Monday 24 June 2013

बुजुर्ग हमारी शान है अपमान नहीं ...


आज सुबह से ही मन परेशान है। यूं तो आजकल चल रहे उत्तराखंड विनाश के चलते पहले ही मन दुखी था। मगर आज जो कुछ सुना उस से ऐसा लगा जैसे इस संसार में इंसान की ज़िंदगी में हजारों तरह के कष्ट और पीड़ायें है। जी हाँ, सिर्फ पीड़ायें। कुछ को शारीरिक, तो कुछ को मानसिक मगर किसी के भी पास उन पीड़ाओं से मुक्ति पाने का कोई मार्ग नहीं है। जैसे उनकी समस्याओं का कोई समाधान ही नहीं है। ज़िंदगी बिलकुल उस ऊन के गोले की तरह उलझ कर रह गयी है, मानो उसका कोई सिरा ही नहीं है। ना जाने कहाँ जा रहे हैं हम और क्या चाहते हैं हम, शायद यह हमें स्वयं ही ज्ञात नहीं है। 

आज बहुत दिनों बाद अपनी एक करीबी, बल्कि यूं कहूँ कि बहुत ही खास सहेली से फोन पर बात हुई। अभी बात शुरू ही हुई थी कि घर परिवार और माता-पिता का नाम आते ही उसका मन भर आया। पहले तो मेरे पूछने पर भी उसने मुझे कुछ न बताया। मगर जब मैंने उसे अपनी कसम देते हुए पूछा, तो उसने अपने दिल का हाल मुझे बताना शुरू किया। माजरा कुछ नया नहीं था, पहले मुझे लगा सास बहू की किट-किट होगी जिसके कारण परेशान हो रही है। थोड़ी देर में जब मन हल्का हो जाएगा तो सब कुछ समान्य हो जाएगा। मगर बाद में पता चला माजरा है तो, सास बहू का ही, मगर उसके अपने माता-पिता अर्थात मायके का, जहां तक मैं उसके परिवार को जानती हूँ। उसके माता-पिता बहुत ही सीधे सादे सज्जन इंसान है। तो मुझे यह सब सुनकर थोड़ा अचंभा भी हुआ कि भला ऐसा कैसे हो सकता है। 

मामला यह था कि उसके पिता रिटायर्ड चुके हैं। घर में उसके माता-पिता के साथ उसके भाई भाभी और उनका एक बेटा भी रहता है। उसके भईया एक कॉलेज में पढ़ाने जाते है और उसकी भाभी भी एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका है। इस वजह से घर का सारा कम उसकी माँ को ही करना पड़ता है। वह करती भी है, कभी कुछ नहीं कहती बेचारी, मगर बहू अर्थात मेरी सहेली की भाभी दिन रात अपनी सास से झगड़ा करती है। अपशब्दों का प्रयोग करती है। अपने और अपने पति के लिए रोज़ रात को ताज़ा खाना बनाती है। ज्यादा बन जाने पर अगले दिन बचा हुआ खाना अपने ससुर को खिलाती है। तड़ा-तड़ जवाब देती है। जबकि घर में राशन से लेकर बच्चे की शिक्षा तक का सारा खर्च उसके पिता की पेंशन से ही चलता है। फिर भी सारी प्रताड़णा उन्हें ही झेलनी पड़ती है। वह दोनों अपनी कमाई केवल अपने पहन्ने ओढ़ने और मोबाइल फोन, बिजली आदि के खर्चों में ही खर्च करते हैं। जब भी बाहर जाते है, बाहर से ही खाना खाकर आते हैं। मगर कभी अपने ही घर के बुजुर्गों का खयाल नहीं आता उन्हें, उन्हें तो हमेशा घर में बचा हुआ बासी खाना ही दिया जाता है और कुछ कहो तो भाभी रोने लगती है और उसके भाई को लगता है ज़रूर माँ-बाबा की ही गलती होगी। कई बार उसके माता-पिता ने अपने बेटे से अलग हो जाने तक की बात कही। क्यूंकि इस उम्र में वह तो घर छोड़कर जा नहीं सकते और घर में राशन दो व्यक्तियों के हिसाब से भी तो आ नहीं सकता। मगर वो इतने बेशर्म और बेहया है कि अलग हो जाने की बात भी उनके कठोर दिल पर असर नहीं करती क्यूंकि उन्हें स्वयं यह बात अच्छी तरह से पता है कि यदि वह अलग हो गए तो जीना दुश्वार हो जाएगा उनका, इसलिए वह अलग भी नहीं होते।  

बेटी अर्थात मेरी सहली यह सब सुनकर बहुत परेशान है खुद को बहुत असहाय महसूस कर रही है वो, उसने अपने माता-पिता को अपने घर बुलाना भी चाहा मगर, लड़की के घर जाकर कैसे रहे जैसी रूढ़िवादी मानसिकता के चलते उसके माता पिता उसके घर आने को तैयार ही नहीं है उनका कहना है कि आखिर कब तक हम तुम्हारे साथ रह सकते हैं। तुम्हारा अपना भी परिवार है ऐसे में हमारा भी वहाँ ज्यादा दिन रुकना अच्छा नहीं लगता और फिर जब हमारा अपना घर है तो हम बेटी और दामाद पर आसरत क्यूँ रहे। आखिर आत्मसम्मान भी कोई चीज़ होती है। उधर उन्हें इस बात का भी डर है कि कहीं हमारे ज्यादा कुछ कहने से बहू ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कर दी तो उनका क्या होगा। कहीं इन सब बातों का असर उनकी बेटी के परिवार पर न पड़ जाये। ऐसी स्थिति में फर्क पड़े न पड़े किन्तु मन में ऐसे ख़याल आना स्वाभाविक ही है। क्यूंकि आज कल वैसे भी इस तरह के मामलों में कार्यवाही के नाम पर और कुछ हो न हो, गिरफ्तारी बहुत जल्दी होती है। 

अब आप लोग ही बताएं कि इस समस्या का क्या निदान है। क्या घर के बुजुर्गों का इस तरह दिन रात अपमान किया जाना, उन्हें सोते जागते मानसिक तौर पर परेशान किए रहना क्या ठीक है ?? वह भी तब जब घर का आधे से ज्यादा खर्च उनकी पेंशन से चल रहा हो। घर का सारा कम वह कर रहे हों। बहू को बेटी बनाकर रखने के बावजूद भी, बहू का यूं बाहर वालों के सामने अपने ही सास ससुर के प्रति राजनीति खेलना। बाहर वालों के सामने यह दिखाना कि देखो मैं तो बहुत अच्छी हूँ मेरी सास ससुर ही खराब है। क्या सिद्ध करता है ? इस सब से भला किसी को क्या खुशी मिलती है। यह बात मेरी समझ से बाहर है। आखिर ऐसा क्या हुआ है जो अब बहुओं को ससुराल कभी अपना नहीं लगता सास ससुर में अब उन्हें अपने माता-पिता दिखाई नहीं देते। अब दिखता है तो सिर्फ "मैं" मेरा पति और मेरे बच्चे बस ...बहू को पहले की तरह डरा धमका कर रखा जाता हो, तो बात फिर भी समझ आती है। किन्तु जब बहू को हर तरह की छूट हो तब भी, अपने ही परिवार वालों के साथ ऐसा घिनौना व्यवहार कोई इंसान भला कैसे कर सकता है। 

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपनी बेटियों को या बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ उन्हें बड़ो की  इज्ज़त करने का संस्कार देना भूलते जा रहे हैं। ताकि हमारे मन में छुपा डर कि कहीं हमारी बच्ची के साथ ससुराल में कुछ गलत न हो, के चलते हम ही उसे कहीं न कहीं गलत शिक्षा दे रहे हों ? वैसे "ताली हमेशा दोनों हाथों से बजती है, एक से नहीं" इसलिए हमे न सिर्फ अपनी बेटियों को बल्कि बेटों को भी सही और गलत में अंतर देखना और परखना सिखाना ही चाहिए। ताकि परिवार में बुज़ुर्गों को सम्मान मिल सके, हम उम्र को अपना पन और छोटो को प्यार मिल सके। आखिर एक न एक दिन हमारी ज़िंदगी में भी बुढ़ापा आना ही है। :)  

याद रखिये किसी भी घर की आन, बान और शान सबसे पहले उस घर के बुजुर्ग होते है। जिन घरों में उनका सम्मान नहीं होता, वहाँ शांति कभी निवास नहीं करती।  जय हिन्द....        

Sunday 16 June 2013

सोच सही हो तो विशेष दिवस की प्रतीक्षा क्यूँ करें ....


पर्यावरण दिवस के अवसर पर बहुत सारी पोस्ट पढ़ने को मिली जिसमें हर कोई पर्यावरण को लेकर चिंतित दिखाई दिया किसी ने भाषण दिया तो किसी ने छोटी-छोटी टिप्स,कि किस-किस तरह से हम अपने पर्यावरण को बचा सकते है। मगर अफसोस इस बात का होता है कि जब ऐसा कोई दिन आता है तभी हमें यह सब बातें क्यूँ सूझती है क्या इस दिन के अलावा हमें अपने पर्यावरण को बचाने की जरूरत नहीं है ? यदि ऐसा नहीं है तो फिर कभी "बेमौसम बरसात" क्यूँ नहीं होती। मैंने अक्सर यही देखा है जब भी कोई  विशेष दिवस आता है या आने वाले होता है, तो हमारे सभी गणमान्य लेखक जैसे रास्ता ही देख रहे होते है कि कब वह विशेष दिन आए और कब हम सब उस विषय विशेष पर अपनी अपनी कलम घिस डालें। लिखते सभी अच्छा और सही हैं, मगर अवसर आने का इंतज़ार ही क्यूँ करते हैं, पता नहीं। फिर चाहे वो पर्यावरण दिवस हो, या मदर डे, हिन्दी दिवस हो, या शिक्षक दिवस, बाल दिवस हो, या वेलेंटाइन डे इत्यादि। 


पर्यावरण दिवस पर इतना कुछ पढ़ा कि आज मेरा भी मन हो गया कि मैं भी कुछ लिखूँ हालांकी अब तो पर्यावरण दिवस जा चुका है। मगर मेरा मानना यह है कि मुझे इस विषय पर लिखने के लिए अगले साल तक पर्यावरण दिवस आने का इंतज़ार करने की जरूरत नहीं है। अभी कुछ दिन पहले डॉ टी एस दराल जी का फेसबुक पर एक अपडेट भी देखा था जिसमें उन्होंने होटल के कमरे के बाहर खाने की बरबादी का ज़िक्र किया था। वाकई जिस देश में गरीबों को खाने के लिए दो वक्त की रोटी नहीं है, कमाने के लिए रोज़गार नहीं है, वहाँ खाने की ऐसी बरबादी देखकर किसी भी संवेदनशील इंसान को बुरा लगना स्वाभाविक ही है। उन्हें देखकर बुरा लगा और मुझे पढ़कर बुरा लगा। फिर आज खाना बानते वक्त दिमाग में एक बात आयी कि हम अपने यहाँ बचे हुए खाने का क्या करते हैं।

देश की बात मैं नहीं करती। मगर अपने-अपने घरों की बात ज़रूर करना चाहूंगी। जहां तक मैं अपनी बात करूँ, तो पहले जब तक मैं हिंदुस्तान में रहती थी, तब बचा हुआ खाना अक्सर जो ख़राब न हुआ हो, बाई को दे दिया जाता था। मेरी मम्मी और मेरी सासु माँ दोनों को मैंने यही करते देखा है वह भी उन से पूछकर यदि वह ले जाने को तैयार है तभी, जबरन नहीं या फिर जानवरों को डाल दिया जाता था। कई बार तो जानवर भी वो खाना नहीं खाते और खाना सड़ता रहता है और नतीजा मच्छर मक्खीयों के साथ बीमारियाँ फैलती है। मगर तब हमें और कोई विकल्प ही नज़र नहीं आता कि इस बचे हुए खाने से और भी कुछ किया जा सकता है तब ज्यादा से ज्यादा हमें केवल भिखारियों का ख्याल आता है उनके विषय में सोचो तो पहली बात वह खाना लेते ही नहीं है, उन्हें भी पैसा चाहिए। दूसरा यदि ले भी लें तो यह डर रहता है कि खाने के बदले बीमार होने का नाटक करके वह वह आप से दुगने पैसे न वसूल लें। भई आखिरकार भलाई का ज़माना जो नहीं है। वह कहते है न आज की तारीख में 


"ईमानदार वही है, 
जिसे बेईमानी करने का मौका ना मिला हो"। 

खैर अब सवाल यह उठता है कि हम में से कितने लोग ऐसा ही करते हैं। क्या करते हैं आप, जब वही बचा हुआ खाना और आलू प्याज़ या फिर सब्जी के छिलकों का ?? ईमानदारी से कहिए यूं ही फेंक देते हैं न कूड़ेदान में,कई तो ऐसे भी है जो कूड़ेदान में एक पेपर या पन्नी लगाना तक ज़रूरी नहीं समझते और कई ऐसे भी है जो कूड़ेदान ही ज़रूरी नहीं समझते। उस वक्त किसी के दिमाग में एक बार भी पर्यावरण का ख्याल तक नहीं आता। क्यूंकि आजकल की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में इंसान के पास खुद अपने लिए अच्छा बुरा सोचने का समय नहीं है तो भला वह सब्जी के छिलकों और सूखी हुई ब्रेड के बारे में कोई क्या सोचेगा। सच कहूँ तो पहले मैं खुद भी नहीं सोचती थी। बस रसोई के कूड़े दान में पन्नी लगाई सब तरह का कचरा उसमें भरा और सुबह दे दिया कचरे वाले को अपना काम खत्म। मगर यहाँ आने के बाद जब से मैंने वह कंपोस्ट बैग इस्तेमाल करना शुरू किया है। तब से दिल के किसी कोने में एक तसल्ली सी तो है कि हाँ बहुत कुछ नहीं तो कम से कम मन समझाने के लिए ही सही, मैं पर्यावरण और पक्षियों के विषय में कुछ तो सही और अच्छा कर रही हूँ। जिसे में भविष्य में भी जारी रखना चाहूंगी। वरना रास्ते में कोई भी कचरा फेंक देने से जब पक्षी उसी के कारण मरते है तो मन यह सोचकर बहुत दुखी हो जाता है की

"करे कोई भरे कोई"   

यह कंपोस्ट बैग बचा हुआ खाना जैसे सुखी ब्रैड रोटियाँ या फिर सब्जी के छिलके फेंकने के काम में आता है इस बेग की विशेषता यह है कि यह एक खास प्रकार के प्लास्टिक से बना है जो ज़मीन के अंदर आसानी से गल जाता है जिस से इसमें भरे हुए बचे हुए खाने आदि से आसानी से खाद बन जाती है। इसलिए यहाँ लंदन की काउंसिल ने हर चीज़ के लिए एक अलग कूड़ेदान दिया हुआ है। जैसे पेड़ पौधों एवं रसोई का बच्चा हुआ खाना जो हम इस कंपोस्ट बैग में डालते है और गार्डन से निकलने वाले कचरे के लिए भी ब्राउन अर्थात भूरे रंग का कूड़ेदान,समाचार पत्र या अन्य कागज़ आदि या रीसाइकल के लिए नीले रंग का कूड़ेदान और अन्य रसोई आदि और घर की साफ सफाई के लिए काले रंग का कूड़ेदान, ताकि साफ सफ़ाई भी हो जाये और पर्यावरण को भी ज्यादा हानि ना हो।

यहाँ आने से पहले इस तरह के कोई बैग आते है मुझे जानकारी नहीं थी तो पहले कभी इस्तेमाल करने का सवाल ही नहीं उठता। मगर हाँ यहाँ आने के बाद यानि पिछले 6 सालों से इस्तेमाल करते रहने के कारण अब ज़रा भी मन नहीं होता कि बचे हुए खाने और सब्जी भाजी के छिलकों को यूं आम कूड़ेदान में फेंक कर अपना घर साफ कर लूँ। अब हो सकता है इस तरह के यह बैग इंडिया में भी आने लगे हों यह तो आप लोग ही बता सकते हैं छोटे शहरों में तो नहीं सुना मैंने बाकी यदि मेट्रो में आ गए हों तो पता नहीं लेकिन हाँ यदि आ गए हैं तो आप भी इन का इस्तेमाल ज़रूर करें माना कि महज़ कचरा फेंकने के लिए पैसा खर्च करना अपने यहाँ बेवकूफी समझी जाती है। मगर यदि उस एक बेवकूफी से हम अपने पर्यावरण को बचाने में अपना ज़रा सा पैसा समय और योगदान दे सकें तो उसमें बुराई ही क्या है यूं भी हम अपनी बहुत सी बे-मतलब के शौक को पूरा करने के लिए पैसा खर्च करते ही है तो क्यूँ न एक अच्छे काम के लिए भी करें।                       

Friday 7 June 2013

बेल्जियम और होलेण्ड ट्रिप... भाग 3

अब वक्त है वापसी का और जैसा कि हमने वादा किया था इस भाग में हम आपको खिलाएँगे बेल्जियम की मशहूर चॉकलेट और चीज़ मगर सिर्फ इतना ही नहीं इस भाग में हम आपको वहाँ कि मिनिएचर सिटी की भी सैर करायेंगे। वैसे यदि मिनिएचर सिटी की बात की जाये तो मुझे यहाँ UK विंडसर लेगो लेंड में जो मिनिएचर सिटी बनी है, वह ज्यादा अच्छी और प्रभावशाली नज़र आयी, क्यूंकि यहाँ वाली में हम अपने आपको वहाँ बने सभी स्थानों से जोड़ पा रहे थे क्यूंकि यहाँ न केवल यहाँ की इमारतें बनी थी बाकी यूरोप की भी कई मशहूर इमारतें भी थी जबकि होलेंड में बनी मिनिएचर सिटी में केवल वहाँ की ही एतिहासिक इमारतें थी। जो देखने में तो बेहद खूबसूरत थी मगर उनसे खुद को जोड़ ना पाने के कारण वहाँ उतना मज़ा नहीं आ रहा था जितना यहाँ लंदन में आया था। हालांकी हमारे पास वहाँ लगी हर एक इमारत के बारे में जानने और समझने के लिए एक कार्ड था जिसे हम वहाँ लगी मशीनों के माध्यम से सुन सकते थे लेकिन समस्या यह थी वहाँ की बोली या यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि वहाँ की डच भाषा की टोन के कारण अंग्रेजी भी ठीक तरह से समझ नहीं आ रही थी।

लेकिन फिर भी चूंकि हम ट्यूलिप गार्डन पहले ही देख चुके थे इसलिए उसका बहुत छोटा सा रूप देखना मुझे बहुत अच्छा और आकर्षक लगा, वहाँ जाने से पूर्व मेरे मन में यह जानने का उत्साह था कि इतने बड़े गार्डन को छोटे रूप में कैसे बनाया गया होगा और खासकर ट्यूलिप किस चीज़ से बनाए होंगे। तब वहाँ पहुँच कर देखा मोतियों से बने ट्यूलिप जो अपनी सुंदरता के बल पर असली ट्यूलिप को बराबर कि टक्कर दे रहे थे और इतने ही खूबसूरत लग रहे थे जितने असली लगे थे। इसलिए मैंने उन मोतियों वाले ट्यूलिप का यह फोटो इतने करीब से खींचा केवल आप लोगों को दिखाने के लिए :) वाकई हर चीज़ का छोटा आकार अपने आप में बेहद खूबसूरत लगता है। फिर चाहे वो ट्यूलिप गार्डन हो, या हवाई अड्डा या फिर बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन ही क्यूँ न हो, वहाँ आप खुद को एक जाईंट(बहुत बड़े) की तरह पाते हैं तो लगता है जैसे सब खेल खिलौने है पूरा शहर ही हाथ में उठा लेने को मन करता है।

आपको होलेण्ड की एक बात बताना तो मैं भूल ही गयी, यहाँ पर इतनी साइकल इस्तेमाल की जाती हैं कि आप सोच ही नहीं सकते। यहाँ पर ट्रेफिक लाईट पर साइकल के लिए अलग सिग्नल होता है और सभी सड़कों के साथ में साइकल लेन अलग से बनाई गयी है। इसका अंदाज़ा आप ये चित्र देख कर लगा सकते हैं जो कि एक साइकल स्टेंड का है।

खैर वहाँ घूम घामकर हम पहुंचे चीज़ फ़ैक्टरी जो महज़ कहने को चीज़ फ़ैक्टरी थी। असलियत में वहाँ कुछ भी नहीं था केवल एक दुकान थी जहां लकड़ी के जूते बनाए जाते है जो Clogges के नाम से मशहूर हैं। इसलिए उस फ़ैक्टरी का नाम भी cheez and clogges फ़ैक्टरी था। Clogges बनाने के लिए जो लकड़ी इस्तेमाल की जाती है वह बहुत हल्की होती है और पुराने समय में यही लकड़ी के जूते पहन कर किसान खेती किया करते थे।







इस फैक्टरी में पहली बार यह जानकारी मिली कि बाज़ार में मिलने वाले सभी चीज़ शाकाहारी नहीं होते जो शाकाहारी चीज़ कहलाता है उसे स्मोकेड चीज़ के नाम से जाना जाता है बाक़ी के चीज़ में गाये के पेट में से निकलने वाला एक पदार्थ Rennet मिलाया जाता है जिसके कारण ये सभी चीज़ मांसाहारी हो जाते है। यह सुनकर हमारे साथ आए अन्य अधिकतर शाकाहारी लोग भारी संकट में पड़ गए थे, क्यूंकि यहाँ आने के बाद से रोज़ सुबह के नाश्ते में सभी दबा के चीज़ स्लाइस खाये जा रहे थे। :) खैर यह सुनकर हमें भी थोड़ा आश्चर्य तो ज़रूर हुआ था, लेकिन आपको घबराने की जरूरत नहीं है। क्यूंकि यह नियम या यह तरीका केवल वहीं इस्तेमाल किया जाता है बाज़ार में मिलने वाले चीज़ पर ऊपर शाकाहारी लिखा हो तो उसमें यह रसायन नहीं होता है और इस मामले में यहाँ धोखा दिये जाने की संभावना भी अपने इंडिया के मुक़ाबले कम है क्यूंकि यहाँ तो हर प्रकार का मांसाहार चलता है फिर क्या गाय और क्या उसके पेट से निकाला जाने वाला रसायन और क्या सूअर और क्या भेड़ बकरी। यह है उस शाकाहारी कहे जाने वाले चीज़ की तस्वीर और वहाँ उस फ़ैक्टरी में बिकने वाले अन्य समानों की एक झलक वहाँ कुछ चीज़ ऐसे भी थे जो सालों तक सुरक्षित रखकर खाये जा सकते है और दूसरी बात चीज़ पर मौम की एक परत चढ़ी होती है ताकि वह बाहर से भी सुरक्षित रह सके और जैसे-जैसे चीज़ पुराना होता जाता है सख्त होता जाता है।




वहाँ से निकलने के बाद हम पहुंचे सीधा चॉकलेट की दुकान पर, जहां हमने बेल्जियम की चॉकलेट का आनंद लिया वहाँ हमने सभी तरह की मेवा पर चढ़ी चॉकलेट खायी और आइसक्रीम का भी भरपूर आनंद लिया और दोस्तों के लिए कुछ चॉकलेट खरीदीं भी। ज्यादा इसलिए नहीं लीं क्यूंकि मुझे स्वीटजरलेंड की चॉकलेट और यहाँ की बनी चॉकलेट में कोई खास फर्क महसूस नहीं हुआ मगर बेल्जियम की चॉकलेट दुनिया भर में मशहूर हैं। यहाँ की आइस क्रीम खाकर ज़रूर मज़ा आ गया था और बस इन्हीं सुनहरी यादों को लिए हमारा कारवां वापस हो लिया।