यूँ देखा जाये तो परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। समय के साथ हर चीज़ में परिवर्तन आ जाता है । फिर चाहे वह कोई इंसान हो या अनुशासन बदलाव तो आखिर बदलाव ही है। अपने जमाने की बात सोचो तो लगता है, हम तो बहुत कठोर अनुशासन में पले बढ़े लोग हैं। फिर चाहे वह स्कूल का मामला हो या घर का कोई भी ऐसा कदम जो सार्वजनिक रूप से अनुचित माना जाता है, उसे उठाने से पहले हम सो बार सोचते होंगे कि हम जो करने जा रहे हैं वह कितना सही है और कितना गलत। उसके बाद यदि पकड़े गए तो अंजाम क्या होगा। किन्तु आज की पीढ़ी को देखते हुए लगता है कि वह हमारी तुलना में काफी निडर है। उन्हें जैसे अंजाम का कोई डर ही नहीं होता कि यदि पकड़े गए तो क्या होगा।
यूँ देखा जाए तो अब स्कूलों में भी अनुशासन उतना सख्त नहीं रहा, जितना अपने समय हुआ करता था नहीं ? यहाँ तक कि मैंने एक लड़की होने के पश्चयात अपने अध्यापकों से चपत से लेकर डस्टर, स्केल, आदि सभी चीजों से मार खाई है लड़कों कि तो बात ही क्या और एक आज का ज़माना है आज के बच्चे अपने अध्यापकों से ज़रा नहीं डरते। आज के ज़माने में कोई एक आद अध्यापक या अध्यापिका जी ही ऐसे होते होंगे जिनसे बच्चे डरते हों। एक हमारा ज़माना था, हमें तो एक आद को छोड़कर सभी से बहुत डर लगा करता था।
लेकिन जब बात बच्चों की परवरिश की हो तो, अनुशासन की परिभाषा अनुभवों के आधार पर गडमड हो ही जाती है और हम असमंजस में उलझ कर रह जाते हैं कि अनुशासन में रखकर जो हमारे माता पिता ने हमारे साथ किया वह सही था या आज हम जो अपने बच्चों के साथ कर रहे हैं वह सही है। क्योंकि जब हम एक अभिभावक बनकर सोचते हैं तो तुलना अपने बचपन से ही करते हैं। लेकिन निर्णय आज के समय अनुसार लेना पड़ता है। फिर साथ ही साथ रह रहकर मन में यह विचार भी आता है कि क्या हमारी गलतियों पर हमारे माता-पिता भी इतनी ही जल्दी उत्तेजित हो जाया करते थे, जितना आज के समय में हम हो जाते हैं। या यह सोचकर कि बच्चे हैं बच्चे तो गलती करेंगे ही, नहीं तो सीखेंगे कैसे ऐसा सोचकर कई गलतियों पर ध्यान भी नहीं देते थे। नहीं ? दूसरी और एक हम हैं जो बच्चों की ज़रा-ज़रा सी गलतियों पर इतने चिंतित हो जाते हैं कि लगता है हर विषय पर उनसे बात करो बात -बात पर उन्हें सही गलत समझाओ।
लेकिन जब बात स्कूल कि हो तो लगता है एक बार स्कूल प्रवेश कर लेने के बाद बच्चे की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी स्कूल की होती है कि बच्चे क्या कर रहे, कहाँ जा रहे है वग़ैरा-वगैरा। अब स्कूल से गुठली मारने की बात को ही लो। एक समय होता है जब सभी ऐसा करते हैं, आपने भी क्या होगा शायद ! नहीं ? तब हमारे मन में एक ही डर आता था कि बेटा पकडे गए तो लंका लग जाएगी। माता-पिता मार मारकर भुस भर देंगे। फिर चाहे वह मारे या न मारे मगर डर तो यही लगता था। एक बार की बात है मैंने गुठली तो नहीं मारी थी किन्तु दूसरी कक्षा में मैं स्कूल समाप्त होने के बाद अपनी सहेली के साथ उसके घर चली गयी थी। इतनी छोटी होने के बावजूद मुझे वह दिन आज भी याद है। मेरे घर लौटने के पाँच मिनिट पहले पापा पुलिस स्टेशन ही जा रहे थे। मेरे गुम होने की शिकायत लिखवाने। उस दिन सारा महोल्ला मेरे घर एकत्रित था। कुछ लोग मेरी माँ को सांत्वना दे रहे थे, तो कुछ डरे हुए को और डरा रहे थे। यह मुझे याद नहीं, माँ ने बताया था। तब मुझे तो कोई फर्क नहीं पड़ा था लेकिन मेरे माँ-बाप पे क्या गुज़री होगी इस बात का एहसास ज़रूर मेरे बेटे ने मुझे बिना बताये स्कूल से गुठली मारकर करा दिया।
मेरी तो उस दिन जैसे सांस ही अटक गयी थी। सुबह -सुबह जब प्रधान अध्यापिका जी का फोन आया कि स्कूल बस से तो स्कूल आया परंतु कक्षा में नहीं पहुंचा, यह सुनकर दो मिनिट के लिए मेरे होश उड़ गए। समझ ही नहीं आया कि ऐसा क्या हुआ होगा कि वह स्कूल बस से स्कूल पहुंचा मगर स्कूल के अंदर नहीं गया और यदि स्कूल नहीं गया तो फिर गया किधर और क्यों हम तो उसे मारते पीटते भी नहीं। फिर ऐसी कौन सी और क्या बात हो सकती है जिस के कारण उसने ऐसा किया। उस एक फोन के बाद न जाने कितने अनगिनत विचार दिमाग में आए गए जीतने भी आए सब बुरे ख्याल ही आए। लेकिन उस दिन उसे ढूँढने की खातिर मैं न जाने कहाँ-कहाँ नहीं भटकी आस पास के हर क्षेत्र में खाने पीने की दुकानों से लेकर गेमिंग सेंटर तक सभी में अंदर जा जा देखा प्रधान अध्यापिका जी ने भी मेरे समय की तरह मेरे पतिदेव को पुलिस में बच्चों के गुम हो जाने की शिकायत लिखवाने के लिए भेज दिया था।
लेकिन फिर जब मैं प्रधान अध्यापिका जी के पास पहुंची और उन्होने मुझसे एक और बच्चे का ज़िक्र किया। जो मेरे बेटे का सहपाठी होने के साथ-साथ उसका ख़ास दोस्त भी है, तब मुझे यह पता चला कि यह दोनों ही एक साथ गायब है। ना उसके माता-पिता को इस बात की कोई भनक थी और न हमें पता था। जब कि वह बच्चा पहेले भी एक दो बार ऐसा कर चुका था और यह बात उसकी माता जी को ज्ञात भी थी परंतु न जाने क्यूँ उन्होने प्रधान अध्यापिका जी से यह बात छिपाई। लेकिन उस के बावजूद स्वाभाविक है उस दिन उस बच्चे के पिता जी भी उतना ही परेशान थे जितना कि मैं, वह तो अच्छा हुआ कि उन्होने उस कॅम्पस के सभी चौकीदारों को यह कह दिया था कि इस स्कूल के किसी भी बच्चे को बाहार ना जाने दें। दोनों एक साथ गायब थे। इस से यह बात साफ ज़हीर होती है कि यह सब पहले से तय था।
वह तो अच्छा हुआ कि इन बच्चों के पास ज्यादा पैसे नहीं थे वरना न जाने कहाँ जाते और क्या करते। वैसे सोचो तो लगता है क्या करते ज्यादा से ज्यादा कोई फिल्म देखते और कुछ खाते पीते। या फिर किसी गेमिंग सेंटर में जाकर कोई खेल खेलते। इसे अतिरिक्त तो मुझे नहीं लगता कि कोई और ऐसा विषय है जिनमें इन बच्चों को अत्यधिक रुचि हो। लेकिन मन तो मन ही है। डर तो लगता ही है कि कहीं किसी गलत संगत में न पद जाये और कुछ उल्टा सीधा कदम न उठा लें। वैसे यह दोनों ही बच्चे स्वभाव के सीधे ही हैं इसलिए भी डर ज्यादा लगता है।
खैर पूछे जाने पर यही बात सामने आयी की हमने स्कूल द्वारा दिया गया ग्रहकार्य पूरा नहीं किया और सजा से बचने हेतु यह कदम उठा लिया। लेकिन मैं जानती थी यह एक झूठ था क्यूंकि इतनी सी बात की इतनी बड़ी सजा है ही नहीं कि उसके के लिए स्कूल बँक करना पड़े। बात सिर्फ स्कूल से छुट्टी मारकर एक दिन बिना किसी अनुशासन के जीने की तमन्ना थी कि दोस्त के साथ पूरा दिन बिना किसी बन्दिशों के साथ रहना कैसा लगता है। मेरा दिल और दिमाग तो यही कहता है। सच क्या था यह तो इन बच्चों ने आज तक नहीं बताया। किन्तु और कोई वजह बहुत सोचने पर भी समझ नहीं आती। यह दोनों बच्चे अपने ही स्कूल के केम्पस की एक अन्य इमारत में से निकलते दिखे थे। जब इन्हें पकड़ कर प्रधानाध्यापिका जी के पास ले जाया गया था। वह तो गनीमत थी कि इन बच्चों को सही समय पर देख लिया गया। ताकि यह लोग इस तरह कि मस्ती के आदि होकर बार-बार यह गलती दौहराने न लगे।
लेकिन इन बच्चों कि इस एक शरारत ने यह एहसास करा दिया कि हमारे माता-पिता ने हमें कैसे बड़ा किया। कुछ बातें तभी समझ में आती हैं जब वह हम से होकर गुजरती है।