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फरवरी का महीना यानी हमारे परिवार के लिए वैवाहिक वर्षगाँठ का महीना है। इस महीने हमारे घर के सभी जोडों की शादी की सालगिरह होती है। कल १७ फरवरी को मेरी भी है। लेकिन आज इतने सालों बाद जब पीछे मुड़कर देखो तो ऐसा लगता है।
“ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ-साथ चलते”
लेकिन आज जब वर्तमान ज़िंदगी को इस गीत से जोड़कर देखो। तो तब भी तो ऐसा ही लगता है। समय के साथ-साथ कितना कुछ बदल गया। आज से तेरह साल पहले ज़िंदगी क्या थी और आज क्या है। घर में सबसे छोटी होने के नाते शादी के पहले कभी कोई ज़िम्मेदारी उठायी ही नहीं थी। मगर शादी के बाद किस्मत से मम्मी पापा (सास –ससुर) के बाद सबसे बड़ा बना दिया। सभी की ज़िंदगी में शायद बदलाव का यह दौर तो शादी तय होने के दिन से ही शुरू हो जाता है। नहीं ? न सिर्फ रिश्ते बदल जाते है। बल्कि उनके साथ-साथ ज़िंदगी भी एक नए रंग में, एक नए साँचे में ढलने लगती है।
वैसे तो ऐसा सभी के साथ होता है। लेकिन फिर भी यहाँ रहकर ऐसा लगता है जैसे अंग्रेजों की ज़िंदगी में शायद उतना परिवर्तन नहीं आता है। जितना कि हम भारतीय लोग महसूस करते हैं। यहाँ ज़िंदगी शादी के बाद भी पहले की तरह ही चलती है। सब की अपनी-अपनी ज़िंदगी में अपने आप से जुड़ी एक अलग एवं एक निजी जगह होती है। जिसमें कोई दखल नहीं देता। यहाँ तक कि पति पत्नी भी एक दूसरे की उस निजी कही जाने वाली ज़िंदगी में दखल नहीं देते। यहाँ आपकी ज़िंदगी केवल आपकी रहती है। यहाँ तक कि डॉक्टर भी एक की रिपोर्ट दूसरे के साथ नहीं बाँटता। आपके कहने पर भी नहीं, जब तक दूसरा बाँटने के लिए आज्ञा नहीं दे देता।
मगर अपने यहाँ तो मान्यता ही यह है कि शादी दो व्यक्तियों का मिलन नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन है। दो ऐसे परिवार जो एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न होते है। जिनका न सिर्फ रहन सहन, बल्कि सोच तक मेल नहीं खाती। ऐसे परिवारों में होती है शादियाँ और हम सारी ज़िंदगी निभाते है उन रिश्तों को, जो हमारे जैसे हैं ही नहीं। फिर भी समझौता करना और आपसी सामंजस्य बनाए रखते हुए चलने की दी हुई शिक्षा हमें चाहकर भी अपने बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ जाने की सलाह नहीं देती।
सच कितनी बदल जाती है ज़िंदगी। जहां मुझे एक और भाईयों का तो खूब प्यार मिला। मगर कभी बहनों का प्यार नहीं मिला। क्यूंकि मेरी कोई बहन नहीं है। लेकिन आज देवरानियाँ भाभी-भाभी करके आगे पीछे घूमती है। जहां कभी यह नहीं जाना था कि प्याज काटकर भी रसे की सब्जी बनाई जा सकती है। वहाँ तरह-तरह का हर एक की पसंद का अलग-अलग तरह का खाना बनाना सीखा। वो भी बड़े प्यार और दुलार के साथ। पूछिये क्यूँ ? क्योंकि मेरी कोई ननंद नहीं है। इसलिए मेरी शादी के बाद मेरी सासु माँ ने मुझे बेटी की तरह सब सिखाया। यह उनका शौक भी था और शायद जरूरत भी थी ...
यूं तो मुझे सब आता था। लेकिन खान पान में ज़मीन आसमान का अंतर होने के कारण उन्होने मुझे अपने घर के (जो अब मेरा हो चुका था) में ढलना सिखया। मत पूछिये कि क्या-क्या नहीं किया उन्होंने मेरे लिए। शायद मेरे से ज्यादा समझौता तो उन्होंने किया। अपनी सोच के साथ अपनी परम्पराओं के साथ। फिर भी कभी मुझ पर दबाव नहीं डाला गया। 'अब भई किसी को बुरा लगे तो लगे'। 'पर सच तो यही है कि जितना सास का प्यार और दुलार मुझे मिला। उतना शायद आने वाली बहुओं को भी नहीं मिला'। हाँ एक बात ज़रूर कॉमन रही। वो ये कि मुझे बच्चों से शुरू से ही लगाव था, आज भी है। नवरात्रि और गणेश चतुर्थी के समय मेरी डांस क्लास में भी मैं बच्चों से घिरी रहती थी और आज भी जब घर जाना होता है तो अपने भतीजे भतीजियों से घिरी रहती हूँ। रही बात देवरों की, तो वो देवर कम दोस्त ज्यादा है। इसलिए कभी बड़े छोटे वाली बात महसूस ही नहीं हुई।
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हाँ छोटे मोटे मन मुटाव लड़ाई झगड़े तो हर घर में होते हैं। आखिर इनके बिना भी तो प्यार नहीं बढ़ता। लेकिन फिर भी इन रिश्तों को निभाने में सजाने में सँवारने में यदि मेरा साथ किसी ने दिया तो वो केवल पतिदेव ने दिया। यदि उनका सहयोग न होता तो शायद मेरे लिए इन रिश्तों को समझना थोड़ा कठिन हो जाता। लेकिन उन्होंने हर कदम पर मेरा साथ दिया। कई बार अपने परिवार के खिलाफ जाकर भी सही को सही और गलत को गलत बताया। इतना ही नहीं उन्होंने तो मुझे कई गुरु मंत्र भी दिये। जिनसे मुझे बिना किसी तनाव के रिश्तों को संभालने की समझ मिली। लेकिन वो सीक्रेट है भाई हम बता नहीं सकते :) तो कोई पूछे न। यही सब सोचकर और उनका सहयोग पाकर ही कभी–कभी ऐसा लगता है कि यह तेरह साल जैसे तेरह दिन की तरह निकल गए और समय का पता ही नहीं चला। कितना कुछ हुआ इन तेरह सालों में, मैंने ना सिर्फ अपना घर छोड़ा बल्कि आज की तारीख में तो अपना देश तक छोड़े बैठी हूँ। कहाँ मैं अकेली घर की बहू थी और कहाँ आज एक माँ से लेकर भाभी ताई ,चाची, मामी सब बन गयी हूँ। न सिर्फ रिश्तों की बल्कि अब तो शारीरिक काया पलट तक हो गयी है। अब तो पुरानी तस्वीर को देखकर भी यही लगता है कि “ये कहाँ आ गए हम”.... :)