समय बदल गया किन्तु लोग नहीं बदले
आज भी सब जस का तस ही है। आज भी जहां चार महिलाएं एकत्रित हो जाती हैं वहाँ उम्र के
हिसाब से या तो सास नंदों की बुराई चलती है या बहुहों बेटियों का विषय ही चलता है।
फर्क सिर्फ इतना है कि युवा स्त्रियाँ फ़ैशन-परेड, नाते-रिश्ते, फिल्में इस सब विषयों पर बात करती दिखायी
देती हैं। तो वही दूसरी और बुजुर्ग स्त्रियाँ पूजा-पाठ से लेकर बहुहों की बुराई तक
के विषयों में अत्यधिक चाव से बात करती बड़ी आसानी से देखी जा सकती हैं। उन सबकी बातें
सुनकर ऐसा लगता है मानो मन और पेट हल्का एवं साफ करने का इससे अच्छा उपाए और कोई दूजा
हो नहीं सकता। विशेष रूप से उन परिवारों में जहां आज भी मात-पिता साथ रहते है। हालाकी
उन्हें बच्चा पालने के दृष्टिकोण से साथ रखा जाता है वह अलग बात है। क्यूंकि आजकल बेटा
और बहू, या फिर बेटी और दामाद दोनों ही कामकाजी होते हैं।
ऐसे में यदि बात की जाये सम्मान
देने या पाने की तो बड़ा विचित्र सा लगता है क्यूंकि मन में कुछ और होता है और मुख पर
कुछ ओर, दोनों ही यह बात जानते हैं फिर एक संग अपनी-अपनी
किस्मत जानकार रोज़ किसी न किसी बात पर लड़ झगड़कर तू-तू मैं-मैं में दिन गुज़ार देते हैं।
लेकिन समय अनुसार दोनों को थोड़ा –थोड़ा बदलना चाहिए ऐसी कोशिश भी करता हुआ मुझे तो अपने
आस –पास कोई दिखायी नहीं देता। ना अपने घरों में ना बाहर किसी के घर में सब दिखाते
कुछ ओर हैं और होता कुछ ओर ही है।
ऐसे में मैं तो यही कहूँगी कि
माता-पिता को देखना चाहिए कि वह अपने आत्म सम्मान के साथ अपने बच्चों के बीच जी पारहे
हैं या नहीं। यदि नहीं, तो रोज़-रोज़ साथ
रहकर लड़ने झगड़ने और घड़ी-घड़ी अपमानित होने से अच्छा है वह वहाँ रहे जहां उनका मन लगे।
याद रहे अपना पोता या पोती या नाती नातिन पालना आपकी ज़िम्मेदारी नहीं है। हाँ उसके
साथ खेलना और बतियाना ज़रूर आपका अधिकार है। फिर भी वहाँ रहें जहां शांति से रह सकें।
दूसरी बात यदि उन्हें उनके मन मुताबिक मान सम्मान मिल रहा हो, समय पर उनकी हर जरूरत की पूर्ति हो रही हो, तो उन्हें
भी शांत रहकर अपने काम से काम रखना चाहिए। ना कि पूरे दिन घर में बैठे रहकर बहुहों
और बच्चों की चौकीदारी करते रहना चाहिए कि कौन कितने बजे आरहा है, कौन कितने बजे जा रहा है, बहू कब, कहाँ कितने बजे जाती है कितने बजे आती है उससे मिलने घर में कौन-कौन आता है
वगैरा-वगैरा। मगर अफसोस कि ऐसा हो नहीं पता।
मेरे विचार से उन्होंने अपने बेटे
या बेटी का विवाह करके अपनी सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी निभा दी है। अब आगे वह लोग जाने और
उनका परिवार जाने की उन्हें कैसे जीना है। उनके जीवन में घड़ी-घड़ी हस्तक्षेप करके आप
अपना ही मान स्वयं ही खो रहे होते हैं और आपको पता भी नहीं चलता। मेरी माँ कहती हैं
अपनी इज्ज़त अपने हाथ होती है। तो मैं तो यही कहूँगी कि जब तक कोई खुद चलकर आपके कदमों
में आकर आपसे आपकी राय न मांगे, तब तक आप
शांत ही रहिए। क्यूंकि आप घर के बुजुर्ग है आपको जीवन का अनुभव ज्यादा है। इसलिए आपकी
राय बहुमूल्य है। तो उसे बिना मांगे किसी को ना दीजिये। और एक बात बेटी से दामाद की
बुराई या उसके ससुराल वालों की बुराई मत कीजिये। उसका जीवन है उसे जीने दीजिये। उसी
तरह बेटे से दिन भर बहू और पोते पोतियों की बुराई मत कीजिये या कौन आया गया की रामायण
मत सुनायी ये।
पर हाँ शाम को खाने की टेबल पर
एक साथ बैठिए जरूरु कुछ अपनी कहिए कुछ उनकी सुनिए और फिर अपने काम से काम रखिए। कहने
में मेरे शब्द बहुत कड़वे और कठोर हैं शायद, लेकिन सच तो यही है और सच कड़वा ही होता है। अधिकतर घरों कि समस्या यही है
एक दूसरे के जीवन में पल-पल का हस्तक्षेप जिस के कारण आज भी लोग सनयुंक्त परिवार में
रहना नहीं चाहते। मैं यह नहीं कह रही हूँ कि इस सब में आप अपने घर के बड़े- बूढ़ों का
सम्मान न करें। बिलकुल करें उनका खूब ख्याल रखें, उन्हें भरपूर
मान-सम्मान के साथ-साथ ढेर सारा समय और प्यार भी दें। क्यूंकि इंसान प्यार और थोड़े
से सम्मान का ही भूखा होता है। विशेष रूप से वृदधा अवस्था में अपने बच्चों से माता-पिता
को और कोई उम्मीद रह भी नहीं जाती।
लेकिन ताली जब दोनों हाथों से
बजती है मजा तभी आता है। इसलिए यदि आपको “सम्मान पाना है तो सम्मान देना भी सीखिये”
सम्मान सभी के लिए ज़रूरी होता है। फिर चाहे वह बच्चे हों या बुजुर्ग। आप बुजुर्ग हैं
इसका मतलब यह नहीं की सम्मान पाने का सारा ठेका आपका ही है और हर कोई आपकी उम्र का
लिहाज करते हुए आपकी बात माने ही सही। फिर चाहे आप किसी यात्रा पर हों या घर में, शांति बनाए रखने के लिए तालमेल बनाकर चलना सभी
के लिए आवशयक है।