Friday 21 December 2012

संवेदनहीनता की पराकाष्ठा....


आजकल हमारे समाज में लोगों के अंदर संवेदनहीनता दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है जिसकी पराकाष्ठा है यह दिल्ली में हुआ उस मासूम सी लड़की का सामूहिक बलात्कार, आज शायद सभी के पास एक ही विषय हो लिखने के लिए और वह है दिल्ली की बस में हुआ एक लड़की का सामूहिक बलात्कार, आज हर जगह यही खबर है। छोटे से छोटे समाचार पत्र पत्रिकाओं से लेकर बीबीसी तक, सुबह-सुबह यह सब पढ़कर मन खिन्न हो जाता है कभी-कभी कि आखिर कहाँ जा रहे हैं हम...क्या यही है एक प्रगतिशील देश जहां लोगों के मन से समवेदनायें लगभग मर चुकी है। ऐसा लगता है जैसे लोग संवेदना नाम के शब्द को बिलकुल भूल ही गए हैं और रह गया है केवल एक मात्र शब्द 'वासना' जिसके चलते यह बलात्कार जैसे गंभीर मामले भी बहुत ही आम हो गये है। महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं है ना महानगरो में और न ही गाँव कस्बों में, ना रास्ते चलते, न घरों में, फिर क्या दिल्ली, क्या मुंबई, कहीं आपसी रिश्तों को ही तार-तार किया जा रहा है, तो कहीं घरेलू हिंसा के नाम पर स्त्रियॉं को प्रताड़ित किया जा रहा है। कहीं लगातार भूर्ण हत्यायों में होते हिजाफ़े सामने आ रहे हैं, तो कहीं अपने ही घर की स्त्री को लोग वेश्यावृति की आग में झौंक रहे हैं। यहाँ तक की महिलाओं का रास्ते पर शांति से चलना भी मोहाल हो गया है। क्यूंकि कानून तो हैं मगर इस मामलों में कभी कोई कार्यवाही होती ही नहीं, क्या यही है एक प्रगति की और अग्रसर होते देश की छवि? जहां लोग यह कहते नहीं थकते थे कि "मेरा भारत महान"। आज कहाँ खो गयी है इस महान देश की महानता जहां कभी नारी को देवी माना जाता था।

इन सब सवालों के जवाब शायद आज हम में से किसी के पास नहीं, लेकिन क्या इस समस्या का कोई हल नहीं ? आखिर इस सबके लिए कौन जिम्मेदार हैं ?? कहीं ना कहीं शायद हम ही क्यूंकि देखा जाये तो हर अभिभावक अपने बच्चे को अपनी ओर से अच्छे ही संस्कार देना चाहते हैं। लेकिन समाज में फैले कुछ असामाजिक तत्व कुछ लोगों पर ऐसा असर करते हैं कि वह लोग अपनी संवेदनाओं और संस्कारों को ताक पर रखकर अपनी दिशा ही भटक जाते हैं और ऐसा कुकर्म कर बैठते है। अब सवाल यह उठता है कि इस समस्या का हल क्या है सरकार से इन मामलों में किसी भी तरह कि कोई उम्मीद रखना लगभग व्यर्थ समय गंवाने जैसा क्रम बनता जा रहा है। क्यूंकि सरकार ज्यादा से ज्यादा क्या करेगी, बस इतना ही कि इन मामलों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने का आश्वासन देकर पीड़ित को उसके दर्द के साथ छोड़ देगी मरने के लिए, इससे ज्यादा और कुछ नहीं होना है और यदि हुआ भी तो कोई एक नया कानून सामने आयेगा बस और जैसा के हमारे देश में आज तक होता आया है एक बार फिर दौहराया जाएगा "पैसा फेंको तमाशा देखो" का खेल, क्यूंकि हमारे यहाँ तो ऐसे लोग कानून को अपनी जेब में लिए घूमते हैं। वैसे कहना तो नहीं चाहिए लेकिन फिर भी आज हमारे यहाँ कि कानून व्यवस्था बिलकुल एक वैश्या की तरह हो गयी है। जिसे सरे आम दाम देकर कोई भी खरीद सकता है बस पैसा होना चाहिए। क्यूंकि यहाँ तो कानून के रखवाले खुद भी इसी घिनौने अपराध में लिप्त पाये जाते हैं। आम आदमी के लिए कोई सहारा ही नहीं बचा है न पुलिस न कानून जो देखो भ्रष्टाचार में लिप्त है। कानून की हिफाजत करने वाले  खुद ही अपने हाथों कानून को बेचने में लगे हैं।

मेरी समझ से तो ऐसे हालातों से लड़ने के लिए एक बार फिर "नारी" को रानी लक्ष्मी बाई का रूप धारण करना ही होगा तभी कुछ हो सकता है या फिर एक बार फिर इन दरिंदों को उनकी औकात दिखाने के लिए फिर किसी को दुर्गा या काली का अवतार लेना ही होगा। मैं जानती हूँ कहना बहुत आसान है और करना उतना ही मुश्किल मेरी यह बात किसी प्रवचन से कम नहीं, यह भी मैं मानती हूँ। लेकिन सच तो यही है जब तक ऐसे अपराधियों को मौका-ए-वारदात पर ही सबक नहीं मिलेगा तब तक इस तरह के अपराधों में दिन प्रति दिन वृद्धि होती ही रहेगी और यह तभी संभव है शायद जब स्कूलों में पढ़ाई लिखाई के साथ-साथ आत्म सुरक्षा सिखाने का विषय भी अनिवार्य हो और सभी अभिभावक अपनी-अपनी बेटियों को वो सिखाने के लिए जागरूक हों साथ ही अपने बेटों को भी सख़्ती के साथ यह बात सिखाना भी ज़रूर है कि औरत भी एक इंसान है उसे भी दर्द होता है, तकलीफ होती है, इसलिए उसे भी एक इंसान समझो और उसके साथ भी सदा इंसानियत का व्यवहार करो, यह तो भविष्य में किए जा सकने वाले उपाय हैं। क्यूंकि भूतकाल में जाकर तो हम की गई भूलों को सुधार नहीं सकते। मगर हाँ वर्तमान में इतना तो होना ही चाहिए कि अपने देश की कानून व्यवस्था में सुधार हो, कोई ऐसा केस या उदाहरण सामने आए जिसको देखते हुए आम जनता खासकर महिलाएं कानून पर या कानून के रखवालों पर भरोसा कर सके। अतः जब तक लोग कानून से डरेंगे नहीं तब तक यह सब होता ही रहेगा।

हालांकी इस तरह के मामलों में कई महिलाओं का कहना है कि हमने कानून की सहायता लेकर लड़ने की पूरी कोशिश की लेकिन बजाय ऐसे अपराधियों को सजा देने के, उल्टा हमें ही कानूनी चक्करों में ना फँसने की सलाह देते हुए केस वापस लेने की सलाह दी जाती है और जो लोग आखिरी दम तक लड़ने का बीड़ा उठाते हैं। उन्हें ना सिर्फ सामाजिक तौर पर बल्कि मानसिक तौर पर भी इस सबका भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है। इसलिए लोग डर जाते हैं और इस तरह के अधिकतर मामले सामने ही नहीं आ पाते, इस सब को देखते हुए मुझे तो ऐसा लगता है कि इस तरह के घिनौने अपराध करने वाले अपराधियों के लिए तो फांसी जैसी सज़ा भी बहुत ही मामूली है, इन्हे तो कोई ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि पीड़ित व्यक्ति की तरह यह भी सारी ज़िंदगी उसी आग में जलें। तभी सही मायने में इंसाफ होगा। इन मामलों में तो मुझे ऐसा ही महसूस होता है आपका क्या विचार है....

Sunday 16 December 2012

खुद की तुलना के लिए नौकरी करना, क्या ठीक है ???


तुलना एक ऐसा शब्द है जो हर पल हमारे आस पास घूमता हुआ सा दिखाई देता है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा एक अहम शब्द है तुलना, फिर चाहे वो घर की मामूली से मामूली चीज़ ही क्यूँ ना हो, नए पुराने में तुलना होती है चाहे वो कपड़े हों या बर्तन हो या फिर बाज़ार में रोज़ नए आते समान। खासकर यदि हम मोबाइल फोन की बात करें, तो आजकल लगभग हर घर में यह तुलना दिन रात चला करती है। कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि हर उम्र के व्यक्ति की अपनी जरूरतों और सोच के आधार पर किसी न किसी चीज़ को लेकर अपने दिमाग में कोई न कोई तुलना चलती ही रहती है। यदि बच्चों की बात करें तो लड़कों में फोन और गाड़ियों को लेकर, लड़कियों में फ़ैशन को लेकर, महिलाओं में घर से संबन्धित समान को लेकर, बुज़ुर्गों में जमाने को लेकर...अर्थात हर एक व्यक्ति का दिमाग किसी न किसी चीज़ की किसी अन्य चीज़ से तुलना करने में ही उलझा रहता है। यहाँ तक तो बात समझ में आती है।

लेकिन काम को लेकर तुलना करना क्या ठीक है। क्यूंकि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, इसलिए उस काम को करने वाला व्यक्ति भी उस काम को करने के कारण छोटा या बड़ा नहीं हो जाता। जैसे अपने ही घर का काम करने से कोई काम वाली बाई नहीं बन जाता अर्थात नौकर नहीं कहलाता और आप सब ने भी अभी "कौन बनेगा करोड़ पति" में भी देखा होगा कि अच्छा खासा पढ़ा लिखा इंसान सब्जी बेचने के लिए मजबूर है, या इससे पहले भी एक चाय वाला आया था वो भी अच्छा खासा शिक्षित व्यक्ति था। मगर चूंकि उसके पिता चाय का ठेला लगाया करते थे जिसके चलते उसे अपने दोस्तों के बीच कई बार शर्मिंदगी का एहसास दिलाया गया।

यहाँ मैं कहना चाहूंगी कि कुछ लोग कभी-कभी मजबूरी में विवश होकर काम करते है क्यूंकि यदि वो काम नहीं करेंगे तो उनका जीवन नहीं चलेगा। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि वह व्यक्ति छोटा हो गया और उस सम्मान का अधिकारी नहीं रहा, जो एक अन्य मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने वाले व्यक्ति का होता है। ठीक इसी तरह कुछ लोग काम केवल अपना समय व्यतीत करने के लिए करते हैं क्यूंकि उनका घर में मन नहीं लगता खासकर महिलाएं। मैं यह नहीं कहती कि काम करना या नौकरी करना बुरा है बल्कि यह तो बहुत अच्छी बात है हर व्यक्ति को आत्म निर्भर होना चाहिए, खासकर महिलाओं को। न ही मैं ऐसा सोचती हूँ कि नौकरी केवल पैसा कमाने के लिए की जाती है। किसी भी महिला के नौकरी करने के पीछे उसके निजी कारण हो सकते हैं। कोई शौक से करता है, तो कोई मजबूरी में, दूसरा पैसे किसे बुरे लगते हैं, इसलिए शायद कुछ लोग अपने शौक के लिए काम करते हैं क्यूंकि उन्हें वो काम करने में मज़ा आता है और ऐसे लोगों के लिए उस काम के बदले में मिलने वाला पैसा मायने नहीं रखता। क्यूंकि उनको उस काम में मज़ा आता है।

लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुछ लोग ऐसे भी है जो केवल अपने अहम को संतुष्ट करने के लिए काम करते हैं। क्या यह सही है ? नहीं....मेरी नज़र में तो यह ज़रा भी सही नहीं है। अपने अहम को संतुष्ट करने के लिए खुद की किसी अन्य व्यक्ति से तुलना करना और महज़ उस तुलना के लिए कोई भी काम करना सिर्फ यह दिखाने के लिए कि हम किसी से काम नहीं और ना ही हम किसी पर निर्भर हैं। खासकर पति पर तो ज़रा भी नहीं, आमतौर पर मैंने यह सोच ज्यादातर महिलाओं में ही देखी है। ना सिर्फ अपने दोस्तों में बल्कि अपने ही परिवार में भी मैं कुछ ऐसी ही सोच वाली महिलाओं को देख रही हूँ, जो सिर्फ इसलिए नौकरी कर रही है क्यूंकि वो खुद को किसी भी स्तर पर कम नहीं दिखाना चाहती। नाम यह की घर में रहकर करें क्या, बोर हो जाते हैं।  ऊपर से तुर्रा यह कि हमें भी हमारे अभिभावकों ने शिक्षा दिलवाई है, तो क्या घर में बैठे रहने के लिए, ऐसे तो हमारी सारी पढ़ाई बर्बाद हो जाएगी इसलिए हम काम करते है।

अब घर में रहने से पढ़ाई लिखाई बर्बाद हो जाती यह बात मेरी समझ के तो बाहर है। लेकिन उनको नौकरी सिर्फ इसलिए करना है क्यूंकि पति देव काम करते हैं तो हम भी करेंगे। हम क्यूँ पीछे रहे और धोंस सहे जबकि पति भले ही धौंस नहीं देते हो, मगर हम मन में यही सोचते हैं जिसके चलते आज कल महिलाए कोई भी छोटे मोटे काम करने  को राज़ी है। जिसमें न तो उनकी रुचि है और ना ही उनका मन और यदि कुछ है भी, तो वह है केवल अपने अहम की संतुष्टि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं, यहाँ तक कि पैसा भी ज्यादा नहीं है और तो और दिन और समय भी ऐसा रहता है जब पति और बच्चे दोनों घर में रहते हैं और ना चाहते हुए भी आपको बाहर काम पर मौजूद रहना पड़ता है। ऐसा काम करने से भला क्या फायदा, उदाहरण के तौर पर किसी भी रेस्टोरेन्ट, होटल या फिर पिज्जा हट में बैरे की नौकरी करना या फिर शॉपिंग मौल में काउंटर पर बैठना इत्यादि....इन सभी कामों में शिफ्ट बदलती है और यह ज्यादातर शनिवार और इतवार को करने होते हैं क्यूंकि सप्ताह अंत के कारण इन दो दिनों में बाज़ार में अत्यधिक भीड़ हुआ करती है। हालांकी यह कोई बुरे काम नहीं है। यहाँ के लगभग आधे से ज्यादा विद्यार्थी यही काम करते हैं जिसे पार्ट टाइम जॉब कहा जाता है। लेकिन मेरे कहने का मतलब यहाँ यह नहीं है कि यह काम करने लायाक नहीं है, इसलिए नहीं करने चाहिए या इन कामों को करने में कोई बुराई है, इसलिए यह काम नहीं करने चाहिए। ना बिलकुल नहीं!!!

बल्कि मेरे कहने का तो केवल इतना मतलब है कि यदि आपकी कोई मजबूरी नहीं है और पैसा कमाना भी आपका मक़सद नहीं है तो काम वो करना चाहिए जिसे करने में आपको मज़ा आए, करने को यह सभी काम भी बुरे नहीं है लेकिन इन कामों को करने में मज़ा शायद ही किसी को आता हो और यूं भी आमतौर पर ऐसे काम ज्यादातर वही लोग करते हैं जिनकी मजबूरी है जिनके लिए काम करना उनका शौक नहीं, उनकी विवशता है क्यूंकि यदि वो काम नहीं करेंगे तो "जी" नहीं सकेंगे। आपने यदि शाहरुख खान की फिल्म "जब तक है जान" देखी होगी तो उसमें भी यही दिखाया गया है कि उसको अपने जीवन यापन के लिए यहाँ लंदन में क्या कुछ नहीं करना पड़ता जब जाकर वो थोड़ा कुछ कमा पाता है। खैर हम यहाँ फिल्म की बात नहीं कर रहे हैं। हम यहाँ बात कर रहे हैं काम को लेकर खुद की तुलना करने की जैसा मैंने उपरोक्त कथन में भी कहा कि यदि आपको पैसे की कमी नहीं है या जरूरत नहीं और आपकी शिक्षा भी अच्छी ख़ासी है तो फिर आपको अपनी रुचि और अपनी डिग्री के आधार पर अपने काम का चयन करना चाहिए ना कि महज़ यह दिखाने के लिए आप किसी पर निर्भर नहीं है फिर चाहे वो आपके परिवार के अन्य सदस्य के साथ-साथ आपके पति ही क्यूँ ना हो आप वो काम करें जिसमें आपकी कोई रुचि नहीं है मेरी नज़र में तो यह केवल अपने अहम को समझाने वाली बात है। इसे ज्यादा और कुछ नहीं इसलिए मैं ऐसे काम करने में दिलचस्पी नहीं रखती।

वरना यहाँ करने को तो मैं भी कुछ भी कर सकती हूँ यहाँ कौन आ रहा है मुझे देखने कि मैं क्या काम करती हूँ क्या नहीं, लेकिन मुझे शुरू से ही नौकरी की चाह नहीं रही कभी, इसलिए मैंने कभी काम करने के विषय में सोचा ही नहीं जबकि यहाँ "वुमन सेंटर" में भी मैं बतौर एक वोलेंटियर के रूप में काम कर सकती हूँ। जहां मुझे लोगों को अर्थात महिलाओं को रोज़मर्रा से जुड़ी आम चीज़ें सिखाना है जैसे इंटरनेट कैसे चलाते हैं ऑनलाइन शॉपिंग कैसे की जाती हैं वगैरा-वगैरा। लेकिन मैंने किया नहीं इसलिए नहीं कि मुझे पैसा नहीं मिलेगा बल्कि इसलिए कि मुझे पैसा कमाने कि चाह ही नहीं है। क्यूंकि मुझे उस काम में रुचि ही नहीं है। वरना देखा जाये तो पैसा तो मुझे ब्लॉग लेखन में भी नहीं मिलता। मगर फिर भी मुझे ब्लॉग लिखना पसंद है और सिर्फ इसलिए मैं लिखती हूँ। तो कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि काम वो करना चाहिए जिसे करने में आपकी रुचि हो न कि वो जो महज़ पैसा कमाने और खुद को आत्मनिर्भर दिखाने के लिए जबरन करना पड़े। काम में तुलना करना ठीक नहीं।  इस विषय में मेरी तो यही राय है आप का क्या ख़्याल है ?

Thursday 6 December 2012

हर पाकिस्तानी बुरा नहीं होता....




पाकिस्तान को लेकर आज हर हिन्दुस्तानी के दिलो दिमाग में एक अलग तरह की छवि बनी हुई है जिसे शायद हर कोई बुरी नज़र से ही देखता है और अब तो दुनिया के सबसे बड़े देश की नज़र में भी पाकिस्तान ही सबसे बुरा है क्यूंकि वहाँ आतंकवादियों को पनाह दी जाती है जमाने भर के आंतकवादियों की मूल जड़ पाकिस्तान में ही पायी जाती है लेकिन इन सब बातों के बावज़ूद भी क्या वाकई हर पाकिस्तानी बुरा होता है ? ना कम से कम यहाँ आने के बाद तो मैं इस बात को नहीं मानती हाँ यूं तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच आई दूरियाँ कभी मिट नहीं सकती। यह एक ऐसी दरार है जो कभी भर नहीं सकती। मगर तब भी हिदुस्तान से बाहर रहने पर पता चलता है कि यह दरार शायद उतनी बड़ी या गहरी भी नहीं कि भरी ना जा सके, मगर शायद हम ही लोग कहीं अंदर-ही अंदर ऐसा कुछ चाहते है कि यह दरार भर ही नहीं पाती। आखिर क्यूँ ? तो इस सवाल के जवाब में कुछ लोगों का यह मानना होगा कि यह सब सियासत की कारिस्तानियों की वजह से है। असल में आम जनता या आम आदमी तो एकता बनाए रखना चाहता है।

लेकिन यह राजनीति और उसे जुड़े कुछ भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं की वजह से यह दो देशों के बीच की खाई बजाय कम होने के दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। कुछ हद तक यह बात सही भी है, क्यूंकि अधिकतर मामलों में पाकिस्तानियों की वजह से ही हमारे यहाँ के मासूम और बेगुनाह लोगों की मौतें हुई है फिर चाहे वो बावरी मस्जिद वाला किस्सा हो या मुंबई अग्नि कांड सब मानती हूँ मैं, लेकिन क्या इस सब में पाकिस्तानियों ने अपने अपनों को नहीं खोया ? ज़रूर खोया होगा और शायद वहाँ के बाशिंदों के दिलो दिमाग में भी हम हिंदुस्तानियों के प्रति ऐसी ही भावनाएं भी होंगी लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि हर पाकिस्तानी बुरा है इस सब में भला वहाँ की आम जनता का क्या दोष है जो हम बजाय आतंकवाद से नफरत करने के पूरे देशवासियों से नफरत करते हैं। कुछ लोग तो पाकिस्तान के नाम तक से नफरत करते हैं जिसके चलते वह केवल गड़े मुरदों को उखाड़-उखाड़ कर ही अपने क्रोध की ज्वाला को हवा देते रहते है। आखिर क्यूँ ?

जबकि होना तो यह चाहिए कि आने वाली नयी पीढ़ियों को पूराने ज़ख्मो को भूलकर एक नयी शुरुआत करनी चाहिए क्यूंकि जो होना था वह तो हो चुका, अब अतीत में जाकर तो उस सब को सुधारा नहीं जा सकता है।  इसलिए अब नए एवं सुखद भविषय की कल्पना करते हुए हमें इन दोनों मुल्कों के बीच एक नयी शुरुआत करनी चाहिए। यहाँ शायद कुछ लोग मेरी इस बात से सहमत नहीं होंगे क्यूंकि "जिस तन लागे वो मन जाने" वाली बात भी यहाँ लागू होती है जिन्होंने इस बंटवारे को सहा है वह कभी चाहकर भी शायद इस नयी शुरुआत के विषय में सोच ही नहीं सकते और यही वजह है कि ऐसा हो नहीं पाता क्यूंकि पाकिस्तानियों को लगता है कि हिन्दुस्तानी भरोसे के काबिल नहीं और हिंदुस्तानियों को लगता है कि हमें तो जब भी प्रयास किया, अधिकतर मामलों में धोखा ही खाया हम भला कैसे विश्वास कर लें कि यह मुल्क दुबारा हमारे साथ गद्दारी नहीं करेगा क्यूंकि आये दिन होते फसादात और हादसे इस बात के गवाह हैं कि हिदुस्तान में फैले आतंकवाद के पीछे सिर्फ-और-सिर्फ पाकिस्तान का ही हाथ है। इतना ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में फैले आतंकवाद के पीछे केवल पाकिस्तान का हाथ यह बात भी कुछ हद तक सही भी है। क्यूंकि कई सारे प्रमाण है जो यह बातें सिद्ध करते हैं मगर क्या यह सब वहाँ कि आम जनता ने किया ? नहीं यह सब किया अपने मतलब के लिए सियासत के लालची लोगों ने, और बदनाम हो गया सारा देश  

लेकिन हम कितने ऐसे पाकिस्तानियों से मिले हैं जो वहाँ के हालात का सही ब्यौरा हमें दे सके। वहाँ के लोग किस के लिए क्या महसूस करते हैं यह बता सके। हम सिर्फ उसी पर यकीन करते है जो टीवी पर देखते हैं या समाचार पत्रों में पढ़ते हैं। मगर यहाँ रहने के बाद और पाकिस्तानी लोगों से मिलने के बाद मुझे ऐसा नहीं लगता कि वहाँ के बाशिंदों में केवल हम हिंदुस्तानियों के प्रति नफरत के अलावा और कुछ है ही नहीं, बल्कि यदि मैं सच कहूँ तो मुझे तो यहाँ रहे रहे पाकिस्तानियों में बड़ी आत्ममियता नज़र आयी, ऐसा लगा ही नहीं कि यह किसी दूसरे देश के बाशिंदे है वह भी उस देश के जिस देश से जाने अंजाने सिर्फ कही सुनी बातों के आधार पर ही हिंदुस्तान का बच्चा-बच्चा नफरत करता है। उनके यहाँ भी शायद हम हिंदुस्तानियों को लेकर ऐसी ही सोच हो जिसका हमें पता नहीं, मगर क्या यह ठीक है यहाँ मैं आप सबको एक बात और बताती चलूँ कि मैं किसी देश का पक्ष या विपक्ष लेकर नहीं चल रही हूँ मगर हाँ एक पाकिस्तानी महिला से मिलने के बाद मुझे जो अनुभव हुआ है उसे आप सबके साथ सांझा करने की कोशिश कर रही हूँ। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि मैं भोपाल की रहने वाली हूँ लिहाज़ा मेरा मुस्लिम भाइयों के बीच रहना बहुत हुआ है। लेकिन पाकिस्तानियों से मैं यहीं आकर मिली इसके पहले केवल उस देश के बारे में किताबों और फिल्मों में ही देखा सुना और पढ़ा था। कभी किसी से मुलाक़ात नहीं हुई थी इसलिए एक अलग ही छवि थी मेरे मन में उन्हें लेकर।  

लेकिन जब यहाँ रहकर उनसे मुलाक़ात हुई, तो मुझे एक बड़ा ही सुखद अनुभव हुआ, और लगा कितना गलत सोचती थी मैं, हुआ यूं कि मुझे डॉ के क्लीनिक जाना था अपना रजिस्ट्रेशन करवाने ताकि जब जरूरत पड़े तो आसानी से एपोइंटमेंट मिल सके। उसी सिलसिले में मेरी मुलाक़ात हुई डॉ. फातिमा से जिनकी उम्र महज़ 21-22 साल की होगी। वैसे तो वह स्वयं डॉ हैं और एक डॉ का तो पेशा ही ऐसा होता है कि उसे हर किसी व्यक्ति से बड़े ही नर्म दिली से पेश आना होता है। मगर फिर भी उन मौहतरमा का स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा। उनसे बात करते वक्त मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं बरसों बाद अपने ही कॉलेज की किसी दोस्त से मिल रही हूँ। एक मिनट के लिए भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि वह एक डॉ.है और मैं उसके पास साधारण जांच के लिए आयी हूँ या वह किसी ऐसे देश से ताल्लुक रखती है जिस देश से मेरे देश के लगभग ज़्यादातर लोग केवल नाम से ही नफरत किया करते है। लेकिन उसका अपनापन देखकर मुझे मन ही मन बहुत खली यह बात कि इस देश में भी तो अपने ही लोग हैं यहाँ भी तो हिंदुस्तानियों जैसे हम आप जैसे इंसान ही रहते हैं। इनकी रगों में भी तो कहीं न कहीं हिंदुस्तान का ही खून बहता है फिर क्यूँ हम लोग बेवजह वहाँ की आम जनता से भी इतनी नफरत करते हैं। जिन्होंने हमारा कभी कुछ नहीं बिगाड़ा लेकिन उनका क़ुसूर केवल इतना है कि वह पाकिस्तान में रहते हैं और वहाँ की आवाम का हिस्सा है। यह तो भला कोई कारण ना हुआ किसी इंसान से नफरत करने का तब यह एहसास होता है, कि वाक़ई

"गेहूँ के साथ घुन पिसना किसे कहते हैं"
या 
"एक मछ्ली सारे तालाब को कैसे गंदा साबित करवा देती है"

इस सबके चलते कम से कम यहाँ एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती है कि यहाँ कई सारे अलग-अलग देशों से आए लोग यहाँ एक परिवार की तरह काम करते हैं यहाँ हिंदुस्तान पाकिस्तान का भेद भाव देखने को नहीं मिलेगा आपको, न ही किसी और देश का किसी और देश से, यहाँ सब एक ही श्रेणी में गिने जाते हैं और अब तो गोरे काले का फर्क भी उतना नहीं रहा। मगर हाँ है ज़रूर, इसमें भी कोई दो राय नहीं है। मगर आमतौर पर आपको महसूस नहीं होगा, मगर अपने हाँ तो जाति मतभेद ही इतने हैं कि यह सब तो वहाँ रहकर दूर की बातें ही नज़र आती हैं। हम आपस में ही लड़-लड़कर मरे जाते हैं जिसका फायदा यह बाहर के लोग उठा ले जाते है। खैर अंत में तो मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि एक मछ्ली के गंदा होने की वजह से से सारे तालाब को गंदा ना समझे, हालांकी यहाँ एक और कहावत भी लागू होती है कि "हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती" अर्थात "आप एक कपड़े के टुकड़े से पूरे थान का अनुमान नहीं लगा सकते" मगर फिर भी मैं यह ज़रूर कहना चाहूंगी कि पाकिस्तान में रहने वाले भी अपने ही हैं और यकीन मानिए बहुत आत्मीयता और प्यार है उनके मन में भी जरूरत है बस वो अँग्रेजी की कहावत के अनुसार "आइस ब्रेक" करने की...उस डॉ से मिलकर तो मुझे यही अनुभव हुआ। इस विषय में आपका क्या खयाल है ?                 
  

Saturday 1 December 2012

कुछ ख्याल ...


पिछले कुछ दिनों से लगातार देख रही हूँ BBC हिन्दी न्यूज़ पेज पर जो फेसबुक पर उपलब्ध है, वहाँ फ़िल्मी सितारों की पढ़ाई को लेकर काफी समाचार पढ़ने में आ रहे हैं। जैसे करिश्मा कपूर केवल पाँचवी पास है और सलमान आठवीं पास और अन्य कई फिल्मी सितारे ऐसे हैं जिन्होंने कभी कॉलेज का मुँह भी नहीं देखा वगैरा वगैरा। अब यह सब छपना स्कूल जाते बच्चों के लिए अच्छा है या बुरा यह तो मैं कह नहीं सकती। मगर यह सब पढ़कर मुझे अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया। मैं और मेरा चचेरा भाई जब हम छोटे थे तो अक्सर पढ़ाई को लेकर बातें हुआ करती थी। उन दिनों पढ़ाई में न मुझे कोई खास दिलचस्पी थी और ना उसे किन्तु मुझे बड़े होने के नाते उसे प्रोत्साहन देते रहना पड़ता था। तब वो अक्सर कहा करता था अरे दीदी क्या रखा है पढ़ाई लिखाई में "लालू प्रसाद यादव" को ही देख लो, वह कहाँ बहुत पढ़े लिखे हैं। मगर आज कितने बड़े नेता है और जम कर पैसा कमा रहे हैं वो अलग, अब शायद आपको लगे कि इतने छोटे बच्चे ने आखिर लालू जी का ही उदाहरण क्यूँ दिया, तो मैं आपको बताती चलूँ कि वो इसलिए क्यूंकि उन दिनों मेरे चाचा जी को राजनीति में जाने का भूत सवार था जिसके चलते घर में सारा-सारा दिन वही माहौल रहा करता था। केवल राजनीति ही राजनीति की बातें, नेताओं की बातें तो यह उस ही का प्रभाव था जिसके चलते उस छोटे से बच्चे ने भी अपना मन बना लिया था राजनीति में जाने का और यह कहना शुरू कर दिया था कि मुझे नहीं पढ़ना, मैं तो बड़ा होकर लालू जी जैसा नेता बन जाऊंगा फिर मैं भी खुश और पापा भी खुश ...:-)

खैर यह तो बचपन की बात थी, आज वही छोटा सा बच्चा अब बड़ा हो चुका है और स्टेट बैंक में बैंगलूर में पी.ओ के पद पर नौकरी कर रहा है मगर जब यह फ़िल्मी सितारों वाली बातें और बचपन का यह किस्सा दिमाग में एक साथ टकराये, तो दिमाग में एक बात घूम गयी कि क्या पढ़ाई केवल पैसा कमाने के लिए की जाती है या हम स्वयं अपने बच्चों को केवल इसलिए शिक्षा प्राप्त करवाते हैं कि हम आगे चलकर उसके जीवन में केवल उसकी पे-स्लिप देखकर उसकी काबलियत का अंदाज़ा लगा सकें या फिर वह खुद अपनी काबलियत को अपनी पे-स्लिप के आधार पर तौल सके कि वह कितने पानी में है अर्थात यदि वह अगर अच्छा खासा कमा पा रहा है तो वह अपने जीवन में सफल है और यदि नहीं कमा पा रहा है तो असफल है। फिर भले ही वह कितना भी शिक्षित क्यूँ ना हो। मेरी इस बात से शायद कोई सहमत ना हो, मगर मेरी नज़र में तो वास्तविकता शायद यही है। क्यूंकि इस ही के आधार पर भावी जीवन निर्भर करता है, शादी भी इसी आधार पर होती है। मुझे आज भी अच्छे से याद है मेरी शादी के वक्त मुझसे मेरे माता पिता ने पूछा ज़रूर था कि तुमको लड़का पसंद है या नहीं मगर मम्मी ने धीरे से यह भी कहा था कि लड़कों की कमाई देखी जाती है शक्ल सूरत सब बाद में आती है :) यह तो मेरी किस्मत अच्छी थी जनाब, जो मेरे पतिदेव देखने में अच्छे खासे निकले :)

खैर बहुत हुई मस्ती, असल मुद्दा तो यह है कि आखिर खुद शिक्षित होते हुए भी शिक्षा को लेकर हमारी मानसिकता इतनी संकीर्ण क्यूँ है माना कि हर माता-पिता अपने बच्चे को एक काबिल और सफल इंसान के रूप में देखना चाहते है मगर उसका पैमाना उसकी कमाई क्यूँ उसके गुण क्यूँ नहीं ? मुझे तो ऐसा लगता है कि बढ़ती प्रतियोगिताओं और उसे से जुड़े आत्महत्या के कारणों के पीछे कहीं न कहीं यह भी एक मुख्य कारण है। जो ना केवल विद्यार्थियों बल्कि नौकरीपेशा लोगों में भी देखने को मिल रहा है। जाने क्यूँ मुझे ऐसा लगता है कि जो हमने अपने स्कूल में सीखा कि जो है जितना है उसमें ही संतोष करना सीखो और खुश रहो। या फिर सिर्फ इतना प्रसाय करो कि कबीर दास जी के दोहे के मुताबिक

"साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम्ब समाय 
मैं भी भूखा न रहूँ साधू न भूखा जाये"         



मगर आज कल तो जैसे यह बातें सिखायी ही नहीं जाती स्कूल में, आज कल तो बस यह सिखाया जाता है कि सफल वही है जो आगे जाकर ज्यादा से ज्यादा पैसा बना सके, नोट छाप सके क्यूँ क्यूंकि दुनिया केवल टोपर्स को याद रखती है जिसका नाम पहला लोग उसे ही याद रखते है दूसरे को नहीं, आज जो वातावरण है उसके अनुसार शायद यही ठीक हो क्यूंकि जो जमाने के साथ नहीं चलता वह पीछे रह जाता है और जो पीछे रह गया वो कितना भी काबिल और गुणी क्यूँ ना हो, कहलायेगा लूज़र ही, कभी-कभी जब गहराई में जाकर सोचती हूँ, तो बहुत अजब गज़ब सी महसूस होने लगती है यह दुनिया और इसके सिद्धांत, तब ऐसा लगने लगता है जैसे भगवान ने भी अब इंसान बनाना बंद कर दिया है। अब तो केवल पैसा कमाने के लिए रोबोट बनाए जाते है अब ज़मीन से जुड़े सीधे, सच्चे, सदा जीवन गुज़ारने वाले संवेदनशील लोग का युग जा चुका है अब केवल प्रेक्टिकल सोच वाले लोगों का युग है हम जैसे इमोशनल फूल्स का नहीं .... इसलिए शायद चमक दमक से भरी चकाचौंध से भरी इस दुनिया के फ़िल्मी सितारों की यह शिक्षा सम्बन्धी बाते भी लोगों तक यही संदेश पहुंचा रही है कि पढ़ाई लिखाई से कुछ नहीं होता कामयाब होने के और भी कई तरीके है। बस उसके लिए कुछ भी कर गुज़रने का जज़्बा होना चाहिए, फिर चाहे वो नैतिक हो या अनैतिक आज की तारीख में सफल वही है जिसका नाम हो गया हो, वो कहते हैं ना 

 "कुछ लोगों का नाम उनके काम से होता है ,और कुछ का बदनाम होकर"

बस इस ही नसीहत पर चलते है आज महानगरों के अधिकाश लोग मुझे तो ऐसा ही लगता है आपका क्या ख़याल है ....?

Saturday 24 November 2012

वार्तालाप



मैं धर्म और धर्म ग्रन्थों में पूरी श्रद्धा रखती हूँ मगर इसका मतलब यह नहीं कि मैं अंधविश्वास को मानती हूँ। लेकिन इतना भी ज़रूर है कि जिन चीजों को मैं नहीं मानती उनका अनादर भी नहीं करती ऐसा सिर्फ इसलिए ताकि जो लोग उस चीज़ को मानते हैं या उसमें विश्वास रखते हैं उनकी भावनाओं को मैं ठेस नहीं पहुंचाना चाहती। एक दिन ऐसे ही धर्म की बातों को लेकर एक सज्जन से बात हो रही थी। सामने वाले का कहना था कि किसी भी धर्म में कही गयी अधिकांश बातें केवल उस धर्म के पंडितों या मौलवियों या यूं कहें कि उस धर्म के मठाधीशों द्वारा बनायी गयी हैं जिनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं, काफी हद तक यह बात मुझे भी सही लगी, लेकिन इस विषय को लेकर मेरे विचार थोड़े अलग है। मेरा ऐसा मानना है कि यदि यह सच भी है तो उस वक्त के हिसाब से बिलकुल ठीक था। क्यूंकि उस समय जो परिस्थिथियाँ रही होंगी शायद उसके मुताबिक यह नियम बनाए गए होंगे या बनाने पड़े होंगे। ताकि लोग उस बात को माने और स्वयं उसका अनुसरण करें ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी उस धर्म को आगे बढ़ाया जा सके और यह भी संभव है कि उस वक्त कुछ लोग इन बातों को मानने के लिए तैयार नहीं होंगे शायद इसलिए उन्हें (भगवान के नाम पर या खुदा के नाम पर) जो भी कहें लें, एक डर बनाकर बताया गया कि यदि आप इस नियम का नियम अनुसार पालन नहीं करोगे तो ऊपर वाला आपको यह दंड देगा। जिसके चलते वह लोग भी उन नियमों का पालन करने लगे होंगे तभी तो धर्म आगे बढ़ सका। अब पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है मेरे हिसाब से तो यह अनुमान मात्र है इसलिए हो सकता है। हक़ीक़त क्या है यह तो राम ही जाने, हांलांकी इस सबके चलते यहाँ यह ज़रूर गलत हुआ कि वह डर भी धर्म के साथ आगे बढ़ा और बहुत हद तक अंधविश्वास में बदल गया।

फिर बात निकली वृत उपवास से जुड़ी कथा और कहानियों की सामने वाले व्यक्ति अर्थात उन सज्जन का कहना था कि मुझे इसमें ज़रा भी विश्वास नहीं इन सब वृत कथाओं में डर दिखाया गया है कि देखो यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो भगवान रुष्ट होकर तुम्हें यह दंड देंगे या वो दंड देंगे। जबकि भगवान भला अपने भक्तों का बुरा क्यूँ चाहेंगे भगवान ने कभी नहीं कहा कि मेरा पूजन करो, ऐसे करो या वैसे करो, लेकिन हर वृत कथा में कहा गया है कि फलाना वृत करने से भगवान प्रसन्न हो जाएँगे और बदले में यह फल देंगे और यदि वृत करने वाले ने अंजाने में यदि कोई भूल कर दी कुछ तो भगवान रुष्ट होकर दंड देंगे ,यह कौन सी बात हुई। इस बात पर मेरा कहना था कि मैं यहाँ आपकी बात से सहमत नहीं हूँ। मेरे विचार से अधिकतर वृत कथाओं में किसी भी वृत या उपवास को करने की सलाह किसी न किसी ऋषि मुनि ने दी है स्वयं भगवान ने नहीं और दंड का डर इसलिए दिखाया है ताकि लोग उसका अनुसरण करें और धर्म आगे बढ़ सके। उदाहरण के तौर पर यदि सत्यनारायण भगवान की वृत कथा की बात की जाये तो, जहां तक मेरी समझ कहती है सत्यनारायण भगवान की कथा के माध्यम से लोगों को यह समझाने का प्रयास किया गया है कि लोग अपने जीवन में निर्धारित किए गए लक्ष्य को पूरा करें अर्थात जो भी काम करने का निर्णय उन्होने अपने जीवन में लिया है उस लक्ष्य की प्राप्ति करें कोई भी कार्य बीच में ही अधूरा न छोड़ें। इसके अतिरिक्त एक कारण यह भी हो सकता है कि हमारे ऋषि मुनियों ने यह सोचा हो कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में से लोग थोड़ा समय प्रभु भक्ति के लिए भी निकाल कर कुछ समय सादा जीवन जीने का भी प्रयास करें।  

अब पता नहीं किसकी बात सही किसकी गलत हाँ मगर मैं यह नहीं कहती कि अंधी भक्ति करो ज़रा सा कुछ नियम इधर का उधर हो जाये तो "हाय अब क्या होगा" कहकर बैठ जाओ मैं सिर्फ इतना कहती हूँ और मानती हूँ कि अपने सामर्थ के अनुसार जितना हो सके पूर्ण श्रद्धा के साथ उतना ही करो और उस ऊपर वाले को कभी अपना दोस्त भी समझो, क्यूंकि चाहे ज़िंदगी में सुख आए या दुख शरण में तो उसी की जाना है। क्यूंकि जब कभी हम ज़िंदगी से हताश हो जाते है या निराश हो जाते हैं तब तब हमें केवल भगवान ही याद आते है फिर किसी भी रूप में क्यूँ ना आए जैसे माता-पिता उन्हें भी तो भगवान का ही दर्जा दिया जाता है। यहाँ तक के किस्से कहानियों में भी बच्चों को यही शिक्षा दी जाती है। तो फिर जब हर परिस्थिति में भगवान को पूजना ही है तो क्यू ना एक दोस्त बनाकर पूजा जाये बजाय डर के मारे पूजने के, अरे भई जब आप स्वयं इंसान होकर एक दूसरे को अंजाने में की गयी गलतियों के लिए माफ कर सकते हो। तो वह तो स्वयं भगवान है वो तो कर ही देंगे। फिर भला उनसे डर कैसा, मगर नहीं हमेशा मन के अंदर एक डर रहा करता है पूजन के वक्त कि कहीं कोई गलती न हो जाये। यह भी सही नहीं क्यूंकि भगवान तो वो शक्ति है जिसके लिए यह कहा गया है कि

  जाकि रही भावना जैसी, तिन देखी प्रभू मूरत वैसी..


तो क्यूँ न उन्हें बिना किसी डर और आशंका के हमेशा प्यारे से दोस्त के नाते ही देखा जाये इस विषय में आप सब की क्या राय है दोस्तों ?

Sunday 18 November 2012

ज़िंदगी के रंग ....


ज़िंदगी भी क्या-क्या रंग दिखती है किसी को खुशी तो किसी को ग़म दिखती है बड़ा ही अजीब फलसफ़ा है ज़िंदगी का यह किसी-किसी को ही रास आती है जाने क्यूँ ऊपर वाला किसी के दामन में खुशियाँ डालता है तो किसी के दामन में कुछ कभी न खत्म होने वाले कांटे। जिन्हें सब कुछ अच्छा और आराम से मिल जाता है वह कभी खुश होकर उस ऊपर वाले का शुक्रिया तक अदा नहीं करते और कुछ लोगों को ज़िंदगी भर का ग़म मिले या किसी बात का मलाल रहे तब भी वह उस खुदा का, उस ईश्वर का शुक्र अदा करना नहीं भूलते ऐसा ही एक अनुभव मुझे भी हुआ। मेरे घर के सामने एक परिवार रहता है उनकी एक बेटी है जिसकी उम्र शायद 13-14 साल के आस पास की होगी और एक बेटा है जिसकी उम्र शायद 18 के आस पास होगी मगर वह एक मानसिक रोगी है। उनकी बेटी मेरे बेटे के स्कूल में ही पढ़ती है और हर रोज़ शाम को छुट्टी के वक्त उसके पापा और भाई उसे लेने स्कूल आते हैं।

 पिछले कुछ दिनों से मैं उस बच्चे को देख रही हूँ बड़ा ही प्यारा लड़का है उसको देखकर कभी-कभी दया भी आती है और अच्छा भी बहुत लगता है मानसिक रूप से ठीक ना होते हुए भी उसके अंदर ज़िंदगी को देखने का ,ज़िंदगी को जीने का, एक अलग ही जज़्बा है जो शायद हम आप जैसे लोगों में भी वैसा नहीं होता जैसा उस बच्चे में मुझे दिखता है। उस लड़के को मैं रोज़ देखती हूँ और उसे देखकर मुझे एक ही गीत याद आता है "तुझ से नाराज़ नहीं ज़िंदगी हैरान हूँ मैं" हांलांकी महज़ आप किसी को रोज़ देखकर उसके विषय में इतने अच्छे से नहीं जान सकते कि उसके बारे में किसी तरह की कोई राय बनाई जा सके। मगर फिर भी उस बच्चे के पिता उसके साथ बहुत खुश नज़र आते हैं मगर उसकी बहन को देखकर लगता है कि शायद उसे उसके भाई का यूं उसे लेने आना अच्छा नहीं लगता, ऐसा लगता है मगर वास्तविकता यही है या नहीं यह मैं नहीं जानती यह मेरा केवल अंदाज़ा है जो गलत भी हो सकता है और सही भी, वैसे तो मैं चाहूंगी कि ईश्वर करे इस विषय मेरा अंदाज़ा गलत ही हो मगर सब कुछ सोचो तो ऐसा लगता कि एक हम और आप जैसे समान्य लोग है जो बेटा -बेटा कर कर-कर के ही मरे जाते हैं और बेटियों से कतराते हैं जबकि बच्चे के जन्म के वक्त तो सभी की यह दुआ होनी चाहिए कि जो भी हो स्वस्थ हो मगर नहीं अपने यहाँ तो चाहे जैसे हो बस बेटा हो...

खैर मैं तो उस लड़के के बारे में कह रही थी और बात बेटा-बेटी पर पहुँच गयी, बहुत शौक है उसे फुटबाल खेलने का मगर ऊंची गेंद आते देखकर बहुत डर जाता है वो, पर खेलने का जोश कम नहीं होता उसका, स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों के साथ खेलना चाहता वो, मगर बच्चे उसे गेंद देते ही नहीं क्यूंकि उस वक्त बच्चे खुद अपनी मस्ती में इतना मग्न होते हैं कि उसकी विवशता को समझ ही नहीं पाते। समय भी छुट्टी का रहता है तो उस वक्त कोई अध्यापक भी वहाँ मौजूद नहीं होता कि बच्चों को समझा सके कि उसे भी खेलने का मौका दो मगर फिर भी उसकी अपनी तरफ से पूरी कोशिश रहती है कि वह खेले और बच्चों की तरह भागे, दौड़े, मारे मगर बेचारा कर नहीं पाता, जानती हूँ यहाँ बेचारा शब्द बहुत ही गलत लगता है। मगर जब ऐसा कुछ देखती हूँ तो खुद को बहुत असहाय सा महसूस करने लगती हूँ क्यूंकि मैं चाहकर भी उसकी मदद नहीं कर सकती। ऐसे मामलों में खुद आगे बढ़कर किसी से कुछ कहना लोगों को बुरा लग सकता है और फिर स्वयं उसके पिता आगे नहीं आते शायद वह अपने बच्चे को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हो, ऐसे मैं यदि कोई भी अंजान व्यक्ति उसकी मदद करे तो हो सकता है कि उस व्यक्ति की सहानभूति उनकी भावनाओं को आहत कर दे वैसे तो ऐसे बच्चे सदा ही अभिभावकों के दिल के ज्यादा करीब होते हैं मगर कई बार इसका उल्टा भी होता है कई बार बाकी अन्य भाई बहन अपने किसी ऐसे भाई या बहन के प्रति जो मानसिक रूप से ठीक ना हो एक अलग सी भावना रखते है। यह अभिभावकों की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने अन्य बच्चों में उस खास बच्चे के प्रति सामान्य व्यवहार रखें ताकि बाकी बच्चे भी उससे सामान्य व्यवहार ही करें क्यूंकि बच्चे वही करते हैं जो देखते हैं। मैंने कुछ परिवारों में ऐसे बच्चों के भाई बहनो कों उस खास बच्चे के प्रति शर्म महसूस करते देखा है तो कहीं अत्यधिक प्यार जिसका एक सबसे अच्छा उदहारण थी फिल्म "अंजली" जो बहुत से ऐसे परिवारों का जीता जागता प्रमाण है।

मेरे विचार से तो यह पूरी तरह सबसे पहले अभिभावकों की और उसके बाद समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह ऐसे बच्चों के प्रति एक सकरात्मक रवैया रखते हुए उन से साधारण बच्चों की तरह व्यवहार करें मगर होता उसका उल्टा ही है। हांलांकि इस मामले में बहुत सी समाजसेवी संस्थाएं निरंतर काम कर रही है। मगर फिर भी ऐसे खास लोगों को आम लोगों में शामिल कराना किसी एक बड़ी लड़ाई लड़ने से कम बात नहीं है। आजकल का तो पता नहीं कि अपने इंडिया में इस जैसे बच्चों के लिए अब क्या-क्या व्यवस्थायें उपलब्ध कर दी गयी हैं। मगर इस विषय में यहाँ बहुत कुछ देखने को मिलता है यहाँ ऐसे खास बच्चों के लिए हर तरह की सुविधा उपलब्ध है। जैसे यहाँ उनके साथ भी आम बच्चों की तरह ही व्यवहार किया जाता है। उन्हें साधारण बच्चों के साथ एक से ही स्कूल में एक ही कक्षा में भी पढ़ाया जाता है। पिकनिक पर ले जाया जाता है,  पुस्तकालय ले जाया जाता है, उनके लिए अलग तरह के कमरों और शौचालयों की व्यसथा होती है ताकि उन्हें किसी अडचन का सामना न करना पड़े, यहाँ तक की बसों और रास्तों पर भी उनके लिए व्यवस्था होती है। कुल मिलकर हर तरह से कोशिश कि जाती है कि वो भी समाज में आगे चलकर सामान्य नागरिकों की तरह ज़िंदगी बसर कर सके और एक हम लोग हैं जो अभी तक बेटा बेटी के भेद भाव से ही उबर नहीं पाये हैं।

हो सकता है यहाँ कुछ लोगों को ऐसा लगे कि यह सब करके सरकार खुद ही उन बच्चों को कहीं न कहीं यह एहसास दिला रही है कि वो आम लोगों से अलग है मगर जहां तक मेरी सोच कहती है यह सब उनकी सुविधा के लिए है ना कि उन्हें यह एहसास दिलाने के लिए कि वह अलग हैं खैर इस बात के पीछे भी कई कारण हो सकते हैं जैसे कि हमारा देश इतना बड़ा है कि शायद वहाँ इन बातों का ध्यान इतनी अच्छी तरह रख पाना संभव ना हो और यह हमारे देश के सामने बहुत ही छोटा सा देश है और यहाँ की जनसंख्या भी बहुत कम है इसलिए भी शायद ऐसा हो, हमारे यहाँ तो आधी आबादी खाने कमाने के चक्करों में ही खत्म हो रही ही और जो समान्य वर्ग है उनका इतना बजट नहीं कि वो ऐसे खास लोगों का बड़े स्तर पर इलाज करवा सकें वरना अगर चिकित्सा पद्धती की बात कि जाये तो वो यहाँ की तुलना में हमारे यहाँ कहीं ज्यादा अच्छी है मगर साथ ही महंगी भी बहुत है इसलिए हम चाहकर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते। उस परिवार को देखकर जो लगा वो मैंने लिखा अंदर की बात क्या है यह तो मैं नहीं जानती। मगर बाहर जैसा दिखता है उसके मुताबिक तो मन करता है उनका उदाहरण दिखाना चाहिए ऐसे लोगों को जो बेटे की चाह में बेटी का तिरस्कार करते हैं या बेटे की चाह में बजाय एक स्वस्थ बच्चे की इच्छा रखने के केवल बेटे की इच्छा रखते हैं।  इन सब बातों को सोचने पर लगता है कि कुछ भी कहो जो अलग है वो अलग है उसे लाख कोशिश करने पर भी हम अपने जैसा नहीं बना सकते मगर इतना तो कर ही सकते हैं कि कम से कम उसे खुद में यह महसूस ना होने दें कि वो हम से अलग है। बल्कि हमारी कोशिश तो यह होनी चाहिए कि उसके अलग होने के एहसास को भी उसके सामने ऐसे रखें कि वह खुद को खास समझे हीन नहीं....मुझे तो ऐसा ही लगता है आप सब की क्या राय है ?

Sunday 11 November 2012

इंगलिश विंगलिश


हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री की तरफ से हिन्दी फिल्म प्रेमियों को एक नायाब तोहफा है यह फिल्म(इंगलिश विंगलिश), इस फिल्म की जितनी तारीफ की जाये कम है। वैसे मुझे यह फिल्म देखने में थोड़ी देर ज़रूर हो गयी मगर इस फिल्म को देखने के बाद लगा कोई बात नहीं "देर आए दुरुस्त आये" क्यूंकि यह फिल्म तो पहले दिन पहला शो देखने वाली फिल्म है। सालों बाद हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी कोई फिल्म आई जिसको देखकर दिल बाग-बाग हो गया। सच दिल को छू गयी। यह फिल्म एक बार फिर न जाने क्यूँ मुझे ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों का वो दौर याद आ गया जब एक आम मध्यमवर्गीय लोगों की ज़िंदगी को बिलकुल ज़मीन से जुड़कर ही पर्दे पर दिखाया जाता था। जिसमें उस फिल्म के हर पात्र से जनता कहीं न कहीं खुद को जुड़ा हुआ पाती थी। ठीक वैसा ही मैंने इस फिल्म में हर पात्र को कहीं न कहीं खुद से जुड़ा हुआ ही पाया। वैसे इस साल कई सारी अच्छी फिल्में आई ऐसा मैंने सुना था, मगर अफसोस कि मैं सभी देख नहीं पायी जैसे (बर्फी) यह फिल्म देखने की भी मेरी बहुत तमन्ना थी। मगर नहीं देख नहीं पायी वैसे देखने को तो यह फिल्म मैं ऑनलाइन देख ही लूँगी मगर वो क्या है ना, कि मुझ जैसे लोगों को अच्छी फिल्म देखने का सही मज़ा सिनेमाघर में ही आता है। जैसा कि इस फिल्म को देखने के बाद आया, न जाने क्यूँ इस फिल्म को देखने के बाद दिल को एक सुकून सा मिला कि आज भी हमारे देश में अच्छे निर्माता निर्देशकों के साथ ही श्रीदेवी और अमिताभ बच्चन जी जैसे महान कलाकार भी मौजूद है गर्व होता है इन्हे पर्दे पर देखकर। वैसे बाल्की जी की यह दूसरी फिल्म थी बच्चनजी के साथ, मेरा मतलब है वैसे तो यह फिल्म उनकी धर्मपत्नी गोरी शिंदे जी ने निर्देशित की है मगर इसे बाल्की जी की फिल्म भी कहा जा सकता है। खैर भले ही इस फिल्म में बच्चनजी का बहुत छोटा सा किरदार है मगर बहुत ही दमदार है। इसे पहले बाल्की जी ने बच्चनजी के साथ एक फिल्म और बनाई थी जिसका नाम था (चीनी कम) यह भी एक बेहतरीन फिल्म थी।

ऐसा मुझे लगता है,क्यूंकि हर मामले में पसंद अपनी-अपनी ख्याल अपना-अपना होता है और जैसा कि आप सब जानते ही हैं कि मैं बच्चन जी की बहुत बड़ी पंखी हूँ और मैंने आज तक उनकी कोई फिल्म नहीं छोड़ी है :-)फिर चाहे वो फिल्म (लास्ट इयर)ही क्यूँ न हो इसका नाम बहुत कम लोगों ने सुना है कि इस नाम की भी उनकी कोई फिल्म कभी आई भी थी।  मगर यहाँ मैं बताती चलूँ कि उनकी यह फिल्म आई थी जो इंगलिश में थी साथ में अर्जुन रामपाल भी था। खैर यहाँ में (लास्ट इयर) की नहीं बल्कि (इंगलिश विंगलिश)फिल्म की चर्चा करने आयी हूँ। मगर क्या करूँ मैं बच्चन जी कोई फिल्म नहीं छोड़ती न फिर चाहे उसमें उनकी छोटी सी सहायक भूमिका ही क्यूँ न रही हो या फिर अतिथि भूमिका ही क्यूँ न रही हो जैसे वो पूरानी (गोलमाल) हो या (गुड्डी)या फिर(राम जी लंदन वाले) सब देखी हैं मैंने, इसलिए इसे भी छोड़ ना सकी और ऊपर से श्रीदेवी 15-16 साल बाद उनकी कोई फिल्म आयी है और आज भी उनका अभिनय और खूबसूरती बिलकुल वैसी है जैसे पहले हुआ करती थी। न जाने कैसे यह लोग चरित्र में ऐसे कैसे उतर जाते हैं कि इंसान इनके बजाए खुद को इनमें देखने लगता है। फिल्म शुरू होते ही मेरा तो मन किया था सिटी मारने को, और बच्चन जी के आने पर तो ज़ोर से ज़ोर से सिटी मारने और ताली बजाने का मन था मेरा, मगर अफसोस यह हो न सका....क्यूँकि फिल्म पुरानी होने के कारण भीड़ भाड़ ज़रा भी नहीं थी। वरना यदि होती तो मैं सिटी ज़रूर मारती। 

खैर अब बहुत हो गयी मेरी बातें अब फिल्म पर आते हैं। एक अच्छी फिल्म वो होती है जो दर्शक को "गुड पर मक्खी" की तरह चिपका कर रखे जो आपको एक पल के लिए भी पलक झपकाने तक का मौका न दे, ठीक वैसी ही फिल्म है यह "इंगलिश विंगलिश" एक साधारण से परिवार की एक बहुत आम साधारण सी औरत की कहानी जिसे ठीक से इंगलिश बोलनी नहीं आती जिसके कारण उसे हर रोज़ अपने परिवार वालों से जाने अंजाने में मज़ाक और अपमान सहना पड़ता है और फिर अचानक एक दिन उसे अपनी बहन की बेटी की शादी में सम्मिलित होने के लिए (न्यूयॉर्क) जाना पड़ता है और फिर शुरू होते है उसके छोटे-छोटे संघर्ष जिनसे बखूबी निपटते हुए नायिका अंत में अपने परिवार में अपना खोया हुआ मान सम्मान फिर से पा लेती है। पूरी कहानी यहाँ मैं नहीं बताऊँगी क्यूंकि जिन लोगों ने अब तक यह फिल्म देखी नहीं है मैं नहीं चाहती उनका इस बेहतरीन एवं अतुल्य फिल्म को देखने का सारा मज़ा चला जाये। मगर इस बीच दो संवादों ने मुझे बहुत प्रभावित किया एक तो बच्चन जी ने बोला है कि "हर किसी की ज़िंदगी में कुछ न कुछ पहली बार ही होता है और यह पहली बार ज़िंदगी में केवल एक ही बार आता है इसलिए अब हमें इन अंग्रजों से डरने की जरूरत नहीं बल्कि अब हमारी बारी है इन्हें डर दिखाने की इसलिए इस पहली बार का बिंदास और बेबाकी से खुलकर मज़ा लीजिये" और दूसरी बात नायिका की खूबसूरती में एक फ्रेंच इंसान के द्वारा बोला गया यह संवाद की "उसकी आंखे इतनी खूबसूरत हैं जैसे दूध में कॉफी की दो बूंदें"

सच मेरे तो दिल को छू गयी यह फिल्म, इस फिल्म की दूसरी बात जो मुझे अच्छी लगी वो यह कि कभी-कभी दो अंजान लोग जो एक दूसरे की भाषा तक नहीं समझते, मगर फिर भी एक अच्छे इंसान होने के कारण वह कितनी आसानी से हमारे कितना करीब आ जाते हैं। यह जानते हुए भी कि सामने वाला हमारी भाषा, हमारी बोली नहीं समझता। फिर भी कभी-कभी उससे अपने मन की बात कह देना भी दिल को कितना सुकून पहुंचा जाता है और हैरानी की बात तो यह होती है कि वह बात समझे न समझे, हमारी भाषा समझे न समझे, मगर जज़्बात समझ जाता है। ठीक प्यार की तरह जिसकी अपनी कोई भाषा या परिभाषा नहीं होती मगर फिर भी हर प्रांत का इंसान उस जज़्बे को समझता है, महसूस कर सकता है। इससे याद आया इसी फिल्म का एक और बढ़िया संवाद कि यूं तो हर इंसान प्यार का भूखा होता है और हर इंसान को केवल प्यार चाहिए मगर तब भी सिर्फ प्यार से बात नहीं बनती प्यार के साथ-साथ एक औरत को मान सम्मान की भी उतनी ही जरूरत होती है जितनी कि प्यार की,

खैर यहाँ बात हो रही थी भाषा की, इससे पता चलता है भाषा का भी कितना बड़ा महत्व है ना हमारी ज़िंदगी में, सोचो अगर यह भाषा न होती तो क्या होता। फिर भी हमें अपनी भाषा की कोई कदर नहीं है अंग्रेज़ी बोलना आजकल सांस लेने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है आज की तारीख़ में इंसान oxygen के बिना ज़िंदा रह सकता है मगर इंगलिश के बिना नहीं, कमाल है न!!! जाने कब बदलेगी यह मानसिकता कि जिसे इंगलिश नहीं आती उसे कुछ नहीं आता। ऐसी मानसिकता रखने वालों के लिए एक करारा जवाब है यह फिल्म, मेरे हिसाब से कोई भी नई भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं। भाषाएँ सभी अपने आप में बहुत ही मधुर और सम्माननीय हैं, मगर इसका मतलब यह नहीं कि हम अपनी मातृभाषा को ही भुला देने और केवल दूसरों के सामने खुद को स्मार्ट दिखने के लिए अपनी भाषा को छोटा समझते हुए केवल दिखावे के लिए उस भाषा का प्रयोग करें जो हमारी है ही नहीं बल्कि होना तो यह चाहिए कि हम औरों की और सामने वाला हमारी दोनों ही एक दूसरे की भाषाओं का तहे दिल से आदर सम्मान करें ना की पीठ पीछे परिहास। 

खैर बहुत हो गया ज्ञान, वापस फिल्म पर आते हैं इस फिल्म से हमें एक और बहुत अच्छा संदेश मिलता है कि हमें भाषा भले ही न आए किसी दूसरे प्रांत की, मगर हमें उसकी भावनाओं का ख़्याल रखना ज़रूर आना चाहिए। क्यूंकि दिल तो एक ही होता है और उसमें भावनाएँ भी एक सी ही होती है इसलिए अंजाने में भी किसी का दिल दुखाना ठीक बात नहीं जो अक्सर हम भूल जाते हैं, यह सोचकर कि अरे सामने वाले को थोड़ी न हमारी भाषा आता ही है कुछ भी बोल लो,और इस तरह का फूहड़ता भरा परिहास यहाँ बड़ी आसानी से देखने को मिलता है वो भी ज़्यादातर हम हिंदुस्तानियों के द्वारा जो सारासर गलत है, सच है "अपने बच्चों को सब कुछ सिखाया जा सकता है मगर दूसरों की भावनाओं की कदर करना भला कोई कैसे सिखाये" यह दोनों भी इसी फिल्म के संवाद है जो अपने आप में एक बहुत बड़ा प्रश्न है और भी बहुत कुछ है इस फिल्म में देखने सुनने और सीखने लायक क्यूंकि संवाद भले ही कितने भी साधारण क्यूँ न लग रहे हों आपको मगर दो बड़े कलाकारों द्वारा अपनी कला के माध्यम से इसे भावों के रूप में ढालकर देखने का तरीका अर्थात निर्देशन इतना कमाल का है कि आप जज्बाती हुए बिना नहीं रह पाते और लाख चाहने पर भी आँखें नाम हो जी जाती है मगर अब बस पहले ही बहुत कुछ कह चुकी हूँ इस फिल्म के विषय में इसलिए अब कुछ नहीं अब तो बस इतना ही यदि आप एक सच्चे हिन्दी फिल्म प्रेमी है और एक अच्छी और बेहतरीन या फिर एक अतुल्य फिल्म में अंतर करना जानते हैं तो एक बार यह फिल्म ज़रूर देखिएगा....जय हिन्द                                  

Sunday 4 November 2012

ज़रा एक बार सोच कर देखिये





मैं जानती हूँ आज मैं जो कुछ भी लिख रही हूँ उससे बहुत से लोग असहमत होंगे खासकर वह लोग जो यह समझते है या मानते हैं कि मैं अपनी पोस्ट में हमेशा पुरुषों का पक्ष लेती हूँ। जो कि सरासर गलत बात है मैं किसी का पक्ष या विपक्ष सोचकर नहीं लिखती बस वही लिखती हूँ जो मुझे महसूस होता है मगर फिर भी कुछ लोग हैं, जिन्हें ऐसा लगता है कि मुझे लिखना ही नहीं आता। जी हाँ इस ब्लॉग जगत में लिखते मुझे दो साल हो गये यह मेरा पहला अनुभव है जहां मुझे अपने कुछ आलोचकों से यह जानने को मिला कि मुझे लिखना ही नहीं आता। इस बात से एक बात और भी साबित होती है कि जिन लोगों को ऐसा लगता है वह लोग भी मेरी पोस्ट पढ़ते ज़रूर है भले ही मेंट न करें क्योंकि उनका यह कहना ही इस बात का प्रमाण है कि मैं चाहे अच्छा लिखूँ या बुरा वह मेरा लिखा पढ़ते है। तभी तो यह तय कर पाते हैं कि मैंने अच्छा लिखा या बुरा इसलिए मैंने सोचा आज मैं उन सभी लोगों को यह बताती चलूँ कि मैं केवल वो लिखती हूँ जो मुझे महसूस होता है, जो मेरा अपना, या मेरे अपनों का या मेरे आस-पास के लोगों का अनुभव होता है। मगर फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो सीधी बात को भी टेढ़ी नज़र से देखते है और अपनी सोच के आधार पर किसी भी व्यक्ति या विषय के प्रति अपनी ही एक धारणा बना लेते है और यह सोचने लगते है कि जो उन्हें दिख रहा है या दिखता है वही सच होता है।

खैर मैं यहाँ अपनी सफ़ाई नहीं दे रही हूँ न ही मेरा ऐसा कोई इरादा है लेकिन जब पानी सर से ऊपर हो जाए तो बोलना ही पड़ता है। अब बात करते हैं कुछ नारीवादी लोगों की, वैसे मेरे हिसाब से तो नारी के पक्ष में कही जाने वाली कोई भी बात फिर चाहे उस बात को स्वयं नारी कहे या कोई पुरुष नारीवादी करार देना ही नहीं चाहिए। मगर यह बात कुछ वैसी है जैसे कोई चलन या आम बोल चाल की भाषा में प्रयोग किया जाने वाला कोई शब्द (नारीवादी विचारधारा) लेकिन जब ऐसा कोई विषय उठाया जाता है जिसमें नारी के प्रति किसी तरह का कोई चिंतन दर्शाया जा रहा हो, या उसके मान सम्मान या अधिकारों के प्रति कोई बात कही जा रही हो तो लोग उसे नारीवादी पोस्ट कहने लगते है, जो कि गलत है। क्यूंकि पुरुष भी तो हमारे ही समाज का एक अंग हैं फिर हम यदि किसी भी विषय पर कुछ सोचते हैं तो उन्हें अलग कैसे कर सकते है यहाँ मेरी सोच यह है कि स्त्रियों से संबन्धित विषयों में भी सभी की सोच एक दिशा में होनी चाहिए तभी कुछ बात बन सकती है। क्यूंकि वह लोग भी हमारे समाज का एक अहम हिस्सा हैं कोई शत्रु तो नहीं है। जो हर बार हम उन्हें अलग करके सोचते हैं।

अब सवाल यहाँ यह उठता है कि हमेशा ऐसे सारे विषय एक नारी के द्वारा ही क्यूँ लिखे जाते हैं। जबकि समाज की सभी नारियां तो इन बातों से पीड़ित नहीं है फिर एक नारी ही हमेशा ऐसा सब कुछ क्यूँ सोचती है। समाज में रहने वाले सभी पुरुष तो खराब नहीं है फिर वो क्यूँ आगे आकर इन विषयों पर कुछ नहीं लिखते यहाँ शायद लोग कहें कि वह किसी तरह के झमेलों में फंसना नहीं चाहते इसलिये वह ऐसे विषयों पर नहीं लिखते या फिर लिखते भी हैं तो बहुत कम, माना कि नारी और पुरुष की तुलना हमारे समाज में सदियों से विद्यमान है मगर क्या आपको नहीं लगता कि हम इस तरह की बातें करके उन्हें और भी हवा दे रहे हैं। क्यूंकि यहाँ मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह कि बातों से यह भेद भाव और भी ज्यादा गहरा हो जाता है और शायद जिन्हें महसूस नहीं होता उन्हें भी महसूस होने लगता है।

हो सकता है आप लोगों को ऐसा न लगता हो क्योंकि इस विषय में सबकी अपनी सोच, विचार और राय हो सकती है। मगर मुझे जो लगा मैं वही लिखने का प्रयास कर रही हूँ, नारी के अधिकारों के लिए माँग उसकी सुरक्षा के लिए आए दिन होते आंदोलन, समान अधिकार पाने की लड़ाई इत्यादि के बारे में लिखते लिखते वाकई हमारी सोच सिर्फ नारीवादी होने तक ही सिमित हो गयी है (यहाँ नारीवादी लिखने से मेरा तात्पर्य है वह बातें जिसमें केवल हर तरह से नारी का जि़क्र हो) मैं कहती हूँ, क्या ऐसे चिल्लाने से अर्थात आंदोलन करने से, या इस तरह की पोस्ट लिखने से कुछ बदलने वाला है? जो लोग नारी शब्द को पकड़ कर बस शुरू हो जाते हैं। पिछले कुछ महीनों से इस मामले में तो मेरा अनुभव यह रहा है कि जिन लोगों को अपने ब्लॉग पर या अपनी पोस्ट पर कमेंट बढ़ाने का शौक होता है केवल वही लोग इस एक नारी शब्द को पकड़कर लिखते रहते है इस श्रेणी में आप मुझे भी सम्मिलित कर सकते हैं क्यूंकि मैंने स्वयं भी नारी से जुड़े विषयों पर बहुत लिखा है और यह पाया है कि मेरी जिस किसी पोस्ट में नारी के विषय में लिखा होता है उस पोस्ट पर कमेंट की झड़ी लगी होती है और जिस पोस्ट में ऐसा कुछ ना हो उस पोस्ट पर लोग आते ही नहीं और तो और यहाँ मैंने कुछ ऐसे लोगों को भी देखा हैं जो केवल नारी शब्द देखकर ही शुरू हो जाते है। पोस्ट में असल बात क्या कहना चाहा है लेखक/लेखिका ने उस बात कि तरफ ध्यान ही नहीं देते। अब ऐसे लोगों को कोई नारीवादी न कहे तो क्या कहे।

लेकिन मेरा इस पोस्ट को लिखने का मुख्य बिन्दु यह है कि इस तरह कि नारी मुक्ति मोर्चा टाइप पोस्ट लिखने से कुछ होने जाने वाला नहीं है आज सभी कहते हैं नारी ने अपने आपको अब हर तरह से सक्षम बना लिया है अब वो किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं उसके अधिकारों के लिए बहुत सी संस्थाएँ आगे आयी है और नारी मुक्ति जैसे कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है नारी अब अबला नहीं है कमजोर नहीं है समाज बदल रहा है लोगों की सोच में परिवर्तन आ रहा है न सिर्फ आम ज़िंदगी में बल्कि शायद रूपहले परदे पर भी, बहुत अच्छी बात है....अगर वास्तव में यह हक़ीक़त है तो, ? मगर मुझे तो वास्तविकता कुछ और ही नज़र आती है जब से नारी ने अपने अधिकारों के प्रति और अपने सम्मान के प्रति अपनी आवाज़ उठायी है तब से समाज में बलात्कार के मामलों में, या नारी उत्पीड़न के मामलों में कुछ ज्यादा ही तेज़ी आयी है यानि बजाय समस्यायेँ सुलझनें के हालत और भी ज्यादा बद से बदतर होते जा रहे हैं। कुल मिलाकर मुझे नहीं लगता कि इस तरह के आंदोलन से कोई फर्क पड़ने वाला है। फर्क किस चीज़ से पड़ेगा फ़िलहाल तो यह कहना बहुत ही मुश्किल काम है क्योंकि आजकल जो हालात नज़र आते हैं उसमें तो इस समस्या से निजात पाने का कोई तरीक़ा कम से कम मुझे तो नज़र नहीं आता। मगर शायद फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि इस समस्या से निजात पाने के लिए यदि स्त्री और पुरुष दोनों ही साथ मिलकर चलें तो ज़रूर कुछ हो सकता है अकेली महिलाओं के हँगामाखड़ा करने से कोई हल निकलने वाला नहीं इन मुद्दों का, जरूरत है उन लोगों के आगे आकर काम करने की जिन्हें वास्तव में ऐसा लगता है कि वह एक दूसरे के सच्चे मित्र है विपरीत लिंग होते होते हुए भी एक दूसरे को अच्छी तरह समझते है फिर चाहे वो दोनों स्त्री पुरुष मित्र हों या पति पत्नी या फिर एक ही जगह काम करने वाले सहकर्मी, जब दोनों ही कि सोच एक ही दिशा में होगी तभी इस समस्या का निदान हो सकता है और हमारे देश में सदियों से विद्यमान कुछ कुप्रथाओं और अंधविश्वास का खात्मा भी केवल इसी एक दिशा सोच से ही हो सकता ना कि यूं एक दूसरे से प्रथक होकर इस दिशा में दिशा हीन होते हुए कार्य करने से।

ज़रा एक बार इस नज़र से भी सोचकर देखिये आपको क्या लगता है ?

Tuesday 30 October 2012

अच्छा तो हम चलते हैं.....



हम तो चले परदेस हम परदेसी हो गये 
छूटा अपना देश हम परदेसी हो गये ....

ऐसा लगता है जैसे यह गीत मेरे लिए ही लिखा गया है हर साल डेढ़ साल में मुझे अपना घर अपना शहर छोड़कर किसी नई जगह जाना पड़ता है। पहले तो सिर्फ देश ही बदला था मगर उसके बाद से तो जैसे बंजारों सी हो गयी है ज़िंदगी, कभी इस शहर तो कभी उस शहर बस यही सिलसिला जारी है और अब इसी सिलसिले में फिर से एक नया शहर जुड़ गया है या यूं कहिये जहां से शुरुआत हुई थी अब शायद वापसी भी वहीं से हो या न भी हो, उस विषय में तो अभी कोई जानकारी नहीं है। मगर हाँ एक बार फिर शहर ज़रूर बदल गया है यानि वापस लंदन आप में से शायद बहुत से ऐसे लोगों हों जिन्हें यह पता न हो कि मैं फिलह मेंचेस्टर के पास (Macclesfield) मेकल्सफील्ड नामक स्थान पर रह रही थी और अब लंदन शिफ्ट हो गयी हूँ। यानि फिर नये सिरे से नये साल में एक तरह की नयी ज़िंदगी शुरू, नयी जगह, नया घर, नया ऑफिस, नया स्कूल, नये दोस्त, नये लोग, यानि कुल मिलकार सब कुछ नया-नया। अब तो बस हर बार की तरह इस बार भी एक ही दुआ है कि यह नयापन भी रास आ जाये सभी को और कुछ नहीं चाहिए। क्यूंकि क्या है न कि बड़े तो हर माहौल में खुद को ढाल ही लेते हैं। समस्या होती है बच्चे के साथ अचानक से सब दोस्त यार स्कूल सब छूट जाता है। ऐसे में हम बड़ों से ज्यादा बच्चों को परेशानी होती है। हांलांकी बच्चों की आपस में दोस्ती आसानी से हो जाती है यह एक बहुत अच्छी बात है। मगर फिर भी नयी जगह हिलने मिलने में थोड़ा तो समय सभी को लगता है।

इतने दिनों से बस घर जमाने में ही सारा समय निकल रहा था अब जाकर सब सेट हो गया है इसलिए आज बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आना हुआ है तो सोचा चलो और कुछ नहीं तो कम से कम सबको बता तो दूँ अब मैं लंदन आ गयी हूँ और जगह का नाम है हैरो (Harrow), सुना है यहाँ भी लंदन के अन्य स्थानों की तरह भारतीय लोगों की संख्या ज्यादा है हांलांकी पिछले एक हफ्ते के अनुभव के अनुसार मुझे यहाँ पाकिस्तानी और श्रीलंकन ही ज्यादा दिखाई दिये, खैर हो सकता है थोड़े और दिनों बाद और भी भारतीय लोगों से मिलना हो जाये। अब तक जहां भी मैं रही हूँ वहाँ भारतीय लोगों की संख्या लगभग ना के बराबर ही मिली है तो अब बहुत मन कर रहा है अपने लोगों के बीच रहने का हांलांकी मेंचेस्टर में भी बहुत भारतीय लोग हैं मगर हम जहां रहते थे वहाँ से रोज़-रोज़ तो मैंचेस्टर जाना भी सभव नहीं था इसलिए कभी-कभी लगता है कि कभी तो की हिंदीभाषी मिलें वरना यूं तो जिंदगी एक रूटीन की तरह अच्छे बुरे अनुभव के साथ चलती ही है। वैसे मैंने सोचा था शिफ्ट होने पहले इस विषय में एक पोस्ट लिखूँगी मगर सामान बांधने और सफाई के चक्कर में समय ही नहीं मिला क्यूंकि यहाँ तो मकान खाली करने से पहले चमकाना भी पड़ता है :) और सही सलामत भी वरना लेटिंग एजेंट के पास जमा की गयी जमा पूंजी में से सारा काफी बड़ी मात्रा में पैसा काट लिया जाता है।

यूं तो साफ सफाई हर रोज़ ही करनी पड़ती है घर की मगर जब घर बदलना होता है तब ऐसा लगता है बाप रे यहाँ गंदा है वहाँ गंदा है यह पहले क्यूँ नहीं दिखा क्यूंकि बहुत सी गंदगी पता नहीं कैसे और क्यूँ मकान खाली होने के बाद ही नज़र आती है :) वैसे यदि आपके पास पैसा ज्यादा हो तो उसका भी विकल्प है क्लीनर को बुलवा कर सफाई करवाना मगर वो बहुत ही ज्यादा महंगा उपाय है क्यूंकि अकेले कार्पेट क्लीनिंग के ही 50 पाउंड के ऊपर लग जाते हैं तो सोचिए ज़रा पूरे घर की क्लीनिंग के कितने लगते होंगे मगर अफसोस की इतनी मेहनत के बाद भी आप अपना ही पैसा काटने से बचा नहीं सकते क्यूंकि proffesional cleaning के जैसी सफाई अपने बस का काम नहीं और ना ही हम इतनी बारीकियों पर ध्यान ही दे पाते कि बिजली के खटके पर भी उँगलियो के निशान न बने सारे काँच के सामान भी हीरे की तरह दमकें, चिमनी बिलकुल नयी जैसी लगे वगैरा-वगैरा बड़ा ही मुश्किल काम है यहाँ घर बदलना एक रात पूरी जाती है साफ सफाई में और समान पैक करने में और कई दिन जाते हैं सारा समान नए घर में जमाने में कुल मिलकार थकान ही थकान, ऊपर से सबका स्कूल ऑफिस अलग, कि आराम करना भी चाहो तो नहीं मिल सकता। ऊपर से चाहे जितनी भी थकान हो मुझ से दिन में नहीं सोया जाता।

पिछले पाँच सालों में यह मेरा चौथा स्थानांतरण है नयी जगह के नए अनुभव अभी कुछ खास हुए नहीं है इसलिए फिलहाल और ज्यादा कुछ लिखने को भी नहीं है तो फिलहाल इजाज़त जल्द मिलेंगे फिर किसी नए विषय के साथ जय हिन्द ....

Tuesday 16 October 2012

नवरात्री की हार्दिक शुभकामनायें....


सबसे पहले तो आप सभी को हमारी ओर से नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें 
माँ भवानी आप सभी की मनोकामनाएँ पूर्ण करें !!
जय माता दी 

यूं तो त्यौहारों का महीना रक्षाबंधन के बाद से ही शुरू हो जाता है आये दिन कोई न कोई छोटा बड़ा त्यौहार  चलता ही रहता है जैसे कल से नवरात्री प्रारंभ होने जा रही है उसके बाद दशहरा फिर करवाचौथ और फिर  दिवाली उसके बाद आती है देव उठनी ग्यारस और फिर जैसे विराम सा लग जाता है सभी त्यौहारों पर, तब कुछ ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है, या यूं कहिए की उस वक्त ऐसा लगने लगता है जब बहुत से शोर मचाने वाले हल्ला गुला और मस्ती करने वाले बच्चे अचानक से शांत हो जाते हैं और पूरे माहौल में शांति ही शांति पसर जाती है। उन दिनों भले ही उस कान फाड़ू स्पीकर पर बजते फिल्मी गाने या उन गानों पर आधारित भजन से भक्ति रस का एहसास मन में ज़रा भी ना जागता हो, मगर माहौल का जोश कुछ दिनों के लिए ही सही अपनी जीवन शैली में ऊर्जा का संचार ज़रूर किया करता है और किसी का तो पता नहीं क्यूंकि सब की पसंद अलग-अलग होती है। मगर मुझे वो जोश से भरा माहौल बहुत पसंद है। हांलांकी उस माहौल से बहुत से बीमार व्यक्तियों को और विद्यार्थियों को बहुत नुकसान पहुंचता है। मगर इस सबके बावजूद मुझे गणेश  उत्सव के 10 दिन और नवरात्रि के 9 दिन और फिर दशहरा उत्सव का माहौल बहुत ही अच्छा लगता है।

मुझे ऐसा लगता है उन दिनों जैसे सूने से बेजान शहर में जैसे किसी ने जान फूँक दी हो, चारों ओर चहल-पहल नाच गाना झूमते गाते लोग छोटे मोटे मेले झांकी का आकर्षण झांकियों में विराजमान माँ दुर्गा की मूर्ति का आकर्षण, पूरे शहर भर में किस स्थान की मूर्ति सभी मूर्तियों से ज्यादा सुंदर है और कहाँ की झांकी में क्या बना है कौन सी झांकी कितनी भव्य है इत्यादि-इत्यादि ....मैं जानती हूँ मेरी इस बात पर बहुत कम लोग ऐसे होगे जो मुझसे सहमत हों। क्यूंकि इस सब बातों के नाम पर अगर कुछ होता है तो वह है पैसों की बरबादी शहर के छोटे-छोटे तालाबों या नदियों का विसर्जन के वक्त गंदा होना और एक बार विसर्जन होने के बाद उन भव्य एवं विशालकाय मूर्तियों की बेकद्री सब पता है मुझे, मगर फिर भी उसके बावजूद इन दिनों जो शहर का माहौल होता है वो बहुत लुभाता है मुझे, बहुत याद आती है इन दिनों भोपाल की खासकर गरबा देखने जाने की जिसमें लोग जाते ही हैं सिर्फ और सिर्फ मस्ताने के लिए, उन दिनों कोई थोड़ी बहुत या यूं कहें कि हल्की फुल्की छेड़ छाड़ का बुरा भी नहीं मानता, कोई त्यौहार के जोश में लोग इस कदर झूम रहे होते हैं कि ऐसी छोटी मोटी बातों पर ज्यादा कोई ध्यान तक नहीं देता पूछिये क्यूँ ...क्यूंकि लोग जाते ही वहाँ यही सब करने के लिए हैं ।

सबसे अच्छी बात तो यह है कि भले ही लोग पूरे साल लड़का लड़की का भेद भाव कर-करके मरे जाये, भले ही सारे साल लड़कियों को कहीं बाहर जाने की अनुमति न हो, मगर इन दिनों दोस्तो और आस पड़ोसियों की देखा देखी सभी को बाहर जाने का मौका और अनुमति मिल ही जाती है और कम से कम इन दिनों लोग ,लोग क्या कहेंगे को एक अलग ढंग से देखते हुए अनुमति दे ही देते हैं। कल से नवरात्रि शुरू हो रही है और मुझे भोपाल की बहुत याद आरही है मगर सिवाय याद करने के मैं और कुछ कर भी नहीं सकती दोस्त यार गरबे में जाने की बातें कर-करके जला रहे हैं कहाँ क्या बना है बता रहे हैं कौन-कौन सा सेलेब्रिटी आने वाले हैं यह बता रहे हैं और मैं बस सब सुने जा रही हूँ और शुभकामनाओं के साथ कहे जा रही हूँ जाओ यार माँ दुर्गा तुम सब की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करे जय माता दी ....:) 

Tuesday 9 October 2012

दतिया का महल

जब से इंडिया से वापस आई हूँ तब से इस विषय में लिखने का बहुत मन था मगर यह पोस्ट पूरी हो ही नहीं पा रही थी जिसके चलते पिछले कई दिनों से यह पोस्ट ड्राफ्ट में पड़ी थी सोचा आज इसे पूरा कर ही दिया जाये तो बस इंडिया की याद में लिख दिया अपना एक छोटा सा यात्रा वृतांत इस बार मैंने भी इंडिया में दतिया का राजमहल देखा जिसे देखने की हमारी कोई खास मंशा तो नहीं थी मगर बस हम वहाँ हैं और वहाँ जाना बार-बार तो संभव हो नहीं पाता बस यही सोचकर हमने सोचा चलो अब यहाँ आए हैं तो देख ही लेते हैं। दतिया शहर के विषय में बचपन में मैंने अपने पापा से पहले ही काफी कुछ सुन रखा था और शादी के बाद सासू माँ से काफी कुछ जानने को मिला क्यूंकि दतिया उनका मायका है। वैसे तो हम एक ही दिन के लिए वहाँ रुक पाये थे इसलिए यह तय हुआ कि एक ही दिन में आस पास जितने भी स्थान देखना संभव हो वो देख लिया जाय, यह सोचकर हम सबसे पहले पहुंचे वहाँ के सुप्रसिद्ध माता के मंदिर पितांबरा पीठ, जो अब एक प्रसिद्ध मंदिर होने के साथ-साथ एक बहुत ही मशहूर पर्यटक स्थल भी बन चुका है। हम जब वहाँ पहुंचे तो उस मंदिर में कुछ निर्माण कार्य भी चल रहा था और बाहर पेड़े वालों और फूल वालों की भरमार लगी हुई थी और ऊपर से सूर्य नारायण की कृपा मुफ्त में बट रही थी वह भी इतनी ज्यादा कि फल फूल लेने के लिए भी बाहर उन दुकानों पर खड़ा नहीं हुआ जा रहा था, वह तो बस यह गनीमत थी कि वहाँ इतना सुप्रसिद्ध मंदिर होते हुए भी उस वक्त ज़रा भी भीड़ भाड़ नहीं थी उसकी वजह शायद यह हो सकती है गर्मियों का मौसम होने की वजह से उस दौरान वहाँ पर्यटकों का महीना नहीं था जिसे अँग्रेजी में ऑफ पीक सीज़न कहते हैं जिसके चलते हमें उस मंदिर में माता के दर्शन बहुत ही आसानी से हो गये।

पीतांबरा पीठ मंदिर के बाहर का दृश्य
क्यूंकी अंदर केमरा ले जाना मना था 
गर्मी इतनी भयानक थी उस दिन की शब्दों में बयान करना भी मुश्किल है मगर मंदिर के अंदर पहुँच कर जो राहत महसूस हुई तो मेरा और मेरे बेटे का तो ज़रा भी मन ही नहीं हुआ मंदिर से बाहर जाने का, उस वक्त ऐसा लग रहा था कि बस वहीं बैठे रहो जाने क्यूँ किसी भी मंदिर में भगवान के दर्शन हो जाने के बाद मेरा वहाँ कुछ देर रुकने का बहुत मन होता है और मैं कुछ देर वहाँ रुकती भी हूँ। ऐसा करने पर न जाने क्यूँ मुझे एक अजीब सा ही सुकून मिलता है। खैर राजमहल देखने की चाह ने हमें वहाँ ज्यादा देर रुकने नहीं दिया और हम चल पड़े राजमहल देखने। दतिया आज भी एक पुराने शहर की तरह है जहां आज भी छः सीटों वाले टेम्पो एवं तांगा चलता है अपने बेटे को इन सब चीज़ों का अनुभव करवाने के लिए हमने भी टेम्पो से जाने का विचार बनाया क्यूंकि उस वक्त उस कड़ी धूप में तांगे के लिए इंतज़ार करना ज़रा भी संभव नहीं था और हम टेम्पो में सवार हो कर, ज़ोर-ज़ोर से हिचकोले खाते हुए चल दिये राज महल की ओर, इसके पहले हमने यूरोप में नेपोलियन का महल देखा हुआ था। तो थोड़ी बहुत तुलना होना स्वाभाविक ही था हालांकी तुलना वाली कोई बात ही नहीं थी क्यूंकि इन मामलों में तो अपने देश की ASI एवं टूरिस्म व्यवस्था कितनी महान है यह मुझे बताने की ज़रूरत ही नहीं है आप सभी लोग खुद ही वाकिफ है।
महल के बाहर का नज़ारा 
लेकिन फिर भी क्या करें "दिल है की मानता नहीं", जब अब वहाँ पहुंचे तो रास्ते भर आसपास की गंदी सड़कें शिखा जी की पोस्ट के मुताबिक अपनी आज़ादी का जश्न मनाती सी दिखी :) फिर जब महल के बाहर से नज़ारा देखा तो थोड़ी निराशा होना कोई बड़ी बात नहीं थी क्यूंकि एक भव्य महल जब जगह -जगह काली काई से ढका हो तो कैसा दिखेगा इसका अंदाज़ा अभी आपको चित्रों से लग जाएगा, महल के अंदर प्रवेश करते ही चमगादड़ के मूत्र की बदबू से दिमाग सड़ चुका था, ऊपर अभी पाँच माले चढ़ना बाकी था वैसे तो यह महल सात मंज़िला था मगर ऊपर की दो मंजिल बंद कर दी गयी थी क्यूंकि किसी जमाने में कुछ लोगों ने वहाँ से कूदकर आत्महत्या कर ली थी, ऐसा वहाँ के गाइड ने बताया। अब वास्तविकता क्या है यह तो राम ही जाने उसने यह भी बताया कि बटवारे के समय जब पाकिस्तान से लोग भागकर यहाँ आये तो उन्हें रहने के लिए जो भी स्थान मिला उन्होने वहीं शरण ले ली उसी में से उनके रहने का एक स्थान यह महल भी था। इसलिए उन्होंने उनके यहाँ शरण ली और उनके चूल्हे से निकले धूँए ने इस राजमहल को अंदर से भी काला कर दिया।




अब यदि बात करें इस महल के इतिहास की तो इस राजमहल को पुराने महल के नाम से भी जाना जाता है। यह महल महाराज वीरसिंह देव ने उस जामने में पैंतीस लाख रूपय में अब्दुल हामिद लाहोरी और शाहजहाँ के स्वागत में बनवाया था और साढ़े चार सौ कमरों के इस भव्य महल में राज परिवार का कभी कोई एक भी सदस्य इस महल में कभी भी नहीं रहा क्यूंकि इस महल का निर्माण ही केवल तोहफ़े के रूप में करवाया गया था।  
महल के अंदर बनी तस्वीरें 
यह बात सुनकर मेरे दिमाग में जो सबसे पहली बात आयी वह यह थी कि उस जमाने में कितना समय हुआ करता था सभी के पास आप सोच सकते हैं, 9 साल लगे थे इस महल को बनाने में जबकि यह पहले से तय था कि इसमें किसी को नहीं रहना है उसके बावजूद इतनी बड़ी लागत और समय लगा कर इस भव्य इमारत का निर्माण किया गया जिसमें एक से एक सुंदर कलाकारी की गयी है, रंग इतने पक्के हैं कि आज भी सलामत है मगर सही ढंग से देख रेख न होने के कारण सब कुछ अस्त व्यस्त सा हो गया है कुछ कमरों में लगी बेहद खूबसूरत तस्वीरें है जिनको हमने बंद दरवाजों के बावजूद भी लेने की कोशिश की मगर कुछ ही तस्वीरें ले पाये।

बंद कमरे के अंदर एक झरोखे से ली गयी एक तस्वीर 

मगर वह कमरे अब बंद कर दिये गए हैं ताकि लोगों के कारनामों से उन इतिहासिक धरोहरों को बचाया जा सके। वरना आजकल के प्रेम दीवाने तो अपना नाम लिख कर शायद उन तस्वीरों को भी नहीं बख्शते। मगर इस सब के बावजूद आज भी इस महल की सुंदरता देखते ही बनती है। भले ही यहाँ यूरोप में बने नेपोलियन के राजमहल की तरह बेशकीमती सामान की चका चौंध नहीं है अर्थात यहाँ कोई आलीशान कालीन या पर्दे या फिर सोने चांदी से बनी चीज़ें नहीं रखी है जिसे राजसी ठाट बात झलके, मगर राज महल की इमारत का निर्माण अपने आप में इतना खूबसूरत है कि इन सब चीजों की कमी नहीं अखरती ,या यूं कहिए की कम से कम मुझे तो नहीं अखरी। बाकी तो पसंद अपनी-अपनी और खयाल अपना-अपना....

मुझे अगर वहाँ कुछ अखरा तो केवल वही बात जो मैंने पहले भी अपने कई यात्रा वृतांत में लिखी है यहाँ और वहाँ में इतिहासिक इमारतों के रख रखाव में ज़मीन असामान का अंतर, यहाँ एक मामूली से किले को भी इतना सहेज कर रखते हैं लोग और वहाँ इतनी भव्य इमारतों और किलों की कोई देखरेख नहीं है नाम मात्र की भी नहीं, बड़े और ऊंचे स्तर की तो बात ही छोड़िए और यहाँ स्टोन हेंज नामक स्थल जहां अब केवल कुछ पत्थर मात्र बचे है उसे भी ऐसा दार्शनिक स्थल बना रखा है कि लोग ढ़ेरों पैसा खर्च करने को तैयार हैं महज उन चंद पत्थरों को देखने के लिए और अपने यहाँ इतना भव्य महल खड़ा है मगर उसे देखने वाला कोई नहीं न वहाँ कोई साफ सफाई है, न ही किसी तरह का कोई टिकिट, न कोई रोक टोक, जब यह सब नहीं तो गाइड का भी वहाँ क्या काम। हमें भी जिसने इस राज महल के बारे में जानकारी दी वो भी वास्तव में गाइड नहीं था, वहाँ काम करने वाला एक अदना सा कर्मचारी था जो गर्मी से बचने के लिए महल के निचले हिस्से में सोया हुआ था जिसे हम ही लोगों ने जबर्दस्ती जगाकर पूरा महल घुमाने के लिए कहा था। समझ नहीं आता हमारे अपने देश में देखने को इतना कुछ है फिर भी लोग ढेरों पैसा खर्च करके बाहर घूमना ज्यादा पसंद करते हैं औए अपने ही देश में ऐसे स्थलों पर ढंग की कोई व्यवस्था ही नहीं है। होगी भी कैसे अतिथि देवो भवः के सिद्धांतों पर जो चलते हैं हम।

खैर इस सुंदर से राज महल की कुछ तस्वीरें नीचे दे रही हूँ उन्हें देखकर आप खुद ही फैसला कीजिये कि आखिर इस देख रेख की भेदभाव का आखिर क्या कारण है
महल के अंदर के कुछ दृश्य 
महल के अंदर के कुछ दृश्य 

महल के अंदर के कुछ दृश्य 
महल के अंदर का दृश्य जिसे साफ किया गया है
                 

Sunday 30 September 2012

दोहरी सोच


यूं तो विषय नारी विमर्श का नहीं है लेकिन जब बात हो दोहरी मानसिकता की और नारी का ज़िक्र न आए तो शायद यह विषय अधूरा रह जाएगा। नारी विमर्श एक ऐसा विषय जिस पर जितनी भी चर्चा की जाए या जितना भी विचार विमर्श किया जाए कम ही होगा। लेकिन यदि हम सब एक स्वस्थ समाज का निर्माण चाहते है तो उसके लिए लिंग भेद को मिटा कर स्त्री और पुरुष को समान अधिकार देते हुए समान भाव से देखा जाना। जब तक यह सोच हमारे अंदर विकसित नहीं हो जाती तब तक एक स्वस्थ एवं सभ्य समाज की कल्पना करना भी व्यर्थ है। बेशक आज कुछ क्षेत्रों में नारी की स्थिति में पहले की तुलना में बहुत परिवर्तन आया है और नारी ने यह साबित कर दिखाया है कि वो भी एक कामयाब और आत्मनिर्भर इंसान है जो अपने बलबूते पर सब कुछ कर सकती है जो शायद एक पुरुष भी नहीं कर सकता। लेकिन इसके बावजूद भी आज भी सामाजिक स्तर पर कुछ क्षेत्र या परिवार ऐसे हैं जहां सिर्फ कहने का परिवर्तन आया है वास्तव में नहीं, मुझे यह समझ नहीं आता कि लोग दिखावे के लिए कुछ चीजों क्यूँ मानते है। लड़की के अधिकारों के विषय में सोचते -सोचते हम लड़कों को भूल गए है। ऐसा क्यूँ ? जबकि लड़का और लड़की तो स्वयं एक दूसरे के पूरक है तो फिर लड़की के चक्कर में हम लड़कों के साथ दोगला व्यवहार क्यूँ करने लगते हैं ??

मैं जानती हूँ आपको पढ़कर शायद अजीब लग रहा होगा कि लड़कों के साथ दोगला व्यवहार, यह दोगला पन तो खुद इस पुरुष प्रधान देश के महापुरुषों का इजाद किया हुआ शब्द है फिर उन्हीं के प्रति यह शब्द कैसे इस्तेमाल हो सकता है या फिर शायद इसलिए भी क्यूंकि हमारे कानों को आदत पड़ चुकी है इस तरह की बातें या शब्द केवल लड़कियों के लिए पढ़ने और सुनने की, मगर सिक्के का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अंजाने में ही सही, मगर कहीं न कहीं हम लड़कों के साथ नाइंसाफ़ी कर रहे हैं या फिर अंजाने में हम से उनके प्रति यह नाइंसाफ़ी हो रही है, जो सरासर गलत है। आजकल लड़की के माता-पिता बड़े गर्व के साथ यह कहते हुए नज़र आते हैं कि अरे मैं आपको क्या बताऊँ मेरी लड़की में तो लड़कियों वाले कोई गुण ही नहीं है। एकदम लड़का है मेरी लड़की, उसे तो कपड़े भी लड़कियों वाले ज़रा भी नहीं पसंद, ना कपड़े, ना खिलौने, यहाँ तक कि उसके आधे से ज्यादा दोस्त भी लड़के ही हैं। जाने क्यूँ लड़कियों से उसकी बहुत कम बनती हैं।

भई मुझे तो समझ नहीं आता कि इसमें शान दिखाने जैसी कौन सी बात है, बल्कि मेरे हिसाब से तो ऐसी लड़की के अभिभावकों को अपने बच्ची के ऐसे व्यवहार के प्रति थोड़ा अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है। क्यूंकि जब हम किसी लड़के के मुंह से यह सब सुनते हैं कि उसको नेल पोलिश लगाने का शौक है या उसका मन फ्रॉक पहनने का करता है या गुड़ियों से खेलने का करता है तो हमारा दिमाग घूमने लगता है फिर भले ही वो कोई छोटा सा बच्चा ही क्यूँ न हो, हमें उसके मुंह से यह सब बातें अजीब लगने लगती है। फिर भले ही हमने उसे खुद छोटे में अपने मनोरंजन के लिए फ्रॉक क्यूँ न पहनाई हो :-) मगर जब हम उसके मुंह से ऐसी कोई ख्वाइश सुनते है तो हम उसे समझाने का प्रयास करने लगते है। यहाँ तक यदि वह लड़का ज्यादा रोता है या बात-बात पर रोता है तो हम उसे समझाने के लिए यह तक कह देते हैं "अरे रो मत बेटा लड़के रोते नहीं" आख़िर यह दोगला व्यवहार या दोहरी सोच क्यूँ बसी है हमारे दिमाग में ?

हमारे लिए तो लड़का और लड़की दोनों ही बराबर है खास कर छोटे बच्चे, फिर हम उनमें इस तरह का भेद भाव क्यूँ करते हैं ??? यहाँ मैं आप सभी को एक बात और बताना चाहूंगी, यह विचार पूरी तरह मेरे नहीं है क्यूंकि मैंने इस विषय को किसी और के ब्लॉग पर पढ़ा था जहां अपने ब्लॉग जगत के बहुत कम लोग पहुंचे थे अब तो मुझे उस ब्लॉग का नाम भी याद नहीं है। मगर उन्होने  इस बिन्दु पर बहुत जोरा डाला था और जहां तक मुझे याद है उन्होंने भी इस विषय में शायद टाइम्स मेगज़ीन में कहीं पढ़ा था फिर उन से भी इस विषय पर लिखे बिना रहा नहीं गया। मुझे भी बात अच्छी लगी और ऐसा लगा कि यह भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है और इस पर भी विचार विमर्श ज़रूर होना चाहिए। इसलिए मैंने भी इस विषय को चुना और आज आप सभी के समक्ष रखा अब आप बतायें क्या मैंने जो कहा वो गलत है ?

हालांकी उन्होंने तो इस विषय पर मानसिक विकृति तक की बात की मगर मैंने वो सब यहाँ बताना ज़रूरी नहीं समझा क्यूंकि यहाँ मुझे ऐसा लगा कि लड़कियों के ऐसे शौक को जब मानसिक विकृति की दृष्टि से नहीं देखा जाता तो लड़कों के ऐसे शौक को भी नहीं देखा जाना चाहिए। क्यूंकि मेरी सोच यह कहती है कि समान अधिकार की बात अलग है, उसका मतलब यह नहीं कि लड़के और लड़कियां अपना सामान्य व्यवहार ही छोड़ दें। समाज ने, बल्कि समाज ने ही क्यूँ प्रकृति ने खुद दोनों के व्यवहार में, कार्यक्षेत्र में, कुछ भिन्नता रखी है तो ज़रूर उसके पीछे भी कोई न कोई कारण रहा ही होगा। हाँ यह बात अलग है कि आज दुनिया में लोगों ने अपनी सहूलियत के मुताबिक प्रकृति के नियम ही बदल डाले। कुछ ने मजबूरी में, तो कुछ लोगों ने महज़ शौक के लिए और कुछ लोगों ने अपने अहम के कारण, उसी का परिणाम है यह समलेंगिक विवाह पहले तो यह केवल विदेशों तक ही सीमित थे। मगर अब तो अपने देश में भी यह सुनने में आने लगा है।

हालांकी दुनिया में सभी को अपने मन मुताबिक अपनी ज़िंदगी जीने का सम्पूर्ण अधिकार है। लेकिन फिर भी यह सब है तो प्रकृति के नियम के विरुद्ध ही। लेकिन हमें क्या फर्क पड़ता है क्यूंकि हमें तो आदत पड़ चुकी है नकल करने की, फिर चाहे वो भारतीय सिनेमा हो या परिवेश। अपने संस्कारों को तो हम इस आधुनिकता की अंधी दौड़ में लगभग भुला ही चुके हैं जिसका सबसे बड़ा प्रमाण है हमारा अपना मीडिया जो सरे आम खुलकर वो सब दिखा रहा है जो कभी पहले मर्यादा में हुआ करता था। क्यूंकि ऐसा तो है नहीं जो कुछ आज दिखाया जा रहा है वो पहले नहीं होता था। होता तो वह सब तब भी था मगर तब बड़ों के प्रति सम्मान हुआ करता था आँखों में शर्म हुआ करती थी। जो अब ज़रा भी नहीं बची है जिसका असर सब पर नज़र आता है। लोग इस आधुनिकता की अंधीदौड़ में इस कदर अंधे हो चुके हैं कि आधुनिक शब्द के मायने भूल गए हैं। शायद इसलिए आज हम जब लड़कियों को लड़कों की तरह व्यवहार करने पर अचरज से नहीं देखते। वह व्यवहार हमको आज के परिवेश के मुताबिक स्वाभाविक लगता है या लगने लगा है। इसलिए अब हम लड़कियों को उनके ऐसे व्यवहार के प्रति रोकते टोकते नहीं बल्कि बढ़ावा देते है। तो फिर हमें लड़कों को भी नहीं रोकना टोकना चाहिए है ना ??? मगर वास्तव में ऐसा होता नहीं है हम लड़की को भले ही जींस या पेंट पहनने से कभी न टोके मगर यदि कोई लड़का भूल से भी अगर मात्र नेल पोलिश भी लगा ले तो हम उसे ऐसे देखते हैं जैसे पता नहीं उसने ऐसा क्या कर दिया जो उसे नहीं करना चाहिए था।

खैर मैं तो बात कर रही थी दोहरी मानसिकता की, न कि आधुनिकता की, लेकिन देखा जाये तो कहीं ना कहीं आधुनिकता का असर मानसिकता पर ही तो पड़ रहा है "तो मानसिकता बदलने की जरूरत तो है", मगर आधुनिक शब्द के सही अर्थ को समझते हुए क्यूंकि आधुनिक होने का मतलब है सोच का खुलापन, ना कि खुद की पहचान बदलकर विदेशी परिवेश को अपना कर दिखावे की होड़ करना। आप सभी को क्या लगता है ????      

Monday 24 September 2012

निर्णय


आज एक किस्सा आप सबके समक्ष रखना चाहती हूँ कहने को तो बात कम से कम शब्दों में भी कही जा सकती है। मगर यदि कम शब्दों में कहने के चक्कर में, मैं बात को ठीक तरह से कह नहीं पायी तो हो सकता है, विषय के प्रति इंसाफ न हो पाये। यूं तो बात सिर्फ निर्णय की है सिर्फ निर्णय इसलिए कहा क्यूंकि मेरी नज़र में सही या गलत कुछ नहीं होता। वह तो हर व्यक्ति के अपने नज़रीये पर निर्भर करता है कि किसको कौन सी चीज़ सही और कौन सी चीज गलत लगती है। ऐसे ही आज एक किस्से को लेकर मुझे आप सब के विचार जानने है आपका नज़रिया क्या है उस एक निर्णय के प्रति जो मैं अब आपको बताने जा रही हूँ। बात कुछ यूं है कि हम बचपन से यही देखते और सुनते आ रहे हैं कि सभी बच्चों को अपने बड़ों की बात माननी चाहिए। खासकर अपने माता-पिता की, क्यूंकि वह अपने बच्चों के विषय में जो भी सोचेंगे उसमें निश्चित तौर पर कोई न कोई अच्छाई ही छिपी होगी। जो अधिकतर मामलों में छिपी भी होती है क्यूंकि कोई भी अभिभावक अपने बच्चों का बुरा कभी नहीं सोचते इसलिए हम भी अपने बच्चों को भी वही शिक्षा देते है। मगर क्या हमेशा हमारा अपने बच्चों के प्रति लिया गया निर्णय सही ही होता है ? इसी बात से जुड़ा है यह किस्सा या एक छोटी सी कहानी....निर्णय

यह एक लड़की की छोटी सी कहानी है वह लड़की कोई भी हो सकती है इसलिए उसका कोई नाम नहीं दिया मैंने वह लड़की जिसने हमारी और आपकी तरह अपने परिवार से यही सीखा कि "जो न माने बड़ों की सीख लिए कटोरा मांगे भीख" अर्थात जो अपने माता-पिता की बात नहीं मानता उसे सदैव जीवन में पछताना ही पड़ता है और इसलिए उसने हमेशा अपनी माँ की हर बात मानी उसकी ज़िंदगी के लगभग सारे फैसले उसकी माँ ने ही किए जैसे कैसे कपड़े पहनना है, कौन सा रंग पहना है, कौन सा विषय लेना है यहाँ तक कि शादी भी, जाने क्यूँ लड़की को कभी एतराज़ नहीं हुआ अपनी माँ के द्वारा लिए हुए अपनी ज़िंदगी के फैसलों को लेकर और यदि शायद कभी हुआ भी होगा तो उसकी माँ के अनुशासन तले उसका विरोध कहीं दबकर रह गया। ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि उसके मन पर उस उपरोक्त लिखी कहावत ने बचपन से इतना गहरा प्रभाव छोड़ा था कि हर छोटी-छोटी बात में जब ऐसा कुछ होता कि उसने अपनी माँ की कही बात ना सुनी होती तो नतीजा भी विपरीत ही आता और उसकी माँ उसे यही समझती देख मैंने कहा था न ऐसा मत करना वरना यह हो जाएगा, मगर तू नहीं मानी, अब हुआ न वही जो मैंने कहा था।

ऐसे में लड़की को धीरे-धीरे यह बात सच लगने लगी मगर अब लड़की का जीवन अलग है। अब उसकी शादी हो चुकी है उसका एक बेटा भी है खुश किस्मत है वह कि सब कुछ अच्छा मिला है उसे, भरा पूरा घर परिवार और एक बहुत प्यार करने वाला पति, लेकिन एक संतान के बाद उसकी ज़िंदगी में दो और संतानों का मौका आया मगर वह दोनों ही संताने उसके जीवन में आ ना सकी। क्यूंकि दोनों ही बिना सोचे समझे हो जाने वाली भूल का नतीजा थी। इसलिए इस संबंध में भी लड़की की माँ ने लड़की की आयु या यूं कहें कि परिस्थित को देखते हुए उसे गर्भपाथ का ही सुझाव दिया। लड़की ने इस विषय में कोई भी कदम उठाने से पहले अपने पति से भी पूछा और पति ने भी यह कहा तुम देख लो जो भी तुम्हारा निर्णय होगा मैं उसमें राजी हूँ। उसके पति का ऐसा कहने के पीछे शायद उसके मन में दबी यह भावना थी कि कहीं ऐसा न हो कि आगे जाकर कोई बात हो और ज़िंदगी भर मुझे यह सुनना पड़े कि तुम्हारे कारण ही ऐसा हुआ। मगर आज दोनों ज़िंदगी के जिस मोड़ पर खड़े हैं, वहाँ आज उनकी इकलौती संतान बड़ी हो रही है और लड़की को उसकी आँखों में आज अपनी गलती की झलक दिखाई देती है। उसका बेटा उसे कभी क़हता तो कुछ नहीं है, मगर कहीं उसके दिल में यह सवाल आता है कि माँ आप लोगों ने मुझे अकेला क्यूँ रखा औरों कि तरह मेरा भी कोई भाई या बहन क्यूँ नहीं है लड़की को समझ नहीं आता कि वो अपने बेटे के उस सवाल का क्या जवाब दे। यह सब सोचते हुए लड़की को कई बार यह ख़याल आता है कि क्या उसने अपनी माँ की बात मानकर सही किया या फिर माँ बाप के द्वारा अपने बच्चों के लिए गए निर्णय हमेशा सही नहीं होते, कभी-कभी माँ-बाप का एक गलत फैसला बच्चों को ज़िंदगी भर पश्चाताप करने के लिए मजबूर भी कर सकता है।

वैसे मेरा मानना तो यह है कि संतान से संबन्धित कोई भी फैसला लेने का अधिकार केवल माता-पिता को है इसलिए उन्हें यह निर्णय एक दूसरे से सहमत होने के बाद ही लेना चाहिए। यदि दोनों में से कोई एक भी दूसरे से सहमत न हो तो इस बारे में नहीं सोचना चाहिए क्यूंकि महज़ अपने किए की सज़ा किसी मासूम को देने का अधिकार आपको नहीं वो भी उसे जो अभी ठीक तरह से इस दुनिया में आया भी नहीं, यह कोई महज़ ज़िंदगी के उतार चढ़ाव का दूसरा नाम नहीं है बल्कि यह किसी की ज़िंदगी से जुड़ा अहम सवाल है जिसका असर परिवार के हर एक सदस्य पर पड़ता है चाहे वो छोटा बच्चा ही क्यूँ ना हो पुराने जमाने की बात अलग थी जब अक्सर माता-पिता अपने बच्चों से ऐसी बातें बड़ी आसानी से छिपा लिया करते थे। क्यूँकि उस जमाने में एक नहीं दो नहीं बल्कि 4-5 बच्चों का ज़माना हुआ करता था। साथ ही संयुक्त परिवार भी जिसके कारण लाख आपसी मत भेद होने के बावजूद भी किसी को अकेला पन महसूस नहीं होता था।   

लेकिन यह आज की कहानी है, आज की बात है क्यूंकि आज तो एक ही संतान को अच्छे से पढ़ा लिखाकर एक सभ्य इंसान बनाना ही किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है ...ऐसे में क्या उस लड़की का अपनी माँ की बात मानने का निर्णय सही था या गलत। यदि गलत था तो फिर अब हमें अपने बच्चों को यह सीख देना बंद कर देनी चाहिए कि बड़ों का अपने बच्चों के प्रति लिया गया निर्णय हमेशा सही होता है या फिर बचपन से ही उन्हें अपना हर छोटा बड़ा निर्णय स्वयं लेने की आज़ादी दे देनी चाहिए, वह भी बिना किसी दखल अंदाजी के, क्यूंकि इस पूरी कहानी में केवल वो लड़की ही गलत थी, ऐसा मुझे कहीं नहीं लगा जो भी हुआ उसकी जिम्मेदार अकेली वह नहीं बल्कि उसे जुड़े सभी लोग हैं। फिर चाहे वो उसकी माँ हो या पति या फिर वो खुद क्या अब यह सब जानकार आप बता सकते हैं कि अपनी उन दोनों अनचाही संतानों के प्रति लिया गया उसका निर्णय सही था या गलत क्या उसे अपनी उन दोनों संतानों को दुनिया में आने देना चाहिए था ?? आप को क्या लगता है ??                      

Wednesday 19 September 2012

दोस्ती - एक प्यारा सा बंधन ...


दोस्ती क्या है एक इन्द्रधनुष के रंगो सा रिश्ता, या फिर एक खुले आसमान सा रिश्ता, पंछियों के मधुर कलरव  सा रिशता, झगड़ा करके फिर खुद ही रोने का रिश्ता, पूजा की थाली में रखे दीपक की लौ सा पावन रिश्ता या फिर भगवान के चरणों में चढ़े फूलों सा रिश्ता, कभी अल्हड़ नदी सा मनचला रिश्ता, तो कभी बहती हवा सा बहकता सा रिश्ता, या फिर फूलों की सुंगंध सा महकता रिश्ता, कभी अर्पण का रिश्ता तो कभी तर्पण का रिश्ता.. यानि कुल मिलाकर रिश्ता एक रूप अनेक, :-) दोस्ती के इस एक रिश्ते में न जाने कितने रंग छिपे हैं ज़िंदगी के, तभी तो है यह दोस्ती है एक प्यार सा बंधन। फिर भी कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि एक लड़का और एक लड़की कभी अच्छे दोस्त नहीं हो सकते। यदि उनमें दोस्ती है भी तो आगे जाकर उनकी यह दोस्ती प्यार में बदल ही जाती है। काफी मामलों में यह देखा भी गया है और रही सही कसर पूरा कर देतीं है, हमारी यह फिल्में जो एक तरफ दोस्ती जैसे पाक साफ रिश्ते को कभी बड़ी खूबसूरती से हमारे सामने लाती हैं "जय और वीरू" के रूप में तो कभी यही फिल्में "कुछ-कुछ होता है" के रूप में यह कहती नज़र आती है कि यदि कोई आपका अच्छा दोस्त नहीं बन सकता तो आप उससे प्यार कर ही नहीं सकते क्यूंकि प्यार दोस्ती है।

सच है प्यार दोस्ती है मगर प्यार का भी तो केवल एक ही रूप नहीं होता ना, यहाँ इन फिल्मों का उदाहरण मैंने इसलिए नहीं दिया कि मुझे लड़के या लड़की कि दोस्ती पर कोई सवाल जवाब करना है मेरा मतलब यहाँ सिर्फ दोस्ती से है फिर चाहे वो लड़के लड़की हो या लड़कों-लड़कों की हो या फिर दो सहेलियों की बात केवल दोस्ती की है। इसलिए मुझे तो आज तक यह बात न कभी सच लगी थी, ना लगी है और ना कभी लगेगी। मेरी नज़र में दोस्ती जैसे रिश्ते को कभी शब्दों में ढाल कर व्यक्त नहीं किया जा सकता। क्यूंकि दोस्ती में जो एहसास जो जज़्बात आप महसूस करते हैं वही एहसास कोई अगला व्यक्ति तभी महसूस कर सकता है जब उसने भी अपने जीवन में कोई सच्चा दोस्त बनाया हो, या पाया हो। क्यूंकि दोस्त वो है जो ज़िंदगी के हर मोड़ पर आपका साथ दे फिर चाहे आप थोड़ा बहुत गलत ही क्यूँ ना हो वैसे तो दोस्त का काम है आपका सही मार्ग दर्शन करना। लेकिन कई बार सोचने वाली बात यह हो जाती है कि आपके दोस्त का मानसिक स्तर भी तो वही है जो आपका है तभी तो आप एक दूसरे के पक्के दोस्त बन पाते हैं फिर यदि आप खुद सही और गलत का फैसला नहीं कर पा रहे हैं तो वह भला कहाँ से करेगा ऐसे हालातों में कई बार ऐसा भी तो होता है जब सारी दुनिया एक तरफ हो जाती है और आप खुद को अकेला महसूस करने लगते हैं ऐसे में यदि आपका साथ कोई देता है तो वो होते हैं दोस्त, जो यह कहते हैं तू कर यार, जो होगा वो सब साथ मिलकर देखेंगे मतलब जीवन में हर कदम पूरे विश्वास के साथ आपके पीछे खड़े रहने वाला आपका अपना दोस्त जो आपकी खुशी में खुश और आपके गम में दुखी भी होता है।  

तभी तो दोस्ती या दोस्त एक ऐसा शब्द जिसके ज़हन में आते ही आपके होंठों पर स्वतः ही एक मधुर मुस्कान आ जाती है। शायद इसलिए दुनिया में दोस्ती से अच्छा और सच्चा दूजा कोई रिश्ता नहीं क्यूंकि बाकी रिश्ते तो हमें विरासत में मिलते हैं मगर दोस्त हम खुद चुनते है। वैसे यह बात काफी घिसी पिटी सी लगती है। मगर सच तो यही है और मुझे यह रिश्ता बहुत पसंद है क्यूंकि इसमें कोई लड़के-लड़की का भेद भाव नहीं होता। अगर कुछ होता है तो वो है सिर्फ दोस्ती आपसी समझ जो एक सच्चे और अच्छे दोस्त की सबसे पहली निशानी होती है और सबसे अहम बात तो यह होती है कि दोस्ती वो रिश्ता है जिसे कभी जबर्दस्ती नहीं निभाया जा सकता। खैर अच्छे दोस्त तो फिर भी बहुत आसानी से मिल जाते है इस दुनिया में, मगर सच्चा दोस्त बहुत ही किस्मत वालों को बड़े नसीब से मिल पाता है। दोस्त इसलिए कहा क्यूंकि सच्चा दोस्त केवल एक ही व्यक्ति हो सकता है क्यूंकि दोस्तों के समूह के नाम पर भले ही आपके गिने चुने दोस्त हों मगर उन सब में से भी कोई एक ऐसा ज़रूर होता है जिसे आप बाकी सभी दोस्तों की तुलना में अपने आप से ज्यादा करीब महसूस करते है।

आप भी सोच रहे होंगे आज तो friend ship day भी नहीं है फिर क्यूँ मुझे दोस्ती या दोस्तों याद आ रही है। मगर याद पर भला किसका बस चला है याद का क्या है वो तो कभी भी किसी भी वक्त आ सकती है। मेरे भी कुछ दोस्त हैं जिन्हें न जाने क्यूँ आज मैं बहुत याद कर रही हूँ। वैसे कहने को तो मेरे भी बहुत दोस्त ऐसे हैं जिन्हें मैं अपना करीबी मानती हूँ। लेकिन लोग कहते हैं कि आपका बहुत अच्छा दोस्त बनाना तो बहुत ही आसान है क्यूंकि आप बहुत ही आसानी से लोगों में हिल मिल जाती है। हो सकता है यहाँ आपको लगे कि मैं अपनी तारीफ खुद ही कर रही हूँ यानि "अपने मुंह मियां मिट्ठू" लेकिन वास्तविकता यह है कि लोगों को शायद लगता हो कि वो मेरे करीबी दोस्त बन गए हैं या मैं उनको अपना करीबी दोस्त समझने लगी हूँ। मगर मेरे करीबी दोस्त तो मेरे दिल के करीब है वो आज भी 3-4 ही हैं, जिन्हें मैं यहाँ रहकर बहुत मिस (Miss) करती हूँ।

जिनमें से मेरा एक ओर दोस्त है शिव कहने को वह मेरे भईया का दोस्त है मगर उससे मेरी दोस्ती ज्यादा अच्छी है। यूं तो वो मुझसे 7-8 साल बड़ा है लेकिन फिर भी हमारे बीच की आपसी समझ बहुत पक्की है इसलिए मैंने कभी उन्हें बड़े होने के नाते वो सम्मान ही नहीं दिया जो देना चाहिए था, बल्कि हमें कभी यह उम्र का फासला महसूस ही नहीं हुआ, उनको कई बार मैंने कहा तुम्हारी उम्र शादी लायक हो गयी है। न्यू मार्केट आ जाना, न्यू मार्केट यानि भोपाल का ऐसा बाज़ार जो, भोपाल चाहे जितना पुराना हो जाये मगर वहाँ का यह न्यू मार्किट कभी ओल्ड नहीं होता। खैर जैसा मैंने कहा कि मैं उनको वहाँ बुलाया करती थी यह कहकर कि वहाँ जो आइसक्रीम पार्लर है न, वहाँ मिलना एक से एक लड़कियां आती हैं वहाँ जिसे भी पसंद करोगे अपन सीधा उसके घर पर धावा बोल देंगे, तो वो कहता था हाँ मुझे पता है वहाँ सब "प्लग पाने" बोले तो मनचले लोग ही आते है एक वही जगह मिली ही तुझे लड़की पसंद करवाने के लिये। ऐसे कामों में बड़ा दिमाग चलता है तेरा, तो मैं हमेशा यही कहती थी चलो इसका मतलब कम से कम मुझ में दिमाग तो है तुझ में तो वो भी नहीं है। हा हा हा :-)

एक दोस्त और है मेरा संजीव कहने को वो मेरे देवर का दोस्त हैं और हम कभी आज तक आमने-सामने मिले भी नहीं है मगर फिर भी जब मेरी उससे पहली बार फोन पर बात हुई तो उसने मुझसे कहा यार आप कहाँ थे भाभी। आपको तो हमारे साथ कॉलेज में होना चाहिए था बहुत जमती अपनी, आपसे बात करके ऐसा लगा जैसे हमारे दिमाग को तो जंग ही लग गयी थी, बहुत दिनों बाद कोई ऐसा मिला है। खैर देर आए दुरुस्त आए याद रखिएगा बहुत जमने वाली है अपनी....:) बहुत अखरता है कभी-कभी यह सब कुछ मुझे, बहुत कमी महसूस होती इस अपनेपन की क्यूंकि शायद इस मामले में मैं कुछ ज्यादा ही भावुक हूँ।  

वह भी शायद इसलिए कि यहाँ रहकर कई बार ऐसा होता है मेरे साथ कि दिल के अंदर मन के किसी कोने में बहुत सारी ऐसी बातों का जमावड़ा एकत्रित हो जाता है, जिसे हम सार्वजनिक रूप से बांटने के बजाये केवल अपने उस खास दोस्त के साथ ही बांटना चाहते है। भले ही वह कितनी भी साधारण बातें ही क्यूँ न हो। कई बार ऐसा लगता है जैसे दिल एक डायरी हो और उस पर वो बातें जिन्हें हम अपने उस खास दोस्त के साथ बांटना चाहते है अपने आप ही किसी ऑटोमैटिक टाइप रायटर की तरह दिल के कागज़ पर छपती चली जाती है और हर बार हम यही सोचते है की इस बार वो जब मिलेगा / मिलेगी न तो उसे यह बताना है। ऐसा सोचते-सोचते न जाने कितनी बातें उस दिल के कागज़ पर उतर जाती है कुछ को तो हम खुद भी भूल जाते है और कुछ याद रह जाती है ठीक उस गीत की चंद पंक्तियों की तरह

आते जाते खूबसूरत आवारा सड़कों पर 
कभी-कभी इत्तफ़ाक से कितने अंजान लोग मिल जाते है 
उनमें से कुछ लोग भूल जाते हैं 
कुछ याद रह जाते हैं ... 

यक़ीनन आप लोगों के साथ भी कई बार ऐसा ही होता होगा है ना, खैर मज़े की बात तो यह है कि जब वो दोस्त हमें मिलता है तो उस वक्त तो जैसे समय को दो और एक्सट्रा पंख लग जाते है और पलक झपकते ही वक्त का पंछी उड़ जाता है। खासकर तब, मुझे अक्सर ऐसा महसूस होता है कि जैसे किसी ने दिल की किताब से वो बातों का पन्ना गायब ही कर दिया हो और हम उन बातों को छोड़कर गड़े मुर्दे ही उखड़ते चले जाते है या फिर इधर-उधर की जाने कहाँ-कहाँ की बात कर लिया करते हैं अपने उस दोस्त के साथ मगर जो सोचकर रखी हुई बातें होती है उन में से शायद ही कुछ बातें ऐसी होती है जो हम वास्तव में उसके साथ बांटना चाहते थे और फिर उस दोस्त के जाने के बाद जब फिर याद आता है वो हर एक पल जो हमें उसके साथ गुज़रा तो लगता है अरे यह तो बताया ही नहीं उसे यही तो सबसे खास बात थी जो उसे कहनी थी और उस वक्त भी हम खुद को कभी पहले दोष नहीं देते, आदत के मुताबिक :-) यही निकलता है मुंह से, कि देखा गधे/गधी के चक्कर में मैं भी भूल गयी कि मुझे क्या कुछ कहना था उससे, नालायक कहीं का/की उल्लू की दुम :-) इस शब्दों के लिए माफी चाहूंगी मगर करीब दोस्त के लिए अक्सर ऐसे ही शब्दों का प्रयोग हो जाता है। कई बार तो इसे भी ज्यादा ....मगर उन सब का प्रयोग करना यहाँ उचित नहीं :)

मगर उस हर दिल अजीज़ से मुलाक़ात के बाद जब उस मुलाक़ात कर हर लम्हा दिमाग में किसी फिल्म की तरह चलता है। तब बहुत याद आते हैं वो हसीन लम्हे जो उसके साथ गुज़ारे थे कभी जैसे उस तीखे समोसे पर डली खट्टी चटनी जिसको एक ही प्लेट में खाने की ज़िद भी रहा करती थी और फिर समोसे और चटनी का बटवारा और केंटीन की चाय और कॉफी जिसे बातों के चक्कर में हमेशा ठंडा कर दिया जाता था और जब कॉलेज  ख़तम हो गये तो CCD (कैफ़ कॉफी डे) में मिलना तय रहता था और यदि वो न मिली तो कोई सा भी आइसक्रीम पार्लर भी चलता था या फिर वो गली के नुक्कड़ पर बिकती कुल्फी का ठेला सच कहूँ त उसी में सबसे ज्यादा मज़ा आता था, उन दिनों दोस्तों के साथ खाने पीने का मज़ा ही कुछ और होता था। अब तो बस सब यादें हैं। मगर दोस्त आज भी वही है और हमेशा वही रहेंगे।

यूँ तो आज के इस आधुनिक युग में दोस्तों से जुड़े रहने के बहुत सारे उपाए और सुविधाएं है। मगर साथ में आमने सामने बैठकर उस खास दोस्त से मिलना, घंटो बतियाना बात-बात में उसे एक चपत लगा देना कभी-कभी तो पूरी-पूरी रात जागते हुए बातें करना बातें करते -करते ही सो जाना, सुबह नाशते के लिए झगड़ा एक ही प्लेट से खाना भी है मगर पसंद अलग-अलग भी रखनी है यह सब मैं इसलिए बता रही हूँ क्यूंकि मेरी एक दोस्त है  सारिका उर्फ स्वीटी जो अक्सर पहले मुझसे मिलने आने के बाद मेरे घर ही रुक जाया करती थी तब भी यही होता था जो उपरोक्त कथन में मैंने लिखा है। मगर अब उसकी भी शादी हो चुकी है जिस की वजह से अब हमारा साथ रहना संभव नहीं हो पाता इसलिए हम कुछ घंटों के लिए ही मिल पाते हैं और वो मिलना मुझे ऐसा लगता है जैसे "ऊंट के मुंह में जीरा" फिर भी शुक्र इस बात का है कि वो आज भी भोपाल में ही रहती है। जिससे मैं आसानी से उससे मिल पाती हूँ। वरना अलग से मिलने जाना बहुत मुश्किल होजाता है खासकर जब ,जब साल में एक बार इंडिया आना हो इस मामले में मुझे मेरी मम्मी की एक बात बहुत सही लगती है उसका कहना है कि बहने तो फिर भी शादी के बाद नाते रिशतेदारों की शादी ब्याह या तीज त्यौहार पर मिल ही लिया करती हैं।मगर दोस्त बहुत कम मिल पाते हैं।   

शायद इसलिए मुझे जब भी कभी उसकी याद आती है तो एक टीस सी उठती है कि यह देश की दूरियाँ वास्तव में कितनी दूरियाँ ले आती है इंसान के जीवन में घर परिवार तो छूट ही जाता है साथ ही छूट जाते है वो यार दोस्त जिनके बिना सांस लेना भी मुनासिब नहीं था कभी, यूँ तो आज भी फोन पर घंटो बतिया सकते है हम, और बतियाते भी हैं। मगर उसमें वो मज़ा नहीं जो हमें चाहिये और यह सब सोचने पर बस एक ही गीत है जो मेरे ज़हन में आता है। 
दिये जलते हैं, फूल खिलते है 
बड़ी मुश्किल से मगर, दुनिया में दोस्त मिलते है
जब जिस वक्त किसी का यार जुदा होता है
कुछ ना पूछो यारों दिल का हाल बुरा होता है
दिल में यादों के जैसे दीप जलते हैं.....

सच ही कहते हैं लोग आदमी नाते रिशतेदारों के बिना एक बार ज़िंदा रह सकता है मगर दोस्तों के बिना नहीं दोस्तों की ज़रूरत तो हर कदम पर पड़ती है हाँ यह बात अलग है कि कुछ दिल के करीब होते हैं तो कुछ सिर्फ कहने के लिए। मगर हमारी ज़िंदगी में आने वाला हर इंसान हमें कुछ न कुछ ज़रूर सिखा जाता है इसलिए दुनिया के सभी दोस्तों को और दोस्ती के इस पावन रिश्ते को मेरा सलाम ..... 

Friday 14 September 2012

हादसे और ग्लानि


हादसा जैसे किसी एक दुःख़ या तकलीफ़ का दूसरा नाम है शायद आपको याद हो बहुत पहले भी मैंने इसी विषय पर एक पोस्ट लिखी थी जिसमें मैंने भोपाल गैस कांड और बावरी मस्जिद का ज़िक्र किया था। मगर आज इस विषय पर लिखने का कारण कुछ और ही है और वह कारण है ग्लानि।आज भी जगह-जगह होते हादसे और दुर्घटनाएँ आतंकवादी गतिविधियाँ जिसमें हजारों क्या बल्कि लाखों बेगुनाह और मासूम लोगों की जाने चली चली जाती है। कई सारे परिवार अपने प्रियजनो को खो बैठते है। सिर्फ कुछ लोगों की लापरवाही के कारण आतंकवादी हमलों में तो फिर भी कुछ न कुछ मकसद छिपा होता है। भले ही वो कितना भी बुरा मकसद ही क्यूँ न हो, लेकिन दुर्घटनाओं में ऐसा कुछ नहीं होता खासकर आजकल रोज समाचार पत्रों में छपने वाली कोई न कोई बड़ी घटना जैसे कहीं रेल का पटरी पर से उतर जाना, तो कहीं डब्बों में आग लग जाना, या फिर सड़क चलते वाहनों के द्वारा फुटपाथ पर सोते हुए गरीब और बेसहारा लोगों को कुचला जाना, या बड़े स्तर पर विमान  दुर्घटनाएँ होना। यह सभी ऐसी ही स्वाभाविक या यूं ही अचानक घट जाने वाली घटनाओं सी नहीं जान पड़ती इनका विवरण पढ़ने के बाद दिमाग में यही एक पहला ख़्याल आता है कि किसी न किसी की ज़रा सी लापरवाही ही एक बड़ी दुर्घटना का कारण बन जाती है। जैसे एक चिंगारी किसी बड़े अग्निकांड का रूप ले लेने  में सक्षम होती है जो सोचने पर विवश कर ही देती हैं। किन्तु फिर भी हम उसके प्रति सचेत नहीं होते क्यूँ ?

जैसे आज ही की बात ले लीजिए तमिलनाडु में पटाखों के कारखाने में आग लग गयी जिसमें 30 लोगों की जान चली गयी ऐसा अपने आप तो नहीं हो सकता किसी न किसी की गलती ज़रूर रही होगी। जिसका खामियाज़ा उन 30 बेगुनाह लोगों को अपनी जान देकर भुगतना पड़ा। इसी तरह हर साल दिवाली पर लोग पटाखों की वजह से गंभीर रूप से घायल हो जाते है कभी खुद की लापरवाही के कारण तो कभी दूसरों के मज़ाक के कारण मगर इन सब हादसों या दुघटनाओं को यहाँ आप सब के बीच ज़िक्र करने का मेरा मकसद इन हादसों पर प्रकाश डालना नहीं है। बल्कि मेरा प्रश्न तो यह है कि क्या ऐसे किसी हादसे के बाद लोगों को अपने किए पर सारी ज़िंदगी कोई ग्लानि रहती है या नहीं ? या सिर्फ मुझे ही ऐसा लगता है। क्यूंकि आपके कारण जाने-अंजाने कोई मासूम या बेगुनाह अपनी जान से हाथ धो बैठे इससे बड़ा ग्लानि का कारण और क्या हो सकता है एक आम इंसान के लिए।

मैं तो यह सोचती हूँ जब नए-नए डॉक्टर के हाथों किसी मरीज की मौत हो जाती है तब उन्हें कैसा लगता होगा। क्या वह डॉक्टर उसे होनी या अनुभव का नाम देकर आसानी से जी लिया करते है। हालांकी कोई भी डॉक्टर किसी भी मरीज की जान जानबूझकर नहीं लेता। मगर हर डॉक्टर की ज़िंदगी में कभी न कभी ऐसा मौका ज़रूर आता है खासकर सर्जन की ज़िंदगी में, जब जाने अंजाने या परिस्थितियों के कारण उनके किसी मरीज की मौत हो जाती है। तब उन्हें कैसा लगता है और वो क्या सोचते हैं। वैसे तो आज डॉक्टरी पेशे में भी लोग बहुत ही ज्यादा संवेदनहीन हो गए हैं जिन्हें सिर्फ पैसों से मतलब है मरीज की जान से नहीं, खैर वो एक अलग मसला है और उस पर बात फिर कभी होगी या फिर यदि उन लोगों की बात की जाये जो बदले की आग में किसी पर तेज़ाब फेंक दिया करते है। क्या ऐसा घिनौना काम करने के बाद भी वो उस व्यक्ति के प्रति ग्लानि महसूस करते होंगे ? शायद नहीं क्यूंकि यदि ऐसा होता तो शायद वो इतना घिनौना काम करते ही नहीं मगर क्या ऐसे लोग उस हादसे को महज़ एक होनी समझ कर भूल जाते है ? या ज़िंदगी भर कहीं न कहीं दिल के किसी कौने में उन्हें इस बात की ग्लानि रहा करती है कि उनकी वजह से किसी की ज़िंदगी बरबाद हो गयी या जान चली गयी क्या इस बात का अफसोस उन्हें रहा करता है ? क्या ऐसे पेशे में यह बात इतनी साधारण और आम होती है जिस पर बात करते वक्त उस हादसे से जुड़े लोगों के चहरे पर किसी तरह का कोई अफसोस या एक शिकन तक नज़र नहीं आती।

कितनी आसानी से लोग उस हादसे के बारे में अपने साक्षात्कार के दौरान उस हादसे से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी देते नज़र आते हैं कि किन कारणों कि वजह से यह हादसा हुआ। एक दिन ऐसे ही एक कार्यक्रम में मुझे उन लोगों को देखकर ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यह लोग खुद की सफाई दे रहे हो, कि इन हादसों के पीछे जिम्मेदार हम नहीं तकनीक थी जिसके चलते आप इन हादसों का जिम्मेदार केवल हमें नहीं ठहरा सकते। मुझे तो वह कार्यक्रम देखकर ऐसा भी लगा जैसे वह लोग अपने ज़मीर को समझाने के लिए खुद को बेकसूर थे हम, यह समझाने का एक असफल प्रयास कर रहे हों। मगर फिर दूसरे ही पल मुझे यह ख़्याल भी आया कि आखिर कुछ भी हो, हैं तो वो भी इंसान ही। हो न हो उनको भी अंदर ही अंदर अपने दिल के किसी कोने में इन हादसों का अफसोस ज़रूर रहता होगा कि उनकी ज़रा सी लापरवाई का खामियाज़ा इतने सारे बेकसूर लोगों को अपनी जान देकर भुगतना पड़ा।

मगर सोचने वाली बात है लापरवाही एक बार हो तो फिर भी समझ आता है। लेकिन वही गलती दूसरे रूप में फिर दुबारा हो तो उसे क्या कहेंगे आप ??जैसा की अपने इंडिया में आए दिन होता रहता है एक दिन भी ऐसा नहीं गुज़रता यहाँ जब समाचार पत्रों या टीवी न्यूज़ चैनलों पर ऐसी कोई बड़ी दुर्घटना की कोई ख़बर न हो और जब आप अपने आसपास के लोग पर इन विषयों पर बात करो तो एक अलग ही नज़रिया सामने आता है लोग कहते है अरे इतना बड़ा देश है अपना, यह सब तो चलता ही रहता है और वैसे भी बढ़ती जनसंख्या का बोझ पहले ही कम नहीं देश के नाजुक कंधों पर, ऐसे हालातों में यदि 100 ,50 लोग मर भी गए तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता। क्या पता प्रकृति इसी तरह संतुलन बनाए रखने की कोशिश करती हो।यह सब सुनकर दो मिनट के लिए तो मेरे जैसों का चेहरा आवाक सा रह जाता है। जिस देश के लोग ही अपने आप में ऐसा महसूस करते हों वहाँ भला किसी को क्या फर्क पड़ेगा और क्या ग्लानि होगी। यह तो कुछ वैसी ही बात हुई जैसे वो कहावत है न

"जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई"

क्या वाकई ऐसे हादसों के बाद भी ज़िंदगी इतनी आसान होती है, उन लोगों के लिए जो कहीं न कहीं जाने अंजाने जुड़े होते हैं इन हादसों से जो जिम्मेदार होते हैं, इन हादसों के, जिनकी वहज से न जाने कितने बेगुनाह और मासूम लोग बिना किसी कारण मौत के घाट उतर जाते है। न जाने कितने हँसते खेलते परिवार उजड़ जाते है। बात केवल दुर्घटनाओं की नहीं बल्कि आम ज़िंदगी में होने वाली सभी छोटी बड़ी दुर्घटनाओं से जुड़ी है। फिर चाहे वो कोई चलती सड़क पर होता कोई हादसा हो, या रेल दुर्घटना, या कोई भी ऐसा हादसा जिसे कोई जान बूझकर नहीं करता। मगर जिसके होने से लाखों परिवार उजड़ जाते है। ऐसे हादसे होने के बाद भी क्या उन लोगों के मन में कभी इस बात की ग्लानि रहती है कि उनकी वहज से ऐसा कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए था। यूं तो ग्लानि का कोई उपाय नहीं वो तो एक आग की तरह होती है जिसमें सारी ज़िंदगी धुआँ-धुआँ होकर जला करता है इंसान का मन, जिसका कोई उपचार नहीं। मगर कितने लोग हैं ऐसे जिन्हें वास्तव में ग्लानि होती है। इस बात की, कि उनकी वहज से किसी बेगुनाह और मासूम की जान गयी फिर चाहे वो कोई इंसान रहा हो या जानवर...

वैसे देखा जाये तो जाने वाला चला जाता है, लेकिन उसके जाने से ज़िंदगी नहीं रुकती न ठहरती है कहीं, मगर मुझे ऐसा लगता है कि किसी अपने के जाने से जैसे दिल के अंदर की कोई एक धड़कन मन में अटक कर रह जाती है। जिसे यादों का सैलाब बार-बार आकर झँझोड़ता है, निकाल बाहर करने के लिए। मगर उस शक्स से जुड़ी यादों का आवेग उस धड़कन को बाहर आने ही नहीं देता कभी और सारी ज़िंदगी हमें उस इंसान की याद दिलाता रहता है उन जख्मों को तो वक्त का मरहम भी सुखा नहीं पाता कभी, कहने को हम बाहर से एक सूखे हुए ज़ख्म पर पड़ी बेजान खाल की पपड़ी की तरह नज़र आते है। मगर अंदर से वो ज़ख्म वास्तव में कभी सूखता ही नहीं....तब हम कैसे कह सकते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाये ज़िंदगी किसी के लिए नहीं रुकती वो तो निरंतर चलती ही रहती है एक बहती हवा की तरह, एक बहती नदी की तरह, जो आगे बढ़ने के साथ अपने साथ लिए चलती इंसान के अच्छे बुरे पल।

मगर क्या वाकई ऐसे हादसों के बाद ज़िंदगी चलायमान रहती है?? या  यह भ्रम मात्र होता है हमारे मन का कि जी रहे है हम उनकी यादों के सहारे, मेरा ऐसा मानना है कि कोई किसी कि यादों के सहारे नहीं जी सकता। यह सिर्फ कहने की बातें हैं जो किताबों में अच्छी लगती हैं वास्तव में ऐसा नहीं होता। क्यूंकि यादें यदि अच्छी होती है, तो बुरी भी होती है। इंसान को अपने दुखों के साथ यदि जीना पड़े तो उसके पीछे भी ज़िंदगी का कोई मक़सद होना ज़रूर होता है। बिना किसी मक़सद या ज़िम्मेदारी के जीवन जिया नहीं जा सकता। खासकर किसी ऐसे हादसे से जुड़ी कोई ग्लानि के साथ कम से कम मेरे जैसे लोग तो नहीं जी सकते। यह मेरी सोच है आपको क्या लगता है।