Friday 30 December 2011

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें



वैसे तो ऐसा बहुत कम ही होता है कि जब इतना भी समय न मिल पाये कि मैं अपने ब्लॉग पर भी न आ पाऊँ। मगर इस बार ऐसा क्रिसमस की छुट्टियों के चलते हुआ, इस बार समय ही नहीं मिला ब्लॉग पर आने का इसलिए आज लगभग एक हफ्ते बाद आना हुआ है। Smile आई तो देखा मेरे सभी ब्लोगर मित्रों ने नव वर्ष के विषय पर काफी कुछ लिखा है। बाकी यह कहना शायद गलत न हो कि बहुत कुछ लिखा है। इतना कि अब मुझे सोचना पड़ रहा कि मैं क्या लिखूँ कहाँ से शुरुवात करूँ, खैर अब बात करते हैं इस जाने वाले साल की और कुछ आने वाले साल की भी। जाने वाले साल ने इस साल भी कुछ अच्छे तो कुछ बुरे अनुभव भी कर वाये जैसा कि हर साल ही होता है। फिर भी दोनों तरह के अनुभव को नाप तौल कर देखने के बाद ही हम बड़ी मुश्किल से कह पाते हैं कि जाने वाला साल हमारे लिए कैसा था अक्सर आपने लोगों को कहते हुए सुना भी होगा कि अरे मेरे लिए तो फलां साल बहुत लकी था, उस साल मुझे यह मिला वो मिला। मगर यह जाने वाला साल ठीक ही था "नोट गुड नोट बैड" हर साल की तरह यह जुमला बहुत ही आम होता है हर कोई बस यही कहता नज़र आता है। .Smile

मैं भी यही कहूँगी मेरे लिए भी यह साल कुछ ऐसा ही था न बहुत ही बुरा और ना ही बहुत अच्छा क्यूंकि सब कुछ नज़रिये और परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि किन परिस्थियों में आपका नज़रिया क्या रहा था। जैसे यदि घूमने की दृष्टि से देखें तो मेरा यह साल बहुत ही उम्दा रहा। इस साल मैंने पेरिस, इटली, इंडिया सभी जगह खूब घूमा और खूब मज़े किये। ब्लॉग के नज़रिये से भी यदि देखें तो इस साल मैंने पहले की तुलना में खूब सारी पोस्ट बहुत जल्दी-जल्दी डाली और वैसा ही आप सभी का प्यार और प्रोत्साहन भी मिला बहुत सारे अच्छे-अच्छे लोगों से उनकी पोस्ट के ज़रिये मुलाक़ात हुई, दोस्ती हुई जिनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं जिनकी मैंने आज तक कभी असली सूरत तक नहीं देखी मगर उनकी रचनाओं के माध्यम से ऐसा लगता है जैसे बरसों की जान पहचान हो और कुछ ऐसे भी हैं जिनको पहले मैंने बहुत घमंडी या अकड़ू किस्म का समझा, मगर जब धीरे-धीरे उनसे बात हुई तब पता चला कि वास्तव में वह बहुत ही प्रेमी लोग हैं मैंने ही उन्हे समझने में भूल की थी। नाम किसी का नहीं लूँगी क्यूंकि इतने सारे लोगों का नाम लेना नामुमकिन सी बात है और यदि गलती से भी कहीं कोई छूट गया तो बेवजह मेरा वो दोस्त बुरा मान जाएगा.Smile  जो मैं कतई नहीं चाहती।Smile

खैर यदि मैं ब्लॉग जगत कि बातें लिखने बैठ गई तो शायद यह पोस्ट कभी ख़त्म ही ना हो,Smile इसलिए विषय से न भटकते हुए मैं वापस आ जाती हूँ नव वर्ष पर। समय के साथ सब कुछ बदलता रहता है और बदलना भी चाहिए, क्यूंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है इसी तरह अब नये साल के स्वागत के तरीकों में भी पहली की अपेक्षा बहुत ज्यादा परिवर्तन आया है, पहले ज्यादातर हर त्योहार लगभग नये साल से अनुभूति ही कराया करता था। क्यूंकि जैसा कि आप सभी लोग जानते हैं हमारा देश कृषि प्रधान देश रहा है इसलिए हर बार मौसम के अनुसार नई फसल आने पर ही कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है भले ही उसका समबंध किसी पौराणिक कथा से जोड़ दिया जाता हो, मगर यदि यथार्थ रूप से सोचो तो हर त्यौहार के पीछे कोई न कोई नई फसल का आना छुपा होता है। जैसे लोहड़ी ,होली, दिवाली, हर धर्म के लोग इस नई फसल के आगमन को अपने -अपने तरीके से त्यौहार के रूप में मनाते है बस नाम अलग दे दिया जाता है। जैसे अभी नये साल में आने वाला एक बड़ा त्योहार संक्रांति जिस पर तिल की फसल आती है इसलिए उस दिन, नहाने के पानी से लेकर खाने पीने की सभी चीजों में तिल का होना अनिवार्य होता है।

तो दूसरी और इसी त्योहार का दूसरा रूप पंजाबी समाज का जानदार त्योहार लोहड़ी यह भी नई फसल के आगमन को ही दर्शाता है जिसमें हर नई फसल की चीजों का भोग लगाया जाता है जैसे मक्का, मूंगफली, तिल से बनी रेवड़ी और गज़क आहा, मुझे बहुत ही पसंद है यह दोनों मिष्ठान, लिखते-लिखते ही मेरे तो मुंह में पानी आरहा है।Smile हिन्दुस्तानी सभ्यता के अनुसार तो यही दिन होते हैं नव वर्ष के स्वागत के लिए, बस अपना-अपना तरीका है। जैसे कुछ लोग बसंत पंचमी पर सरस्वती वंदना कर पीले रंग को महत्व देते हुए जितना हो सके पीले रंग का उपयोग करते हैं जैसे पीले कपड़े, पीले पकवान सब कुछ पीला -पीला क्यूंकि शायद उस वक्त सरसों का मौसम होता है और टेसू के फूलों का भी जिन्हें पीस कर पीला रंग तैयार किया जाता था। मम्मी बताती है कि पहले तो होली भी इन ही कुदरती रंगों से ही खेली जाती थी। मगर हुआ ना इस त्योहार के पीछे भी फसल का आना।Smile

मगर अब नव वर्ष के स्वागत का तरीका बदल गया है ,क्यूंकि आज की जीवन शैली में परंपरायें रह ही नहीं गई हैं कि कोई उनका पालन करे और कुछ थोड़ी बहुत बची हैं उन्हें निभाने के लिए आज कल किसी के पास समय ही कहाँ है। परंपरा निभाना तो दूर की बात है आजकल तो लोगों के पास जीने के लिए समय नहीं तो त्यौहार क्या खाक मनायेंगे। ऐसा लगता है आजकल सब कुछ ओपचारिकता में बदल गया है। बस यह करना है इसलिए करते हैं मगर अंदर से वो करने वाली भावना होती ही नहीं है शायद इसलिए आज नव वर्ष का जश्न भी केवल होटल तक सिमट कर रह गया सा लगता है। या यह कहना भी शायद गलत नही है कि नववर्ष केवल जवान पीढ़ी तक सिमट कर रह गया है पहले ही संयुक्त परिवार की परंपरा अब बाकी नहीं है ऊपर से एकल परिवारों में भी केवल जवान पीढ़ी ही होटल मे जाकर खाना पीना खाकर, नाच गाकर नव वर्ष के आने का जश्न मना लिया करती है। जिसका केवल एक रात का नशा और जोश होता है अगली सुबह होते ही सब फुर हो जाता है और ज़िंदगी वहीं के वहीं "ढाक के तीन पात" पर ही खड़ी नज़र आती है।

न उसमें कोई जोश ही नज़र आता है न उमंग, सब कुछ बस जैसे एक रात के लिए ही होता है "रात गई बात गई" टाइप .Smileनये साल में लोग अगर कुछ बांटते नज़र आते है, तो वह है केवल ज्ञान जैसे अपने बनाये नये साल के नये संकल्प को हमेशा अपनी आँखों के सामने लिख कर रखो अर्थात ऐसी जगह लगाओ कि सुबह-शाम उठते-बैठते उस पर नज़र पड़ सके ताकि सारी साल आप उस पर अमल कर सको और अपनी मंज़िल को पा सको वैसे देखा जाये तो बात सही है मगर मुझे ऐसा लगता है कि यह सब बस कुछ दिनों का भूत रहता है जो वक्त के साथ-साथ धीरे-धीरे उतरता जाता है और आने वाले नए साल तक पूरी तरह उतर चुका होता है। खैर यह विषय ऐसा है इस बात पर जितनी बात की जाये वो कम ही होगी इसलिए इस पोस्ट को यहीं विराम देते हुए बस इतना ही कहना चाहूंगी।

"आप सभी को नव वर्ष कि हार्दिक शुभकामनायें, ईश्वर करे आपके सभी के सपने पूरे हों,
आपको मान-सम्मान  और अपनों का ढेरों प्यार और आशीर्वाद मिले"
इसी मंगलकामना के साथ एक बार फिर आप सभी को 
IN 
ADVANCE 
"WISH YOU A VERY HAPPY AND PROSPEROUS NEW YEAR"             
                    

Thursday 22 December 2011

हमारे बुजुर्ग... (हमारे अनमोल रत्न)

जब हम ज़िंदगी में कदम रखते हैं या यूं कहना शायद ज्यादा ठीक होगा कि जब से हमको समझ में आना शुरू होता है , कि ज़िंदगी क्या होती है जीवन किसे कहते हैं तब हमें यह महसूस होता है कि हमसे जुड़ा हर रिश्ता हमारे जीवन रूपी शरीर के अंगों का कोई न कोई आभूषण है। कहते हैं सोना जितना पुराना हो उसकी कीमत उतनी ही ज्यादा होती है क्यूँकि उस पुराने सोने में शुद्धता ज्यादा होगी ऐसा माना जाता है। यदि यही सच है तो फिर इस नाते हमारे घर के बुजुर्ग भी तो एक तरह का पुराना सोना हुए न हमारे लिए, क्यूंकि वह भी तो हमारी ज़िंदगी में पुराने सोने से कम नहीं एक ऐसा सोना जिसकी चमक कभी खत्म नहीं होती। जिनके अनुभव न केवल हमे, बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ी को भी वह शिक्षा और मार्गदर्शन देते हैं। जिस पर चलकर शायद हम कुछ गलतियाँ करने से पहले ही संभल सकते हैं। उनकी ज़िंदगी का अनुभव एक अलग ही अनुभव कराता है, हमारी नई पीढ़ी को, आपके बच्चे एक बार आपकी बात भले ही न सुनते हों, मगर अपने दादा-दादी, नाना-नानी कि बातें वह बहुत जल्दी और बड़े ही रुचि से सुनते है और मानते भी हैं। ऐसे ही थोड़ी दादा-दादी नाना-नानी की कहानियाँ सुनने में मज़ा आया करता था।

हाँ अब ज़रूर ज़माना बदल गया है। आज कल के नई तकनीकी दौर में बच्चों को भले ही बुज़ुर्गों की कहानी में कोई खास रुचि न बची हो, मगर वह उनको नई तकनीक सिखाने के मामले में बहुत उत्सुक रहते हैं। खासतौर पर कंप्यूटर और विडियो गेम्स ...Smile और जिस वक्त बच्चे यह सब चीजों की जानकारी अपने दादा जी, या नाना जी, को दे रहे होते हैं, वो नज़ारा सचमुच देखते ही बनता है। उस वक्त ऐसा लगता है जैसे कोई स्कूल खुला हो जिसमें बच्चे अध्यापक और बुजुर्ग विधार्थी हों।Smile  बड़ा अच्छा लगता है, जब बच्चे कहते हैं अरे दादा जी, आपको तो इतना भी नहीं पता इसे वीडियो गेम कहते हैं। इस बटन को दबाने से यह होता है, उस बटन को दबाने से वो होता है वगैरा-वगैरा... Smileजैसे बस सब कुछ केवल उनको ही आता हो बाकी सब तो बुद्धू ही होते हैं। ऐसे ही थोड़ी वह कहावत बनी है आपने भी ज़रूर सुनी होगी।

"असल से सूद प्यारा होता है"

शायद यही सच भी है इसलिए हर दादा को बेटे से प्यारे अपने नाती-पोते होते हैं ...है न Smile फिर क्यूँ कुछ लोग और कैसे अपने घर के बुज़ुर्गों को वृद्धाश्रम में छोड़ देते है। जब कभी वृद्धाश्रम के विषय में कुछ भी पढ़ने, सुनने या दिखने को मिलता है तो मन बहुत खिन्न हो जाता है। कैसे कर पाते हैं लोग ऐसा सोच कर भी बहुत बुरा लगता है और मन से न चाहते हुए भी ऐसे लोग के प्रति ऐसे अपशब्द मन में आते हैं, कि क्या बोलो। जिन माता-पिता ने आपको पाला पोसा आपकी हर जरूरत को पूरा किया खुद कि इच्छाओं को मार कर आपको वो सब दिया जो आपने चाहा आपके हर अच्छे बुरे वक्त में यह कहकर आपके पीछे हमेशा खड़े रहे, कि बेटा डरो नहीं आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ है गिरोगे तो हम है ना, हम संभाल लेंगे। तुम बस आगे बढ़ो और जीत लो दुनिया को और बदले में हम से मांगा बस थोड़ा सा प्यार और सम्मान और हमने उन्हें क्या दिया। बात-बात पर अपमान प्यार के बदले नफरत फर्ज़ समझने के बदले बोझ क्यूँ कभी कोई भी इंसान हर दूसरे इंसान कि जगह खुद को रखकर नहीं सोच पाता है। क्यूँ हमेशा ठोकर लागने के बाद ही अक्ल आती है। पहले ही क्यूँ नहीं संभल जाते हैं लोग काश ऐसा हो पता।
बचपन में "हेल्प एज इंडिया" नामक संस्था के नाम पर खूब रुपये जमा किए मैंने, बिना उसका महत्व जाने बस धुन सवार रहती थी, जितने का टार्गेट मिला है उसे ज्यादा जमा करना है। ताकि मेडल और प्रमाणपत्र दोनों मिल जायें बस यकीन मानिये मेरे पास हैं भी बहुत, मगर तब यह नहीं पता था, कि इस सब के पीछे यह घोर कड़वा सच छुपा होगा। तब तो बस इतना पता था कि यह जमा किया हुआ पैसा बुजुर्गों को सहायता करने के लिए हैं कब, क्यूँ, कहाँ, कैसे न यह कभी किसी ने बताया था उस वक्त, न मैंने ही जानने कि इच्छा ज़ाहिर की होगी या फिर की भी हो तो पता नहीं। अब याद नहीं, खैर वो अलग बात थी यूं तो इस विषय पर बहुत सी फिल्में भी बन चुकी हैं और आप सभी लोग इस विषय से अंजान नहीं है। मगर फिर भी यह इंसानी जीवन का वो कड़वा सच है जिसे जब तक इंसान खुद बदलना न चाहे बदल नहीं सकता। क्या वाकई इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी हैं हमारे लिए हमारे बुजुर्ग ?? यदि उन्होने भी यही सोच कर हमको भी पैदा होते ही किसी ऐसी ही संस्था में डाल दिया होता क्या आज हम वहाँ होते जहां आज हैं, मैंने कहीं पढ़ा था।

"हमें ज़िंदगी में हमेशा एक ऐसे इंसान की जरूरत होती है,
जो हम से यह कह सके, कि हमारे बदलते स्वभाव के पीछे क्या कारण है
 न कि वह इंसान हम से यह कहे कि तुम बदल गए हो"
      
शायद ऐसा कुछ हमारे बुजुर्ग भी सोचते होंगे हमारे बारे में, नहीं !!! ज़रा अपने दिल पर हाथ रखकर सोचिये क्या हम ने खुद कभी ऐसी कोई कोशिश की है ? न सिर्फ अपने बुजुर्गों के साथ बल्कि अपने दोस्तों के साथ भी कभी ऐसा कुछ पूछा है ??? नहीं ना ...ऐसी ही एक और बात जो पढ़ने में बड़ी रोचक लगी मुझे, जो है तो जीवन का सच मगर कभी मैंने पहले कहीं इस तरह पढ़ा नहीं था।

"कविता हो ,या कलाकृति 
या फिर नाटक हो कोई
रचियता हमेशा नाम अपना देता है 
मगर माँ भी 
अद्वितीय सर्जक है जो 
संतान को जन्म देकर नाम,
पिता का देती है।

और तब भी कुछ लोग यह सारे परित्याग को एक किनारे कर सब कुछ भुलाकर अपने ही अभिभावकों को वृद्धश्रम के हवाले छोड़ देते हैं, कल एक वीडियो भी देखा था जहां ऐसे ही वृद्धश्रम में कुछ लोग आकर वहाँ रह रहे बुजुर्गों को साबुन, पेस्ट, टॉवल जैसे चीज़ें दान में दे रहे थे। यह सब देखकर अंदर ही अंदर एक इंसान होने के नाते इतनी शर्म आई खुद पर कि "कहाँ जा रहे हैं हम" क्या सिर्फ जरूरते पूरी कर देने भर से  हमारे बुज़ुर्गों के प्रति हमारा फर्ज़ पूरा हो जाता है।? क्या सिर्फ जरूरतों की पूर्ति की उनके जीवन का सहारा बन सकती है। कहते हैं बच्चे बुढे एक समान हुआ करते हैं। तो फिर जब बच्चों को अपने अभिभावकों के प्यार और दुलार की जितनी जरूरत होती है तो क्या वही जरूरत बुज़ुर्गों को नहीं होती। इंसानी मन हमेशा से प्यार का भूखा रहा है। जहां भी थोड़ा सा प्यार और सम्मान मिल जाए बस वहीं का होकर रह जाता है, मन और उस वक्त दिल से जो दुआएं निकलती है वो सीधी परमात्मा तक ज़रूर पहुँचती होंगी ऐसा मेरा मनाना है। लोग पुण्य कमाने और अपने पाप काटने के लिए क्या कुछ नहीं करते।
मंदिरों के दर्शन, तीर्थ न जाने क्या-क्या मगर एक इंसान दूसरे की मदद करके पुण्य कमाने का कभी नहीं सोच पाता क्यूँ??? मंदिर में भिखारियों को 1-2 रुपये दे देना ही क्या पुण्य कमाने के लिए या पाप काटने के लिए काफी  है??? जब निः संतान दंपत्ति एक बच्चा गोद लेकर अपने आँगन में खुशियाँ भरने का सोच सकते हैं तो कोई बुज़ुर्गों के प्रति ऐसा नज़रिया क्यूँ नहीं रख पता। ऐसे न जाने कितने प्रश्न है मेरे मन में मगर सबको यहाँ एक साथ प्रस्तुत कर पाना संभव नहीं इसलिए....

अंत में बस ऐसे लोगों से  जिन्हों ने आपने घर  के इन  बहुमूल्य रत्नो को वृद्धश्रम जैसी संस्थाओं में छोड़ रखा है। ज़रा वह लोग स्वयं को उनकी जगह पर रखकर सोचें कि जब यही व्यवहार आगे चलकर उनकी संतान उनके साथ करेगी तब उनको खुद कैसा लगेगा क्यूंकि बच्चे वही करते हैं और सीखते हैं जैसा वह देखते और सुनते है। वो कहते है न

"जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से पाये" 

तो समझदारी इसी में हैं कि आप भी अपने बुज़ुर्गों को वही मान,सम्मान और प्यार दीजिये जिसके वह अधिकारी है और फिर देखिये उनकी दुआओं का असर आपके पास सदा आम-ही-आम होंगे बबूल के कांटे नहीं ...जय हिन्द                 
              

Friday 16 December 2011

ज़िंदगी

इसी का नाम ज़िंदगी 

आज सुबह फेसबुक पर जब "कैलाश अंकल" का अपडेट देखा उस से ही मन में कुछ ख़्याल आये तो सोचा, कि क्यूँ ना उन पर ही कुछ लिखा जाये। अतः उनसे इजाज़त लेकर ही कुछ लिखने जा रही हूँ। उनहोंने जो लिखा था वो कुछ इस प्रकार था।

ज़िंदगी इतनी आसान नहीं,
जी के देखा तो समझ आया।

वाक़ई ज़िंदगी इतनी आसान नहीं, मगर मौत भी तो आसान नहीं है, मरना भी इतना आसान नहीं होता है। शायद इसलिए तो ज़िंदगी पाने वाले हर प्राणी को अपनी जान प्यारी होती है। शायद इसलिए वो कहावत भी बनी होगी कि 

"जान है तो जहान है" 
  
मुझे तो आज भी आश्चर्य होता है। जब यह सुनती हूँ, कि किसी ने किसी कारण से विवश होकर आत्महत्या कर ली। कहाँ तो कई बार हम छोटी-मोटी घटनाओं से ही सहम जाते हैं और कहाँ कब यह नौबत आ जाती है, कि इंसान खुद ही अपनी जान ले लेता है। खैर यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं उनकी इन बातों का विरोध कर रही हूँ। बल्कि मैं तो बस अपने विचार व्यक्त करने की कोशिश कर रही हूँ। जो कुछ मैंने महसूस किया बस वही आप सबके साथ सांझा कर रही हूँ। शायद जीवन का दूसरा नाम ही कठिनाई है। क्यूंकि ज़िंदगी जीवन के हर पथ पर इंसान के लिए एक नई परीक्षा, एक नयी चुनौती लिए खड़ी होती है। जिसे पार करते हुए ही वो अपने जीवन में आगे बढ़ता है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक ना जाने कितने अनगिनत परीक्षाओं और पड़ावों को पार करने के बाद भी इंसान कभी यह नहीं कह पाता, कि अब तो मुझे जीवन के इन इम्तहानों की आदत पड़ चुकी है। अब मुझे इन से डर नहीं लगता। बल्कि अब तो मज़ा आता है, ऐसे इम्तहान देने में, इस सबके पीछे ऐसा क्या कारण हो सकता है, जो बचपन से लेकर बुढ़ापे तक का सफर तय कर लेने के बाद भी इंसान के अंदर इन जीवन रूपी परीक्षाओं के प्रति सदा, डर ही बना रहता है या इस बात के लिए डर कहना शायद उपयुक्त ना हो, परेशानी कह सकते हैं। वो एक पुरानी हिन्दी फ़िल्म "मेरी जंग" का गीत भी इसी विषय पर आधारित है आपने भी सुना होगा ज़रूर...Smile

ज़िंदगी हर कदम एक नई जंग है ,
जीत जायेंगे हम, तू अगर संग है .... 
   
मुझे ऐसा लगता है, इस सबके पीछे एक ही कारण हो सकता है और वह हैं हमारी जिम्मेदारियाँ, हमारे रिश्ते, क्यूंकि अकेले इंसान शायद हर मुश्किल से मुश्किल घड़ी का सामना भी बहुत आसानी से कर सकता है। मगर उसे ज्यादातर कमजोर बना देती हैं, उसकी जिम्मेदारियाँ, उस पर निर्भर उसके साथ जुड़े उसके रिश्ते, जिनके बारे में सोच कर कई भावनात्मक निर्णय उसके जीवन की दिशा ही बदल देते हैं। कई बार विपरीत परिस्थियों में इसका उल्टा भी असर होता है। यही रिश्ते उस अकेले इंसान की ताक़त भी बन जाते हैं। दोनों ही स्थितियाँ शायद एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह होती हैं। जिन्हें वक्त और हालात के साथ सही सामंजस्य बिठाने का चुनाव केवल वही इंसान कर सकता है, जो इन परिस्थितियों से उस वक्त जूझ रहा हो। बिलकुल एक जु के समान सही दांव लग गया तो बाज़ी आपके हाथ और चूक गया तो आप उस परीक्षा में फेल। वैसे देखा जाये तो ज़िंदगी भी एक तरह का जुआ ही हैं। हर कदम पर एक खेल जिसको आपको चाहे अनचाहे खेलना ही हैं। मगर परिणाम आपके हाथ में नहीं है। आपको तो बस दांव लगाना है, निर्णय आपकी किस्मत,या आपकी ज़िंदगी करेगी कि आपका दांव सही था या गलत, एक ज़िंदगी और कितने सारे रूप, कितने अलग-अलग रंग और कितने अलग-अलग नाम जैसे कभी धूप तो कभी छाँव, कभी परीक्षा तो कभी जुआ और भी ना जाने क्या-क्या इसी बात पर मुझे फिर कुछ गीत याद आ रहे हैं,Smile आपको भी लग रहा होगा, कि क्या......मुझे भी हर बात पर कोई ना कोई गीत ज़रूर याद आ जाता है,Smile  

"हेड या टेल प्यार मोहब्बत दिल का खेल-दिल का खेल 
इस खेल में कोई है पास-कोई है पास तो कोई है फेल" 
या फिर 
"जीने वालों जीवन छुक-छुक गाड़ी का है, खेल 
कोई कहीं पर बिछड़ गया, किसी से हो गया मेल" 

अंतः बस इतना ही कहूँगी कि हर एक इंसान की ज़िंदगी एक है। मगर किसके लिए ज़िंदगी क्या है, यह केवल उस इंसान के साथ जुड़ी उसकी परिस्थियाँ ही तय कर सकती हैं इंसान खुद नहीं...क्यूंकि ज़िंदगी जीना आसान नहीं यह जीने के बाद ही समझ आता हैSmile  जय हिन्द  
                

Monday 12 December 2011

अच्छे बुरे लोग ...


यूँ देखो तो जीवन में हर जगह आपको सभी तरह के लोग मिल जाएँगे कुछ अच्छे, कुछ बुरे, अच्छे और बुरे लोग आखिर कहाँ नहीं होते। शायद ही इस दुनिया में कोई ऐसी जगह हो, या कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां अच्छे और बुरे लोग दोनों एक साथ न होते हों। लेकिन अच्छे और बुरे लोगों की पहचान हर इंसान अपने-अपने अनुभवों के आधार पर निर्धारित करता है। किस के लिए कौन अच्छा है, कौन बुरा यह कोई और व्यक्ति तय नहीं कर सकता। मगर मेरी सोच यह कहती है, कि जब आप किसी क्षेत्र के आधार पर किसी व्यक्ति को अच्छा या बुरा साबित करते हैं। तो वो तभी संभव है, जब आप जिस क्षेत्र से ताल्लुक रखते है, उसी क्षेत्र का कोई व्यक्ति आपके साथ कैसा व्यवहार करता है, यह बात भी उस बात पर निर्भर करती है। यदि कोई व्यक्ति आप ही के क्षेत्र में पारंगत है और जब आप उस व्यक्ति से किसी तरह कि कोई मदद या सहायता की उम्मीद करते है। मसलन मार्गदर्शन और तब यदि वो व्यक्ति आपकी खुलकर सहायता कर दे तो वह व्यक्ति आपको भला लगने लगता है और शायद यही सही भी है।

जो वक्त पर काम आये,  सही राह दिखाये वही सच्चा दोस्त होता है। शुभचिंतक होता है, वही आपका सच्चा हितैषी है। मगर इसका मतलब यह नहीं कि जो आपके पक्ष में बोले वही आपका सच्चा शुभचिंतक हो, क्यूंकि वो कबीर दास जी ने कहा है।

"निंदक नियारे राखिए आँगन कुटी छवाये 
बिन साबुन पानी बिना निर्मल करत सुभाये" 

अर्थात निंदक को हमेशा अपने पास रखिये क्यूंकि उनका कटाक्ष ही आपको सच्चा आईना दिखा सकता है, कि आप कितने पानी में हो, क्यूंकि ऐसे लोग बिना किसी लाग लपेट के आपको, आपके अवगुण दिखा जाते हैं।  जिनका आपको पता नहीं होता। इस नाते भले ही वह आपके निंदक हो मगर आपके सच्चे हितेशी भी वही बन जाते हैं। फिर क्यूँ कुछ लोग ऐसे हैं। जो किसी नये बंदे को चाहकर भी मदद नहीं करते। किस बात का अहम होता है उनको? मिली हुई सफलता का, तो क्यूँ भूल जाते है,  कि वह भी तो इन्हीं सीढ़ीयों पर से चढ़कर उस सफलता की मंज़िल तक पहुंचे हैं। फिर क्यूँ जब दूसरे की बारी आती है, तो उसकी परीक्षा भी, वही लोग लेते है। 

कॉलेज के समय से देखती आ रही हूँ मैं भी और आपने भी अनुभव किया ही होगा। आपने सीनीयर्स के साथ। जिस तरह की रेगिंग उनकी ली गई थी कभी, वही लोग वैसी ही रेगिंग आपके साथ भी लिया करते है क्यूँ ? माना कि सभी लोग एक से नहीं होते। कुछ अच्छे लोग भी होते हैं। मगर बात यहाँ उनकी हो रही है, जो अहम या जलन या यूँ कहना ज्यादा सही होगा कि बदले की भावना के चलते ऐसा किया करते हैं। बदले की भावना कुछ क्षेत्रों में ही देखी जा सकती है। ज्यादातर इस सबके पीछे का मुख्य कारण होता है जलन। कोई और हम से अच्छा कैसे हो सकता है। यह भावना मुख्य रूप ले लेती है। जिसके कारण साथी भी प्रतिद्वंदी जैसा नज़र आने लगता है। ऐसा केवल एक यह ही उदहारण नहीं है। ज़िंदगी के लगभग हर पडाव पर आपको एक ऐसा ही अनुभव देखने को मिल जायेगा। अब सास बहू का रिश्ता ही ले लीजिये वहाँ भी यही बात दोहराई जाती है। आमतौर पर सभी सासें अपनी-अपनी बहुओं के साथ वैसा ही व्यवहार करती है। जैसा कभी उनकी सास ने उनके साथ किया था। हाँ आज का ज़माना बदल गया है और आज की सासें भी Smile कम से कम यह मैं, तो पूरे भरोसे के साथ कह सकती हूँ। क्यूंकि मेरी सासु माँ जैसी सास बहुत किस्मत वालों को ही मिलती है । Smile

खैर और एक ऐसा क्षेत्र है, जो परिवार की तरह है। मगर यहाँ भी कुछ लोग बहुत ही भले और बड़े दिल के सदा सरल स्वभाव के लोग हैं और कुछ अहम में चूर, जो पता नहीं क्या समझते हैं अपने आपको, पता नहीं उनको ऐसा क्यूँ लगता है, कि यदि उन्होने किसी कि मदद कर दी तो व छोटे हो जायेंगे, या फिर उनका महत्व कम हो जाएगा। उनमें से भी कुछ तो वाक़ई सफलता के मुक़ाम पर हैं, मगर कुछ ऐसे भी हैं जो खुद तो कुछ नहीं है मगर अपने आपको किसी लार्ड गवर्नर से कम नहीं समझते। Smile आप सोच रहे होंगे आखिर ऐसा कौन सा क्षेत्र हो सकता है, जिसकी मैं बात कर रही हूँ। तो चलिये अब सस्पेंस ख़त्म करती हूँ Smile जी हाँ मैं बात कर रही हूँ अपने ही "ब्लॉग जगत" की यहाँ भी अच्छे से अच्छे और....बुरा तो नहीं कहूँगी। क्यूंकि यह मेरा भी परिवार है और मैं भी इसका एक हिस्सा हूँ। मगर साधारण ज़रूर कह सकती हूँ, कि यहाँ एक से एक बेहतरीन लेखकों से लेकर मेरे जैसे साधारण लेखक भी हैं जो वक्त पढ़ने पर साफ और खुले दिल से सहायता भी करते है और यदि संभव हुआ तो अपने अनुभव के आधार पर आपका मार्गदर्शन भी, हाँ कई बार यह ज़रूर होता है, कि आपको खुद आगे बढ़कर उनसे सुझाव मांगना पड़ता है।

मगर फिर उसके बाद वो आपकी मदद ज़रूर करते हैं। मगर यहाँ ऐसे लोगों की भी कोई कमी नहीं है जो मांगने पर भी, अहंकारी होने के कारण मदद नहीं करते क्यूँ ? जाने उनको ऐसा क्यूँ लगता है कि यदि वो अपना सुझाव किसी जरूरतमंद व्यक्ति अर्थात लेखक को टिप्पणी के रूप में ही सही, मगर वह यदि बिन मांगे अपना सुझाव या टिप्पणी दे देंगे तो वो छोटे हो जायेंगे या उनकी बात का महत्व कम हो जायेगा। क्यूँ भई...अगर आप किसी की कोई रचना पढ़कर उस पर दो शब्द कह देंगे, जो उस रचना से संबंध रखते हों, तो आपका क्या चला जायेगा, मगर नहीं पता नहीं क्या लगता है उनको, कि यदि दो शब्द लिख दिये तो उनका महत्व कम हो जायेगा। कहने का मतलब यह कि माना आप बहुत ही बढ़िया लेखक हो, एवं आपका लेखन बहुत ही प्रभावशाली है। सफलता आपके कदम चूमती है। मगर ऐसा भी क्या भाव खाना....कि अपने आगे किसी नये लेखक को कुछ भी न समझो, यह तो सरासर गलत बात हैं। यह केवल मेरा ही अनुभव नहीं है। मेरे ऐसे और कई मित्र हैं, यहाँ जिनका अनुभव भी यही कहता है और उसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं यह कह रही हूँ, कि यदि किसी उभरते हुए लेखक को आप अपने सुझावों के माध्यम से उसकी लेखन प्रतिभा को बढ़ावा देंगे तो आपका ही मान बढ़ेगा, घटेगा नहीं, इसलिए मेरा उन सभी लेखकों से अनुरोध है, कि कृपया जरूरत मंद और नये लोगों को अपने महत्वपूर्ण विचार और सुझावों देकर उनका होसला बढ़ाइए और उन्हें भी एक मौका दीजिये आगे आने का और अपनी प्रतिभा दिखाने का ...Smile जय हिन्द... 

Friday 9 December 2011

The Dirty Picture...


इस फिल्म को लेकर लोगों ने बहुत कुछ कहा बहुतों ने बहुत कुछ लिखा भी, मगर क्या ज़रूरी हैं कि हम हर उस चीज़ को केवल उसी नज़रिये से देखें जिसका केंद्र बिन्दु बनाकर हमको जो दिखाया जा रहा है। कभी-कभी हम उस विषय के विभिन्न पहलुओं पर भी नज़र डालकर देखें, तो पता चलता है, कि केवल मूल विषय ही नहीं और भी बहुत सी ऐसी बातें है, जिस पर ग़ौर किया जाना चाहिए या फिर गौर किया जा सकता है। इस फ़िल्म को देखने के बाद मेरी भी कुछ यही राय है, कि भले ही इस फ़िल्म के प्रोमोस कितने भी अश्लील रहे हों और फ़िल्म के अंतर्गत कितना भी अंग प्रदर्शन क्यूँ न किया गया हो। मगर यदि आप यह फ़िल्म उसकी थीम को ध्यान में रखकर देखेंगे, तो शायद तब आप को यह फ़िल्म उतनी अश्लील नज़र नहीं आयेगी, जितना की उस फ़िल्म के प्रोमोस देखने के बाद लगता है और जहाँ तक रही फ़िल्म के नाम की बात तो भई जब फ़िल्म का नाम ही है The  Dirty Picture तो वो फ़िल्म थोड़ी बहुत तो dirty होगी हीSmile
लेकिन यदि मैं बात करूँ अपने नज़रिये कि, तो मुझे इस फ़िल्म के संवाद और अदाकारी ने बहुत प्रभावित किया। भले ही इस फ़िल्म में ज़्यादातर संवाद दो अर्थी क्यूँ न रहे हो। मगर जो अच्छे है, साफ सुथरे हैं, उनमें जीवन का सच झलकता है। जैसे फ़िल्म में कुछ एक संवाद हैं।

"जब ऊपर वाले ने ज़िंदगी एक दी है, तो बार क्या सोचना" 
या फिर 
"सब ने सब कुछ देखा, मगर मेरी लगन और मेरी महनत को किसी ने नहीं देखा, सबने कुछ और ही देखा। 

यह दोनों ही संवाद मुझे बहुत अच्छे लगे, क्यूंकि कहीं न कहीं यह फ़िल्म को सार्थक रूप देते हैं। "विद्या बालन" एक कलाकार हैं और इस फ़िल्म में उन्होने पात्र को आपने आप में पूरी तरह उतारने की एक बहतरीन कोशिश की है। यह किसी ने नहीं देखा, सबने बस कुछ और ही देखा Smile  क्यूंकि फ़ोकस केवल उस कुछ और पर ही किया गया है। इसमें गलती जनता की भी नहीं है, क्यूँकि यह तो मारकेटिंग का फंडा है। जो हर प्रकार के लोगों को अपनी और खींच सके उस चीज़ को केंद्र बनाओ,  शायद इसलिए इस फ़िल्म के प्रोमोस ऐसे बनाय गए थे। इस फ़िल्म में एक और संवाद है। जब "इमरान हाशमी" विद्या बालन उर्फ "सिल्क" से यह कहता है,कि  

"आज तक तुमको कितने लोगों ने टच किया है"
और जवाब में वो कहती है,
 टच तो आज तक बहुतों ने किया है मगर छुआ किसी ने नहीं."..

क्या आप को नहीं लगता इस बात के पीछे एक मजबूर लड़की जो शौहरत कमाने के चक्कर में इस माया नगरी के माया जाल में फंसकर, कहीं गुम हो गई है। जिसे तलाश है एक सच्चे प्यार की, उसकी उन भावनाओं की  सवेदना को इस एक संवाद ने कितनी गहराई और खूबसूरती के साथ उकेरा है। इन सब संवादों को सुनने के बाद जाने क्यूँ मुझे फ़िल्म कुछ-कुछ होता है का भी एक संवाद याद आया की, 

"हम एक बार जीते हैं,
एक बार मरते है,
प्यार भी एक ही बार होता है, तो फिर 
शादी भी एक ही बार होनी चाहिए"
  
कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है, कि यह भले ही हमारी असल ज़िंदगी फिल्मों जैसी ना होती हो, मगर तब भी यह फिल्में हमे बहुत कुछ सीखा जाती है। बस ज़रूर है,फ़िल्म के हर एक पहलू पर ग़ौर करने की न केवल फ़िल्म के प्रचार हेतु बनाए गए केंद्र बिन्दु को ही ध्यान में रखकर फ़िल्म देखने की, मेरा माना तो यही है और मुझे फिल्में बहुत प्रेरणा देती है। यह ज़रूर नहीं कि सभी के साथ ऐसा होता हो, मगर मेरे साथ तो ऐसा ही होता है और इस प्रेरणा का नये या पूराने जमाने से कोई संबंध नहीं है। प्रेरणा पूरानी फिल्मों से भी मिलती है और नई फिल्मों से भी बस अपना-अपना नज़रिया है... वैसे फ़िल्म एक बार देखने लायक तो है मेरे हिसाब से बाकी आपकी मर्जी हैं। आपको क्या लगता है Smile
यही ब्लॉग आप यहाँ भी देख सकते हैSmileSmileSmile http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/ek-nazar-idhar-bhi/entry/the-dirty-picture  

Tuesday 6 December 2011

हमारे जीवन के हर पहलू पर पड़ता "सामाजिक प्रभाव"


यूं तो हर इंसान के जीवन पर सामाजिक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है, क्यूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के बिना नहीं जी सकता है। इसलिए शायद उसके जीवन के हर पहलू पर समाज का प्रभाव दिखना लाज़मी है। समाज क्या है, यह तो आप सभी लोग जानते ही हैं। फिर भी हमारे समाज के ढांचे को मैं इस चित्र के द्वारा दिखा रही हूँ। वैसे देखा जाये तो कुछ हद तक ठीक भी है। समाज के कायदे कानून बने ही इसलिए हैं, कि कोई भी मनुष्य उसका पालन करते हुए एक सभ्य नागरिक की ज़िंदगी गुज़ार सके, नाते रिश्तों में यह सामाजिक बंधन बहुत कारगर सिद्ध होते हैं। लोगों के मन में कहीं ना कहीं समाज का डर होता है। जिसके कारण लोग कुछ गलत काम करने से बच जाते है। क्यूँकि कुछ भी गलत काम करने से पहले एक बार तो, हर इंसान के मन में आता ही है, कि लोग क्या कहेंगे। लेकिन मुझे नहीं लगता, कि किसी भी इंसान के जीवन में हर बात को अंजाम देने से पहले यह सोचना ही चाहिए,कि लोग क्या कहेंगे।

अरे भाई "कुछ तो लोग कहेंगे" ही लोगों का काम है कहना ... मगर  मेरा ऐसा मानना है कि लोगों के डर से हर वो काम ना करना जिसको करने की आपकी बहुत इच्छा है। मगर सिर्फ लोगों में वो काम प्रायः नहीं किया जा रहा है इसलिए आप कैसे कर सकते हो, कि यह सोच गलत है।

आज कल हर जगह प्रतिस्पर्धा का ज़माना है। जहां देखो वहाँ एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ लगी हुई है। जैसे तब होता है ना, जब आप बहुत सारे केंकड़ों को एक बाल्टी में भर दो और फिर देखो कितने बाहर आ पाते है, तो शायद एक भी बाहर नहीं आ पायेगा। क्यूँकि हर कोई किसी एक को आगे बढ़ने ही नहीं देता है। ठीक वैसा ही हाल हमारे सामाज का हो गया है। आजकल यदि किसी ने लीग से हटकर कुछ करने की कोशिश की तो लोग जाने क्यूँ तुरंत तरह-तरह की बातें बनाना शुरू कर देते हैं। जैसे किसी बच्चे को किसी बड़े नामचीनी स्कूल में दाखिला नहीं मिला, तो लोग बाते बनाते हैं, कोई अपनी परीक्षा में सफल नहीं हो सका, तो भी लोग बाते बनाते हैं। यदि किसी को बहुत ही बढ़िया कालेज में आसानी से दाखिला मिल जाये तब भी लोग कहने से नहीं चूकते, कहते हैं ज़रूर पैसे खिलाये होंगे माता-पिता ने दाखिले के लिए   किसी को किसी बड़ी कंपनी में नौकरी मिलते-मिलते रह जाये, तो भी लोग बाते बनाते है। यहाँ तक की जब कोई अपने पसंदीदा कपड़े एक बार के बाद दुबारा किसी दूसरी शादी में पहन ले, तब भी लोग कहें ना कहें हमारे मन में यह बात आ ही जाती है, कि हाय!!! लोग क्या कहेंगे। इसके पास एक ही जोडी कपड़े हैं, जो हर शादी में बस यही साड़ी पहन लेती है वगैरा-वगैरा ....

कुल मिला कर मेरे कहने का तात्पर्य यह है, कि सामाजिक गतिविधियों का, समाज के बनाये नियम कानूनों का, प्रभाव हमारे जीवन पर पढ़ना तो ज़रूर चाहिए। मगर इतना भी नहीं, कि हम हमारी ज़िंदगी को अपने तरीके से जीने के बजाए समाज के नज़रिये से जीना शुरू कर दें। क्यूंकि यदि ऐसा हुआ तो वह जीवन जीना नहीं, जीवन गुज़ारना कहलायेगा। जैसे किसी कैदी को जेल में अपनी सजा का वक्त गुज़ारना होता है। क्यूंकि लोगों का क्या है। जितने मुंह उतनी बातें, लोगों को हमेशा अपने घर से ज्यादा पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है, उसकी चिंता ज्यादा रहा करती हैं। उनके घर कब कौन आता है, कौन जाता है, कितने बजे क्या होता है, सबको सब कुछ पता होता है।  फिर भले ही एक बार को आपको ना पता हो, कि आपके घर का कौन सा सदस्य कहाँ जाता और क्या कर रहा है। मगर पड़ोसियों को सब पता होता है। खास कर आपके घर में यदि 15-16 साल की लड़की हैं, तो बस आपको उसके बड़े होने की खबर हो ना हो, पड़ोसियों को आपसे कहीं ज्यादा चिंता रहती है कि आपकी बेटी अब बड़ी हो गई है।

इस सब चक्करों में हमारी ज़िंदगी की बहुत सी छोटी-छोटी खुशियाँ कहीं गुम सी हो जाती हैं। जैसे कई बार लोगों के कहने में आकर हम अपने ही बच्चों पर नज़र रखने लगते हैं। उन पर से हमारा विश्वास उठने से लगता है, जो सही नहीं है। मगर समाज के इन लोगों के डर से कई बार हम वो करने से चूक भी जाते हैं, जिसका असर  हमारी आने वाली ज़िंदगी पर बहुत गहरा प्रभाव डाल सकता है। बच्चों पर अभिभावक ज़ोर डालते हैं, यदि तुम परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास नहीं हुये, तो "लोग क्या कहंगे", इनका बच्चा इतना गधा है। अभिभावकों पर समाज ज़ोर डालता रहता है, कि प्रतियोगिता का ज़माना है, साथ नहीं चलोगे तो पीछे छूट जाओगे और सारी ज़िंदगी लोगों की बातें सुननी पड़ेंगी। यहाँ तक की, एक साड़ी खरीदने से लेकर, नई कार करीदनी हो, या नया मकान, या फिर किसी को उपहार में ही कोई भेंट ही क्यूँ ना देनी हो, या फिर आपने किसी को अपने घर खाने पर बुलाया हो और उसके लिए कोई पकवान बनाने या खिलाने की बात ही क्यूँ ना हो, आपके मन में सदैव सबसे पहले यही बात आती है, कि फलाना क्या कहेगा, कि यह क्या खिला दिया, हमें तो यह पसंद नहीं, या फिर ढिकाना क्या सोचेगा, लोग क्या कहंगे। यह सब सोच कर ही आप लोगों को ध्यान में रखते हुए सभी कार्य करते हो, बल्कि यह सब काम तो ऐसे  हैं, जिनमें लोगों की पसंद कम और आपकी पसंद ज्यादा मायने रखती है, कि आप खुद क्या चाहते हो और उसके हिसाब से आपकी क्षमता कितनी है।
 
कहने का मतलब यह, कि हर छोटी से छोटी बातें जो हमारे जीवन से जुड़ी है। जो कि बहुत ही साधारण सी बातें हैं, जिनसे शायद लोगों का कोई लेना देना नहीं है, फिर भी दिखावे के चक्कर में हम पहले लोगों के बारे में सोचते हैं, बाद में यदि गुंजाइश रही तो अपने बारे में ऐसा क्यूँ ???? दो प्यार करने वाले कई बार समाज के डर से एक नहीं हो पाते हालांकी अब वो ज़माना नहीं रहा। मगर आज भी एक बार तो उनके मन में भी आता ही है, कि कुछ तो लोग कहंगे। यह बात अलग है कुछ काम किए ही इसलिए जाते हैं कि कुछ तो लोग कहें  माना कि समाज का डर होना भी ज़रूर है। मगर इतना भी नहीं, कि कोई भी इंसान अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीना ही छोड़ दे, शायद इसलिए आज कल के बच्चे इतने बेबाक होते हैं। क्यूंकि उनको समाज की फिक्र नहीं होती, कि लोग क्या कहंगे, कौन क्या सोचेगा। बल्कि उनको सिर्फ अपनी ज़िंदगी से प्यार होता है, कि हमको अपने जीवन में क्या करना है। लोगों को जो सोचना है, सोचने दो। आखिर कुछ भी हो हम चाह कर भी कभी किसी की सोच पर कोई पाबंदी तो लगा नहीं सकते...और वैसे भी लोगों का क्या है, थोड़े दिन कहंगे फिर चुप जो जाएँगे...मगर उनके लिए अपनी ज़िंदगी से जुड़े फैसलों का समझौता करना आजकल की पीढ़ी को कतई गवारा नहीं  और शायद यही सही भी है ...आपको क्या लगता है। 

Saturday 3 December 2011

क्या एक स्त्री के लिए कभी कोई संडे होता है ?




न ना!!! चित्र देखकर कहीं आप यह तो नहीं समझ रहे हैं ना, कि आज मैं फिर किसी सीरियल की बात कर रही हूँ। यदि ऐसा कुछ है, तो मैं पहले ही बताए देती हूँ, घबराइए नहीं आज मैं किसी सीरियल की बात नहीं करूंगी। आज मैं बात करूंगी हर घर की उस नींव की, जो बेहद मजबूत होते भी बहुत कमजोर मानी जाती है।

क्यूंकि.....उसकी ज़िंदगी में ज्यादा तर सुख बाइ चान्स ही लिखा होता है। किसी भी घर की महिला के लिए, खास कर एक माँ के लिए कभी कोई, संडे नहीं होता। कभी कोई ऐसा दिन नहीं होता, जब वो यह कह सके कि आज मेरी छुट्टी है। आज मैं कोई काम नहीं करूंगी, आज का दिन केवल मेरा अपना दिन है। केवल मेरे लिए है, आज एक दिन मैं केवल वो करूंगी, जो मेरा दिल कहेगा। अब इसके पीछे क्या कारण हो सकता है। मुझे ऐसा लगता है, कि इसके पीछे केवल दो कारण हो सकते हैं। पहला यह कि घर में रहने वाली महिला, चाहे वो कामकाजी महिला हो, या कोई ग्रहणी, उसे सदैव अपने परिवार की फिक्र रहा करती है। इसलिए जब भी कभी छुट्टी का दिन आता है, तो उसे लगता है, कि जीवन की भाग दौड़ के कारण रोज़ तो ऐसा समय मिल नहीं पाता, कि वो अपने परिवार वालों को खुश कर सके। इसलिए संडे के दिन भी एक माँ, एक पत्नी, रोज़ की तरह सुबह जल्दी उठकर अपने परिवार के सदस्यों के लिए उनकी पसंद का नाश्ता बनाती है। नाश्ता ख़त्म होते-होते तक, दोपहर के भोजन का समय हो जाता है। क्यूंकि घर के अन्य सदस्य संडे माना रहे होते हैं इसलिए सुबह देर से उठते हैं, जिसके कारण सारे काम आराम-आराम से किए जाते है और नतीजा सुबह से जल्दी उठकर भी काम में लगी हुई उस घर की गृह लक्ष्मी, की सारी मेहनत पर पानी फिरता रहता है।मगर वो तब भी कुछ नहीं कहती।

हमेशा उसकी बस यही कोशिश रहती है, कि आज छुट्टी का दिन है, तो घर का माहौल भी अच्छा रहे सब खुश-खुश रहें। किसी भी बात से किसी का भी मूड खराब न हो, लेकिन इस सबके बावजूद भी उस स्त्री के बारे में कोई कुछ नहीं सोचता जो संडे के दिन भी अपने सुख की, अपने आराम की परवाह किए बिना दूसरों को खुश करने के प्रयास में लगी रहती है। दूसरा एक कारण यह भी हो सकता है, कि लोग क्या कहेंगे। यह कारण सयुंक्त परिवार की महिलाओं को ज्यादा महसूस होता है। क्यूंकि संयुक्त परिवार में रहने के कारण उस स्त्री से घर के बाकी सदस्यों की उम्मीदें स्वतः ही जुड़ जाती है। जैसे एक सास की उम्मीद होती है खास कर छुट्टी वाले दिन, कि घर की बहूयें रोज़ की तरह सुबह जल्दी उठाकर घर के लोगों के लिए उनकी पसंद के अनुसार, नाश्ता और खाना बनायें सभी लोग एक साथ बैठकर उस खाने का आनंद उठाएँ क्यूंकि रोज़ की भाग दौड़ भरी ज़िंदगी में ऐसा मौका नहीं मिल पाता, उस पर यदि घर की बहू कामकाजी हो तो, उनसे यह उम्मीदें कुछ ज्यादा ही होती हैं।

शायद इसलिए घर की किसी भी महिला के लिए कभी कोई संडे नहीं होता। हाँ आज कल जो यह एकल परिवार का चलन है, उसमें ज़रूर वीकेंड बाहर खाना खाकर या फिर पीज़ा या बर्गर जैसी चीज़ें खाकर मना लिया जाता है और घर की महिला को कम से कम एक दिन अपने लिए मिल जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि इस बात से सयुंक परिवार का महत्व कम हो जाता है। उसका आपना एक अलग ही महत्व है और अपना एक अलग ही मज़ा भी, क्यूँकि वहाँ कभी कोई कम किसी एक के सर नहीं आता। सभी काम आपस में बटे हुए होते हैं। तो काम कम होने के साथ-साथ पूरे भी हो जाते हैं और पता भी नहीं चलता जो कि एकल परिवार में कभी संभव ही नहीं... खास कर बाहर आए हुए हम जैसे प्रवासियों के लिए तो ज़रा भी संभव नहीं, क्यूंकि यहाँ तो किसी भी प्रकार के नौकर-चाकर या बाइयों जैसे किसी भी प्राणी की दूर-दूर तक कोई उम्मीद ही नहीं, यहाँ तो जो कुछ करना है खुद ही करना है।

फिर चाहे वो बर्तन साफ करना हो या फिर घर की साफ सफाई, बस यह कहा जा सकता है कि सहूलियत के लिए नौकर की जगह मशिने हैं। मगर मशीनों में न तो इंसानियत होती है, और न ही ऐसा होता है कि बिना आपके हाथ लगाये कोई काम हो जाता हो, मशीन से भी काम करवाने के लिए आपको हाथ तो लगाना ही पड़ेगा। उसके इस्तेमाल के लिए उसके साथ आपको लगना ही पड़ेगा। जबकि यदि आपके घर में बाई हो तो कुछ काम ऐसे भी होते हैं, जो वो आपके लिए इंसानियत की खातिर भी कर दिया करती है। बिना कोई पैसे मांगे, खैर शायद यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है, टूटते संयुक्त परिवाओं का, पता नहीं मैं सशक्त रूप से तो नहीं कह सकती, क्यूंकि इस मामले में सभी का अपना-अपना नज़रिया है। हो सकता है, कुछ लोग मेरी बात से सहमत हो, कुछ ना भी हों। इस बात से जुड़ा एक किस्सा भी हैं।

मेरी एक दोस्त की भाभी हैं, वो शादी होकर मेरी उस दोस्त के सयुक्त परिवार में आयीं, मुझ से उनकी मुलाकात मेरी शादी के बाद हुई। जब वो मुझसे मिली, तब भी हम लोग अपने परिवार से दूर दिल्ली में रहा करते थे। क्यूंकि मेरे पतिदेव की नौकरी वहीं थी खैर जब वो मुझसे मिली और बातों ही बातों में जब उन्होने मुझसे मेरी दिनचर्या पूछी और सब कुछ सुनकर उन्होने ऐसा ज़हीर किया, कि वो अपनी ज़िंदगी में मेरी तुलना में बहुत दुखी है और मैं बहुत खुश हूँ, उदहारण के लिए उन्होने मुझसे कहा कितनी अच्छी ज़िंदगी है न तुम्हारी, कि यदि भगवान न करे तुम्हारी कभी तबीयत खराब है, या काम करने का मन नहीं है, तो बाहर खाना खाने चले गए या फिर घर में ही कुछ भी सदा सा बना लिया कोई कुछ कहने वाला नहीं है। कोई टोकने वाला नहीं, ना ही, कोई कुछ पूछने वाला है। जो मर्ज़ी हो करो, कम से कम कुछ तो समय तुम्हारा अपना है, जिसमें तुम बिना किसी और के बारे में सोचे कोई निर्णय ले सकती हो। फिर चाहे वो खाने -पीने की छोटी सी बात का ही निर्णय क्यूँ न हो।

मगर संयुक्त परिवार में ऐसा नहीं होता क्यूँकि हर परिवार के कुछ नियम, कायदे, कानून होते हैं। जिनका पालन करना घर के सभी सदस्यों के लिए आनिवार्य होता है और कुछ बड़ों का लिहाज भी, जिसके चलते उस घर की स्त्रियॉं को अपनी इच्छाओं को कई बार उनकी खातिर मारना ही पड़ता है। मुझे भी यह कारण बहुत हद तक ठीक लगा। खैर दोनों ही बातों के अपने-अपने फायदे और नुकसान है। जिनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। जो जिस माहौल में रहता है, उसको वैसे ही माहौल कि आदत पड़ जाती है। शुरू-शुरू में थोड़ी दिक्कत सभी को होती है। एक नए परिवार में खुद को ढालने के लिए...लेकिन इस सब के पीछे यदि कुछ नज़र आया तो, वो केवल यह, कि पिसती केवल औरत ही है क्यूँ ? क्यूँ सभी को ज्यादातर केवल उसी से उम्मीदें होती हैं, कि वो ऐसा करे, वैसा करे ? क्या औरतों की अपनी कोई इच्छा नहीं होती ? क्या उसका अपना मन नहीं होता, कि वो ऐसी छोटी-छोटो बातों में भी अपना कोई निर्णय ले सके ? या फिर उसे छुट्टी का दिन मानने का कोई अधिकार ही नहीं ? यही सब सोचकर लगता है, कि शायद खुद विधाता ने ही औरत के जीवन में और औरत के जीवन के लिए कोई संडे बनाया ही नहीं... आपको क्या लगता है ?