Monday 25 June 2012

अपेक्षा (Expectation)



Expectation                                          

Expectation अर्थात अपेक्षा नाम में ही बहुत वज़न है सुनकर ही किसी बड़ी सी चीज़ की आकृति उभरती है आँखों में, है न !!!! वैसे मुझे ऐसा लगता है कि यह एक प्रकार का कीड़ा है जो चाहे अनचाहे हर इंसान को काटता ही रहता है। हालांकी यह कुछ इस प्रकार की बात है, जैसे एक बीमारी के कई सारे लक्षण होते है। वैसे ही यह अपेक्षा नाम के कीड़े के काटने पर इस से होने वाली बीमारी का असर हर बार अलग-अलग व्यक्ति के साथ अलग-अलग देखने को मिलता है। जैसे बच्चों की माता-पिता से, माता -पिता की बच्चों से, अपने-अपने स्तर पर अलग-अलग अपेक्षाएँ होती है, विद्यार्थी की शिक्षक से, शिक्षक की विद्यार्थियों से भी एक अलग तरह की अपेक्षा होती है। ऐसे ही समाज में हर व्यक्ति की हर किसी दूसरे व्यक्ति से एक अलग प्रकार की अपेक्षा रहा करती है। कभी स्वाभाविक तौर पर, तो कभी जाने अंजाने भी यह कीड़ा काट लेता है। कभी-कभी सोचती हूँ तो लगता है वाकई इस संसार में यदि यह अपेक्षा नाम का कीड़ा न होता तो शायद इस संसार में सभी बहुत सुखी होते नहीं ? 


अक्सर आप लोगों ने भी खुद कई बार देखा होगा और हो सकता है महसूस भी किया होगा कि जब कभी हमको यह कीड़ा काटता है जिसके चलते हम सामने वाले से कोई अपेक्षा रखने लगते है और जब वो अपेक्षा पूरी नहीं होती तो मन बहुत दुःखी हो जाता है। इस तरह हम से भी जब कोई अपेक्षा रखता है और हम भी उसे किसी कारण पूरा नहीं कर पाते तो, हमको भी बुरा लगता है और उसको भी जिसने अपेक्षा रखी। कई बार यूँ भी होता है कि अपेक्षा रखने वाला तो हमेशा हर बात में अपेक्षा रखता है मगर जिससे वो अपेक्षा रख रहा होता है, उस दूसरे इंसान को यह खबर तक नहीं होती कि मुझ से किसी को उससे कोई अपेक्षा हो भी सकती है। हालाँकि अपेक्षा का होना, विषय और परस्थिति पर निर्भर करता है। मगर फिर किसी भी कारणवश यदि कोई किसी की अपेक्षा पूरी नहीं कर पाता या किसी की अपेक्षा पूरी नहीं हो पाती तब इंसान से चाहे अनचाहे किसी न किसी दूसरे व्यक्ति की भावनायें आहत हो ही जाती है।

वैसे तो यह एक प्रकार का मनोभाव है इसके बिना भी जीवन अधूरा सा ही है, क्यूंकि कई बार जीवन में कुछ बड़ा कर देखने या सफलता हांसिल करने के पीछे भी अपने आप से जुड़ी किसी अपने की अपेक्षा का बहुत बड़ा हाथ होता है। जो हमे जीवन में आगे बढ़ने के लिए बहुत प्रोत्साहित करता है। मगर कभी इस सोच के विपरीत जाकर सोचो तो ऐसा लगता है कि अगर यह भावना नहीं होती तो कोई किसी कि भावनाओं को आहत नहीं पहुँच सकता था। तो शायद सभी सुखी होते क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि किसी भी इंसान को जितना दर्द एक चाँटे से होता है उसे कहीं ज्यादा दर्द उसको उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचने के कारण से होता है। बहुत ही अजीब तरह की या यूँ कहिए कि एक अलग क़िस्म की फ़ितरत है यह इंसान की, जिसमें अधिकतर सामने वाला यह चाहता है कि जिस दूसरे इंसान से उसे अपेक्षा है, वह इंसान बिना कहे ही उसकी बात समझ जाये और बस बिना बोले, बिना कुछ कहे, वो उसकी सारी अपेक्षाओं को पूरा करता चला जाये, मगर हर बार ऐसा कहाँ हो पाता है। कभी-कभी किसी विषम परस्थिति में अपेक्षाओं को समझना आसान भी होता है, तो कभी बहुत मुश्किल भी और ऐसे हालातों में जब किसी की अपेक्षाएं टूटती हैतो ऐसा लगता है, अब तो सब खत्म, अब कुछ बचा ही नहीं।  

वैसे तो यहाँ में इस विषय पर कोई महिला या पुरुष की बात करना नहीं चाहती इसलिए मैंने शुरू में ही इंसान शब्द का प्रयोग किया मगर अपने ब्लॉग परिवार में ज्यादातर काव्य रचना पढ़ने पर, मुझे ऐसा महसूस हुआ कि महिलाओं को पुरुषों से बहुत ज्यादा अपेक्षा होती है जो उनकी लिखी रचनाओं में साफ दिखाई देती है। यहाँ तक की मेरी खुद की रचनाओं में भी आपको ऐसा ही नज़र आयेगा। मगर इसका मतलब यह नहीं कि पुरुषों में अपेक्षाएँ कम होती है। उनमें भी बहुत होती है। मगर बहुत हद तक वह बोल दिया करते हैं, कि उनकी अपेक्षा क्या है अर्थात मन में बहुत कम रखते हैं। मगर महिलायें बोलती नहीं, सिर्फ चाहती है कि उनकी अपेक्षाओं को बिना बोले समझने वाला ही सच्चा जीवनसाथी या दोस्तमित्र जो भी कह लीजिये इंटोटल वही होता है, जो बिना बोले उनकी भावनाओं को समझ जाये। जो नहीं समझ सकता, वो किसी भी तरह के प्यार के क़ाबिल ही नहीं, मैंने कहीं पढ़ा था किसी लेखिका ने लिखा था प्यार करना लड़कों को बहुत अच्छे से आता है, इसलिए वो बार-बार प्यार करते है। मगर प्यार निभाना केवल एक लड़की को आता है इसलिए वो प्यार एक ही बार करती है।

लेकिन क्या प्यार से ही निभ जाती है ज़िंदगी प्यार भी तो एक तरह की अपेक्षा बन गया है आज के युग में “एक हाथ दे तो दूजे हाथ ले” जबकि प्यार तो मन की वो भावना है जिसमें अपेक्षा के लिए तो कोई स्थान ही नहीं है। मगर आज कल के बदलते परिवेश ने शायद हर चीज़ के मायने बदल दिये है यहाँ तक के भावनाओं के भी... 

खैर हम तो बात कर रहे थे अपेक्षा की तो ऐसा क्यूँ होता है, क्यूँ हम हमेशा अपने से जुड़े लोगों से और लोग हम से इतनी अपेक्षा रखते है। कभी छोटी तो कभी बहुत बड़ी अपेक्षाएँ क्या बिना किसी से कोई अपेक्षा रखे जीवन जिया नहीं जा सकता मैं खुद कई बार कई परिस्थितियों में यह सोचती हूँ कि मेरी ही गलती थी मुझे ही कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए थी। क्यूँ अपेक्षा रखी मैंने सामने वाले व्यक्ति से, कि वो मेरी भावनाओं को समझेगा आज नहीं तो कल तो ज़रूर समझेगा। मगर हर बार वो समझता ही नहीं कि मैं क्या चाहती हूँ। क्यूँ मौक़ा दिया मैंने उसे अपनी भावनाओं को ठेस पहुंचाने का, अपनी भावनाओं से खेलने का, इसे तो अच्छा था कि मैंने कोई अपेक्षा की ही ना होती। तो इतना दर्द तो नहीं होता कम से कम "न रहता बाँस न बजती बाँसुरी" मगर यह मन जो है यह मानता ही नहीं है। ना चाहते हुए भी कभी-कभी यह अपेक्षा का कीड़ा काट ही जाता है मुझे और शायद हर इंसान को भी, मगर इस बेमुरौवत मन को कौन समझाये और पता है, इसे भी ज्यादा अफ़सोस तो तब होता है मुझे, जब रोज़मर्रा की छोटी-छोटी चीजों को लेकर मन एक आस एक उम्मीद लगा बैठता है, वो उम्मीद जिसके विषय में खुद पता है कि पूरी नहीं होगी या हो भी गयी तो उसके पूरा हो जाने से कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं, बस “दिल बहलाने के लिए गालिब ख़्याल अच्छा है” जैसी बात है कि चलो इतना तो समझा है सामने वाला हमें और क्या चाहिए।


ठीक इसी तरह जब हमसे अपेक्षाएँ रखी जाती है तो कभी हम उनको पूरा करने की जी तोड़ कोशिश करते है, तो कभी हमें पता ही नहीं होता। तो कभी-कभी अपने-अपनों कि हम से जुड़ी अपेक्षों को पूरा करते–करते हमारी पूरी ज़िंदगी गुज़र जाती है। खास कर एक लड़की की ज़िंदगी तो अपनों की अपेक्षाओं को पूरा करते-करते ही गुजरती है। मगर कभी तारीफ के दो बोल सुनने को नहीं मिलते। तब ऐसा लगने लगता है, कि गला काट कर भी रख दो, तो भी सामने वाले के मुंह से यह कभी सुनने को नहीं मिलेगा कि हाँ बहुत अच्छा किया। उसमें भी नुक्स निकाल दिये जाएँगे यह ऐसा है तो अच्छा है। मगर यदि वैसा होता तो और भी ज्यादा अच्छा होता। हर इंसान की सबसे बड़ी अपेक्षा क्या होती है। सिर्फ यही कि लोग उसे करीब से समझे कि वो क्या है, कैसा है। खास कर वो इंसान जिसे आप अपना सबसे करीबी मानते हो। फिर वो इंसान किसी कि भी ज़िंदगी में कोई भी हो सकता है माँ, बहन भाई, दोस्त सहेली जीवनसाथी कोई भी, फिर चाहे वो महिला हो या पुरुष मगर अफसोस की लोग खुद को ही पूरी तरह नहीं समझ पाते तो दूसरों क्या समझेंगे। 

अन्तः बस यही कहूँगी कि खुश नसीब है वो "जिनको है मिली यह बहार ज़िंदगी में" क्योंकि हर किसी को नहीं मिलता यहाँ प्यार ज़िंदगी में अर्थात जिनको ऐसा कोई ,रिश्तेदार, दोस्त या जीवनसाथी मिला जो उनको पूरी तरह समझ सके। वो बहुत खुशनसीब है।  
आप सभी को क्या लगता है, है कोई इलाज इस कीड़े का? कि इसके काटने पर भी इसके जहर का असर हम पर ना हो या हो भी तो बहुत कम ....                         


Monday 18 June 2012

करे कोई भरे कोई ...


आज कुछ भी शुरू करने से पहले ही बता दूँ, इस पोस्ट को पढ़ने के बाद हो सकता है मेरी कुछ महिला ब्लॉगर दोस्तों को बुरा लगे मगर जो मुझे लगा जो मैंने महसूस किया वही मैंने लिखा। कमाल की बात है ना, आज के  ज़माने में भी कुछ मामलों में हमारी मानसिकता ज़रा भी नहीं बदली या हम यूं कहें कि बदलती तो है मगर समय और परिस्थिति के अनुसार, अब जैसे मान लीजिये भरी सड़क पर यदि कभी कोई लड़की किसी लड़के को छेड़ दे और बाद में दुनिया को दिखाने के लिए उसी लड़के को यह कहते हुये थप्पड़ मार दे, कि उसने उसे छेड़ा कैसे तो भीड़ बने लोग भेड़चाल की तरह चलते हुए आएंगे और बिना आव ताव देखे उस लड़के को पीट डालेंगे क्यूँ? क्यूंकि आज भी लोग यह मानना ही नहीं चाहते कि कोई महिला या स्त्री भी ऐसा कुछ कर सकती है। गलती हर हाल में लड़के की ही मानी जाएगी और उसे दोषी करार देते हुए भीड़ वाली अदालत वहीं अपना फैसला सुनाते हुए उसे पीट-पीट कर सजा के रूप में अधमरा कर डालेगी या फिर सजा के रूप में अन्य गुंडों टाइप लोगों के हाथों उस लड़के को पिटवाकर कर सुजा देने का हुकुम सुना दिया जाएगा। ताकि वो दुबारा ऐसी कोई हरकत न करे या उस इलाके में भी नज़र ना आये।

वजह ! चंद लोगों के सामने खुद को बहादुर और एक औरत को बड़े आदर से देखते हैं हम का दिखावा जो करना होता है ऐसी भीड़ को, यहाँ तक कि एक बार भी लड़के से कोई यह तक नहीं पूछेगा कि तूने सच में ऐसा किया भी या नहीं और मान लीजिये किसी ने गलती से पूछ भी लिया तो लड़के की बात पर कोई विश्वास नहीं करता। कम से कम उस वक्त तो ज़रा भी नहीं बाद में भले ही कुछ हो...कमाल है न ऐसी ही बातों से संबन्धित जब भी कभी कोई किस्सा पढ़ने में या सुनने में आता है तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि ऐसे मामलों में लोग हमेशा यह क्यूँ समझते कि लड़का ही गलत होगा उसने ही पहल की होगी तभी लड़की ने उसे चांटा मारा,या फिर लड़के ही लड़कियों को हमेशा से डरते धमकाते आए हैं तो सभी लड़के एक जैसे ही होते है। जबकि आए दिन समाचार पत्रों में लड़कियों के द्वारा अपनी ही सहली या सहपाठी के गंदे MMS तक बनाने की खबरें पढ़ी है मैंने, जो काम कल तक सिर्फ लड़के किया करते थे या यह कहना शायद ज्यादा ठीक होगा कि जिस काम के लिए आज तक केवल लड़के बदनाम थे आज लड़कियां भी वही काम कर रही है, कर सकती है और करती भी हैं।

यहाँ मैं जानती हूँ बहुत लोग मुझसे सहमत नहीं होंगे, सभी यही कहेंगे कि जो मैंने लिखा वास्तव में होता उसका उल्टा है, मगर यहाँ मैं कहूँगी कि मैं मानती हूँ 90 % मामलों में ऐसी हरकतों के लिए लड़के ही जिम्मेदार होते है मगर उन 10% का क्या जो बेचारे बेगुनाह होते है इसका मतलब यह तो नहीं कि हम उन 10 प्रतिशत लड़कों को भूल ही जायें क्यूंकि कभी-कभी वो भी सच होता है जो मैंने लिखा है लेकिन फिर भी अबला समझी जाने के कारण समाज की भरपूर सहानभूति उन्हें मिलती है और बेचारे बेगुनाह लड़को को सजा आखिर यह बात कहाँ तक उचित है कि हमेशा लड़कों को ही गलत करार देकर सजा सुनाई जाये बहुत नाइंसाफ़ी है :-)

कल की ही बात है मेरे शहर भोपाल में मेरे घर के पास एक दवाई की दुकान है जिसे एक पिता पुत्र  मिलकर चलाते थे ,उन अंकल से अर्थात दुकान के मालिक की मेरे पापा के साथ बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी थी। कल अचानक पता चला कि उनके 22 साल के लड़के ने आत्महत्या कर ली। जानकार बेहद अफसोस हुआ। इस सारे मामले के पीछे की जो कहानी मेरे पापा को उन्होंने जो सुनाई और मेरे पापा ने जो मुझे बताया वही आपके सामने रख रही हूँ।

हुआ यूं कि उनका बेटा न जाने कैसे एक-के बाद एक कुछ स्त्रियों के चक्कर में फंस गया उसकी ज़िंदगी में आने वाली तीनों लड़कियों में से दो ने उसे प्यार में धोखा दिया तीसरी बार एक महिला जो खुद 2 बच्चों की माँ थी उसने उसके साथ सहानभूति रखते हुए संबंध बनाए और एक दिन हद पार हो जाने के बाद उसका वीडियो बना कर उस लड़के को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। बदले में मांगी 5 लाख रुपये की धनराशि, एक दिन पुत्र ने पिता के पास आकर कहा पापा मुझे 5 लाख रूपय चाहिए पिता ने कहा 5 क्या तुम 7 लाख ले लेना, मगर पहले कारण तो बताओ कि आखिर तुमको इतने पैसे क्यूँ चाहिए। तब उसने अपने पापा को सारी सच्चाई बताई अब इतने सारे पैसे आज की तारीख में कोई घर में तो रखता नहीं है सो पिता ने कहा ठीक है मुझे दो-तीन दिन का वक्त दो मैं कुछ इंतजाम करता हूँ और मन ही मन  उन्होंने सोचा इस बहाने एक दो दिन सोचने का भी समय मिल जायेगा कि इस मामले में और क्या किया जा सकता है, मगर हाय रे यह आजकल की नासबरी जनरेशन उसने उस औरत और उसके पति के दवारा दी हुई धमकियों के डर से अगले दिन ही आत्महत्या कर ली, उन अंकल के एक बेटी भी है जिसकी शादी हो चुकी है कल तक बेटा भी था जो अब नहीं रहा। ऐसे में वो बहुत टूट गए हैं उनका कहना है अब मैं कमाऊँ तो किसके लिए अब कमाई की न तो बहुत जरूरत है न कोई अरमान, ऊपर से उनकी दुकान पर आने वाले लोग उनसे मुंह छुपाकर किन्तु उन्हीं के सामने उनके बेटे के लिए अभद्र बातें करते है जिसके चलते अंकल से सहा नहीं जाता और वो दुकान बंद करके कहीं एकांत में जाकर बहुत रोते हैं।

अब आप ही कहिए इसमें उस लड़के की क्या गलती थी, मैं यह नहीं कहती वो पूरी तरह ही सही था मगर गलत भी तो नहीं था। यही किस्सा किसी लड़की के साथ हुआ होता तो महिला मुक्ति मोर्चा टाइप सोच रखने वाले सभी लोग बढ़-चढ़ कर बोलते, लिखते। यही नहीं यहाँ तक कि उस लड़की को इंसाफ दिलाने के लिए न जाने क्या-क्या करते मगर आज यह किस्सा एक लड़के के साथ हुआ है मात्र 22 साल के लड़के साथ, तब भी उसके साथ किसी को कोई सहानभूति नहीं है उल्टा लोग उसकी दुकान पर जाकर उसी के पिता के सामने उन्हें ही शर्मिंदा कर रहे हैं, ऐसे में अफसोस भी बहुत होता है और मुझे तो शर्म भी बहुत आती है आखिर कहाँ जा रहे हैं हम, वैसे बड़े आधुनिक समाज और खुली मानसिकता की बातें करते नहीं थकते और जब बात आती है किसी के साथ इंसाफ की, तो उस वक्त तो जैसे अचानक ही सबकी मानसिकता जड़ हो जाती है बिलकुल पत्थर पर खींची हुई लकीर की तरह...क्यूंकि कोई उस महिला के प्रति अपना आक्रोश ज़ाहिर नहीं करता।  क्यूँ ? लोग चोरी छुपे लड़के के चरित्र पर ही उंगली उठाते है, सिर्फ इसलिए कि वो लड़का है और ऐसे मामलों में लड़कों का नाम बदनाम है। हालांकी ऐसा भी नहीं है कि यदि इस लड़के की जगह कोई लड़की होती तो लोग बातें नहीं करते। ज़रूर करते तब तो इतनी करते कि शायद उसके पिता को भी आत्महत्या करनी पड़ जाती। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि सभी लड़के एक से होते हैं आखिर यह कहाँ तक उचित है कि सिर्फ इसी वजह से हम लड़कों को नज़र अंदाज़ करते हुए हमेशा महिलाओं से ही सहानुभूति जताएँ।

मुझे तो ऐसा लगता है कि इस मामले को नज़र अंदाज़ न करते हुए उस औरत और उसके पति के खिलाफ सख्त-से सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए और उस महिला और उसके पति को कड़ी से कड़ी सज़ा भी होनी चाहिए। इस विषय में आप सब की क्या राय है ...? क्या आप मेरी बातों से सहमत हैं ?            

Monday 11 June 2012

विवाहित होते हुए भी अविवाहित दिखने की होड़



विवाहित होते हुए भी अविवाहित दिखने की होड़
पिछले पाँच सालों में मुझे यह विवाहित होते हुए भी खुद को अविवाहित दिखाने की होड़ यहाँ मतलब UK में कुछ ज्यादा ही देखने को मिली। यहाँ भारतीय हिन्दू महिलायें किसी भी तरह के सुहाग चिन्ह का कोई प्रयोग नहीं करती जैसे न बिंदी, न सिंदूर, ना पाँव में बिछियेन हाथों में चूड़ियाँ और ना ही गले में मंगलसूत्र। जब मैं शुरू-शुरू में यहाँ आयी थी। तब मुझे लगा कि शायद "जैसा देश वैसा भेष" वाली कहावत को सच मानते हुये लोग ऐसा करते होंगे। ताकि वह भीड़ में अलग न दिखेँ। जबकि मेरा तो ऐसा मानना है, कि भीड़ में अलग दिखना ज्यादा दमदार बात है। खैर इस विषय को लेकर सब की अपनी-अपनी सोच और अपने-अपने विचार है। वैसे देखा जाये तो अब भारत में ही लोग इस आधुनिकता की अंधी दौड़ में अंधे बन भेड़चाल की भांति भागे चले जा रहे है। जिसके चलते अब वहाँ भी कोई सुहाग चिन्हों का प्रयोग पूरी तरह नहीं करता। तो फिर यहाँ की तो बात ही क्या, यह तो है ही परदेस।  

बात यहाँ देश या विदेश की नहीं है बात है मान्यता की मगर पता नहीं लोग अपने आप को विवाहित होते हुए भी अविवाहित क्यूँ दिखाना चाहते है। इसके पीछे मुझे तो एक ही कारण समझ आया। पहला यह कि यदि मैं यहाँ की बात करुँ तो लोग भीड़ से अलग दिखना नहीं चाहते। उसके भी दो कारण है एक यह हो सकता है कि भारतीय लोगों को पहले ही अँग्रेज़ एक अलग ढंग से देखते सुनते है। दूसरा कारण पहनावा भी हो सकता है क्योंकि एक तो यहाँ का मौसम जिसके चलते यहाँ का पहनावा ज्यादातर ऐसा होता है कि यदि आप उस पर हिन्दुस्तानी सुहाग चिन्हों का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करेंगे तो जरूरत से ज्यादा ही अलग नज़र आयेंगे या यूँ कहिए उल्लू दिखेंगे। तीसरा और सबसे अहम कारण है फ़ैशन, फ़ैशन की दुनिया तो हर किसी को अपनी और आकर्षित करती है। फिर आप यहाँ रह रहे होंया फिर दुनिया के किसी भी कोने में, फ़ैशन की चमक दमक से आप बच नहीं सकते।  

इस विषय में मैंने एक दो महिलाओं से बात भी की, भई माना कि यहाँ रहकर सभी सुहाग चिन्हों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। मगर एक दो का तो बड़ी आसानी से किया जा सकता है। जैसे माँग में थोड़ा सा सिंदूर या पाँव में बिछिये, तो मुझे जवाब मिला अरे आप भी कौन से ज़माने की बात कर रही हो, हम नहीं करते यह सब शुरू में हमको भी लगता था। इसलिये हम भी ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम पाँव में बिछिये तो पहनते ही थे। मगर जब यहाँ स्पोर्ट शुज़ पहनने पड़े तो बहुत परेशानी का सामना करना पड़ा इसलिए फिर हमने सब छोड़छाड़ दिया अब तो बस जब इंडिया जाते हैं तभी सब कुछ करते हैं तब ही अच्छा भी लगता है वरना यहाँ कौन देख रहा है। आप अभी नयी-नयी हो इसलिए आपको लग रहा है थोड़े साल गुज़र जाने दो आप भी हम जैसी ही हो जाओगी। यह सब सुनकर जहां एक और मुझे अजीब लगा वहीं दूसरी ओर मैं सोच में पड़ गयी कि यह मात्र दिखावा है या मन की भावनाए या फिर वक्त की मांग। यह सब सोच कर मेरे मन में कई तरह की बातें आने लगीं।

जैसे यह दिखावे की चीज़ें हैं या मान्यता की या फिर अपनी संस्कृति या परंपरा की क्योंकि मानो तो भगवान वरना पत्थर ही है। यदि मैं अपने अनुभव की बात करुँ तो बिंदी न लगाना, या सिंदूर न लगाना, या हाथों में काँच की चूड़ी का ना होना, या फिर पाँव में बिछिये का न होना मेरी माँ को तो ज़रा भी पसंद नहीं, उनके हिसाब से किसी भी सुहागन महिला के श्रिंगार में और कुछ सम्मिलित हो न हो मगर यह सब सुहाग वाली चीजें न सिर्फ उस औरत के जो की विवाहित है बल्कि मेरे श्रिंगार में भी जरूर शामिल होना ही चाहिए। इसलिए जब भी मैं उनके सामने होती हूँ तो यह सब चीज़े मेरे श्रिंगार में शामिल जरूर होती है वरना बहुत डांट पड़ती है। मगर ऐसा नहीं है कि मेरे अंदर इन चीजों को लेकर केवल दिखावा है। मैं दिल से भी इन चीजों को बहुत मान देती हूँ। इसलिए यहाँ रहकर भी मेरे हाथों में काँच की एक चूड़ी और माँग में सिंदूर और पाँव में बिछिये हमेशा रहते है। फिर चाहे मुझे कोई उल्लू समझे या दकियानूसी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।  

अब सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसी कौन सी वजह हो सकती है। जिसके कारण लोग खुद को हमेशा जवान और अविवाहित अर्थात कुँवारा दिखाना चाहते है। तो मेरे विचार से पूरी ज़िंदगी जवान और खूबसूरत दिखने की चाह इंसान के अंदर मरते दम तक विद्धमान रहती है और शायद कुछ हद तक पुरुषों की तुलना में महिलाओं में यह चाह ज़रा ज्यादा ही रहा करती है। मगर इसका मतलब यह नहीं कि पुरुषों में सदा जवान दिखने या अविवाहित दिखने की चाह नहीं होती। उनमें भी यह चाह कूट-कूट कर भरी होती है। इसलिए यह कहना कि जवान दिखने के लिए कोई भी इंसान बाल रंगने से लेकर पहनावे तक कुछ भी कर सकता है तो उसमें कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी। क्योंकि जहां तक इस मामले में किसी भी इंसान का जितना वश चलता है हर कोई उतना ही जवान दिखने का प्रयास करता है फिर भले ही उस इंसान का मन खुद को जवान महसूस करे, न करेमगर तब भी वह इंसान तन से जरूर जवान दिखने की भरपूर कोशिश जरूर किया करता है। फिर चाहे वह कोई महिला हो या पुरुष। 

क्यूँ? क्योंकि सीधी सी बात है भेड़ों में शामिल होने के लिए सियार को भेड़ का रूप तो धारण करना ही पड़ेगा ना बस वैसा ही कुछ हाल उन लोगों का भी है जो विवाहित होते हुए भी खुद को कुँवारा अर्थात अविवाहित दिखाना चाहते है या फिर अधेड़ होते हुए भी खुद को जवान दिखाना चाहते है और जो लोग खुद को अविवाहित दिखाना चाहते है उनकी इस सोच के पीछे मुझे तो केवल एक मात्र कारण यही समझ आता है, कि यदि उन्होंने अपने सुहाग चिन्हों के माध्यम से यह जाहिर कर दिया कि वह अविवाहित नहीं विवाहित है। तो फिर कोई और जवान व्यक्ति अर्थात कुँवारा व्यक्ति उनकी और देखेगा भी नहीं जिसके कारण उनकी शान में कमी आ जायेगी, सब उन्हें उम्र दराज़ समझने लगेंगे जो उन्हें क़तई मंजूर ना होगा। लेकिन इस मामले में पुरुषों की चाँदी है क्योंकि इस पुरुष प्रधान समाज ने सारे सुहाग चिन्ह केवल औरत के लिए ही बनाए है और न सिर्फ बनाए है बल्कि उन्हें धर्म से जोड़कर सभी नारी जाती के लिए अनिवार्य भी करार दे दिया गया है। यहाँ इस बात से मुझे आपत्ति है।

माना कि इन सब चिन्हों को लगा लेने से, या पहन लेने से आप किसी कि ज़िंदगी में आने वाले मौत रूपी काल को रोक नहीं सकते। क्योंकि होनी को कोई नहीं टाल सकता है। जो होना है, वह होकर ही रहता है। फिर आप चाहे कितने भी सुहाग चिन्ह को अपने ऊपर लादे रही हैं। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन तब भी यदि यह बात महिलाओं को ध्यान में रखकर धर्म से जोड़ी गयी है। तो इसे पुरुषों पर भी लागू किया जाना चाहिए था। मगर हाय रे यह पुरुषों का अहम और खोखला दिखावा इन्हें अपनी ऊपर ही भरोसा नहीं इसलिए अपनी अर्धांगिनी की सुरक्षा के लिए खुद ही यह नियम बना दियाकि जो कोई भी महिला विवाहित है उसके लिए यह सुहाग चिन्ह अपने ऊपर सजाना साँस लेने से भी ज्यादा अनिवार्य है ताकि कोई पर पुरुष उस पर अपनी गंदी नीयत न डाल सके।

मगर आज की तारीख़ में ऐसा नहीं है आज महिलायें पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है इसलिए यदि पुरुष अपने विवाहित होने का कोई प्रमाण लेकर नहीं चल सकते तो भला हम महिलाएं क्यूँ चले। मगर यहाँ बात अहम के टकराव की नहीं कुछ हद तक संस्कृति, परंपरा और सुंदरता यहाँ तक की बहुत हद तक सुरक्षा की भी है। क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि एक लड़की चाहे कितनी भी खूबसूरत क्यूँ न हो, मगर यदि वह विवाहित है तो बिनासिंदूरबिंदीमंगलसूत्रचूड़ियों और बिछिये के उसका सौंदर्य हमेशा अधूरा ही लगेगा। ऐसा मुझे लगता है हो सकता है आप सब मेरी इन बातों से सहमत ना भी हों लेकिन तब भी मैं इतना जरूर कहूँगी कि "सुहागिन के सर का ताज होता है, एक चुटकी सिंदूर" क्योंकि यह अपने आप में सिर्फ एक मात्र सुहाग की निशानी ही नहीं बल्कि आपसी प्रेम और विश्वास का रंग भी लिए होता है। जो न सिर्फ बुरी नियत रखने वाले लोगों से आपकी सुरक्षा ही करता है। बल्कि आपके सौंदर्य में चार चाँद भी लगता है यही एक चुटकी सिंदूर.....इसलिए इसका सम्मान करने के साथ–साथ इसको पूरे दिल से अपनाये... इसमें कोई नुक़सान नहीं उल्टा आप ही का भला है। जय हिन्द.....
आप सब मेरा यह आलेख ज़ी न्यूज़ के इस लिंक पर जाकर भी पढ़ सकते है। धन्यवाद    http://zeenews.india.com/hindi/news/ज़ी-स्पेशल/विवाहित-होकर-भी-अविवाहित-दिखने-की-होड़/138460 

Monday 4 June 2012

क्यूँ आम हो गये हैं यह "तलाक" के किस्से...??


आज जाने क्यूँ इस पोस्ट को लिखते वक्त मन में बार-बार टीवी सीरियल "इस प्यार को क्या नाम दूँ" का गीत दिमाग में घूम रहा है कि आज में अपनी इस पोस्ट को क्या नाम दूँ :-) खैर आज हम बात करेंगे शादी, विवाह के संबंध और तलाक की, हालांकी इस विषय का कोई एक कारण नहीं है जिसके आधार पर हम यह कह सकें कि  यदि उस कारण को ख़त्म कर दिया जाये, तो इस समस्या से निजात पायी जा सकती है। मगर फिर भी कुछ हद तक कुछ कारण ऐसे हैं, जिन्हें लेकर मुझे ऐसा लगता है कि यदि उन पर थोड़ा ध्यान दिया जाये तो शायद इस किस्सों में कुछ कमी लायी जा सकती है। ऐसा मुझे लगता है हो सकता है आप सभी लोग मेरी बातों से सहमत ना भी हों। अभी पिछले कुछ दिनों से तलाक के विषय में बहुत कुछ पढ़ने को मिला, कहीं कोई कहानी, तो कहीं कानूनी सलाह। यहाँ तक के आधे से ज्यादा टीवी सीरियलों में भी आज कल यही विषय सुर्खियों में है। खैर आप सोच रहे होंगे ना, कि पहले ही "सत्यमेव जयते" कम है सामाजिक विषयों पर चिंतन करने के लिए जो मैं फिर शुरू हो गई। तो भई मैं पहले ही बता दूँ मैं "सत्यमेव जयते" के द्वारा उठाये गये किसी भी विषय पर बात नहीं कर रही हूँ। बल्कि पिछले कुछ दिनों में जो पढ़ा और उसे पढ़ने के बाद जो मुझे लगा बस वही लिख रही हूँ।

विवाह एक पवित्र बंधन जिसमें न केवल दो इंसान एक दूसरे की ज़िंदगी से जुडते है बल्कि दो परिवार भी एक दूसरे से जुड़ जाते है और तब कहीं जा कर बनता है एक खुशहाल और समृद्ध परिवार। समृद्ध शब्द का प्रयोग यहाँ मैंने इसलिए किया क्यूंकि मेरी नज़र में समृद्ध होने का अर्थ केवल पैसे से समृद्ध होना नहीं है। मेरी नज़र में जिसके पास रिश्तों का मीठा खजाना है वह व्यक्ति भी उतना ही समृद्ध है जितना कि कोई धनवान व्यक्ति क्यूंकि मेरा ऐसा मानना है, कि हम पैसों से किसी का भी या यह कहना ज्यादा सही होगा शायद इस संसार में हम पैसे से सब कुछ खरीद सकते है। मगर यदि कुछ नहीं खरीद, सकते तो वह है किसी की किस्मत, किसी के साथ जुड़े उसके प्यार और विश्वास से जुड़े रिश्ते।

ऐसे में शादी विवाह जैसे प्यार भरे हंसी खुशी से जुड़े रिश्ते पर तलाक का शब्द कैसा लगता है ना !!! जैसे किसी ने मासूम से चेहरे पर कोई करारा चांटा जड़ दिया हो, या फिर हँसते खेलते परिवार पर अचानक से आयी कोई विपत्ति या विपदा, या फिर जैसे एक खुशहाल ज़िंदगी को मौत के घाट उतार दिया हो। यहाँ खुशहाल ज़िंदगी से  तात्पर्य विवाह से है और मौत का तात्पर्य तलाक से है। वैसे यदि यहाँ इस विषय में विदेशों की बात की जाये तो यहाँ तो तलाक लेना कपड़े बदलने जैसा है। क्यूंकि यहाँ लिविंग रिलेशन का भी चलन बहुत है। सिर्फ इतना ही नहीं यहाँ तलाकशुदा लोगों का असर बच्चों पर साफ दिखाई देता है कोई भी अकेला इंसान जिसका तलाक हो चुका है अर्थात माता-या पिता जो अपने बच्चों को तलाक के उपरांत अकेले पाल रहा है तो उस इंसान की आने वाली सभी पीढ़ियाँ भी वही करती है जो देखती आयी है। क्यूंकि जैसा कि आप सभी जानते है बच्चे कहीं के भी हो मगर उन पर अपने परिवार में हो रही नकारात्मक बातों और घट रही घटनाओं का सीधा प्रभाव पड़ता है। जिसके चलते वह आगे चलकर न तो अपने जीवन में सफल ही हो पाते हैं और ना ही अपने बच्चों में साथ रहने जैसी बातों का महत्व समझा पाते हैं और यही नकारात्मक असर उनके जीवन में आगे चलकर उनकी आने वाली पीढ़ियों में भी आसानी से देखा जा सकता है। ठीक इसी तरह साथ रह रहे अभिभावकों के बच्चों में एक सकारात्मक सोच पनपती है और उनके बच्चे भी आगे चलकर अपने भावी जीवन में एक अच्छे और कामयाब इंसान बनते हैं मगर  हम बात कर रहे हैं हमारे अपने भारत देश के समाज की, जहां तक मेरी समझ कहती है। तलाक जैसा फैसला बहुत ही मजबूरी में लिया जाना चाहिए। ना कि यूँ ही जैसे आज कल होता है कि ज़रा सी आपसी अनबन हुई नहीं कि लोगों के अहम टकराना शुरू हो जाते है और नतिजा तलाक। जबकि मेरा मानना तो यह है कि तलाक की नौबत तो तब आनी चाहिए जब दोनों में से किसी एक का जीना दुश्वार हो जाये। इतना कि ज़िंदगी जीने के लिए और कोई दूसरा विकल ही ना बचे। मगर अफसोस कि वास्तव में ऐसा होता नहीं है।

आखिर क्या कारण है यूं आम होते जा रहे इन तालक के किस्से? कहाँ और क्या कमी आ गयी है, परवरिश में जो यह तलाक के किस्से आम हो गये हैं। क्या आज के आधुनिक समाज में महिलाओं का होता सशक्तिकरण, या यू कहें कि बढ़ती आत्म निर्भरता है तलाक का कारण ? या फिर इस आत्म निर्भरता ने बढाया इस पुरुष प्रधान समाज के पुरुषों का अहम ? वैसे देखा जाये तो इस समाज में पुरुषों का अहम तो कभी भी कम था ही नहीं, वह तो हमेशा से ही ज्यादा रहा है तो अब क्या बढ़ेगा। लेकिन फिर भी तलाक के सिलसिले को मद्देनज़र रखते हुए हम किसी एक पक्ष को इस विषय का पूर्णरूप से जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। क्यूंकि जिस तरह "ताली हमेशा दोनों हाथों से बजती है"। ठीक उसी तरह "धुआँ भी तभी उठता है, जब कहीं आग लगी होती है"।अर्थात तलाक के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। इस मामले में भी कहीं ना कहीं स्त्री और पुरुष दोनों ही जिम्मेदार होते हैं।तभी नौबत तलाक तक आ पहुँचती है।

लेकिन सावल यह उठता है कि आखिर वो ऐसे कौन से कारण होते हैं जो एक हँसते खेलते परिवार पर तलाक रूपी ग्रहण लगा जाते हैं। वैसे तो यहाँ मैं स्त्री या पुरुष का कोई पक्ष नहीं लेना चाहती। मगर फिर भी दोनों पक्षों के कुछ कारणों को मैं आपके समक्ष रखना चाहूंगी। जिनके आधार पर मुझे ऐसा लगता है, कि शायद इस समस्या के वही कुछ एक कारण हो सकते है। लेकिन इस सबके पीछे ऐसा कुछ नहीं है कि मैं स्वयं एक ग्रहणी हूँ इसलिए मुझे कामकाजी महिलाओं से कोई समस्या है या फिर मैं उनके विरुद्ध हूँ। यहाँ जो भी मैं लिख रही हूँ वह केवल मेरी एक सोच है। जो ज़रूरी नहीं कि आप की सोच और विचारों से मेल खाती ही हो।

मेरा ऐसा मानना है कि इसके पीछे सबसे अहम कारण है पैसा, आज की आधुनिक जीवन शैली की अंधी दौड़ में सबसे ज्यादा अगर कुछ मायने रखता है, तो वह है पैसा। क्यूंकि माना कि पैसा सब कुछ नहीं, मगर तब भी पैसा बहुत कुछ है और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता, इसी पैसा कमाने की धुन सभी को है। चाहे स्त्री हो या पुरुष, पैसा कमाने का काम वैसे तो सदियों से बुज़ुर्गों ने पुरुषों को सौंपा हुआ था और घर गृहस्थी स्त्रियों का काम हुआ करता था। जो शायद कुछ हद तक सही भी था क्या कभी आप में से किसी ने यह सोचा है कि आखिर ऐसे नियम क्यूँ बनाये गये थे। आखिर कुछ तो कारण रहा होगा।

खैर पहले एक माँ अपनी बेटी को विवाह उपरांत विदा करते वक्त हमेशा यह सीख दिया करती थी, कि बेटा हमेशा बड़ों का सम्मान करना, कभी किसी को पलट कर जवाब मत देना। बड़ों को सम्मान, छोटों को प्यार, और हम उम्र को अपनापन देना। जिसके कारण बहुत सी छोटी-मोटी बातों पर परिवार में कलह होने से बच जाती थी। क्यूंकि तब लोग अपने आप से ज्यादा खुद से जुड़े लोगों और रिश्तों को अहमियत दिया करते थे।जिसके चलते चुप रहने के कारण या किसी बात पर समझौता कर लेना जो पूरे परिवार के हित में होता था। उस वक्त उस समझौते को करते वक्त किसी भी स्त्री के मन में परिवार के सामने खुद छोटे हो जाने या नाक नीची हो जाने जैसे भाव नहीं आते थे। मगर आज की तारीख में ऐसा नहीं है। आज यदि लड़की नौकरी करती है,अर्थात खुद पैसा कमाने में सक्षम है और अपने पेरों पर खड़ी है तो उसकी माँ उसे सिखाती है, बेटा तुझे किसी से डरने या किसी के आगे झुकने की कोई जरूरत नहीं है, तू आत्मनिर्भर है इसलिए तुझे अपनी मन मर्ज़ी करने का सम्पूर्ण अधिकार है। तुझे जो पसंद ना हो तो मत करो, मना करना सीखो ना कि चुप रहकर हालातों से समझौता करना। नतीजा सब अपनी मर्ज़ी के मालिक बन अपनी-अपनी चलाने की कोशिश में लगे रहते हैं। जिसके कारण अहम का टकराव और नतीजा झगड़ा बढ़ते-बढ़ते नौबत तलाक तक आ पहुँचती है।

पहले के जमाने में यदि पति अपनी पत्नी के लिए आगे बढ़कर कोई ऐसा काम कर दे जो स्त्री के नाम का होता है जैसे रसोई में कोई काम या किसी तरह की कोई छोटी-मोटी सेवा तो बेचारी पत्नी खुद को दुनिया में सब से ज्यादा खुशनसीब समझने लगती थी और आज की नारी का कहना है, कि यही तो हम स्त्रियों की विडम्बना है कि हम अपना अधिकार भी एहसान समझ कर लेते है। यानि इस पक्ष का निचोड़ यह हुआ कि लोग डर और समझौते में अंतर भूल गये हैं। इसलिए तो आज कल किसी से ना डरने और दबने या किसी के आगे ना झुकने की शिक्षा दी जाती है बेटियों को...खैर इसके पीछे सभी के निजी कारण भी हो सकते है और कुछ हद तक सामाजिक प्रभाव भी वह सब की अपनी-अपनी सोच पर निर्भर करता है।

अब यदि बात करें हम दूसरे पक्ष की अर्थात पुरुष पक्ष की, तो उन्हें भी आजकल पढ़ी लिखी नौकरी पेशा लड़की ही चाहिए होती है। क्यूंकि आज के इस महँगाई के युग में एक व्यक्ति की आमदनी से घर चलाना कठिन होता है। हालांकी इस में कोई गलत बात नहीं है। यही वक्त की मांग है, मगर होता यह है कि इंसान की ख्वाइश की  कोई इंतहा नहीं होती। :-) कमाऊ बीवी के साथ उन्हें एक कुशल ग्रहणी भी चाहिए होती है। जो बाहर भी काम करे और घर में भी काम करे। साथ में उनके परिवार के सभी सदस्यों के साथ भी उसका तालमेल बढ़िया हो, जो आम तौर पर हो नहीं पाता है। क्यूंकि एक व्यक्ति एक वक्त में एक ही काम अच्छे से कर सकता है और यदि वह चारों तरफ हाथ पैर मारे तो कभी किनारे पर नहीं पहुँच सकता है। वही होता है इन कामकाजी महिलाओं के साथ घर और बाहर की जिम्मेदारियां निभाते-निभाते उन्हें इतना समय ही नहीं मिल पाता कि वह बाकी रिशतेदारों के साथ भी वैसे ही घनिष्ठ संबंध कायम रख पाएँ जैसे एक गृहणी रख पाती है। बस यहीं से एक पुरुष के अहम को चोट पहुँचना प्रारम्भ हो जाती है और रोज़ के झगड़े बढ़ते चले जाते है। कभी कभी तो पत्नी की कमाई पति से ज्यादा होना भी पुरुष के अहम को चुनौती देता है और नतीजा तलाक।

तब भी बात यहीं खत्म कहाँ होती है.....मुझे तो यह समझ नहीं आता कि कोई भी विवाहित दंपत्ति तलाक लेने से पहले आपस में बैठकर एक बार शांति से अपनी-अपनी समस्याओं पर बात क्यूँ नहीं करते कि उनको एक दूसरे से आखिर समस्या क्या है और यदि वह लोग ऐसा करते भी हैं, तो क्या एक बार भी उन्हें अपने बच्चों का ख़्याल नहीं आता ? मुझे तो लगता है कि ऐसा विचार नहीं ही आता होगा। क्यूंकि आजकल सभी सक्षम होते हैं कोई किसी के आगे खुद को कम दिखाना नहीं चाहता, जिसके चलते लोग यह भूल जाते हैं, कि बच्चों को आपका पैसा नहीं बल्कि आपके साथ की जरूरत है आप दोनों के प्यार की जरूरत है। क्यूंकि बच्चों की सही परवरिश माता या पिता दोनों में से किसी एक के अभाव में कभी पूरी नहीं हो सकती। हाँ वो अपने जीवन में एक बेहद कामयाब इंसान ज़रूर बन सकता है मगर उसके मन के अंदर उस कमी का कांटा हमेशा खटकता रहता है। फिर चाहे वह उस बात को ज़ाहिर करे या ना करे वो अलग बात है। कुछ दंपत्ति ऐसे भी होते हैं जिनके बच्चे नहीं होते लेकिन साथ गुज़ारे हुए कुछ अच्छे पलों की यादें तो होती है। मगर तब भी उन्हें उन यादों के साथ रहना मंजूर होता है बजाये खुद अपने जीवन में एक दूसरे के साथ चलते हुए नयी यादें बनाने के आखिर क्यूँ ??

अंततः बस यही पूछना चाहूंगी आप सभी से कि क्या आपको नहीं लगता कि पैसा कमाने और आत्मनिर्भर होने जैसी चीजों ने जहां एक ओर व्यक्ति का विकास किया है वहीं दूसरी और फायदे से ज्यादा नुकसान भी किया है और कर भी रहा है जिसका परिणाम है यह "तलाक"!!!