के बच्चे अपने अध्यापकों से ज़रा नहीं डरते। आज के ज़माने में कोई एक आद अध्यापक या अध्यापिका जी ही ऐसे होते होंगे जिनसे बच्चे डरते हों। एक हमारा ज़माना था, हमें तो एक आद को छोड़कर सभी से बहुत डर लगा करता था। 

लेकिन जब बात बच्चों की परवरिश की हो तो, अनुशासन की परिभाषा अनुभवों के आधार पर गडमड हो ही जाती है और हम असमंजस में उलझ कर रह जाते हैं कि अनुशासन में रखकर जो हमारे माता पिता ने हमारे साथ किया वह सही था या आज हम जो अपने बच्चों के साथ कर रहे हैं वह सही है। क्योंकि जब हम एक अभिभावक बनकर सोचते हैं तो तुलना अपने बचपन से ही करते हैं। लेकिन निर्णय आज के समय अनुसार लेना पड़ता है। फिर साथ ही साथ रह रहकर मन में यह विचार भी आता है कि क्या हमारी गलतियों पर हमारे माता-पिता भी इतनी ही जल्दी उत्तेजित हो जाया करते थे, जितना आज के समय में हम हो जाते हैं। या यह सोचकर कि बच्चे हैं बच्चे तो गलती करेंगे ही, नहीं तो सीखेंगे कैसे ऐसा सोचकर कई गलतियों पर ध्यान भी नहीं देते थे। नहीं ? दूसरी और एक हम हैं जो बच्चों की ज़रा-ज़रा सी गलतियों पर इतने चिंतित हो जाते हैं कि लगता है हर विषय पर उनसे बात करो बात -बात पर उन्हें सही गलत समझाओ।


लेकिन जब बात स्कूल कि हो तो लगता है एक बार स्कूल प्रवेश कर लेने के बाद बच्चे की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी स्कूल की होती है कि बच्चे क्या कर रहे, कहाँ जा रहे है वग़ैरा-वगैरा। अब स्कूल से गुठली मारने की बात को ही लो। एक समय होता है जब सभी ऐसा करते हैं, आपने भी क्या होगा शायद ! नहीं ? तब हमारे मन में एक ही डर आता था कि बेटा पकडे गए तो लंका लग जाएगी। माता-पिता मार मारकर भुस भर देंगे। फिर चाहे वह मारे या न मारे मगर डर तो यही लगता था। एक बार की बात है मैंने गुठली तो नहीं मारी थी किन्तु दूसरी कक्षा में मैं स्कूल समाप्त होने के बाद अपनी सहेली के साथ उसके घर चली गयी थी। इतनी छोटी होने के बावजूद मुझे वह दिन आज भी याद है। मेरे घर लौटने के पाँच मिनिट पहले पापा पुलिस स्टेशन ही जा रहे थे। मेरे गुम होने की शिकायत लिखवाने। उस दिन सारा महोल्ला मेरे घर एकत्रित था। कुछ लोग मेरी माँ को सांत्वना दे रहे थे, तो कुछ डरे हुए को और डरा रहे थे। यह मुझे याद नहीं, माँ ने बताया था। तब मुझे तो कोई फर्क नहीं पड़ा था लेकिन मेरे माँ-बाप पे क्या गुज़री होगी इस बात का एहसास ज़रूर मेरे बेटे ने मुझे बिना बताये स्कूल से गुठली मारकर करा दिया। 

मेरी तो उस दिन जैसे सांस ही अटक गयी थी। सुबह -सुबह जब प्रधान अध्यापिका जी का फोन आया कि स्कूल बस से तो स्कूल आया परंतु कक्षा में नहीं पहुंचा, यह सुनकर दो मिनिट के लिए मेरे होश उड़ गए। समझ ही नहीं आया कि ऐसा क्या हुआ होगा कि वह स्कूल बस से स्कूल पहुंचा मगर स्कूल के अंदर नहीं गया और यदि स्कूल नहीं गया तो फिर गया किधर और क्यों हम तो उसे मारते पीटते भी नहीं। फिर ऐसी कौन सी और क्या बात हो सकती है  जिस के कारण उसने ऐसा किया। उस एक फोन के बाद न जाने कितने अनगिनत विचार दिमाग में आए गए जीतने भी आए सब बुरे ख्याल ही आए। लेकिन उस दिन उसे ढूँढने की खातिर मैं न जाने कहाँ-कहाँ नहीं भटकी आस पास के हर क्षेत्र में खाने पीने की दुकानों से लेकर गेमिंग सेंटर तक सभी में अंदर जा जा देखा प्रधान अध्यापिका जी ने भी मेरे समय की तरह मेरे पतिदेव को पुलिस में बच्चों के गुम हो जाने की शिकायत लिखवाने के लिए भेज दिया था।  


लेकिन फिर जब मैं प्रधान अध्यापिका जी के पास पहुंची और उन्होने मुझसे एक और बच्चे का ज़िक्र किया। जो मेरे बेटे का सहपाठी होने के साथ-साथ उसका ख़ास दोस्त भी है, तब मुझे यह पता चला  कि यह दोनों ही एक साथ गायब है। ना उसके माता-पिता को इस बात की कोई भनक थी और न हमें पता था। जब कि वह बच्चा पहेले भी एक दो बार ऐसा कर चुका था और यह बात उसकी माता जी को ज्ञात भी थी परंतु न जाने क्यूँ उन्होने प्रधान अध्यापिका जी से यह बात छिपाई। लेकिन उस के बावजूद स्वाभाविक है उस दिन उस बच्चे के पिता जी भी उतना ही परेशान थे जितना कि मैं, वह तो अच्छा हुआ कि उन्होने उस कॅम्पस के सभी चौकीदारों को यह कह दिया था कि इस स्कूल के किसी भी बच्चे को बाहार ना जाने दें। दोनों एक साथ गायब थे। इस से यह बात साफ ज़हीर होती है कि यह सब पहले से तय था। 

वह तो अच्छा हुआ कि इन बच्चों के पास ज्यादा पैसे नहीं थे वरना न जाने कहाँ जाते और क्या करते। वैसे सोचो तो लगता है क्या करते ज्यादा से ज्यादा कोई फिल्म देखते और कुछ खाते पीते। या फिर किसी गेमिंग सेंटर में जाकर कोई खेल खेलते। इसे अतिरिक्त तो मुझे नहीं लगता कि कोई और ऐसा विषय है जिनमें इन बच्चों को अत्यधिक रुचि हो। लेकिन मन तो मन ही है। डर तो लगता ही है कि कहीं किसी गलत संगत में न पद जाये और कुछ उल्टा सीधा कदम न उठा लें। वैसे यह दोनों ही बच्चे स्वभाव के सीधे ही हैं इसलिए भी डर ज्यादा लगता है। 

खैर पूछे जाने पर यही बात सामने आयी की हमने स्कूल द्वारा दिया गया ग्रहकार्य पूरा नहीं किया और सजा से बचने हेतु यह कदम उठा लिया। लेकिन मैं जानती थी यह एक झूठ था क्यूंकि इतनी सी बात की इतनी बड़ी सजा है ही नहीं कि उसके के लिए स्कूल बँक करना पड़े। बात सिर्फ स्कूल से छुट्टी मारकर एक दिन बिना किसी अनुशासन के जीने की तमन्ना थी कि दोस्त के साथ पूरा दिन बिना किसी बन्दिशों के साथ रहना कैसा लगता है। मेरा दिल और दिमाग तो यही कहता है। सच क्या था यह तो इन बच्चों ने आज तक नहीं बताया। किन्तु और कोई वजह बहुत सोचने पर भी समझ नहीं आती। यह दोनों बच्चे अपने ही स्कूल के केम्पस की एक अन्य इमारत में से निकलते दिखे थे। जब इन्हें पकड़ कर प्रधानाध्यापिका जी के पास ले जाया गया था। वह तो गनीमत थी कि इन बच्चों को सही समय पर देख लिया गया। ताकि यह लोग इस तरह कि मस्ती के आदि होकर बार-बार यह गलती दौहराने न लगे। 

लेकिन इन बच्चों कि इस एक शरारत ने यह एहसास करा दिया कि हमारे माता-पिता ने हमें कैसे बड़ा किया। कुछ बातें तभी समझ में आती हैं जब वह हम से होकर गुजरती है।                   

Saturday 18 November 2017

प्रद्युम्न ह्त्या कांड (बच्चे तो आखिर बच्चे ही होते हैं)


बच्चे तो आखिर बच्चे ही होते हैं। कुछ भी हो एक इंसान होने के नाते और उस से भी बढ़कर एक माँ होने के नाते ऐसा सब कुछ देखकर दुख तो होता ही है। प्रद्युम्न हत्याकांड के विषय में तो आप सभी जानते ही होंगे। इस विषय से भला कौन अछूता है ? 8 सितंबर 2017 हरियाणा के एक स्कूल में 7 वर्ष के एक मासूम बच्चे (प्रद्युम्न) की स्कूल के शौचालय में बड़ी बेरहमी से गला रेत कर हत्या कर दी गयी थी। जिसका जिम्मेदार पहले बस का कंडक्टर बताया गया था। किन्तु पुलिस की इस कार्यवाही से असंतुष अभिभावकों की मांग पर यह केस सी.बी.आई को सौंप दिया गया और फिर सी.बी.आई द्वारा जांच बिठाये जाने पर उसी स्कूल के ग्यारवी कक्षा में पढ़ रहे एक छात्र को दोषी करार देते हुए पुलिस ने हिरासत में ले लिए है। रोज़ एक बड़ी खबर के रूप में ऐसा ही कुछ लिखा आता है कि प्रद्युम्न हत्या कांड में एक नया खुलासा ग्यारवी के छात्र ने अपना अपराध स्वीकार किया कि परीक्षा और पी.टी.एम (Parents teacher meeting) के डर से उसने स्कूल बंद करने हेतु यह सब किया प्रद्युम्न को मारना उसका उदेश्य नहीं था। उस दिन यदि प्रद्युम्न वहाँ न होता, तो कोई और होता। किन्तु उस दिन किसी न किसी छात्र का मरना तो तय था। 

यह कैसी मानसिकता है आज कल कि नयी पीढ़ी की प्रद्युम्न हत्या कांड अपने आप में बहुत से सवाल उठता है। लोग कहते है प्रतियोगिता का ज़माना है, आगे बढ़ना उतना ही ज़रूरी है जितना जीने के लिए सांस लेना। लेकिन कोई यह क्यूँ नहीं कहता कि प्रतियोगिता का दौर तो हमेशा से रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आज की पीढ़ी में इतना आक्रोश क्यूँ ? अपने लोगों में अर्थात अपने यार दोस्तों में अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए व्यक्ति किसी की जान ले लेने पर अमादा हो जाये। परीक्षाएँ पहले भी होती थी। प्रतियोगिता का दौर तभी था। बल्कि पहले तो बहुत ज्यादा था जब बच्चों के पास महज डॉक्टर, इंजीनियर, वकील बहुत हुआ तो सरकारी कर्मचारी बनाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण हुआ करता था। इस के अतिरिक्त तो कोई और विकल्प सोचा भी नहीं जा सकता था। परंतु आज तो ऐसा नहीं है। बल्कि आज तो सफलतापूर्वक जीवन जीने के इतने संसाधन हो गए है कि मेरे जैसे लोगों तो बहुत से विषयों के बारे में ठीक तरह से पूरी जानकारी भी नहीं है। फिर आज भी क्यूँ छात्रों/छात्राओं का जीवन अंकों में सिमटी ज़िंदगी की तरह हो गया है। अंक नहीं तो मानो जीवन नहीं, अंक न हुए मानो जल हो गया। जल ही जीवन है से बात पलट कर अंक ही जीवन है हो गयी है। 

हम भी उसी दौर से गुज़रे हैं दोस्तों में शान दिखाने की खातिर हमने भी कइयों बार बड़ी बड़ी डींगे हाँकी हैं अपने आपको विरला दिखाया है। कइयों बार उनके सामने झूठे भी साबित हुए हैं। लेकिन इस सब का असर कभी ऐसा नहीं पड़ा कि दोस्त क्या कहेंगे क्या सोचेंगे को सोच सोचकर हम अपने आप को सही सिद्ध करने के लिए अपराध की राह पर चल पड़े हों। बल्कि हम तो उल्टा ही सोचते थे चार दिन बोलेंगे लोग फिर सब सामान्य हो जाएगा दोस्त नहीं चिढ़ाएंगे तो फिर कौन चिढ़ाएगा। फिर आजकल की पीढ़ी अपने आप को हर पल इतना कमजोर और असुरक्षित क्यूँ महसूस करती है ? 

क्या सचमुच आज भी पढ़ाई का इतना दबाव महसूस करते हैं बच्चे ? या एकल परिवार के इकलौते बच्चे होने के कारण आसानी से बिगड़ जाते हैं बच्चे है ? जिसके चलते उन्हें हर पल यह लगता है कि सारी दुनिया उनके बाप की जागीर है और वह जैसा चाहेंगे वैसा करेंगे और कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। और जब कभी कोई उनके खिलाफ जाकर उन्हें आईना दिखाने की कोशिश करता है तो वही उनका सबसे बड़ा दुश्मन बन जाता है और उसकी मृत्यु ही उनका एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। बड़े बाप के बच्चों का ऐसा रवैया जब तक देखने सुनने को मिल जया करता है। जैसे किसी मंत्री या या बड़े और ऊंचे पद वाले किसी व्यक्ति की संतान दूसरों को अपने पाँव की जुती समझती है। किन्तु हम मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चों में ऐसी ठसक कम ही देखने को मिलती है। फिर क्या वजह हो सकती है इस तरह के अपराधों के पीछे? मानसिक रोग के आगे कहीं न कहीं पढ़ाई में अच्छे अंक लाने का पारिवारिक दबाव, अकेलापन, जीवन के प्रति नीरसता, उदासीनता पैदा करता है जो बड़ी ही सहजता से किसी को भी अवसाद में डाल देता है विशेष रूप से महानगरों में तो यह बहुत ही आम बात है। 

खैर बात हो रही है प्रद्युम्न की उसके हत्यारे ने कहा की मुझे कुछ समझ नहीं आया मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा गया और मैंने बस उसे मार दिया। उस दिन यदि वह वहाँ ना होता तो कोई और होता मुझे तो स्कूल बंद करने के लिए ऐसा कुछ बड़ा कांड करना था जिस से महीने दो महीने के लिए स्कूल बंद हो जाये और परीक्षा रद्द हो जाये। हत्यारे के बयान से लगता है कि पढ़ाई में कमजोर होने की वजह से वह स्कूल बंद करवा देना चाहता था। ऐसे ही उसके कुछ सहपाठी भी परीक्षा से बचना चाहते है। जिन्हें अपनी ठसक दिखने के लिए हत्यारे ने जोश-जोश में कह दिया था तुम सब चिंता न करो कुछ ही दिनों में स्कूल बंद हो जाएगा। 

अपनी बात को सच साबित करने के लिए अपराधी ने इतना सब सोच लिया और वारदात को बिना किसी डर के अंजाम भी दे दिया। उसके बाद भी चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आई ऐसा कैसे हो सकता है मैं तो यही सोच-सोचकर हैरान हूँ। ग्यारवीं कक्षा का छात्र इतना भी बड़ा नहीं होता कि किसी मंजे हुए अपराधी की तरह वारदात को अंजाम देने के बाद शांति से रह सके। और यह अपराधी तो दो महीनो तक शांत बैठा रहा। कैसे ? उसके अंतर मन और उसकी आत्मा ने उसे कैसे नहीं झँझोड़ा। पता नहीं इस घटना के विषय में मिल रही जानकारी में कितना सच और कितना झूठ छिपा है लेकिन कुछ तो ऐसा है जो नहीं होना चाहिए जो बार सोचने पर विवश करता है कि ऐसी क्या वजह हो सकती है। परीक्षा के पूर्व परिणामों को देखते हुए तो उस अपराधी के माता-पिता को भी उसके परिणाम के विषय में आभास होगा ही फिर पी.टी.एम से ऐसा क्या डर था जिसके कारण वह स्कूल बंद करवा देना चाहता था। 

जब एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोले जाते हैं तब व्यक्ति कब धीरे से अपराधी बन जाता है यह स्वयं उस व्यक्ति को भी समझ नहीं आता। शायद इस बच्चे के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा और सजा मिली मासूम प्रद्युम्न को, आज बाल दिवस है और मुझे न जाने क्यूँ प्रद्युम्न और और उस अपराधी बालक की बदनसीब माओं का रह-रहकर ख्याल आ रहा है कि आज उन्हें कैसा लग रहा होगा दोनों ही आज अपने जीवन से खुद को हताश और निराश महसूस कर रही होंगी उनका जीवन अब न जाने कैसे कटेगा जिस तरह हर माँ के लिए बचे तो बच्चे ही होते हैं वैसे ही हर माँ के लिए एक अन्य बच्चे की माँ भी, माँ ही होती हैं। जाने वाला तो चला गया। लेकिन इस ग्यारवीं कक्षा के छात्र का जीवन हमेशा के लिए तबाह हो गया। जाने उसे इस बात का एहसास भी है या नहीं। पता नहीं अपराधी कौन है लेकिन एक अपराध ने तीन परिवारों की ज़िंदगी हमेशा के लिए बिगाड़ दी (प्रद्युम्न का परिवार)(उस ग्यारवीं कक्षा के छात्र का परिवार जिसने हत्या की) साथ-साथ उस (बस कंडेक्टर का परिवार जिसे हरियाणा पुलिस ने गिरफ्तार कर जुल्म कुबूल करवाया था। अब उस गरीब को कहीं काम नहीं मिलेगा क्यूंकि उस पर कोई विश्वास नहीं करेगा। भले ही वह बाइज्ज़त बरी क्यूँ न हो जाए। 

ईश्वर प्रद्युम्न के माता-पिता को यह दुख सहने की शक्ति प्रदान करे।