Thursday 23 February 2012

ख्वाइशें ....





"कमबख़्त यह ख्वाइशों का काफिला भी बड़ा अजीब होता है
गुज़रता भी वहीं से हैं जहां रास्ते नहीं होते"   

इंसान एक मगर उसकी ख्वाइशें अनेक वो भी ऐसी-ऐसी की हर इंसान बस यही कहता नज़र आता है।

हज़ार ख्वाइशें ऐसी की हर ख्वाइश पर दम निकले, 
जितने भी निकले मेरे अरमान बहुत कम ही निकले....

हर इंसान के साथ आख़िर ऐसा क्यूँ होता है। किसी के पास सब कुछ है, तो भी उसे और भी बहुत कुछ पाने की चाह है और जिसके पास कुछ भी नहीं उसे तो किसी न किसी चीज़ की चाह होना लाज़मी है ही, क्यूँ कभी कोई इंसान संतुष्ट नहीं होता ? शायद इसलिए, कि जिस दिन इंसान अपने आपसे संतुष्ट हो गया उस दिन उसकी आगे बढ़ने की चाह ख़त्म हो जायेगी और यदि ऐसा हुआ तो उसका विकास रुक जायेगा। इसलिए शायद किसी ने ठीक ही कहा है।

"इंसान की ख्वाइश की कोई इंतहा नहीं 
दो गज़ ज़मीन चाहिए दो गज़ कफन के बाद" 

मगर जैसा कि मैंने उपरोक्त पंक्तियों में कहा है कि कमबख़्त यह ख्वाइशों का काफिला भी अजीब होता है। जब तक मंज़िल मिल नहीं जाती तब तक ऐसा ही महसूस होता रहता है, कि इन ख्वाइश के पूरा होने के लिए कोई रास्ता ही नहीं है। कुछ ख्वाइशों को तो हम भूलकर अपने जीवन में आगे बढ़ते रहते हैं मगर वास्तव में उन्हें भी हम भूला नहीं करते कहीं न कहीं हमारे मन में वो ख्वाइशें सदा बनी रहती हैं। जिनको लेकर यही लगता है कि काश यह ख्वाइश कभी पूरी हो पाती तो कितना अच्छा होता। मगर इंसान के जीवन में कुछ ख्वाइशें ऐसी भी होती हैं। जिसका उसे यकीन होता है,कि यह तो पूरी हो ही सकती हैं और होती भी हैं मगर यह ज़रूरी नहीं होता की एक बार के प्रयास से ही वो पूरी हो जायें, कई बार बार-बार प्रयास करने पर भी सफलता देर से हाथ लगती है। जिसके कारण हम कभी-कभी बहुत ही हताश और निराश हो जाते हैं ऐसे में जरूरत होती है धेर्य रखने की जो कुछ लोग ऐसी परिस्थिति में नहीं रख पाते।

नतीजन कभी-कभी तो स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है कि कुछ पलों के लिए ऐसा भी लगने लगता है कि अब तो बस दुनिया ही ख़त्म है। अब कुछ बचा ही नहीं जीने के लिए, ऐसी परिस्थियों के चलते कुछ लोग तो इस कदर हताश और निराश हो जाते है, अपनी ज़िंदगी से कि आत्महत्या जैसा गंभीर कदम तक उठा लेते हैं। उस वक्त हम अक्सर यह भूल जाते हैं, कि "जहां चाह हो वहाँ राह भी निकल ही आती है" इसलिए किसी भी परिस्थिति से घबराना नहीं चाहिए बल्कि ठंडे दिमाग से उसका हल निकालने के बारे में सोचना चाहिए। मगर उस वक्त और उन हालातों में उस इंसान की मनस्थिति इन बातों को समझने की शक्ति जैसे खो ही देती है। तब दिमाग में अधिकतर नकारात्मक खयाल ही ज्यादा आते है। कोई समझाये तो भी कुछ समझ नहीं आता है, बस एक ही बात मन में रह-रह कर उठती है, कि जिस पर गुज़रती है वही जानता है। कहना बड़ा आसान होता है, या यूं कहिये कि किसी दूसरे को समझना भी एक बार आसान लगता है, मगर जब वही स्थिति खुद पर आती है, तो अक्सर हम खुद को ही नहीं समझा पाते कि क्या सही है और क्या गलत। तब हमारे मन में भी तो यही आता है ना!!!

"जाके पैर न फटे बिवाई    
वो क्या जाने पीर पराई" 

वैसे देखा जाये तो ऐसी परिस्थियाँ आमतौर पर सभी के जीवन में एक न एक बार ज़रूर आती हैं। कुछ लोग इन परिस्थियों से पार पा जाते है। तो कुछ लोग इन से जूझते रहते है और कुछ वो जो हारकर कोई गलत कदम उठा लिया करते हैं। मैं यह तो नहीं कहती, कि ऐसा बड़ों के साथ कम और बच्चों के साथ ज्यादा होता है। लेकिन देखा जाये तो यह भी गलत नहीं होगा। माना कि ऐसी परिस्थियाँ दोनों के जीवन में ही आती है, मगर बड़े लोग खुद पर शायद काबू पाने में थोड़े ज्यादा सक्षम होते हैं। बच्चों से यहाँ मेरा तात्पर्य (टीनएजर्स) से हैं यानि कि 13,14 साल के बच्चों से लेकर 20,22 साल तक के लोग। मुझे ऐसा लगता है, कि यही वो आयु वर्ग है जो जीवन में आने वाली नित-नई परिस्थियों का सामना करते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ना सीख रहे होते हैं और उस वक्त उन बेचारों की गिनती न तो बच्चों में होती है और ना ही बड़ों में जिसके कारण वह कभी-कभी परिस्थितियों के अनुसार सही निर्णय नहीं ले पाते। शायद यही एक कारण हो, कि परीक्षा में फेल हो जाने जैसे मामूली कारण को भी वह झेल नहीं पाते और बात आत्महत्या जैसा गंभीर रूप धारण कर लेती है या फिर प्यार में नाकायाबी भी कुछ हद तक ऐसा ही गंभीर परिस्थिति में ला खड़ा कर देती है। 

ऐसा केवल मेरा कहना या मानना नहीं है, बहुत सारी फिल्मों में भी यह बात दिखाई गई है। फिर चाहे वो 3 Idiots जैसी कोई फिल्म हो या फिर मुन्ना भाई MBBS जैसी कोई फिल्म, खैर हम बात कर रहे थे उन टीनएजर 
बच्चों के भटकने की वैसे देखा जाये तो गलती उनकी भी नहीं है आज कल के आधुनिक युग में बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा ने बच्चों और अभिभावकों दोनों को इस कदर हैरान परेशान कर रखा है कि शायद दोनों ही अपने-अपने दायित्वों को भूलकर बस भागे चले जा रहे हैं इस प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में, जिसके चलते इसका सबसे ज्यादा दबाव पड रहा सिर्फ और सिर्फ बच्चों पर, जहां उनको हर ओर से मात्र इतना कहा जा रहा है और समझाया जा रहा है कि 

"जीवन एक दौड़ है यदि तुम तेज़ नहीं भागोगे तो 
कोई और तुम को कुचलकर आगे निकल जाएगा"

इसलिए बस भागो और हमेशा अव्वल आने की कोशिश में लगे रहो। मगर कोई उनसे एक बार भी यह पूछने का कष्ट नहीं करता कि तुम क्या चाहते, और जो भी चाहते उसको करने के लिए सही तरीका क्या है। जबकि मेरे हिसाब से तो अभिभावकों को खुद आगे बढ़कर अपने बच्चे की इच्छा अनुसार उसका मार्ग दर्शन करना चाहिए।  मगर अफसोस कि आज के इस युग में भी बहुत ही कम अभिभावक ऐसा कर पाते हैं। मेरी तो यह समझ में नहीं आता की जब अभिभावक खुद उन परिस्थितियों से गुज़र चुके होते हैं तो फिर वो बजाए अपने उन अनुभवों को अपने बच्चों के साथ सांझा करने के उन पर अपनी मर्ज़ी क्यूँ थोपते है। ? फिर चाहे वो मामला पढ़ाई लिखाई का हो या प्यार मोहब्बत का, बाकी मुझे तो ऐसा लगता है, कि उस उम्र में तो माता-पिता को बच्चों से दोस्तों जैसा व्यवहार करते हुए अपने जीवन के ऐसे अनुभवों को अपने बच्चों के साथ सांझा करना ही चाहिए। इससे ना सिर्फ बच्चे आपके और भी करीब हो सकते हैं। बल्कि उनको अपने जीवन में आने वाली वैसी परिस्थियों से लड़ने की प्रेरणा भी मिल सकती है।

अन्तः बस इतना ही कहना चाहूंगी की परीक्षा का समय नजदीक आ रहा है और फिर उसके बाद परिणाम, हमारी कोशिश बस इतनी होनी चाहिए कि हम न सिर्फ अपने बच्चों को बल्कि दूसरों के बच्चों को भी इतना प्रोत्साहन दें कि उसका मन भी आगे आने वाली परिणाम रूपी समस्या से जूझने के लिए मजबूत हो सके और यदि संभव हो तो अपने आसपास रह रहे ऐसे अभिभावकों को भी समझाने की कोशिश करें कि यदि परिणाम अच्छा न भी आया तो भी बच्चों को शांत मन और ठंडे दिमाग से समझाये न की उसको यह एहसास दिलाये कि  उसने अव्वल न आकर समाज में उनकी नाक कटवादी अब तेरे लिए दुनिया ख़त्म ....  

मुझे तो केवल एकमात्र यही एक तरीका सही नज़र आता है आपको क्या लगता है?  

Saturday 18 February 2012

स्मृतियाँ


स्मृतियाँ 
यूं तो सभी के लिए स्मृतियों के अपने अलग ही मायने होते हैं। स्मृतियाँ जीवन का वो फूल होती है जो सदा ही अपनी सुगंध से आपके जीवन को महकाया करती है और यदि आपने कभी ध्यान दिया हो तो कुछ स्मृतियाँ ऐसी भी होती है जो फिक्स होती है। या यूं कह लीजिये कि पहले से निर्धारित होती है। जब भी उनसे जुड़ा हुआ वो मौका आपकी ज़िंदगी में दुबारा आयेगा जिसे वो स्मृतियाँ जुड़ी है, तब-तब वह सारी स्मृतियाँ एक ही अंदाज़ में, वह सारे सुहाने और अनमोल पल लिये आपकी आँखों में स्वतः ही तैरने लगती हैं। उस स्मृति से जुड़ा एक-एक लम्हा आपकी आँखों में ऐसे चला करता है। जैसे वो कोई स्मृति नहीं,बल्कि कोई चलचित्र हो। जिसे हर बार उस एक खास दिन उस खास अवसर पर देखना हम सभी को बहुत अच्छा लगता है। वह दिन किसी की भी ज़िंदगी में कोई सा भी दिन हो सकता है। यह हर एक व्यक्ति कि अपनी-अपनी नीजी सोच पर निर्भर करता है, कि उसके लिए उसके जीवन का कौन सा पल ज्यादा मायने रखता है। जैसे किसी के लिए उसके जीवन में सफलता प्राप्त करने का दिन महत्वपूर्ण हो सकता है, तो किसी के लिए उसका जन्मदिन, तो किसी के लिए विवाह का दिन,तो किसी के लिये विवाह की वर्षगांठ,इत्यादि...उसी तरह आज मेरी आँखों में भी, मेरे विवाह के समय की कुछ मधुर स्मृतियाँ चल रही है। जी हाँ आज 17 फरवरी 2012 मेरे विवाह की 11वी वर्षगांठ है।  लेकिन जब तक आप सब यह पोस्ट पढ़ेंगे तब तक यह तारीख निकल चुकी होगी।

खैर आज 11 का शगुन पूरा हुआ आज से ठीक 11 साल पहले हम दोनों इस पवित्र बंधन में बंधे थे। तो सोचा अपने विवाह की कुछ स्मृतियाँ भी आपके साथ क्यूँ ना बाँट ली जायें।  यूं देखा जाये तो मेरी शादी बहुत जल्दी हो गई थी।जल्दी बोले तो 22 साल कि उम्र में ही मेरी शादी हो गई थी। उस वक्त तो मेरी पढ़ाई भी पूरी नहीं हो पायी थी और मेरी शादी कर दी गई। हालांकी तब मैंने अपने माता-पिता से शादी के लिए मना भी किया था, कि अभी कम से कम एक साल और रुका जा सकता है जल्दी क्या है। एम.ए तो कम से कम पूरा हो जाने दीजिये। मगर शायद मेरे पापा की तबियत को देखते हुए सभी ने यह निर्णय लिया कि पढ़ाई तो शादी के बाद भी पूरी हो सकती है। क्यूंकि तब मेरे पापा की बाईपास सर्जरी हो चुकी थी। इसलिए उस बात को और पापा की तबियत को देखते हुए मेरी शादी कर दी गई। जिस वक्त मेरी शादी हुई थी, उस वक्त में एम.ए प्रथम वर्ष में ही थी। एक दिन पापा को मेरे पापा जी का फोन कॉल आया, कि हमने आपकी बेटी का बायोडेटा और फोटो देखा है, हमको लड़की पसंद है। आप लोग दिवाली पर यहाँ आ जाइये लड़का दिल्ली से आया हुआ है। वह भी देख ले तो रिश्ता पक्का समझिए। 

बस फिर क्या था। मेरे माता-पिता को जैसे बस इस ही एक मौके की तलाश थी दिवाली के दो चार दिन बाद हम लोग जबलपुर गए शुक्रवार को पहुंचे थे। शनिवार को मेरे मम्मी पापा लड़का देखकर आए और इतवार को मुझे देखने के लिए न्योता दे आये इतवार की शाम को देखना दिखाना हुआ और सोमवार को यानि अगले ही दिन सगाई भी हो गई। सब कुछ इतना जल्दी हुआ कि मुझे ही पता नहीं चला 
खैर वापस आकर जब अपनी सबसे खास सहेली को मैंने यह बताया तो उसे भी यकीन नहीं आया। वो बोली हट रे पागल और कोई टोपिक नहीं मिला तुझे मज़ाक करने के लिए सोचिए जरा  किसी को भी यकीन ही नहीं आ रहा था कि वाकई  में मेरी सगाई हो चुकी है और 3 महीने बाद मेरी शादी है। देखा जाय तो उस वक्त न तो मेरे श्रीमान जी का मन था शादी करने का और ना ही मेरा बस अपने-अपने माता -पिता की खुशी की खातिर हम दोनों ने हाँ करदी थी। मगर आज सोचती हूँ तो लगता है, जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। ऐसा परिवार, ऐसा जीवन साथी शायद किस्मत से ही मिलता है।


आज भी जब भी शादी की वर्षगांठ आती है तो मुझे शादी से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बात याद आती है। जैसे 12 फरवरी को मेरे घर मेरी शादी की पार्टी दी गई थी उन लोगों के लिए जो शादी में शामिल होने जबलपुर नहीं आ सकते थे। मतलब जैसे मेरे पापा के ऑफिस के लोग, मेरे पापा वेटिनरी डॉ.हैं। उनका पूरा स्टाफ, मेरी सहेलियाँ, कुछ भईया के भी खास दोस्त, कुछ खास मौहोले वाले लोग भी, कुछ एक रिश्तेदार भी उन सभी के लिए इस पार्टी का आयोजन किया गया था। पार्टी ऐसी लग रही थी जैसे बिन दूल्हे का रिसेप्शन। अगले दिन मेरे एम.ए की कक्षा के मेरे सभी सहपाठी जो खास थे वह भी और जिन से सिर्फ जानपहचान थी की हाँ यह सब हमारी ही कक्षा में हैं, मगर बात नहीं हुई थी कभी सभी लोग मुझसे मिलने आए,मुझे बहुत-बहुत अच्छा लगा की सबके सब मेरी शादी में आए जिसकी मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी की सभी आजाएंगे। खूब मस्ती हुई नाच गाना हुआ और उस दिन सबने मुझे देख कर कहा था कि यार तुझे देखकर तो ज़रा भी लग ही नहीं रहा है कि तेरी शादी होने वाली है। मैंने कहा लगेगा भी कैसे जिसकी शादी होने वाली होती है, उसके सर पर सिंग थोड़ी न उग आते है हा हा हा !!! मगर बात वो नहीं थी अपना घर, अपना मुहल्ला, अपना शहर यहाँ तक के अपने सभी दोस्तों को छोड़ कर जाने का ग़म जो हर लड़की को होता है। मुझे भी बहुत हो रहा था। शायद इस ही वजह से मेरे चहरे पर वो रोनक नज़र नहीं आरही होगी उनको खैर14 फरवरी की रात में हम सबको निकालना था जबलपुर के लिए उस वक्त ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे अब कभी वापस लौटकर यहाँ आना होगा ही नही।
  
मुझे आज भी बहुत याद आता है, जब अपने उस घर से लिपट कर रोई थी मैं, जिसकी स्मृतियाँ सदा मेरे अंदर ज़िंदा रहेंगी जहां मैंने अपनी ज़िंदगी के 22 साले गुज़ारे थे KG-2 से लेकर एम.ए तक की मेरी सारी पढ़ाई उस ही घर में हुई थी और आज वहाँ कुछ भी नहीं है। खाली मैदान के सिवाय क्यूंकी वह एक सरकारी मकान था और पापा के रिटायर होने के बाद हमें वह घर छोड़ना पड़ा और अब वहाँ कुछ भी नहीं है वह सारे घर मिटा दिये गए हैं और अब वहाँ फिलहाल खाली मैदान है खैर हम बात कर रहे थे शादी की तो 15 को हल्दी 16 को महंदी और 17 को शादी भी हो गई दिन जैसे पलक झपके निकल गए और आज देखती हूँ तो लगता है, एक वो दिन भी थे...और अब लगता है एक यह दिन भी हैं। जहां पलक झपकते ही साल निकल जाता है और पता भी नहीं चलता। तो दिल से निकलता है


"सुबह से यू हिन शाम होती है उम्र उन्हीं तमाम होती है"।
चलिये स्मृतियों के नाम पर मैंने बहुत बोर कर लिया आज आप सभी को अगली पोस्ट के साथ फिर किसी नये या पुराने विषय पर बात होगी तब तक के लिए आज्ञा दीजिये 
नमस्कार

Tuesday 14 February 2012

फ़िल्में और प्यार का इज़हार ....


हिन्दुस्तानी हिन्दी फ़िल्में, कुछ नई, कुछ पुरानी फ़िल्में, 

फ़िल्में यह मेरा सबसे ज्यादा पसंदीदा विषय रहा है। हालांकी यह बात अलग है, कि मैंने अब तक इस विषय पर कुछ खास नहीं लिखा है। अभी तक तो ज़्यादातर मैं अपनी पोस्ट पर बस कुछ एक गीतों का ही प्रयोग करती आई हूँ। मन तो बहुत हुआ कि फिल्मों के बारे में कुछ लिखूँ , वो भी किसी एक फिल्म की समीक्षा नहीं, बल्कि सभी फिल्मों का कुछ मिलाजुला सा स्वरूप। मगर पता नहीं क्यूँ लिख नहीं पाई आज कोशिश कर रही हूँ, इस उम्मीद के साथ कि शायद मेरी यह पोस्ट भी आप सभी को पसंद आये।

फ़िल्में एक आम और खास आदमी की ज़िंदगी का दूसरा रूप होती हैं। क्यूंकि फिल्मों का आधार आम जनजीवन से जुड़ा होता है। हर एक कहानी के पीछे आम जनजीवन से जुड़ी बातें ही होती है। फिर चाहे वो आम ज़िंदगी की रोज़मर्रा से जुड़ी कोई समस्या हो, या फिर कोई बड़ी घटना। शायद इसलिये फ़िल्में हमारे जीवन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। देखा जाये तो, "कितनी अजीब बात है अपनी ही ज़िंदगी के किस्से और कहानियों को पर्दे पर देखना सभी को कितना अच्छा लगता है" और एक व्यक्ति उससे ही मनोरंजन भी पाता है। जबकि वही फिल्मों के माध्यम से दिखाई जाने वाली बात, उसकी खुद की ज़िंदगी में जब हो रही होती है, या हो चुकी होती हैं। उस दौरान उसे फिल्मों का ख़्याल तक नहीं आता और वह उस वक्त एक अलग ही मनोदशा से गुज़र रहा होता है। जबकि असल में कोई भी व्यक्ति जाता ही फिल्म देखने इसलिए है, ताकि रोज़मर्रा की ज़िंदगी से हटकर कुछ मनोरंजन कर सके। मगर अंत में व्यक्ति को मज़ा भी ज़िंदगी को पर्दे पर देखने में ही आता है। इस तरह इंसान सदा ही ज़िंदगी से जुड़ा ही रहता है।

खैर अब जो जानकारी मैं आपको देने जा रही हूँ। वह जानकारी मैंने मेरे बड़े भाई श्री निमिष गौड़ जी के ब्लॉग "प्रतिबिंब" से उनकी अनुमति मिलने के बाद प्राप्त की है। क्या आप जानते हैं यह सामान्य जानकारी है कि हर साल हमारे यहाँ निर्मित करीब ४०० हिन्दी फ़िल्मों में से मुश्किल से ५यानि २०-२५ फ़िल्में ही हिट हो पाती हैं या यूँ कहा जाये कि घाटे का सौदा नहीं होतीं हैंफ़िर भी हर साल निर्मित होने वाली फ़िल्मों की संख्या बढ़ती जा रही हैऐसा क्यों ?
निरंतर घाटा होते हुये भी यह व्यापार हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा हैआखिर इसके पीछे कौन सा Economics है? जी हाँ फ़िल्में एक सृजनात्मक कार्य होने के बावज़ूदइसमें लगने वाले अधिक संख्या के धन के कारण इस क्षेत्र में commerce और economics का भी दखल है। हिन्दी फ़िल्मों को जो झटका टीवी और इंटरनेट के आगमन से लगा हैवह अभी तक उससे उबर नहीं पायी हैआप लोगों ने कभी न कभी किसी पुरानी फ़िल्म जैसे की "छोटी सी बात,रजनीगंधासावन को आने दोआदि को देखते हुये सोचा होगा कि आज ऐसी फ़िल्में क्यों नहीं बनती हैं.इसका एक कारण टीवी का आगमन हैजिसने लोगों को घर बैठे ही फ़िल्में उपलब्ध करा दी हैं। लेकिन उसके बावजूद भी आज भी सिनेमा घर मे जाकर फिल्म देखने का अपना एक अलग ही मजा है। हालांकी यहाँ टीवी को लेकर कई सारे प्रश्न उठते हैं। जैसे टीवी तो सारी दुनिया में आया फिर hollywood और दक्षिण भारतीय फिल्में क्यूँ नहीं प्रभावित हुई वगैरह-वगैरह.. आपके इन सब सवालों का ज़वाब आपको इस लिंक पर मिल जाएगा।


अभी तो केवल हम हमारी हिन्दी फिल्मों के सकरात्मक पहलुओं को देखते हुए आगे बढ़ते है। फिल्मों को देखने का और पसंद करने का भी हर एक व्यक्ति का अपना एक अलग नज़रिया होता है। अपनी एक अलग पसंद होती है। किसी को आक्रामक फ़िल्में पसंद आती हैं, तो किसी को पारिवारिक, तो किसी को मसाला फ़िल्में जिसमें प्यार, इश्क, मुहोब्बत, से लेकर मार धाड़ खून-खराबा बदले जैसी भावनाओं का भरपूर समावेश होता है। जैसा कि हमारी 80 के दशक की पुरानी हिन्दी फिल्मों में अक्सर देखने को मिलता था। जिनका हीरो आम आदमी से बहुत आंतरिक तौर पर जुड़ा होता था। शायद इस ही तरह के रोल निभाने के कारण आज अमिताभ बच्चन महानायक कहलाते हैं  खैर यदि मैं इस विषय में चली गई तो यह लेख-लेख न रहकर पुराण बन जाएगा। इसलिए हम वापस आते हैं फिल्मों पर 

हाँ तो मैं बात कर रही थी फिल्मों की, अब देखिये वैसे तो ज़िंदगी का हर पहलू अपने आप में बहुत मायने रखता है और फिल्मों में भी लगभग सभी पहलुओं पर नज़र डाली जाती है। मगर मुख्य केंद्र बिन्दु ज्यादातर एक ही होता है और वो है प्यार प्यार और सिर्फ प्यार जो लगभग हर हिन्दी फिल्म में होता ही है। फिर चाहे वो काल्पनिक दृष्टि से ही क्यूँ न दिखाया गया हो। अब आप खुद ही देख लीजिये कुछ ही दिनों बाद "वेलिंटाइन डे" आने वाला है। जिसके चलते टीवी के सारे चैनलों पर "प्रेम रस" से सराबोर फिल्मों का सिलसिला शुरू हो जाएगा, क्यूंकि यह एक आम इंसान की ज़िंदगी का एक ऐसा पहलू है। जो सभी के दिलों को छु जाता है। कोई चाहे कुछ भी क्यूँ न कहे यह हर एक इंसान की ज़िंदगी का ऐसा रंग है, जिससे आज तक कोई भी व्यक्ति अछूता नहीं रहा है। इसलिए हर प्यार पर आधारित फिल्म लोगों के दिल को छू ही जाती है और हर किसी का दिल बस यही गुनगुनाने लगता है कि

"नजाने मेरे दिल को क्या हो गया 
अभी तो यहीं था अभी खो गया"
या फिर 
बेचैन है मेरी नज़र है प्यार का 
गहरा असर हैं होश गुम 
सोचो ना तुम 
हम आपके , आपके हैं कौन 

मगर इस बात को भी आज हम एक नये अंदाज़ से लेकर देखते है।  क्यूंकि प्यार तो हमेशा से प्यार ही रहा है मगर वक्त के साथ सब कुछ थोड़ा बहुत बदल ही जाता है। क्यूंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। जैसे आज प्यार पर आधारित गाने बदल गए। उपरोक्त पंक्ति में लिखा गया गीत, मध्यम श्रेणी के लोगों के लिए है। मतलब हमारा और आपका ज़माना कह लीजिये आज से 8-10 साल पहले की बात, तो अब यदि आज की बात करें तो आजकल की पीढ़ी के हिसाब से इस गीतमाला की श्रेणी मे कौन सा गाना फिट बैठेगा। सोचिए-सोचिए जहां तक मेरी अक्ल के घोड़े दौड़ते हैं, और पिछले कुछ सालों में जिस तरह की फ़िल्में आई हैं, उस हिसाब से तो यही गीत फिट बैठतें है।  

"छेड़ेंगे हम तुझको, लड़की तू है
 बड़ी बूमबाट, उलला-उ लाला तू है मेरी फेंटसी "
या 
फिर ढिंका चिका ढिंका चिका 
बारा महीने मे बारा तरीके से तुझको प्यार जताऊँगा रे 
या फिर ?
कुड़ियों का नशा प्यारे,
नशा सबसे नशीला है
जिसे देखो यहाँ वो,
 हुस्न की बारिश मे गीला है
इशक के नाम पर करते सभी 
अब रासलीला है 
मैं करूँ तो साला करेक्टर ढीला है ,

यह तो हुई नई पीढ़ी और हमारे जमाने की बात, मगर यदि इजहारे मुहोब्बत की बात की जाये तो वो शायद गुजरे जमाने में ही सबसे ज्यादा खूबसूरती से किया जाता था। गुज़रा ज़माना यानि 60 का दशक फिल्म अभिनेत्री साधना का ज़माना, ब्लैक एन व्हाइट फिल्मों का दौर जिसके गाने न सिर्फ उस जमाने के लोग बल्कि आज की पीढ़ी भी याद किया करती हैं। वही पुराने और कुछ बहुत ही चुनिन्दा और बेहतरीन गाने जिन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता। जैसे
   
"हमने देखी है उन आँखों में महकती खुशबू 
हाथ से छुके इसे रिश्तों का इलज़ाम न दो,
प्यार को, प्यार ही रहने दो
कोई नाम ना दो"
या 
लगजा गले के फिर यह हसीन रात 
हो न ,हो,शायद फिर इस जन्म 
में मुलाक़ात हो न हो 

और इन प्यार भरे गीतों में लोगों ने न जाने कितनी बार खुद को देखा होगा, जिया होगा, खुदके जज़्बातों को महसूस किया होगा और आज भी किया करते हैं जब भी यह गाने सामने आते है या सुनाई भी दे जाते है तो सभी को अपना-अपना ज़माना याद आ ही जाता है। फिर भले ही सुने वाले किसी भी दौर के क्यूँ न हो यही तो है फिल्मों का जादू। है ना !!! और यह फिल्मी दुनिया का वो जादू है जो सदा अपने-अपने समय के जवान दिलों के सर चढ़कर बोलता आया है। इसलिए अंत में इतना ही कहना चाहूंगी कि माना की आज के दौर में सिनेमा घरों का टिकट बहुत महंगा है और आज कल जब आपको घर बैठे ही टीवी पर कुछ ही दिनों में लगभग हर एक नई फिल्म आसानी से देखने को मिल जाती है तो भला सिनेमा घर में जाकर देखने का क्या फायदा,लेकिन तब भी मैं इतना ज़रूर कहूँगी कि यदि आपको वाकई फिल्में देखने का शौक है। यदि आपको ऐसा लगता है कि हाँ वाकई यह फिल्म देखने लायक है तो कम से कम आप वो फिल्म ज़रूर सिनेमा हाल में जाकर ही देखें। क्यूँ वो कहते है न

"अरे टीवी वीडियो बहुत हुआ,
 सबके सर में दर्द हुआ 
टिकट कटा के 
सिनेमा जा आयेगा बड़ा मज़ा"
don't worry be happy 
  
         

Wednesday 8 February 2012

इस विषय में भी सोचा है कभी ?


यदि आप सभी को याद हो तो मैंने अपने पिछले लेख में भी एक बात लिखी थी वो यह, कि हम हमेशा बदलाव की उम्मीद सामने वाले से ही क्यूँ रखते है। आज भी उसी बात को लेकर कुछ बातें मन में आ रही है तो सोचा क्यूँ न अपने मन का यह पक्ष भी आपके सामने रखा जाये और इस विषय में भी आपकी राय जानी जाये। पिछले कुछ दिनों में विदेशों में हो रही एक दो घटनाओं ने बहुत तूल पकड़ा जैसे मैंचेस्टर में हुआ सरे आम हिन्दुस्तानी युवक को गोली मार देने वाला हत्या कांड या नॉर्वे में हुआ चाइल्ड केयर वालों के द्वारा भारतीय परिवार के दो बच्चों को उठा लेने की घटना। क्यूंकि सुनने में आया है और ऐसा माना जा रहा है, कि यह हत्या कांड वाली घटना रंग भेद के कारण ही आई, आपसी खुन्नस के कारण की गई। अब यह बात कहाँ तक सच है यह मुझे भी नहीं पता। मैंने जो सुना वही लिख रही हूँ। वैसे तो इन मसलों पर अब तक बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। इसलिए मैं यहाँ उन घटनाओं का पूरा ब्यौरा नहीं दूँगी। बस इतना कहना चाहती हूँ, कि जब मैंचेस्टर में वह हत्या कांड हुआ तब न केवल यहाँ रह रहे सभी भारतीय लोगों में इस बात का चर्चा था। बल्कि हिंदुस्तान में भी लोगों के बीच यही मामला गरमाया हुआ था और इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं है पहले भी हिंदुस्तानियों के यहाँ आकर काम करने को लेकर अंग्रेज़ों में खासा आक्रोश रहा है। यह सभी जानते हैं

खैर हम बात कर रहे थे, इस हत्याकांड से जुड़े खासकर उस व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद जिसने यह हत्या की थी। उसने अपने बचाव के लिए जो ब्यान दिया कि मैं एक मानसिक रोगी हूँ। यह खबर पढ़कर और सुनकर लोग दंग रह गए कि ऐसा कैसे हो सकता है, कि एक मानसिक रोगी खुद कुबूल करे, कि वो एक मानसिक रोगी है। सबको साफ-साफ और सीधा समझ आरहा है कि यह बात उस व्यक्ति ने खुद को सजा से बचाने के लिए कही है। दूसरी बात लोगों के दिमाग में यह आयी कि अगर ऐसा ही था, तो वहाँ के लोगों ने अर्थात उसके परिवार वालों ने उसे किसी मानसिक चिकित्सालय में क्यूँ नहीं रखा। आखिर वह उसे ऐसे बाहर कैसे घूमने दे सकते हैं। यह सब में एक सामूहिक चर्चा के दौरान सामने आये विचारों को मद्देनज़र रखते हुए लिख रही हूँ। क्यूँकि जब आप किसी समहू मे खड़े होते हो, तो चार लोगों के अलग-अलग विचार आपके समक्ष आते हैं और आपको यह समझ आता है कि किसी एक घटना को लेकर लोग कितनी अलग-अलग सोच रखते हैं।  

हालांकी अभी यह केस ख़त्म नहीं हुआ है इस केस की अगली सुनवाई अब मार्च में है। मगर अब जो बात में कहने वाली हूँ। उसका मतलब यह कतई नहीं कि,मैं खुद एक भारतीय होकर भी यहाँ के पक्ष में बोल रही हूँ। बल्कि मैं तो सिर्फ सही और गलत में फर्क करने की कोशिश कर रही हूँ। इस विषय में मेरा यह कहना है, कि हमारे यहाँ भी तो पागल सारे आम खुले सड़कों पर घूमते है और ऐसा भी नहीं है कि हमारे यहाँ के लोग खुद को सजा से बचाने के लिए यह हथकंडा नहीं अपनाते, तो फिर जब हमने यहाँ उस व्यक्ति का ब्यान सुना तो, हमको इतना बुरा क्यूँ लगा। हालांकी यह बात अलग है, कि सबको पता है कि सजा से बचने के लिए ही उसने ऐसा कहा तो यह तो हमारे यहाँ भी होता है ना!!! ,हाँ मगर सजा से बचने के लिए यह तरीका अपनाया जाना सरासर गलत है फिर चाहे वो यहाँ हो, या वहाँ (हम से मेरा तात्पर्य यहाँ उन भारतीय लोगों से जिन्होंनें इस बात पर बहुत ही आक्रोश पूर्ण व्यवहार दिखाया था ) लेकिन क्या कभी हमने यह सोचा है, कि हो सकता यहाँ के लोग भी हमारे यहाँ के मानसिक रोगीयों को लेकर ऐसी ही धारणा रखते हो।

अब यदि हम दूसरी घटना की बात करें तो उसको लेकर भी लोगों ने कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया जाहीर की थी, कि यहाँ के बच्चों को देखो सब कुछ माता-पिता ही करते हैं। भारतीय अभिभावकों की तुलना मे यहाँ के अभिभावक अपने बच्चों को खुद पर कहीं ज्यादा आश्रित रखते हैं। उसके बावजूद भी नॉर्वे में रह रहे परिवार के साथ ऐसी घटना घटी। इससे भी लोगों के मन में यही बात आई कि हो ना हो, इस सबके पीछे भी रंगभेद ही एकमात्र कारण रहा होगा। क्यूँकि रंग भेद को लेकर भेदभाव तो हम गाँधी जी के समय से देखते, पढ़ते और सुनते चले आरहे है। कुछ लोगों को तो इसका अनुभव भी होगा। इस बात को लेकर भी हम को बहुत बुरा लगता है। लगना भी चाहिए यह बात है ही सरासर गलत, मगर क्या हमने खुद कभी अपने अंदर झांक कर देखने की कोशिश की है ? कि हम क्या हैं और हम खुद कैसे व्यवहार करते हैं अपने देश में रह रहे आप्रवासियों के साथ? अपने दिल पर हाथ रखकर कहिएगा, कि क्या किसी अफ्रीकन को देखकर हमको अजीब नहीं लगता? क्या उनके लिए हम उनके मुंह पर ना सही मगर पीठ पीछे अपशब्दों का प्रयोग नहीं करते ?? न केवल अफ्रीकन बल्कि ,चीनी जापानी या अन्य किसी भी देश के लोगों के प्रति भी हमारा रवैया कुछ ऐसा ही रहा करता है। वरना उनको चिंकी नाम से यूँ ही संबोधित नहीं किया जाता। 

मुझे अपने बचपन का एक किस्सा आज भी याद है एक बार बस में हमारे साथ एक नीग्रो व्यक्ति बैठा था। जिसे हिन्दी ज़रा भी समझ में नहीं आती थी। उस वक्त उस बस कंडेक्टर ने एक बेहद भद्दा मज़ाक करते हुए जान बूझकर उस व्यक्ति से हिन्दी में कहा था, कि आप लोगों के यहाँ बच्चा पैदा होते ही क्या उसके बाल तवे पर सेंक दिये जाते है क्या...और यह सुनकर बस के सारे लोग उस कंडेक्टर को डांटने या समझाने के बजाए ज़ोर-ज़ोर से हंस रहे थे। जिससे और कुछ हो न हो, मगर उस व्यक्ति हो इस बात का आभास बहुत अच्छे से हो गया था, कि ज़रूर मेरे बारे में कोई हास्यस्प्द बात कही गई है। जिसको सुनकर सब लोग हंस रहे हैं। मगर वो बेचार क्या करता पूरी बस में नीग्रो के नाम पर बस वही एक अकेला था। इसलिए वो भी हंस के रह गया। यह बात तब की है जब में शायद 8-9 साल की रही होंगी तो ज़रा सोचिए कि इतने साल पहले भी हमारे यहाँ अप्रवासियों के प्रति हमारी यह मानसिकता थी, तो अब क्या यह मानसिकता बढ़ी नहीं होगी?? जहां तक मेरी सोच कहती है ज़रूर बढ़ी होगी। बस फर्क शायद सिर्फ इतना ही होगा कि हम सामने वाले व्यक्ति को यह बात हर पल हर जगह दर्शाते नहीं है। ना ही हर घड़ी उसे महसूस कराते है। जो कि यहाँ आज भी जारी है, हाँ बस फर्क यहाँ भी इतना आया है कि अब यहाँ भी उतना खुले आम नहीं होता। मगर होता ज़रूर है, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

ठीक वैसे ही हमारे मन के अंदर भी आप्रवासियों के लिए काफी हद तक वही मानसिकता है, जो यहाँ के लोगों में हम भारतीय लोगों के प्रति है। हाँ मगर इतना परिवर्तन शायद ज़रूर आया है कि अब हम उन आप्रवासियों की  भावनाओं को बखूबी समझने लगे हैं। क्यूंकि अब ज्यादातर हर मध्यम वर्गीय परिवारों में से कम से उस घर का एक न एक सदस्य विदेश में हैं। वरना ईमानदारी से कहूँ तो हम लोग तो हमारे यहाँ आये पर्यटकों को भी नहीं बख्श्ते। जबकि उनसे तो हमारे देश को फायदा होता है। उन्हे भी हर छोटी बड़ी चीजों को लेकर ठगा जाता है। तो जब हम नहीं बदल सकते तो फिर भला सामने वाले से बदलने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं हम, एक और 26 जनवरी या 15 अगस्त आते ही अचानक से लोगों में देश प्रेम जाग जाता है और अंगेज़ों को गालियां देते लोग कुछ दिनों बाद चुप हो जाते हैं और उनका सारा जोश ठंडा पड़ जाता है और जैसा की आप सब जानते ही हैं, कि आज के दौर में नौकरी के चलते वैसे ही लोग विदेश जाने लगे है और विदेश में बसने को लालायित भी है। फिर चाहे यहाँ आने के बाद ऐसी ना जाने कितनी अनगिनत घटनाओं का सामना ही क्यूँ न करना पड़े। 

खैर यह सब तो शायद चलता ही रहेगा। कहने का मतलब बस इतना है उन लोगों से जिन्होनें ऐसी घटनाओं को देख, सुनकर बेहद आक्रोश दिखाया था, कि केवल ज्ञान बाँटने से कुछ नहीं होता पहले ज़रा एक बार खुद के अंदर भी झांक कर देख लेना चाहिए फिर किसी दूसरे व्यक्ति पर उंगली उठानी चाहिए। क्यूंकि वो कहते है ना


"जब आप खुद किसी व्यक्ति पर एक उंगली उठाते हो, 
तब आपकी खुद कि तीन उंगलिया खुद आपकी ओर ही इशारा कर रही होती हैं"
  
क्यूंकि ज़िंदगी में सबसे ज्यादा मोल उसका नहीं है कि आप ने अपनी ज़िंदगी में क्या खोया क्या पाया। बल्कि वास्तव में अहम बात तो यह हैं कि उन संघर्षों के बाद आप आखिर में क्या बन पाये, कहते हैं ना "एक बार भगवान बनना भी उतना मुश्किल नहीं जितना की एक नेक दिल इंसान बन पाना मुश्किल है"
आपको क्या लगता है :)

Thursday 2 February 2012

ज़रा सोचिए...


मैंने कुछ दिन पहले एक पोस्ट देखी थी फ़ेसबुक पर जिसे देखकर मेरा मन बहुत खिन्न हो गया था। मैंने खुद भी उस पोस्ट को अपनी फेसबुक पर सांझा भी किया था। विषय था गरीब और भूखे बच्चों को खाना पहुंचाने वाली संस्था का प्रचार जिसे देखकर अच्छा भी लगा कि कोई संस्था तो है जिसने इस विषय में कुछ अच्छा सोचा फिर दूजे ही पल यह भी लगा कि क्या यह संस्था सच में विश्वसनीय है? क्या आज कल के इस भ्रष्टाचारी समाज में, जहां जिसको देखो वह किसी न किसी माध्यम से केवल भ्रष्टाचार मिटाओ का नारा लगता हुआ ही नज़र आता है। ऐसे हालातों में भला कोई किसी पर सहजता से कैसे विश्वास करे। वहाँ ऐसे सार्थक सोच रखने वाली कोई संस्था पूरी ईमानदारी से कार्य करेंगी। यह एक विचारणीय बात थी। ऐसे ना जाने कितने सवाल दिमाग में हलचल मचाने लगे तब लगा, कि यार जब हम फेसबुक जैसी जगह पर कुछ भी करते है। जैसे कभी किसी के सड़े हुए जोक को भी लाइक कर देते हैं। या फिर किसी भी पसंदीदा पोस्ट को सांझा कर लेते हैं। फिर भले ही वह किसी फ़िल्म का गीत ही क्यूँ न हो। या फिर नया साल हो या दिवाली दशहरा जैसे त्यौहार सभी को संदेश के जरिये न जाने कितने जाने-पहचाने और अंजाने लोगों तक को शुभकामनायें दे डालते है। तो भला ऐसे में यह सार्थक संदेश को भी क्यूँ न आमलोगों तक पहुंचाया जाये क्या पता इसे पढ़कर ही कुछ लोगों का ज़मीर जाग जाये और उन गरीब मासूम भूखे बच्चों का कुछ भला हो जाये।  

वाकई जरा सोचिए कितना कुछ है हमारे आस-पास जिसके बारे में यदि ग़ौर से सोचा जाये और ध्यान दिया जाये तो बहुत सी समाज सेवायें बड़ी सरलता के साथ ही की जा सकती है। क्या अपने कभी सोचा है हमारे यहाँ कितने परिवार ऐसे हैं जिनमें परिवार के सदस्यों से अधिक खाना बनता है और फिर बच जाता है जिसे ज्यादातर या तो घर में काम कर रही बाई को दे दिया जाता है या फिर भिखारियों को या फिर अंत में जानवरों को मगर आज कल के युग में इतनी गरीबी और महंगाई होते हुए भी भिखारियों और काम करने वाली बाइयों के नखरे भी कम नहीं है और जहां तक मुझे लगता है आप सब भी मेरी इस बात से भली-भांति परिचित होंगे। बाइयाँ कहती हैं हम कोई भिखारी नहीं कि आप हमको रात का बचा हुआ खाना दो, देना है तो ताज़ा दो, वरना रहने दो और इन में से कुछ ऐसे भी है जो कह नहीं पातीं वो आपके घर से खाना ले तो जाती तो हैं। मगर बाहर जाकर या तो कूड़े में डाल देती हैं या जानवर को खिला देती है। जानवर को खिला दिया जाये तो भी ठीक लगता है। क्यूंकि वह बेचारे खुद तो कुछ कर नहीं सकते लेकिन कूड़ेदान में डाल देने से भला किसका भला होने वाला है। इस से तो अच्छा है वही खाना किसी जरूरतमंद को दे दिया जाये, बदले में आपको सैकड़ों दुआएं ही मिलेंगी भला आपका ही होगा। मगर अफसोस कि आजकल के ज़माने में ऐसी सोच रखने वाले शायद ना के बराबर ही लोगों है।  

आजकल न तो ऐसे लोगों की कमी है जो इस ओर सोचते हों और ना ही अब भिखारी भी ऐसे हैं जो खाना या अनाज लेने की इच्छा रखते हो। क्यूंकि आज कल के भिखारी भी कम नहीं है उनको बोलो आटा ले लो महाराज, तो कहते है नहीं पैसा दे दो एक वो ज़माना था जब भिखारी खुद पैसों के बदले आटा, चावल या कोई भी अनाज लेना पसंद करते थे। ताकि उनके साथ-साथ उनके परिवार का पेट भी पल जाये ...और एक आज का ज़माना है कि आप सामने से अनाज दो तो भी सामने वाला भिखारी वो न लेकर पैसे मांगता है और कुछ तो अनाज भी नहीं छोड़ते ऊपर से पैसे भी मांगते है। खास कर वो जो हाथी पर बैठकर भीख मांगते हैं। देखा जाये तो इसमें उनकी भी गलती नहीं वारदाते ही आज कल ऐसी होती हैं कि एक इंसान को दूसरे इंसान पर भरोसा करने से पहले दस बार सोचना पड़ता है।

अब जैसे रेलवे स्टेशन की बात ही ले लीजिए वहाँ भी अब लोग भिखारियों को भीख में खाना देना पसंद नहीं करते। क्यूंकि एक बार का एक किस्सा है। एक सज्जन को लूटने के लिए एक भिखारी ने पहले उनका दिया हुआ खाना लिया और दूजे ही पल ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाया कि मेरी तबीयत खराब हो रही है। मेरा पेट दुखने लगा इन साहब ने मुझे जाने कैसे खाना खिला दिया और जब उन सज्जन ने बात संभालने की कोशिश की तो उनसे बदले में पैसों की मांग की गई थी। शर्म आती है मुझे तो कभी-कभी यह सोचकर कि कितना बेशर्म होता जा रहा है इंसान, सब अपने बारे में सोचते हैं दूसरों के बारे में बहुत कम जब अपने घर कोई दावत होती है तब हम अपने सभी रिश्तेदारों को बुलाते हैं अच्छा से अच्छा खिलाते हैं एक से बढ़कर एक उपहार भी पाते है। मगर हममें से कितने ऐसे लोगों हैं जो सिर्फ गरीबों के लिए दावत बुलाते हों ?? देखा जाये तो शायद एक भी नहीं होगा। हाँ मगर जब किसी को दुआओं की जरूरत महसूस होती है, तभी लोगों को भूखे नगों और गरीबों की याद आती है। उसके पहले कभी नहीं आती, या फिर दूसरों को दिखाने के लिए लोग दान पुण्य करते हैं कि समाज में दिखा सकें कि देखो कितना बड़ा है हमारा दिल, इसके अलावा अपने मन की श्रद्धा से कोई कुछ नहीं करता। हालांकी मैं यह नहीं कहती कि सभी एक जैसे होते हैं कुछ इंसान अच्छे भी है जिनका बड़ा दिल है मगर वो कहावत है ना कि

"एक गंदी मछ्ली पूरे तालाब को गंदा कर देती है" 

बस वैसा ही कुछ हाल इस विषय का भी है। अब जैसे नवरात्रि के नवे दिन लोग कन्या जिम्माते है उसमें से भी ज्यादातर लोग मुहल्ले में आस-पास रह रहे सम्पन्न परिवारों की कन्याओं को ही बुलाते हैं। बहुत कम परिवार ऐसे होंगे जो झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली कन्याओं को बुलाते हैं। आखिर क्यूँ ? है कोई जवाब?  नहीं है ना !!!मैं बताती हूँ क्यूँ....क्यूंकि आजकल इंसानी दिलों से भावनायें और इंसानियत जैसे शब्द मिट चुके हैं। रह गया है तो केवल दिखावा, ढोंग, या जरूरत इसके अलावा कुछ भी नहीं वो कहते है ना

"जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है"

इसी कहावत को चरितार्थ करते है लोग, जैसा मैंने पहले भी कहा जब खुद के घर पर कोई समस्या या डर मँडराता है तब ही लोगों को गरीबों की दुआयें की याद आती है। वरना उसके पहले किसी को याद नहीं आती कि बिना खुद की जरूरत के भी किसी का भला करे कोई, लेकिन शायद आज भी दुनिया के किसी कोने में इंसानियत ज़िंदा होगी ही कहीं न कहीं जिन्होने ऐसी संस्था बनाई। हालांकी आज कल के जमाने में सभी संस्थाओं पर भी आँख बंद करके भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह भी अपना काम पूरी ईमानदारी से करेंगी ही। मगर फिर भी जैसा मैंने कहा सब एक से नहीं होते और बिना किसी को परखे किसी पर इल्ज़ाम लगाना भी ठीक नहीं इसलिए मैं जिस संस्था की बात कर रही हूँ। मुझे नहीं मालूम कि वह संस्था कहाँ तक विश्वसनीय है   मगर जबसे उनके बारे में पढ़ा है अच्छा महसूस हुआ कि कोई तो है जिसने इस विषय में सार्थक कदम उठाने के बारे में कुछ सोचा।

ऐसी ही एक संस्था है यह "चाइल्ड हेल्प लाइन" नामक संस्था जिनका कहना है कि अगर आगे से कभी आपके घर में पार्टी / समारोह हो और खाना बच जाये या बेकार जा रहा हो तो बिना झिझके आप 1098 (केवल भारत में)प र फ़ोन करें - यह एक मज़ाक नहीं है - यह चाइल्ड हेल्पलाइन है । वे आयेंगे और भोजन एकत्रित करके ले जायेंगे। कृपया इस सन्देश को ज्यादा से ज्यादा प्रसारित करें इससे उन बच्चों का पेट भर सकता है जो भूखे हैं लाचार हैं गरीब है कृपया इस श्रृंखला को तोड़े नहीं, हम चुटकुले और स्पैम मेल अपने दोस्तों और अपने नेटवर्क में करते हैं ,क्यों नहीं इस बार इस अच्छे सन्देश को आगे से आगे मेल करें ताकि हम भारत को रहने के लिए दुनिया की सबसे अच्छी जगह बनाने में सहयोग कर सकें -"मदद करने वाले हाथ प्रार्थना करने वाले होंठो से अच्छे होते हैं " -हमें अपना मददगार हाथ दें। भगवान की तसवीरें फॉरवर्ड करने से किसी को गुडलक मिला या नहीं मालूम नहीं पर एक मेल अगर भूखे बच्चे तक खाना फॉरवर्ड कर सके तो इस से ज्यादा बेहतर बात और क्या हो सकती है. कृपया क्रम जारी रखें।

एक और ऐसी ही संस्था है जिसका नाम है "राम रोटी संस्था" जो भोपाल में चलाई जाती है इस संस्था के अंतर्गत अस्पताल में गरीब रोगियों के लिए खाना भिजवाया जाता है वो भी बिना किसी शुल्क के वह आपको एक दिन पहले आकर अपना खाने का डिब्बा दे जाते है साथ ही अस्पताल का पता भी ताकि यदि आपको किसी प्रकार की कोई शंका हो तो आप वहाँ जाकर पता कर सकते हैं उस डिब्बे में आपको दो रोटी दाल सब्जी बस इतना ही खाना रखकर तैयार रखना होता है अगले दिन उस संस्था का कोई व्यक्ति आकर आपके घर से वो डब्बा लेकर चला जाता है। आपको स्वयं वहाँ जाने तक की जरूरत नहीं इन दोनों संस्थाओं के काम को देखते हुए मेरा आप सभी से भी विनम्र अनुरोध है कृपया इंसानियत को ध्यान में रखते हुए इस इंसानियत के धर्म का भी पालन करने और इस संस्थाओं के माध्यम से गरीबों बच्चों और बुज़ुर्गों की सहायता करें........जय हिन्द.