Friday 21 December 2012

संवेदनहीनता की पराकाष्ठा....


आजकल हमारे समाज में लोगों के अंदर संवेदनहीनता दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है जिसकी पराकाष्ठा है यह दिल्ली में हुआ उस मासूम सी लड़की का सामूहिक बलात्कार, आज शायद सभी के पास एक ही विषय हो लिखने के लिए और वह है दिल्ली की बस में हुआ एक लड़की का सामूहिक बलात्कार, आज हर जगह यही खबर है। छोटे से छोटे समाचार पत्र पत्रिकाओं से लेकर बीबीसी तक, सुबह-सुबह यह सब पढ़कर मन खिन्न हो जाता है कभी-कभी कि आखिर कहाँ जा रहे हैं हम...क्या यही है एक प्रगतिशील देश जहां लोगों के मन से समवेदनायें लगभग मर चुकी है। ऐसा लगता है जैसे लोग संवेदना नाम के शब्द को बिलकुल भूल ही गए हैं और रह गया है केवल एक मात्र शब्द 'वासना' जिसके चलते यह बलात्कार जैसे गंभीर मामले भी बहुत ही आम हो गये है। महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं है ना महानगरो में और न ही गाँव कस्बों में, ना रास्ते चलते, न घरों में, फिर क्या दिल्ली, क्या मुंबई, कहीं आपसी रिश्तों को ही तार-तार किया जा रहा है, तो कहीं घरेलू हिंसा के नाम पर स्त्रियॉं को प्रताड़ित किया जा रहा है। कहीं लगातार भूर्ण हत्यायों में होते हिजाफ़े सामने आ रहे हैं, तो कहीं अपने ही घर की स्त्री को लोग वेश्यावृति की आग में झौंक रहे हैं। यहाँ तक की महिलाओं का रास्ते पर शांति से चलना भी मोहाल हो गया है। क्यूंकि कानून तो हैं मगर इस मामलों में कभी कोई कार्यवाही होती ही नहीं, क्या यही है एक प्रगति की और अग्रसर होते देश की छवि? जहां लोग यह कहते नहीं थकते थे कि "मेरा भारत महान"। आज कहाँ खो गयी है इस महान देश की महानता जहां कभी नारी को देवी माना जाता था।

इन सब सवालों के जवाब शायद आज हम में से किसी के पास नहीं, लेकिन क्या इस समस्या का कोई हल नहीं ? आखिर इस सबके लिए कौन जिम्मेदार हैं ?? कहीं ना कहीं शायद हम ही क्यूंकि देखा जाये तो हर अभिभावक अपने बच्चे को अपनी ओर से अच्छे ही संस्कार देना चाहते हैं। लेकिन समाज में फैले कुछ असामाजिक तत्व कुछ लोगों पर ऐसा असर करते हैं कि वह लोग अपनी संवेदनाओं और संस्कारों को ताक पर रखकर अपनी दिशा ही भटक जाते हैं और ऐसा कुकर्म कर बैठते है। अब सवाल यह उठता है कि इस समस्या का हल क्या है सरकार से इन मामलों में किसी भी तरह कि कोई उम्मीद रखना लगभग व्यर्थ समय गंवाने जैसा क्रम बनता जा रहा है। क्यूंकि सरकार ज्यादा से ज्यादा क्या करेगी, बस इतना ही कि इन मामलों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने का आश्वासन देकर पीड़ित को उसके दर्द के साथ छोड़ देगी मरने के लिए, इससे ज्यादा और कुछ नहीं होना है और यदि हुआ भी तो कोई एक नया कानून सामने आयेगा बस और जैसा के हमारे देश में आज तक होता आया है एक बार फिर दौहराया जाएगा "पैसा फेंको तमाशा देखो" का खेल, क्यूंकि हमारे यहाँ तो ऐसे लोग कानून को अपनी जेब में लिए घूमते हैं। वैसे कहना तो नहीं चाहिए लेकिन फिर भी आज हमारे यहाँ कि कानून व्यवस्था बिलकुल एक वैश्या की तरह हो गयी है। जिसे सरे आम दाम देकर कोई भी खरीद सकता है बस पैसा होना चाहिए। क्यूंकि यहाँ तो कानून के रखवाले खुद भी इसी घिनौने अपराध में लिप्त पाये जाते हैं। आम आदमी के लिए कोई सहारा ही नहीं बचा है न पुलिस न कानून जो देखो भ्रष्टाचार में लिप्त है। कानून की हिफाजत करने वाले  खुद ही अपने हाथों कानून को बेचने में लगे हैं।

मेरी समझ से तो ऐसे हालातों से लड़ने के लिए एक बार फिर "नारी" को रानी लक्ष्मी बाई का रूप धारण करना ही होगा तभी कुछ हो सकता है या फिर एक बार फिर इन दरिंदों को उनकी औकात दिखाने के लिए फिर किसी को दुर्गा या काली का अवतार लेना ही होगा। मैं जानती हूँ कहना बहुत आसान है और करना उतना ही मुश्किल मेरी यह बात किसी प्रवचन से कम नहीं, यह भी मैं मानती हूँ। लेकिन सच तो यही है जब तक ऐसे अपराधियों को मौका-ए-वारदात पर ही सबक नहीं मिलेगा तब तक इस तरह के अपराधों में दिन प्रति दिन वृद्धि होती ही रहेगी और यह तभी संभव है शायद जब स्कूलों में पढ़ाई लिखाई के साथ-साथ आत्म सुरक्षा सिखाने का विषय भी अनिवार्य हो और सभी अभिभावक अपनी-अपनी बेटियों को वो सिखाने के लिए जागरूक हों साथ ही अपने बेटों को भी सख़्ती के साथ यह बात सिखाना भी ज़रूर है कि औरत भी एक इंसान है उसे भी दर्द होता है, तकलीफ होती है, इसलिए उसे भी एक इंसान समझो और उसके साथ भी सदा इंसानियत का व्यवहार करो, यह तो भविष्य में किए जा सकने वाले उपाय हैं। क्यूंकि भूतकाल में जाकर तो हम की गई भूलों को सुधार नहीं सकते। मगर हाँ वर्तमान में इतना तो होना ही चाहिए कि अपने देश की कानून व्यवस्था में सुधार हो, कोई ऐसा केस या उदाहरण सामने आए जिसको देखते हुए आम जनता खासकर महिलाएं कानून पर या कानून के रखवालों पर भरोसा कर सके। अतः जब तक लोग कानून से डरेंगे नहीं तब तक यह सब होता ही रहेगा।

हालांकी इस तरह के मामलों में कई महिलाओं का कहना है कि हमने कानून की सहायता लेकर लड़ने की पूरी कोशिश की लेकिन बजाय ऐसे अपराधियों को सजा देने के, उल्टा हमें ही कानूनी चक्करों में ना फँसने की सलाह देते हुए केस वापस लेने की सलाह दी जाती है और जो लोग आखिरी दम तक लड़ने का बीड़ा उठाते हैं। उन्हें ना सिर्फ सामाजिक तौर पर बल्कि मानसिक तौर पर भी इस सबका भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है। इसलिए लोग डर जाते हैं और इस तरह के अधिकतर मामले सामने ही नहीं आ पाते, इस सब को देखते हुए मुझे तो ऐसा लगता है कि इस तरह के घिनौने अपराध करने वाले अपराधियों के लिए तो फांसी जैसी सज़ा भी बहुत ही मामूली है, इन्हे तो कोई ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि पीड़ित व्यक्ति की तरह यह भी सारी ज़िंदगी उसी आग में जलें। तभी सही मायने में इंसाफ होगा। इन मामलों में तो मुझे ऐसा ही महसूस होता है आपका क्या विचार है....

Sunday 16 December 2012

खुद की तुलना के लिए नौकरी करना, क्या ठीक है ???


तुलना एक ऐसा शब्द है जो हर पल हमारे आस पास घूमता हुआ सा दिखाई देता है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा एक अहम शब्द है तुलना, फिर चाहे वो घर की मामूली से मामूली चीज़ ही क्यूँ ना हो, नए पुराने में तुलना होती है चाहे वो कपड़े हों या बर्तन हो या फिर बाज़ार में रोज़ नए आते समान। खासकर यदि हम मोबाइल फोन की बात करें, तो आजकल लगभग हर घर में यह तुलना दिन रात चला करती है। कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि हर उम्र के व्यक्ति की अपनी जरूरतों और सोच के आधार पर किसी न किसी चीज़ को लेकर अपने दिमाग में कोई न कोई तुलना चलती ही रहती है। यदि बच्चों की बात करें तो लड़कों में फोन और गाड़ियों को लेकर, लड़कियों में फ़ैशन को लेकर, महिलाओं में घर से संबन्धित समान को लेकर, बुज़ुर्गों में जमाने को लेकर...अर्थात हर एक व्यक्ति का दिमाग किसी न किसी चीज़ की किसी अन्य चीज़ से तुलना करने में ही उलझा रहता है। यहाँ तक तो बात समझ में आती है।

लेकिन काम को लेकर तुलना करना क्या ठीक है। क्यूंकि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, इसलिए उस काम को करने वाला व्यक्ति भी उस काम को करने के कारण छोटा या बड़ा नहीं हो जाता। जैसे अपने ही घर का काम करने से कोई काम वाली बाई नहीं बन जाता अर्थात नौकर नहीं कहलाता और आप सब ने भी अभी "कौन बनेगा करोड़ पति" में भी देखा होगा कि अच्छा खासा पढ़ा लिखा इंसान सब्जी बेचने के लिए मजबूर है, या इससे पहले भी एक चाय वाला आया था वो भी अच्छा खासा शिक्षित व्यक्ति था। मगर चूंकि उसके पिता चाय का ठेला लगाया करते थे जिसके चलते उसे अपने दोस्तों के बीच कई बार शर्मिंदगी का एहसास दिलाया गया।

यहाँ मैं कहना चाहूंगी कि कुछ लोग कभी-कभी मजबूरी में विवश होकर काम करते है क्यूंकि यदि वो काम नहीं करेंगे तो उनका जीवन नहीं चलेगा। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि वह व्यक्ति छोटा हो गया और उस सम्मान का अधिकारी नहीं रहा, जो एक अन्य मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने वाले व्यक्ति का होता है। ठीक इसी तरह कुछ लोग काम केवल अपना समय व्यतीत करने के लिए करते हैं क्यूंकि उनका घर में मन नहीं लगता खासकर महिलाएं। मैं यह नहीं कहती कि काम करना या नौकरी करना बुरा है बल्कि यह तो बहुत अच्छी बात है हर व्यक्ति को आत्म निर्भर होना चाहिए, खासकर महिलाओं को। न ही मैं ऐसा सोचती हूँ कि नौकरी केवल पैसा कमाने के लिए की जाती है। किसी भी महिला के नौकरी करने के पीछे उसके निजी कारण हो सकते हैं। कोई शौक से करता है, तो कोई मजबूरी में, दूसरा पैसे किसे बुरे लगते हैं, इसलिए शायद कुछ लोग अपने शौक के लिए काम करते हैं क्यूंकि उन्हें वो काम करने में मज़ा आता है और ऐसे लोगों के लिए उस काम के बदले में मिलने वाला पैसा मायने नहीं रखता। क्यूंकि उनको उस काम में मज़ा आता है।

लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुछ लोग ऐसे भी है जो केवल अपने अहम को संतुष्ट करने के लिए काम करते हैं। क्या यह सही है ? नहीं....मेरी नज़र में तो यह ज़रा भी सही नहीं है। अपने अहम को संतुष्ट करने के लिए खुद की किसी अन्य व्यक्ति से तुलना करना और महज़ उस तुलना के लिए कोई भी काम करना सिर्फ यह दिखाने के लिए कि हम किसी से काम नहीं और ना ही हम किसी पर निर्भर हैं। खासकर पति पर तो ज़रा भी नहीं, आमतौर पर मैंने यह सोच ज्यादातर महिलाओं में ही देखी है। ना सिर्फ अपने दोस्तों में बल्कि अपने ही परिवार में भी मैं कुछ ऐसी ही सोच वाली महिलाओं को देख रही हूँ, जो सिर्फ इसलिए नौकरी कर रही है क्यूंकि वो खुद को किसी भी स्तर पर कम नहीं दिखाना चाहती। नाम यह की घर में रहकर करें क्या, बोर हो जाते हैं।  ऊपर से तुर्रा यह कि हमें भी हमारे अभिभावकों ने शिक्षा दिलवाई है, तो क्या घर में बैठे रहने के लिए, ऐसे तो हमारी सारी पढ़ाई बर्बाद हो जाएगी इसलिए हम काम करते है।

अब घर में रहने से पढ़ाई लिखाई बर्बाद हो जाती यह बात मेरी समझ के तो बाहर है। लेकिन उनको नौकरी सिर्फ इसलिए करना है क्यूंकि पति देव काम करते हैं तो हम भी करेंगे। हम क्यूँ पीछे रहे और धोंस सहे जबकि पति भले ही धौंस नहीं देते हो, मगर हम मन में यही सोचते हैं जिसके चलते आज कल महिलाए कोई भी छोटे मोटे काम करने  को राज़ी है। जिसमें न तो उनकी रुचि है और ना ही उनका मन और यदि कुछ है भी, तो वह है केवल अपने अहम की संतुष्टि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं, यहाँ तक कि पैसा भी ज्यादा नहीं है और तो और दिन और समय भी ऐसा रहता है जब पति और बच्चे दोनों घर में रहते हैं और ना चाहते हुए भी आपको बाहर काम पर मौजूद रहना पड़ता है। ऐसा काम करने से भला क्या फायदा, उदाहरण के तौर पर किसी भी रेस्टोरेन्ट, होटल या फिर पिज्जा हट में बैरे की नौकरी करना या फिर शॉपिंग मौल में काउंटर पर बैठना इत्यादि....इन सभी कामों में शिफ्ट बदलती है और यह ज्यादातर शनिवार और इतवार को करने होते हैं क्यूंकि सप्ताह अंत के कारण इन दो दिनों में बाज़ार में अत्यधिक भीड़ हुआ करती है। हालांकी यह कोई बुरे काम नहीं है। यहाँ के लगभग आधे से ज्यादा विद्यार्थी यही काम करते हैं जिसे पार्ट टाइम जॉब कहा जाता है। लेकिन मेरे कहने का मतलब यहाँ यह नहीं है कि यह काम करने लायाक नहीं है, इसलिए नहीं करने चाहिए या इन कामों को करने में कोई बुराई है, इसलिए यह काम नहीं करने चाहिए। ना बिलकुल नहीं!!!

बल्कि मेरे कहने का तो केवल इतना मतलब है कि यदि आपकी कोई मजबूरी नहीं है और पैसा कमाना भी आपका मक़सद नहीं है तो काम वो करना चाहिए जिसे करने में आपको मज़ा आए, करने को यह सभी काम भी बुरे नहीं है लेकिन इन कामों को करने में मज़ा शायद ही किसी को आता हो और यूं भी आमतौर पर ऐसे काम ज्यादातर वही लोग करते हैं जिनकी मजबूरी है जिनके लिए काम करना उनका शौक नहीं, उनकी विवशता है क्यूंकि यदि वो काम नहीं करेंगे तो "जी" नहीं सकेंगे। आपने यदि शाहरुख खान की फिल्म "जब तक है जान" देखी होगी तो उसमें भी यही दिखाया गया है कि उसको अपने जीवन यापन के लिए यहाँ लंदन में क्या कुछ नहीं करना पड़ता जब जाकर वो थोड़ा कुछ कमा पाता है। खैर हम यहाँ फिल्म की बात नहीं कर रहे हैं। हम यहाँ बात कर रहे हैं काम को लेकर खुद की तुलना करने की जैसा मैंने उपरोक्त कथन में भी कहा कि यदि आपको पैसे की कमी नहीं है या जरूरत नहीं और आपकी शिक्षा भी अच्छी ख़ासी है तो फिर आपको अपनी रुचि और अपनी डिग्री के आधार पर अपने काम का चयन करना चाहिए ना कि महज़ यह दिखाने के लिए आप किसी पर निर्भर नहीं है फिर चाहे वो आपके परिवार के अन्य सदस्य के साथ-साथ आपके पति ही क्यूँ ना हो आप वो काम करें जिसमें आपकी कोई रुचि नहीं है मेरी नज़र में तो यह केवल अपने अहम को समझाने वाली बात है। इसे ज्यादा और कुछ नहीं इसलिए मैं ऐसे काम करने में दिलचस्पी नहीं रखती।

वरना यहाँ करने को तो मैं भी कुछ भी कर सकती हूँ यहाँ कौन आ रहा है मुझे देखने कि मैं क्या काम करती हूँ क्या नहीं, लेकिन मुझे शुरू से ही नौकरी की चाह नहीं रही कभी, इसलिए मैंने कभी काम करने के विषय में सोचा ही नहीं जबकि यहाँ "वुमन सेंटर" में भी मैं बतौर एक वोलेंटियर के रूप में काम कर सकती हूँ। जहां मुझे लोगों को अर्थात महिलाओं को रोज़मर्रा से जुड़ी आम चीज़ें सिखाना है जैसे इंटरनेट कैसे चलाते हैं ऑनलाइन शॉपिंग कैसे की जाती हैं वगैरा-वगैरा। लेकिन मैंने किया नहीं इसलिए नहीं कि मुझे पैसा नहीं मिलेगा बल्कि इसलिए कि मुझे पैसा कमाने कि चाह ही नहीं है। क्यूंकि मुझे उस काम में रुचि ही नहीं है। वरना देखा जाये तो पैसा तो मुझे ब्लॉग लेखन में भी नहीं मिलता। मगर फिर भी मुझे ब्लॉग लिखना पसंद है और सिर्फ इसलिए मैं लिखती हूँ। तो कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि काम वो करना चाहिए जिसे करने में आपकी रुचि हो न कि वो जो महज़ पैसा कमाने और खुद को आत्मनिर्भर दिखाने के लिए जबरन करना पड़े। काम में तुलना करना ठीक नहीं।  इस विषय में मेरी तो यही राय है आप का क्या ख़्याल है ?

Thursday 6 December 2012

हर पाकिस्तानी बुरा नहीं होता....




पाकिस्तान को लेकर आज हर हिन्दुस्तानी के दिलो दिमाग में एक अलग तरह की छवि बनी हुई है जिसे शायद हर कोई बुरी नज़र से ही देखता है और अब तो दुनिया के सबसे बड़े देश की नज़र में भी पाकिस्तान ही सबसे बुरा है क्यूंकि वहाँ आतंकवादियों को पनाह दी जाती है जमाने भर के आंतकवादियों की मूल जड़ पाकिस्तान में ही पायी जाती है लेकिन इन सब बातों के बावज़ूद भी क्या वाकई हर पाकिस्तानी बुरा होता है ? ना कम से कम यहाँ आने के बाद तो मैं इस बात को नहीं मानती हाँ यूं तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच आई दूरियाँ कभी मिट नहीं सकती। यह एक ऐसी दरार है जो कभी भर नहीं सकती। मगर तब भी हिदुस्तान से बाहर रहने पर पता चलता है कि यह दरार शायद उतनी बड़ी या गहरी भी नहीं कि भरी ना जा सके, मगर शायद हम ही लोग कहीं अंदर-ही अंदर ऐसा कुछ चाहते है कि यह दरार भर ही नहीं पाती। आखिर क्यूँ ? तो इस सवाल के जवाब में कुछ लोगों का यह मानना होगा कि यह सब सियासत की कारिस्तानियों की वजह से है। असल में आम जनता या आम आदमी तो एकता बनाए रखना चाहता है।

लेकिन यह राजनीति और उसे जुड़े कुछ भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं की वजह से यह दो देशों के बीच की खाई बजाय कम होने के दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। कुछ हद तक यह बात सही भी है, क्यूंकि अधिकतर मामलों में पाकिस्तानियों की वजह से ही हमारे यहाँ के मासूम और बेगुनाह लोगों की मौतें हुई है फिर चाहे वो बावरी मस्जिद वाला किस्सा हो या मुंबई अग्नि कांड सब मानती हूँ मैं, लेकिन क्या इस सब में पाकिस्तानियों ने अपने अपनों को नहीं खोया ? ज़रूर खोया होगा और शायद वहाँ के बाशिंदों के दिलो दिमाग में भी हम हिंदुस्तानियों के प्रति ऐसी ही भावनाएं भी होंगी लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि हर पाकिस्तानी बुरा है इस सब में भला वहाँ की आम जनता का क्या दोष है जो हम बजाय आतंकवाद से नफरत करने के पूरे देशवासियों से नफरत करते हैं। कुछ लोग तो पाकिस्तान के नाम तक से नफरत करते हैं जिसके चलते वह केवल गड़े मुरदों को उखाड़-उखाड़ कर ही अपने क्रोध की ज्वाला को हवा देते रहते है। आखिर क्यूँ ?

जबकि होना तो यह चाहिए कि आने वाली नयी पीढ़ियों को पूराने ज़ख्मो को भूलकर एक नयी शुरुआत करनी चाहिए क्यूंकि जो होना था वह तो हो चुका, अब अतीत में जाकर तो उस सब को सुधारा नहीं जा सकता है।  इसलिए अब नए एवं सुखद भविषय की कल्पना करते हुए हमें इन दोनों मुल्कों के बीच एक नयी शुरुआत करनी चाहिए। यहाँ शायद कुछ लोग मेरी इस बात से सहमत नहीं होंगे क्यूंकि "जिस तन लागे वो मन जाने" वाली बात भी यहाँ लागू होती है जिन्होंने इस बंटवारे को सहा है वह कभी चाहकर भी शायद इस नयी शुरुआत के विषय में सोच ही नहीं सकते और यही वजह है कि ऐसा हो नहीं पाता क्यूंकि पाकिस्तानियों को लगता है कि हिन्दुस्तानी भरोसे के काबिल नहीं और हिंदुस्तानियों को लगता है कि हमें तो जब भी प्रयास किया, अधिकतर मामलों में धोखा ही खाया हम भला कैसे विश्वास कर लें कि यह मुल्क दुबारा हमारे साथ गद्दारी नहीं करेगा क्यूंकि आये दिन होते फसादात और हादसे इस बात के गवाह हैं कि हिदुस्तान में फैले आतंकवाद के पीछे सिर्फ-और-सिर्फ पाकिस्तान का ही हाथ है। इतना ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में फैले आतंकवाद के पीछे केवल पाकिस्तान का हाथ यह बात भी कुछ हद तक सही भी है। क्यूंकि कई सारे प्रमाण है जो यह बातें सिद्ध करते हैं मगर क्या यह सब वहाँ कि आम जनता ने किया ? नहीं यह सब किया अपने मतलब के लिए सियासत के लालची लोगों ने, और बदनाम हो गया सारा देश  

लेकिन हम कितने ऐसे पाकिस्तानियों से मिले हैं जो वहाँ के हालात का सही ब्यौरा हमें दे सके। वहाँ के लोग किस के लिए क्या महसूस करते हैं यह बता सके। हम सिर्फ उसी पर यकीन करते है जो टीवी पर देखते हैं या समाचार पत्रों में पढ़ते हैं। मगर यहाँ रहने के बाद और पाकिस्तानी लोगों से मिलने के बाद मुझे ऐसा नहीं लगता कि वहाँ के बाशिंदों में केवल हम हिंदुस्तानियों के प्रति नफरत के अलावा और कुछ है ही नहीं, बल्कि यदि मैं सच कहूँ तो मुझे तो यहाँ रहे रहे पाकिस्तानियों में बड़ी आत्ममियता नज़र आयी, ऐसा लगा ही नहीं कि यह किसी दूसरे देश के बाशिंदे है वह भी उस देश के जिस देश से जाने अंजाने सिर्फ कही सुनी बातों के आधार पर ही हिंदुस्तान का बच्चा-बच्चा नफरत करता है। उनके यहाँ भी शायद हम हिंदुस्तानियों को लेकर ऐसी ही सोच हो जिसका हमें पता नहीं, मगर क्या यह ठीक है यहाँ मैं आप सबको एक बात और बताती चलूँ कि मैं किसी देश का पक्ष या विपक्ष लेकर नहीं चल रही हूँ मगर हाँ एक पाकिस्तानी महिला से मिलने के बाद मुझे जो अनुभव हुआ है उसे आप सबके साथ सांझा करने की कोशिश कर रही हूँ। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि मैं भोपाल की रहने वाली हूँ लिहाज़ा मेरा मुस्लिम भाइयों के बीच रहना बहुत हुआ है। लेकिन पाकिस्तानियों से मैं यहीं आकर मिली इसके पहले केवल उस देश के बारे में किताबों और फिल्मों में ही देखा सुना और पढ़ा था। कभी किसी से मुलाक़ात नहीं हुई थी इसलिए एक अलग ही छवि थी मेरे मन में उन्हें लेकर।  

लेकिन जब यहाँ रहकर उनसे मुलाक़ात हुई, तो मुझे एक बड़ा ही सुखद अनुभव हुआ, और लगा कितना गलत सोचती थी मैं, हुआ यूं कि मुझे डॉ के क्लीनिक जाना था अपना रजिस्ट्रेशन करवाने ताकि जब जरूरत पड़े तो आसानी से एपोइंटमेंट मिल सके। उसी सिलसिले में मेरी मुलाक़ात हुई डॉ. फातिमा से जिनकी उम्र महज़ 21-22 साल की होगी। वैसे तो वह स्वयं डॉ हैं और एक डॉ का तो पेशा ही ऐसा होता है कि उसे हर किसी व्यक्ति से बड़े ही नर्म दिली से पेश आना होता है। मगर फिर भी उन मौहतरमा का स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा। उनसे बात करते वक्त मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं बरसों बाद अपने ही कॉलेज की किसी दोस्त से मिल रही हूँ। एक मिनट के लिए भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि वह एक डॉ.है और मैं उसके पास साधारण जांच के लिए आयी हूँ या वह किसी ऐसे देश से ताल्लुक रखती है जिस देश से मेरे देश के लगभग ज़्यादातर लोग केवल नाम से ही नफरत किया करते है। लेकिन उसका अपनापन देखकर मुझे मन ही मन बहुत खली यह बात कि इस देश में भी तो अपने ही लोग हैं यहाँ भी तो हिंदुस्तानियों जैसे हम आप जैसे इंसान ही रहते हैं। इनकी रगों में भी तो कहीं न कहीं हिंदुस्तान का ही खून बहता है फिर क्यूँ हम लोग बेवजह वहाँ की आम जनता से भी इतनी नफरत करते हैं। जिन्होंने हमारा कभी कुछ नहीं बिगाड़ा लेकिन उनका क़ुसूर केवल इतना है कि वह पाकिस्तान में रहते हैं और वहाँ की आवाम का हिस्सा है। यह तो भला कोई कारण ना हुआ किसी इंसान से नफरत करने का तब यह एहसास होता है, कि वाक़ई

"गेहूँ के साथ घुन पिसना किसे कहते हैं"
या 
"एक मछ्ली सारे तालाब को कैसे गंदा साबित करवा देती है"

इस सबके चलते कम से कम यहाँ एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती है कि यहाँ कई सारे अलग-अलग देशों से आए लोग यहाँ एक परिवार की तरह काम करते हैं यहाँ हिंदुस्तान पाकिस्तान का भेद भाव देखने को नहीं मिलेगा आपको, न ही किसी और देश का किसी और देश से, यहाँ सब एक ही श्रेणी में गिने जाते हैं और अब तो गोरे काले का फर्क भी उतना नहीं रहा। मगर हाँ है ज़रूर, इसमें भी कोई दो राय नहीं है। मगर आमतौर पर आपको महसूस नहीं होगा, मगर अपने हाँ तो जाति मतभेद ही इतने हैं कि यह सब तो वहाँ रहकर दूर की बातें ही नज़र आती हैं। हम आपस में ही लड़-लड़कर मरे जाते हैं जिसका फायदा यह बाहर के लोग उठा ले जाते है। खैर अंत में तो मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि एक मछ्ली के गंदा होने की वजह से से सारे तालाब को गंदा ना समझे, हालांकी यहाँ एक और कहावत भी लागू होती है कि "हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती" अर्थात "आप एक कपड़े के टुकड़े से पूरे थान का अनुमान नहीं लगा सकते" मगर फिर भी मैं यह ज़रूर कहना चाहूंगी कि पाकिस्तान में रहने वाले भी अपने ही हैं और यकीन मानिए बहुत आत्मीयता और प्यार है उनके मन में भी जरूरत है बस वो अँग्रेजी की कहावत के अनुसार "आइस ब्रेक" करने की...उस डॉ से मिलकर तो मुझे यही अनुभव हुआ। इस विषय में आपका क्या खयाल है ?                 
  

Saturday 1 December 2012

कुछ ख्याल ...


पिछले कुछ दिनों से लगातार देख रही हूँ BBC हिन्दी न्यूज़ पेज पर जो फेसबुक पर उपलब्ध है, वहाँ फ़िल्मी सितारों की पढ़ाई को लेकर काफी समाचार पढ़ने में आ रहे हैं। जैसे करिश्मा कपूर केवल पाँचवी पास है और सलमान आठवीं पास और अन्य कई फिल्मी सितारे ऐसे हैं जिन्होंने कभी कॉलेज का मुँह भी नहीं देखा वगैरा वगैरा। अब यह सब छपना स्कूल जाते बच्चों के लिए अच्छा है या बुरा यह तो मैं कह नहीं सकती। मगर यह सब पढ़कर मुझे अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया। मैं और मेरा चचेरा भाई जब हम छोटे थे तो अक्सर पढ़ाई को लेकर बातें हुआ करती थी। उन दिनों पढ़ाई में न मुझे कोई खास दिलचस्पी थी और ना उसे किन्तु मुझे बड़े होने के नाते उसे प्रोत्साहन देते रहना पड़ता था। तब वो अक्सर कहा करता था अरे दीदी क्या रखा है पढ़ाई लिखाई में "लालू प्रसाद यादव" को ही देख लो, वह कहाँ बहुत पढ़े लिखे हैं। मगर आज कितने बड़े नेता है और जम कर पैसा कमा रहे हैं वो अलग, अब शायद आपको लगे कि इतने छोटे बच्चे ने आखिर लालू जी का ही उदाहरण क्यूँ दिया, तो मैं आपको बताती चलूँ कि वो इसलिए क्यूंकि उन दिनों मेरे चाचा जी को राजनीति में जाने का भूत सवार था जिसके चलते घर में सारा-सारा दिन वही माहौल रहा करता था। केवल राजनीति ही राजनीति की बातें, नेताओं की बातें तो यह उस ही का प्रभाव था जिसके चलते उस छोटे से बच्चे ने भी अपना मन बना लिया था राजनीति में जाने का और यह कहना शुरू कर दिया था कि मुझे नहीं पढ़ना, मैं तो बड़ा होकर लालू जी जैसा नेता बन जाऊंगा फिर मैं भी खुश और पापा भी खुश ...:-)

खैर यह तो बचपन की बात थी, आज वही छोटा सा बच्चा अब बड़ा हो चुका है और स्टेट बैंक में बैंगलूर में पी.ओ के पद पर नौकरी कर रहा है मगर जब यह फ़िल्मी सितारों वाली बातें और बचपन का यह किस्सा दिमाग में एक साथ टकराये, तो दिमाग में एक बात घूम गयी कि क्या पढ़ाई केवल पैसा कमाने के लिए की जाती है या हम स्वयं अपने बच्चों को केवल इसलिए शिक्षा प्राप्त करवाते हैं कि हम आगे चलकर उसके जीवन में केवल उसकी पे-स्लिप देखकर उसकी काबलियत का अंदाज़ा लगा सकें या फिर वह खुद अपनी काबलियत को अपनी पे-स्लिप के आधार पर तौल सके कि वह कितने पानी में है अर्थात यदि वह अगर अच्छा खासा कमा पा रहा है तो वह अपने जीवन में सफल है और यदि नहीं कमा पा रहा है तो असफल है। फिर भले ही वह कितना भी शिक्षित क्यूँ ना हो। मेरी इस बात से शायद कोई सहमत ना हो, मगर मेरी नज़र में तो वास्तविकता शायद यही है। क्यूंकि इस ही के आधार पर भावी जीवन निर्भर करता है, शादी भी इसी आधार पर होती है। मुझे आज भी अच्छे से याद है मेरी शादी के वक्त मुझसे मेरे माता पिता ने पूछा ज़रूर था कि तुमको लड़का पसंद है या नहीं मगर मम्मी ने धीरे से यह भी कहा था कि लड़कों की कमाई देखी जाती है शक्ल सूरत सब बाद में आती है :) यह तो मेरी किस्मत अच्छी थी जनाब, जो मेरे पतिदेव देखने में अच्छे खासे निकले :)

खैर बहुत हुई मस्ती, असल मुद्दा तो यह है कि आखिर खुद शिक्षित होते हुए भी शिक्षा को लेकर हमारी मानसिकता इतनी संकीर्ण क्यूँ है माना कि हर माता-पिता अपने बच्चे को एक काबिल और सफल इंसान के रूप में देखना चाहते है मगर उसका पैमाना उसकी कमाई क्यूँ उसके गुण क्यूँ नहीं ? मुझे तो ऐसा लगता है कि बढ़ती प्रतियोगिताओं और उसे से जुड़े आत्महत्या के कारणों के पीछे कहीं न कहीं यह भी एक मुख्य कारण है। जो ना केवल विद्यार्थियों बल्कि नौकरीपेशा लोगों में भी देखने को मिल रहा है। जाने क्यूँ मुझे ऐसा लगता है कि जो हमने अपने स्कूल में सीखा कि जो है जितना है उसमें ही संतोष करना सीखो और खुश रहो। या फिर सिर्फ इतना प्रसाय करो कि कबीर दास जी के दोहे के मुताबिक

"साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम्ब समाय 
मैं भी भूखा न रहूँ साधू न भूखा जाये"         



मगर आज कल तो जैसे यह बातें सिखायी ही नहीं जाती स्कूल में, आज कल तो बस यह सिखाया जाता है कि सफल वही है जो आगे जाकर ज्यादा से ज्यादा पैसा बना सके, नोट छाप सके क्यूँ क्यूंकि दुनिया केवल टोपर्स को याद रखती है जिसका नाम पहला लोग उसे ही याद रखते है दूसरे को नहीं, आज जो वातावरण है उसके अनुसार शायद यही ठीक हो क्यूंकि जो जमाने के साथ नहीं चलता वह पीछे रह जाता है और जो पीछे रह गया वो कितना भी काबिल और गुणी क्यूँ ना हो, कहलायेगा लूज़र ही, कभी-कभी जब गहराई में जाकर सोचती हूँ, तो बहुत अजब गज़ब सी महसूस होने लगती है यह दुनिया और इसके सिद्धांत, तब ऐसा लगने लगता है जैसे भगवान ने भी अब इंसान बनाना बंद कर दिया है। अब तो केवल पैसा कमाने के लिए रोबोट बनाए जाते है अब ज़मीन से जुड़े सीधे, सच्चे, सदा जीवन गुज़ारने वाले संवेदनशील लोग का युग जा चुका है अब केवल प्रेक्टिकल सोच वाले लोगों का युग है हम जैसे इमोशनल फूल्स का नहीं .... इसलिए शायद चमक दमक से भरी चकाचौंध से भरी इस दुनिया के फ़िल्मी सितारों की यह शिक्षा सम्बन्धी बाते भी लोगों तक यही संदेश पहुंचा रही है कि पढ़ाई लिखाई से कुछ नहीं होता कामयाब होने के और भी कई तरीके है। बस उसके लिए कुछ भी कर गुज़रने का जज़्बा होना चाहिए, फिर चाहे वो नैतिक हो या अनैतिक आज की तारीख में सफल वही है जिसका नाम हो गया हो, वो कहते हैं ना 

 "कुछ लोगों का नाम उनके काम से होता है ,और कुछ का बदनाम होकर"

बस इस ही नसीहत पर चलते है आज महानगरों के अधिकाश लोग मुझे तो ऐसा ही लगता है आपका क्या ख़याल है ....?