Thursday 24 November 2022

Fair & lovely / glow & lovely


 

Fair & lovely / glow & lovely 

21नवम्बर  को सुबह सवेरे में प्रकाशित  मेरा लिखा यह आलेख

https://epaper.subahsavere.news/view/184/bhopal/8

कहने को तो यह विषय बहुत पुराना है और बहुत ही संवेदनशील भी है। लेकिन इन दिनों मैं कुछ अलग सा ही महसूस कर रही हूँ। यहाँ बात केवल रंग रूप कि नहीं बल्कि व्यवहार कि भी है। मैंने देखा है, इन दिनों कि जिस किसी व्यक्ति में कोई कमी ऐसी हो, जो देखने मात्र से दिखाई दे जाए।  तो वह व्यक्ति अब पहले कि तरह खुद को हीन नहीं समझता, जो कि एक बहुत ही अच्छी बात है, समझना भी नहीं चाहिए। लेकिन शत प्रतिशत ऐसा होता भी नहीं है। कम से कम मुझे ऐसा लगता है कि वास्तव में वह व्यक्ति अंदर ही अंदर डरा हुआ होता है और उसका वह डर उसे घमंडी और चिड़चिड़ा बना देता है। क्यूंकि कहीं न कहीं उसके मन में यह बात बैठ जाती है कि उस कि उस कमी की वजह से लोग उस पर ताने कसेंगे या फिर उसे अजीब दृष्टि से देखेंगे या उसके विषय में अपशब्द कहेंगे। क्या ऐसा होना सही है??


मेरे विचार में तो कदापि नहीं, ध्यान रहे कि मैं यहाँ किसी शारीरिक विकलांगता को लेकर बात नहीं कर रही हूँ। बल्कि रूप रंग में आये हुए कुछ बदलावों या कमियों कि बात कर रही हूँ। जैसे सफेद दाग़ की बिमारी, जिसे अंग्रेजी में शायद (लुकॉडर्मा) कहते हैं। खासकर स्कूल में युवा होते बच्चों में अगर यह किसी विद्यार्थी को हो, तो फिर कभी आप उससे बात कर के देखिये। वह अपने आपको को कुछ इस तरह दर्शाने का प्रयत्न करता है, मानो अपने स्कूल का सबसे काबिल छात्र /छात्रा एकमात्र वही है। सब से खास, उसके जैसा और कोई दूजा विद्यार्थी पूरे स्कूल में कोई नहीं है और एक अलग ही तरह का घमंड जो शायद सामजिक आसविकार्यता के कारण उसमें आया है। वह अपने उस डर को, अपने उस घमंड के पीछे छिपा देना चाहता है। ताकि कोई गलती से भी उसकी कमी को लेकर उस पर कोई प्रश्न चिन्ह ना खड़ा कर दे।


मैंने देखा है, ऐसा कुछ श्याम वर्ण के लोग को, वह भी ऐसा ही कुछ महसूस करते है। क्यूंकि  उनका रंग भी कहीं ना कहीं उनके लिए परेशानियों का कारण बन जाता है। यहाँ गेहूंये या भूरे रंग कि बात नहीं हो रही है। यहाँ उन लोगों कि बात हो रही है, जो वास्तव में काली कमली वाले के रंग से मेल खाते हैं। जो सच्ची में गहरे श्याम वर्ण के कहलाते है। चंद श्वेतवरण ही अच्छा होता है, जैसा भ्र्म पालने वाले लोगों के ताने उन्हें आत्मसमान से जीने नहीं देते। जिसके चलते उनके मन में आत्मविश्वास कि भारी कमी आजाती है और वह विद्रोह का व्यवहार धारण कर लेते है। फिर हर बात में वह अपने आपको को दूसरे से कहीं ज्यादा उच्च दिखाने कि कोशिश करने लगते है। फिर चाहे वह कोई भी क्षेत्र क्यों ना हो, वह यह स्वीकार नहीं कर पाते कि हाँ मुझे इस क्षेत्र कि कोई जानकारी नहीं है। बल्कि वह विद्रोह पर उतर आते हैं कि वह ही सही है। क्या आपको नहीं लगता कि उनके इस तरह के व्यवहार के लिए कहीं न कहीं हम ही जिम्मेदार हैं नहीं ?


ऐसा किसने कहा, या ऐसा कहाँ लिखा है कि श्याम वर्ण के लोगों को अच्छा दिखने या अच्छा लगने का अधिकार नहीं है या अन्य व्यक्तियों कि तरह उन्हें सौंदर्य प्रसाधन खरीद ने और उन्हें उपयोग करने का अधिकार नहीं है। वह भी इंसान है और बाकी आम इंसानो कि तरह उनकी भी वही इच्छा होती है कि वह भी अच्छे दिखें, तो इसमें गलत क्या है? आजकल तो सौन्दर्य प्रसाधनों में भी हर तरह के वर्ण के लिए, सभी तरह के प्रसाधन उपलब्ध हैं। फिर भी किसी को यह ताना देना कि अरे तुम (मेकअप) लगा के क्या करोगी। दिखेगा तो कुछ है नहीं, उल्टा पैसों कि बर्बादी और करोगी।  ऐसा करो, तुम तो रहने ही दो, जितना सादा रहोगी उतना ही अच्छा है तुम्हारे लिए, क्यूंकि यूँ भी अगर तुमने कुछ लगा भी लिया तो या तो वह तुम्हारी त्वचा पर दिखेगा ही नही या फिर बहुत ही बुरा दिखेगा।


मैं जानती हूँ शायद मेरी भाषा यहाँ बहुत कड़वी लगे। लेकिन यह कुछ लोगों के जीवन कि सच्चाई है ना जाने हम लोग गुण कि जगह रंग को क्यों प्राथमिकता देते हैं।  क्यों हमेशा fair को ही लवली कहते है। क्यों किसी dark को ग्लो एंड लवली नहीं कह पाते। विशेष रूप से तब तक तो बिलकुल  नहीं, जब तक वह इंसान हमसे ऊपर ना हो। अर्थात हम उसके मुंह पर ताना मारने के काबिल ना हो। पर सच्चाई तो यही है कि हम उस समय उस व्यक्ति के मुँह पर कुछ बोल पाए या नहीं, पर सामने वाले व्यक्ति के रंग रूप को देखते ही, हमारे मन में कुछ विचार जरूर आते है। जिसे हम बड़ी आसानी से अपनी मुस्कान के पीछे छिपा जाते है। शायद यह मानवीय व्यवहार है।

मुझे आज भी अच्छे से याद है। मेरा बेटा जब छोटा था तब उसके सभी मित्र एकदम काले इस शब्द का प्रयोग करने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ, थे। मतलब समझ रहे हैं ना आप ?एफरो अमेरिकन टाइप के बच्चे, तो किसी ने मुझसे पुछा था। इसके सारे दोस्त सब के सब काले ही क्यों हैं? किसी गोरे से इसकी दोस्ती क्यों नहीं है। अब यह भी कोई बात हुई भला ?? दोस्ती भी क्या रंग देख के होती है। वह भी बचपन में जब वो केवल चौथी पाँचवी कक्षा में पढ़ रहा था। अब ऐसी मानसिकता का क्या ही जवाब हो सकता है।


मैं तो सुनकर ही दंग रह गयी थी, किस हद तक लोग colour obsest होते हैं। मुझे तो चिंता इस बात कि होती है कि आजकल यूँ भी लोग जरा जरा सी बात पर अवसाद का शिकार हो जाते है। तो इस तरह कि बातों पर तो निश्चित ही किसी भारी मानसिक तनाव से गुज़रते होंगे। यूँ भी जब बनाने वाले ने किसी में भेद नहीं किया, तो फिर हम और आपको कौन होते हैं किसी को कुछ कहने वाले। किसी से कुछ पूछने वाले। अच्छा तो यही होगा कि हम व्यक्ति को नहीं बल्कि उसके व्यक्तित्व को देखे। ताकि ऐसे बहुत से लोगों में पुनः आत्मविश्वास जगाया जा सके क्यूंकि हर व्यक्ति ख़ास है और व्यक्ति से बड़ा उसका आत्मविश्वास है। जिसे किसी भी कीमत पर कम नहीं होने देना चाहिए। हमारे जीवन का और कुछ नहीं तो कम से कम एक यही लक्ष तो होना चाहिए।