Monday 28 January 2013

दुनिया का सबसे कठिन काम.....


कोई बता सकता है क्या मुझे कि इस दुनिया का सबसे मुश्किल काम क्या है ? :) है कोई जवाब किसी महानुभाव के पास ? मैं बताऊँ इस दुनिया मैं यदि सबसे मुश्किल कोई काम है तो वो है परवरिश, जिसमें लगभग रोज़ नयी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है कभी-कभी तो कुछ ऐसी चुनौतियाँ सामने होती हैं जिस पर हँसी भी बहुत आती है और समस्या भी बहुत गंभीर लगती है, ऐसे मैं पहले खुद को तैयार करना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या करें और कैसे करें कि बच्चों को बात भी समझ में आ जाए और उन्हें बुरा भी न लगे जैसे वो कहते हैं ना "साँप भी मर जाये औ लाठी भी न टूटे"। जाने क्यूँ लोग लड़कियों को लेकर चिंता किया करते हैं मुझे तो लड़के की ज्यादा चिंता रहती है इसलिए नहीं कि वो मेरा बेटा है, क्यूंकि यह तो एक बात है ही मगर इसलिए भी कि कई ऐसे मामले हैं जिसमें लड़कियां बिना समझाये भी ज्यादा समझदारी दिखा देती है और लड़कों को हर बात बिठाकर समझनी पड़ती है। :)

खैर इन मामलों में मुझे ऐसा लगता है कि आजकल जो हालात है उनमें पहले ही एक अच्छी और सही परवरिश देना, दिनों दिन कठिन होता चला जा रहा है। क्यूंकि ज़माना शायद तेज़ी से बदल रहा है और हमारी रफ्तार धीमी है ऊपर से यह मीडिया और फिल्मों के आइटम गीत रही सही कसर पूरी कर रहे हैं। आप को जानकार शायद हँसी आए कि यहाँ के कुछ बच्चे स्कूल की छुट्टी के बाद "फेविकॉल की करीना" को देखकर उसी की तरह डांस करने की कोशिश कर रहे है और उसके मुंह से जो शब्द निकलते हैं वो गाने के नहीं बल्कि कुछ और ही होते है जैसे i am sexy, i am cool यह देखने मैं तो बहुत ही हास्यस्पद बात है मगर है उतनी ही गंभीर क्यूंकि यदि उन्हें रोका जाये तो बात बिगड़ सकती है अभी जो वो सामने कर रहें है वही वो छुप-छुप कर करने लगेंगे। ऐसे में भला क्या किया जा सकता है तो अब एक ही विकल्प नज़र आता है वह है सही और गलत के फर्क को उन्हें समझाना जो देखने और सुनने में बहुत आसान लगता है। मगर है उतना ही कठिन क्यूंकि आपकी एक बात के कहने मात्र की देर होती है कि बच्चों के हज़ार सवाल तैयार खड़े होते है आप पर हमला बोलने के लिए। कई बार तो ऐसे सवाल होते जिनका जवाब खुद आपके पास भी नहीं होता। जैसे "सेक्सी" का मतलब क्या होता है और जब हीरो हीरोइन को प्यार करता है तो वो उसको "किस्स" क्यूँ करता है इत्यादि ...

अब ऐसे में भला कोई कैसे समझाये कि यह शीला की जवानी और मुन्नी का झंडू बाम या फिर करीना का फेफ़िकॉल अभी तेरी समझ से बाहर कि बातें है बेटा, तेरे लिए अभी कार्टून ही काफी है मगर किस या चुंबन जैसी चीज़ें तो अब कार्टून्स तक में दिखाई जाने लगी है और इस बात को यदि यह कहकर समझा भी दो कि  बेटा दुनिया में हर तरह के लोग होते हैं और हर जगह, हर व्यक्ति का अपना प्यार जताने का या दिखाने का अपना एक अलग तरीका होता है यहाँ के लोगों का यही तरीका है। हम लोग भी तो आपको ऐसे ही रोज़ सुबह आपके माथे पर आपको चूमकर उठाते है और रही बात "सेक्सी" शब्द की तो उसका मतलब तो है "प्रीट्टी" मगर यह शब्द बड़े लोगों के लिए हैं बच्चों के लिए नहीं तो जवाब आता है हाँ तो फिर यह टीवी वाले अंकल-आंटी और स्टेशन पर बड़े बॉय्ज़ एंड गर्ल्स सिर्फ होंठों पर ही क्यूँ किस्स करते हैं एक दूसरे को, अब इस सवाल का मैं क्या जवाब दूँ, एक बार टीवी पर तो फिर भी रोक लगायी जा सकता है। मगर बाहर की दुनिया का मैं क्या करूँ यहाँ तो खुले आम सड़कों पर यह सब होता है अब उसकी आँखें तो बंद नहीं की जा सकती और ना ही उसके सवालों को रोका जा सकता है आप लोगों को क्या लगता है इन बातों है कोई जवाब आपके पास ?

यह सब देखकर और सोचकर लगता है कि यहाँ रहना भी ठीक है या नहीं अभी यह हाल है तो जाने आगे क्या होगा। फिर थोड़ी देर में ऐसा भी लगता है कि अब तो इंडिया में भी यही हाल है, तो कहीं भी रहो इन बातों का सामना तो करना ही है। फिर दूजे ही पल ऐसा भी लगता है कि यह समस्या केवल मेरी है या यहाँ रहने वाले सभी लोग ऐसा ही महसूस करते हैं कि आजकल के बच्चों का बचपन बहुत जल्दी खत्म हो रहा है बच्चे वक्त से पहले बड़े हो रहे है। मामला परवरिश का है इसलिए इस विषय तर्क वितर्क संभव है यह ज़रूरी नहीं कि मेरे विचार आपसे मेल खाते हों लेकिन जब तर्क की बात आती है तो कुछ लोग इसे समार्ट की श्रेणी में रखते हैं, उनके मुताबिक आज की जनरेशन बहुत स्मार्ट है। हम तो गधे थे इस उम्र में, मगर मैं यहाँ इस तर्क पर कहना चाहूंगी कि हम गधे नहीं थे मासूम थे, क्यूंकि ऐसे प्रश्नों की ओर हमारा ध्यान कभी जाता ही नहीं था।

हम तो अपने दोस्तों सहेलियों और खेल खिलौनो में ही मग्न और खुश रहा करते थे। वह भी शायद इसलिए कि तब हमे यह सब यूं खुले आम देखने को मिलता ही नहीं था जो हमारे दिमाग में ऐसे सवाल आते, क्यूंकि शायद उन दिनों हमारी किसी भी तरह की जानकारी प्राप्त करने की दुनिया बहुत सीमित हुआ करती थी। जिसकी आज भरमार है। यहाँ कुछ लोग का कहना हैं कि तब हम डर के मारे अपने माता पिता से अपने मन की बात नहीं कर पाते थे, जितना कि आज कल के बच्चे कर लेते हैं जो कि एक बहुत ही अच्छी बात है। सही है मगर क्या ऐसा नहीं है कि ऐसी बाते हमारे दिमाग में भी शायद 16 -17 साल में ही आना शुरू होती थी।  8-10 साल कि उम्र में नहीं, मुझे नहीं लगता कि इस तरह कि बातें हम में से शायद ही किसी के मन में आयी हों। औरों का तो पता नहीं मगर कम से कम मेरा अनुभव तो यही है। 

Tuesday 22 January 2013

काश मेरा देश एक तस्वीर होता...


आज कल सभी समाचार पत्र जैसे खून से रंगे हुए दिखाई देते हैं कहीं कुछ अच्छा हो ही नहीं रहा हो जैसे और यदि हो भी रहा हो तो उसे देखकर भी मन नहीं करता उस खबर को पढ़ने का, यह सब देखकर पढ़कर और टीवी पर सुनकर ऐसा लग रहा है कि माया कलेंडर गलत नहीं था। दुनिया खत्म हो ही गयी है, अब कसर ही क्या बची है दुनिया के ख़त्म होने में, क्यूंकि मानव कहे जाने वाले प्राणी के अंदर से मानवता तो अब लगभग खत्म हो ही गयी है। जिसका साक्षात प्रमाण पहले दिल्ली की "दामिनी" और अब हमारे देश की सुरक्षा सीमा पर तैनात जवानो की निर्मम हत्या। इस सबसे तो अच्छा था दुनिया वैसी ही खत्म हो जाती। हालांकी यह कोई नयी घटनाएँ नहीं है। पहले भी न जाने कितनी बार ऐसा हो चुका है, मगर अब एक के बाद एक लगातार अमानवीय घटनाओं का यूं रोज़ ही सामने आना जैसे पहले से ही भारी मन को और भी भारी किए जा रहा है ऐसा महसूस होने लगा है जैसे अंदर ही अंदर दम घुट रहा है चारों ओर बस एक ही तरह की खून से लबरेज़ खबरें है।

अब तो जैसे उम्मीद की कोई किरण भी नज़र नहीं आती मगर फिर भी न जाने किस उम्मीद पर दुनिया कायम है कि जिसके बल पर बस जिये जा रहे है हम, यूं लग रहा है जैसे रेत के महल बनाने की बेबुनियाद कोशिश तो कर रहे है हम,मगर हर रोज़ कोई न कोई बड़े हादसे की एक लहर आकर मिटा जाती है हमारे एक नव निर्माण समाज का महल जो एक सपना सा लगता है मगर कोशिश तब भी जारी है जैसे ताश के पत्तों से बने घर को मिटाने के लिए हवा का एक झोंका ही काफी होता है ठीक उसी तरह रोज़ हमारी उम्मीदों के महल को ध्वस्त करने के लिए एक हादसा ही काफी है, कभी-कभी मन करता है काश हमारी कल्पनाओं में भी इतनी शक्ति भर देता भगवान कि बच्चों की चित्रकारी की तरह हम सब कुछ मिटाकर अपने मुताबिक एक नए सिरे से शुरुकर पाते, इस देश का एक नव निर्माण जहां हर तरफ सुकून होता, शांति होती हर चेहरा खिला होता गुलाब की तरह, जहां हर व्यक्ति सुरक्षित होता, जहां न कोई लिंग भेद होता, सब समान रूप से एक साथ एक सी ज़िंदगी बसर करते न कोई अमीर होता न कोई गरीब होता। काश मेरा देश एक खूबसूरत तस्वीर होता....मगर यह है ख़्वाबों ख़यालों की बातें कभी टूट कर चीज़ कोई जुड़ी है ?

एक तरफ एक अंजान, देश की बेटी के लिए पूरा देश लड़ रहा है और दूसरी तरफ अपने ही देश का एक भाग दूसरा देश बेवजह ही हमारे देश के जवानो पर सितम कर रहा है। देश की सुरक्षा सीमा पर यह जवानो के कत्ले आम वाली खबर पढ़कर एक बार को यह ख़याल भी आया मेरे मन में कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पाकिस्तान सदा हमारा ध्यान अपनी और केन्द्रित रखना चाहता है। इसलिए उसने ऐसा किया, क्यूंकि अभी हमारा देश "दामिनी" को न्याय दिलाने में व्यस्त था। देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी यह खबर ज़ोर पकड़ चुकी थी और यह बात पाकिस्तान से देखी नहीं गयी कि हिंदुस्तान ने आपसी झगड़ों को भूलकर भला किसी और मुद्दे को इतनी तूल कैसे दे दी इसलिए उसने हमारा ध्यान अपनी और खींचने के लिए ऐसी घिनौनी, शर्मनाक एवं अमानवीय हरकत की?? मुझे तो यही लगता है अब इस विषय पर आपका क्या विचार है क्या यही सत्य है ?         

Tuesday 15 January 2013

एक सोच ....

यूं तो दुनिया का हर इंसान, इंसान ही है। मगर फिर भी मुझे अलग-अलग देश के लोगों से मिलना, उनकी बातें सुनना, उनके विचार जानना हमेशा से एक नया सा अनुभव लगता है। यह जानते हुए भी कि सामने वाला व्यक्ति भी मेरी तरह एक आम इंसान ही है, इसलिए उसकी सोच भी मेरी ही तरह हो सकती है। उसमें कोई आश्चर्य करने जैसी बात नहीं है। मगर फिर भी जाने क्यूँ, मेरी जब भी किसी अलग देश के देशवासी से बात होती है, तो मुझे जानकार बड़ा आश्चर्य सा होता ही कि वो भी वैसा ही सोचता है जैसा हम सोचते है अभी हाल ही में मेरे बेटे के जन्मदिन पर उसके एक दोस्त की माँ से मेरी बात हुई। वह लोग श्रीलंका से है अर्थात श्रीलंकन है। तभी बातों ही बातों में शादी को लेकर उनके विचार भी मुझे कुछ अपने विचारों से मिलते जुलते से लगे। उनका कहना था कि आजकल शादी ब्याह के रिश्ते महज़ एक वस्तु की तरह हो गए हैं और उससे ज्यादा कुछ भी नहीं, महिलाएं आत्मनिर्भर हुई हैं तब से सबने सिर्फ अपने बारे में सोचना शुरु कर दिया है। जब की पहले शायद संयुक्त परिवार को जोड़े रखने के पीछे सबसे बड़ा योगदान या यूं कहें की भूमिका केवल महिलाओं की ही हुआ करती थी। जो अब पहले की तुलना में काफी कम हो गयी है। यह बात सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ क्यूंकि इसके पहले मुझे यह जानकारी नहीं थी की विदेशों में भी संयुक्त परिवार का चलन रहा था कभी, उदहारण के तौर पर उन्होने कहा कि पहले जब हमारे घर में कभी टीवी बिगड़ जाता था या हमारा कोई कपड़ा फट जाता था तो हम उसको ठीक करवाकर या स्वयं खुद ठीक करके दुबारा इस्तेमाल करने लायक बना लिया करते थे मगर आज के दौर में ऐसा नहीं है अब तो अगर कुछ भी खराब हो जाता है तो लोग उसे फेंक कर नया लाना ज्यादा पसंद करते है। खासकर यहाँ, क्यूंकि यहाँ चीज़ें ठीक करवाना, नयी चीज़ें खरीदने से कहीं ज्यादा महंगा पड़ता है। इसलिए ज्यादातर लोग खराब हुई चीज़ को फेंक कर नयी लेना पसंद करते हैं फिर चाहे वो घर का फर्नीचर हो या कपड़े।

ठीक वही हाल यहाँ शादियों का भी है फटाफट शादी, बच्चे और फिर तलाक सब कुछ इतनी जल्दी और आसानी से हो जाता है कि समय का पता ही नहीं चलता, शायद ऐसा उन्होंने इसलिए कहा था क्यूंकि वह स्वयं तलाकशुदा थी। दूसरी ओर मेरे बेटे के एक और दोस्त की बहन बैठी थी, जो देखने में बच्चे की माँ लग रही थी जब की उसकी उम्र महज़ 22-23 साल ही थी उसका कहना था कि अरे यही तो सही उम्र है शादी की, मेरा बस चले तो मैं अभी कर लूँ :) यह सब सुनकर मुझे थोड़ा अजीब लगा। अब इस बात पर आप मुझे रूढ़िवादी विचारधारा रखने वालों की श्रेणी में रख सकते हैं। मगर शादी को लेकर तो कम से कम मेरी ऐसी सोच ज़रा भी नहीं है कि घर के अन्य समान की तरह यदि शादी में किसी भी कारणवश कोई दरार पड़ने की संभावना नज़र आ रही हो, तो मैं उसे बजाए जोड़ने की कोशिश करने के तलाक लेना ज्यादा सही समझूँ। हालांकी शायद ही कोई ऐसा सोचता हो क्यूंकि कोई भी व्यक्ति भला क्यूँ चाहेगा कि परिवार बढ़ने के बाद किसी के भी जीवन में तलाक की नौबत आए। मगर उसका जैसा कहना था और जो अभी पिछले दो चार सालों में मैंने अपने आसपास के दोस्तों और रिशतेदारों को देखते हुए जो कुछ भी अनुभव किया, उसको मद्देनज़र रखते हुए मुझे तो यही अनुभव हुआ कि शादी को लेकर अब लोगों में सब्र या संयम नाम की चीज़ बहुत कम होती जा रही है। ज़रा-ज़रा सी बातों पर लोगों का अहम आहत हो जाता है तिल का ताड़ बनते देर नहीं लगती और लोग तलाक के निष्कर्ष तक पहुँच जाते है।

कई बार तो वहज वाजिब लगती है। क्यूंकि वो कहते है न "जिस तन लागे वो मन जाने" क्यूंकि कई बार तलाक मुक्ति का मार्ग भी बन जाता है। मगर अधिकतर किस्सों में जो मैंने अब तक केवल देखे सुने हैं उनमें तो ऐसा लगता है कि शायद समस्या इतनी गंभीर भी नहीं थी कि इतना बड़ा कदम उठाया जाये। वैसे मुझे ऐसा लगता है कि ऐसे हालातों में लोगों को आपस में बैठकर गंभीरता से उस विषय पर बात करने की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। जिसे लेकर तलाक के बारे में सोचा जा रहा होता है। खासकर तब जब उनके बीच उनकी संतान भी हो, क्यूंकि तलाक के अधिकांश मामलों में यदि कोई सबसे ज्यादा भुगतता है तो वह बच्चा ही होता है और बहुत हद तक यह बात भी सही लगती है कि ऐसी बहुत कम समस्याएँ होंगी जिन्हें बात करके हल नहीं किया जासकता। बस ज़रूर है पूरी ईमानदारी के साथ उस बात पर गंभीरता से सोच विचार करने कि उस प बात करने कि जो शायद लोग कर नहीं पाते। उस महिला के केस में भी हमें उस बच्चे को देखकर बार बार यही महसूस हो रहा था कि इतना अच्छा और शालीन बच्चा बेचार ज़िंदगी भर अपने पिता के उस प्यार के लिए तरसता रहेगा जिसका वो हकदार है। फिर चाहे गलती माता या पिता किसी की भी रही हो, मगर उसे उसका वो हक मिल नहीं सकता। :(  इसलिए मेरी समझ से चाहे देश हो या विदेश तलाक जैसे गंभीर मसलों पर निर्णय बहुत सोच समझ कर लिया जाना चाहिए। आप सबकी क्या राय है ?     

Thursday 3 January 2013

परिवर्तन के सोपान की तरफ....


यूं तो इस बार दिल्ली कांड के बाद नववर्ष मनाने का मन नहीं किया किन्तु फिर भी किसी के चले जाने से यह दुनिया भला कब रुकी है जो अब रुकेगी, वो कहते है न "द शो मस्ट गो ऑन" बस वही हाल है इसलिए आप सभी को मेरी ओर से "नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें"। नया साल शुरू हो चुका है दोस्तों, अब तो इस नए वर्ष में एक ही प्रार्थना है इस देश के देशवासियों से और सरकार से कि औरत को भी इंसान समझो उसके पास भी दिल  है जिसमें अगर ममता है, प्यार है, तो उसे दर्द भी बहुत होता है, उसके पास भी दिमाग है जो सोचता है, वो भी एक इंसान है कोई मिट्टी की गुड़िया नहीं कि जिसका जब मन किया खेला और मन भर गया तो तोड़ दिया। इसलिए इस साल कुछ ऐसा करो कि अपने साथ-साथ अपनी माँ और बहन का सर भी गर्व से ऊपर कर सको, ना कि उनको इस कदर शर्मिंदा करो कि उनको अपने ही बेटे को बेटा या भाई को भाई कहने में शर्म महसूस हो।  सरकार से गुजारिश है कि इस साल महिला उत्पीड़न के खिलाफ कोई ऐसा कानून पारित हो कि जिसका नाम मात्र सुनने से ही अपराधियों को पसीना आ जाये और वो ऐसा कुकर्म करने से पहले एक बार नहीं, दस बार नहीं, सौ या हजार बार भी नहीं, बल्कि ऐसा कुछ सोच भी न सके, तभी इंसाफ होगा। क्यूंकि अब बहुत हो चुका उस सुबह का इंतज़ार जिसके लिए यह कहा जाता है "हर रात की सुबह ज़रूर होती है"। मगर आज जो हालात है उनको देखते हुए तो यह ज़रा भी नहीं लगता कि इस रात की कभी कोई सुबह होगी।        

 खैर न जाने क्यूँ इस कांड का असर इतना हुआ कि उसको शब्दों में बता पाना संभव ही नहीं जबकि मैं तो उसे (दामिनी) को देश के और नागरिकों की तरह जानती भी नहीं थी, न मैंने कभी उसे देखा, मगर फिर भी उस एक हादसे ने जैसे मुझे अंदर से हिलाकर रख दिया। शायद इसलिए कि मैं भी एक औरत हूँ और यही एक रिश्ता काफी है उसका दर्द समझने के लिए। दिल्ली में मैं भी 4 साल रही हूँ मुझे दिल्ली बहुत पसंद थी। मगर अब ज़रा भी नहीं है, कल तक मैं सब से यही कहती थी कि दिल्ली दिल वालों का शहर है एक बार जाकर तो देखो, वहाँ के लोगों से मिलकर तो देखो, बहुत ही ज़िंदा दिल इंसान बसा करते हैं वहाँ, मगर मुझे क्या पता था कि अब इंसान नहीं शैतानो का वास है वहाँ, वैसे शायद यह तो होना ही था मेरी सोच के साथ क्यूंकि मैं तो दिल्ली को आज भी वही आठ साल पहले वाली दिल्ली समझ के चल रही थी। मगर अब हक़ीक़त कुछ और ही है। मेरी समझ से अकेली दिल्ली ही नहीं देश के हर इलाके का आज यही हाल है। खासकर महिलाओं के लिए तो अब कोई भी शहर, गाँव या कस्बा कुछ भी सुरक्षित नहीं रह गया।

ऐसे हालातों में किसी भी विषय पर कितनी भी गंभीरता से सोचने के पश्चात ऐसा महसूस होने लगता है कि यह सब बाते हैं और बातों से कुछ होने वाला नहीं क्यूंकि यदि महज़ बातों से लोगों का नज़रिया बदला जा सकता तो आज न जाने हमारा देश कहाँ होता। इस कांड के बाद तो यहाँ भी हालात यह हैं कि मेरी पहचान की कुछ भारतीय महिलाएं जो यहाँ पर हैं उन्होंने तो वापस भारत लौटने से ही इंकार कर दिया है, क्यूंकि उनके भी लड़कियाँ है और अब उनके हिसाब से लड़कियाँ भारत में सुरक्षित नहीं है। इसलिए वो वापस नहीं जाना चाहती। मगर हाँ इस कांड के बाद वो अपनी संतानों को आत्म सुरक्षा का कोई न कोई हुनर ज़रूर सीखना चाहती है। लेकिन इस समस्या से निपटने का भला यह तो कोई समाधान नहीं हुआ। उनकी बातों को सुनकर लगा जैसे इस विषय पर बात करना भी व्यर्थ है मगर क्या करें फिर भी लिखे बिना दिल भी तो नहीं मनता।

अपराधियों के दंड के लिए बहुत से लोगों से अपने सुझाव दिये। जिसे जहां अपने सुझाव देते बने उसने वहाँ दिये। किसी ने फेसबुक पर, तो किसी ने ब्लॉग पर, तो किसी ने पत्र लिखकर, कुल मिलाकर जिसको जो माध्यम मिला अपनी विचारों के मुताबिक उन अपराधियों को सजा दिलाने के लिए, उसने लिखने के लिए वही माध्यम चुन लिया। जब इन सब मामलों पर मैंने विचार किया तो मुझे ऐसा लगा कि इस सबके पीछे शायद दहशत ही सबसे बड़ा कारण है। कहने का तात्पर्य यह है कि शायद समाज में फैले कुछ असामाजिक तत्वों ने अपनी गंदी सोच के बल पर देश के आम नागरिकों में अपने कुकर्मों से दहशत फैला रखी है जिसके चलते देश की आम जनता डरी-डरी सी रहती है और महिलाओं को तो हमेशा से ही डरा धमका के रखा जाता रहा है। तो मेरे ख्याल से

"जहर को जहर ही काटता है" 

वो कहते हैं न "जैसे को तैसा" वाली बात का ज़माना आ चुका है क्यूंकि "लातों के भूत बातों से नहीं मानते" इसलिए इन मामलों में भी हमारी पुलिस को चाहिए कि वह अपनी कुछ ट्रेंड महिला अधिकारियों की एक टोली या एक समूह कुछ भी कह लीजिये बनाकर उन जगहों या स्थान पर कुछ दिनों के लिए घूमना चाहिए जहां ऐसी वारदातें होने की सर्वाधिक संभावना हुआ करती है। हालांकी यह तो आज कल बस अड्डे जैसी सार्वजनिक स्थानो पर भी होने लगा है। मगर फिर भी जहां ज़रा भी ऐसा कुछ होने की भनक या आशंका मात्र भी लगे वहाँ उन महिला पुलिस अधिकारियों  के समूह के द्वारा उन सन्देहास्पद लोगों के साथ कुछ ऐसा किया जाये कि वहाँ आसपास के लोगों में उस समहू को लेकर दहशत घर कर जाये, खासकर पुरुष वर्ग में फिर चाहे वो आम टॅक्सी वाला हो या ऑटो वाला हो या फिर बस में चढ़े हुए कुछ सन्देहास्पद लोग हो उनके साथ कुछ इस तरह का व्यवहार होना चाहिए ताकि वह लोग भी डर के मारे देर रात गए घर से बहार निकलने से पहले सौ बार सोचने पर मजबूर हो जाये और साथ ही इस बात का विशेष ध्यान रखा जाये कि वो महिला अधिकारी उस वक्त आम भेस भूषा में हों ना कि वर्दी में। मुझे ऐसा लगता हैं 4-5 केस भी यदि ऐसे हो गए तो आगे के लिए रास्ते खुल सकते है। 

तो हो सकता है इस तरह के कारनामों या बोले तो ऑपरेशन करने से लोगों में कुछ अक्ल आए और वह महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करने से पहले कुछ दहशत महसूस कर सके। जिसके चलते इस तरह के अपराधों में कुछ हद तक कमी लायी जा सके और कानून पर लोगों का भरोसा फिर से वापस आसके। यह मात्र एक प्रयास होगा "परिवर्तन के सोपान की तरफ" यह मात्र मेरा एक सुझाव है। जिस पर तर्क वितर्क हो सकता है आप सभी को क्या लगता है। क्या वाकई यह नुस्खा काम करेगा या नहीं...??? आप भी अपने सुझाव दीजिये क्यूंकि बीते कल में जाकर तो हम सुधार कर नहीं सकते। लेकिन अपने आने वाले कल और वर्तमान को तो इन्हीं छोटो मोटी कोशिशों के जरिये सुधारने और संवारने का प्रयत्न तो कर ही सकते है आगे भगवान की मर्जी। क्यूंकि पहले तो ऐसी नहीं थी यह दुनिया तो अब भला ऐसा क्या हो गया है जो इतने असंवेदनशील होते चले जा रहे है हम ? कि इंसान को इंसान तक समझने में नाकाम है हम, दिनों दिन हैवानियात इंसानियत पर हावी होती जा रही है और हम मूक दर्शक बने बस सब कुछ होते देखे जा रहे है आखिर क्यूँ ??? कहाँ सुधार की जरूरत है ?? आप सभी को क्या लगता है क्या आप उपरोक्त कथन में लिखे मेरे सुझाव से सहमत हैं?