Monday 19 August 2013

सोनू निगम लाइव कॉन्सर्ट


कहते है भगवान जो करता है उसके पीछे कोई न कोई अच्छाई अवश्य छिपी होती है। इसलिए शायद मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ इस बार कुछ निजी कारणों के चलते मैं इस साल की छुट्टियों में इंडिया नहीं आ पायी तो देखिये मुझे यह सोनू निगम लाइव कॉन्सर्ट देखने का सुनहरा अवसर मिल गया। इससे और कुछ साबित हो न हो मगर यह तो साबित हो ही जाता है जी, कि कुछ नहीं से कुछ तो अच्छा होता ही है बोले तो,

"सम थिंग इज़ बैटर देन नथिंग"

मैंने इसके पहले आज तक कोई भी लाइव कॉन्सर्ट नहीं देखा था वैसे जगजीत सिंह जी का लाइव कॉन्सर्ट देखना का बड़ा मन था मेरा, लेकिन वह मेरी किस्मत में न था और ना ही अब कभी हो सकता है। मगर इस तरह का पहला अनुभव होने के नाते में इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि मेरे लिए यह अपने आप में एक बहुत ही अदभुत अनुभव रहा। वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले तो मुझे ऐसा लगा मानो मैं कोई संगीत के प्रोग्राम में नहीं बल्कि किसी की शादी के रिसेप्शन में आई हूँ जहां मुझे छोड़ कर बाकी सभी एक से एक बेहतरीन तडकीले भड़कीले लिबासों में आए हुए थे जिसे देखो वो खुद को विश्वसुंदरी से कम नहीं समझ रहा था, उम्र का किसी पर कोई असर नहीं था। चाहे वो साठ 60 -65 साल कि दादी अम्मा हो या 16-17 साल की लड़कियां, सभी को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सभी अपने-अपने मन में यह सोच कर आयी थी कि सोनू निगम बस उन्हें ही देखेगा :)



यही एक बात थी जो यह साबित करती रही थी कि आज भी सोनू निगम को महिलाएं ज्यादा पसंद करती है। आज भी महिलाओं में सोनू निगम का क्रेज़ ठीक वैसा ही है जैसे आज से दस बारह साल पहले हुआ करता था और हो भी क्यूँ न उसकी आवाज़ में ही वो जादू है जो एक बार चढ़ना शुरू हो जाये तो बस चढ़ता ही चला जाता है और बस दिल गुनगुनाने लगता है तेरा जादू चल गया... प्रोग्राम की शुरुआत की गायिका जोनिता गांधी ने जिसने फिल्म इश्क़जादे में वह गीत गया था ज़रा-ज़रा काँटों से लगने लगा दिल मेरा मैं परेशान...लेकिन सोनू की आवाज़ की बात ही कुछ और है, सच उसके गीत और उसकी आवाज़ सीधे दिल तक उतरती चली जाती है। खासकर जब वो गाता है "सँदेसे आते हैं, हमे तड़पाते हैं, वो चिट्ठी आती है, जो पूछे जाती है के घर कब आओ गे"... या फिर जब वो गाता है "यह दिल दीवाना ,दीवान हाँ है यह दिल...और न जाने ऐसे कितने ही अनमोल नगमे जिन्हें जितनी खूबसूरती से लिखा गया उन्हें उतनी ही खूबसूरती से सोनू ने अपनी मखमली आवाज़ देकर उनकी खूबसूरती में चार चाँद लगा दिये।

  

जब पब्लिक डिमांड का वक्त आया तब मेरा मन कर रहा था कि मैं उस से कुछ रोमांटिक गीत गाने को कहूँ जैसे वीर फिल्म के गाने, या फिर मेरा सोनू के गाये हुए गानो में से सबसे ज्यादा पसंदीदा गीत "सौ दर्द है सौ राहते सब मिला हम नशी एक तू ही नहीं.....सच मज़ा अगया यह प्रोग्राम देखकर,सोनू निगम जैसी शख़सियत को यूं सामने देखकर, कितना खूबसूरत है वो उतना ही फिट भी यदि वो अपने बेटे से न मिलवाता या यूं कहें कि ना मिलवाये तो उसे देखकर लगता ही नहीं कि उसका 4 साल का एक बेटा भी है। सच वो स्टेज की रौनक और चकाचौंध रोशनी, वो जनता की तालियों और सीटियों की गड़गड़ाहट वो सोनू के लिए लोगों का पागलपन उफ़्फ़ जितनी तारीफ़ की जाये वो कम है।


वैसे तो सोनू निगम की आवाज़ में जादू है ही मगर मुझे उसके साथ-साथ आकर्षित किया वहाँ के माहौल ने लोगों के शोरगुल ने मौज मस्ती ने पागलपन ने और इस सब के बावजूद भी जो सबसे अच्छी बात लगी वो यह कि इतना बड़ा सेलिब्रिटी होने के बावजूद भी उसने जनता के सामने कोई नखरे नहीं किए तीन घंटे के समय में वो ज़रा देर के लिए भी नहीं रुका, रुका भी यदि तो ज्यादा-से ज्यादा एक मिनट के लिए रुकता था हर दो तीन गानो के बाद पानी पीने के लिए जो उसने वहीं स्टेज पर ही रख रखा था। वहीं जनता के सामने पसीना पौंछना, पानी पीना वो भी बिना किसी नाज नखरे के या ब्रेक के बहाने मुझे उसकी यह बात अच्छी लगी।


अब सभी सेलिब्रिटीज़ ऐसा ही करते है या सिर्फ उसने किया यह मैं नहीं का सकती क्यूंकि मैंने पहले ही कहा कि मैंने ऐसा कोई प्रोग्राम नहीं देखा था। खैर कुल मिलकर यह अनुभव मेरी ज़िंदगी की एक सुनहरी शाम का एक यादगार अनुभव रहा :) मैंने सीधा मज़ा लिया आप तस्वीरों से लीजिये और मेरी पसंद का एक गीत सुनिए जो इस कॉन्सर्ट में तो मैं न सुन सकी मगर सोनू के गाये हुए गानो में से यह मेरा बेहद पसंदीदा गीत है। उम्मीद है आपको भी पसंद आएगा 

                                 

Tuesday 13 August 2013

वन्दे मातरम...


यूं तो फिर एक बार मेरा सबसे पसंदीदा त्यौहार आने को है 15 अगस्त। यानि आज़ादी का दिन, भले ही मैं इस स्वर्णिम अवसर पर इस बार अपने वतन, अपने देश से बाहर हूँ। मगर अपनी मिट्टी की खुशबू आज भी मेरे ज़हन में रची बसी है और हमेशा बसी रहेगी। बचपन में भी इस दिन का इंतज़ार मुझे हमेशा बाकी के त्यौहारों की तरह रहा करता था। मन जैसे जोश और खरोश से भरा भरा रहता था। उसके दो कारण थे, एक तो उस दिन स्कूल में विशेष कार्यक्रम हुआ करते थे, जिसमें से किसी एक में मेरा होना तय रहा करता था। फिर चाहे वो सामूहिक गान हो या नृत्य और दूसरा आस पास बजते देश भक्ति के गीत उन दिनों मन में एक नया जोश भर दिया करते थे। तब सच में ऐसा महसूस होता था कि अभी अगर देश के लिए कुछ करने का मौका मिल जाये तो शायद हम भी हमारे वीरों की तरह ज़रूर कुछ कर के दिखा देंगे। 

मेरे लिए हमारा राष्ट्रीय गीत हमेशा से किसी आरती से कम नहीं रहा है। एक बार को मैं भगवान की आरती में भले ही खुद को अर्थात अपने मन को पूर्ण मान सम्मान के साथ न जोड़ पाऊँ, मगर अपने राष्ट्रीय गीत के प्रति मेरा मन स्वतः ही जुड़ जाता है और मेरी कोशिश आज भी यही रहती है कि देश के प्रति जो भावनाएं मेरे अंदर है वह मेरे बेटे में भी हों। मगर भावना किसी सब्जी या फूल आदि का कोई बीज नहीं जो आप जबरन किसी के मन में बो दो, वह तो उस जंगली पौधे के समान है जो स्वतः ही अपनी जड़ें फैलता है। बस ज़रा माहौल की आबो हवा की जरूरत होती है उसे, इसलिए शायद में अपने बेटे के मन में वह जज़्बात जगाने में अब भी नाकामयाब हूँ। लेकिन इस में उसकी कोई गलती नहीं है। क्यूंकि उसकी तो पढ़ाई लिखाई शुरू ही यहाँ से हुई है। उसने तो कभी वह माहौल ना देखा, ना सुना, तो उसमें कहाँ से वो बातें आएंगी जो हम महसूस किया करते हैं। मगर इतना ज़रूर है कि उसने पिछले साल जो कागज़ का तिरंगा लाया था इंडिया से, वो आज भी अपने कमरे में पूरे मान सम्मान के साथ सजा कर रखा हुआ है। मेरे लिए तो इतना भी बहुत है। :)

लेकिन वर्तमान हालातों को देखते हुए तो अब ऐसा लगता है कि 15 अगस्त मात्र एक तारीख बनकर रह गया है। आज हमारे देश को आज़ाद हुए 66 साल हो जाएँगे पर मुझे नहीं लगता कि आज़ादी का सही मतलब अब भी हम समझ पाये हैं? जिस दिन से देश आज़ाद हुआ है तब से बिखर गए हम और तब से बिखरते ही चले गए हम, देश को आज़ाद कराने के लिए अनेकता में एकता की मिसाल कायम करने वाला भारत आज स्वयं अंदर से खोखला हो चला है। हमे हमेशा किसी न किसी ने लूटा, कभी मुग़लों ने, तो कभी अफगानियों ने, तो कभी इन अंग्रेजों ने और इसका एकमात्र कारण रहा आपसी मतभेद। जिसके चलते सभी ने हमारा फायदा उठाया। मगर फिर भी मेरा सलाम उन देश के वीरों और वीरांगनाओं को जिन्होंने इतना सब होने के बाद भी अपने साहस के बल पर अपने देश का सर किसी के सामने झुकने न दिया। आज उन्हीं वीर योद्धाओं और स्वतंत्रता सैनानियों की बदौलत हम एक आज़ाद देश में सांस ले पा रहे है। मेरी और से उन सभी महान वीर योद्धाओं और स्वतंत्रता सैनानियों को शत-शत नमन...     

लेकिन अब इस पावन अवसर पर सब कुछ महज़ एक औपचारिकता बनकर रह गए हैं। स्कूल और कॉलेज में तो शायद अब भी थोड़ा बहुत लगता होगा कि कोई विशेष दिन या विशेष त्यौहार है। मगर आम जनता में अब वो बात नहीं दिखती और अगर कभी किसी मुद्दे पर जनता न्याय के लिए एक जुटता दिखाये भी तो सरकार उन बेगुनाह मासूम लोगों की खबरों में लाठी चार्ज करवाती है यह सब पढ़कर और देख सुनकर तो यही लगता है कि अब इस स्वतन्त्रता दिवस के मायने ही नहीं बचे क्यूंकि सच्चे देश भक्तों के साथ सीमा पर आए दिन क्या हो रहा है, यह तो आपको भी दिख ही रहा होगा जो किसी की भी नज़रों से छुपा नहीं है। जो वास्तव में हकदार है इस पावन अवसर को मनाने के वो मातम मना रहे है और जो झूठे और मक्कार लोग हैं वह देश को बेच-बेच कर न सिर्फ खा रहे है बल्कि उसका जश्न भी मना रहे है। 

लेकिन कहीं न कहीं जनता भी इस सब से अछूती नहीं है। अब देश में क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए जैसी बातों से बहुत कम लोगों को फर्क पड़ता है शायद इसलिए लोगों को कौन सी फिल्म कब रिलीज़ होने वाली है कौन से अभिनेता का जन्म दिन कब आता है। यह सब हर साल याद रहता हैं मगर स्वतन्त्रता संग्राम में शहीद हुए हजारों लाखों स्वतंत्रता सैनानियों का जन्मदिन या उनका शहीद दिवस कब आता है यह याद नहीं रहता। इसमें भी गलती लोगों की कम और मीडिया की ज्यादा है जिसका सबूत है अख़बार की सुर्खियां आप किसी भी अख़बार के ई-पेपर पर जाकर देख लीजिये आपको फिल्मों की चटपटी खबरों का भंडार ज्यादा मिलेगा और देश की खबरें कम क्यूंकि यदी वह ऐसा नहीं करेंगे तो उनका अख़बार बिकेगा कैसे। अब जब बात अखबारों की ही चली है तो आप भी शायद इस बात से सहमत हों कि फेस्बूक जैसी सोशल साइट भी अब अखबारों से कम नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे कुछ लोग टीवी के सामने बैठकर अपडेट छापते रहते हैं।    

अभी कल ही की बात ले लो कल खुदी राम बॉस जी की शहादत का दिन था। मगर कितने लोग हैं जिन्हें यह स्वर्णिम अवसर याद रहा। यहाँ मैं विशेष रूप से उन लोगों की बात कर रही हूँ जो, जब देखो सारा-सारा दिन या लगभग रोज़ ही कोई न कोई सुविचार छापते रहते हैं या भगवान की फोटो सांझा करने का ज्ञान देते रहते हैं कि इसे अभी सांझा करो कुछ अच्छा होगा या कोई अच्छी ख़बर मिलेगी इत्यादि। यूं तो फेस्बूक पर जाने क्या-क्या सांझा करते हैं लोग, मगर कल इस वीर के प्रति सहानुभूति सांझा करने वालों की संख्या बहुत कम दिखाई दी। मैं मानती हूँ कि इज्ज़त दिल में होनी चाहिए दिखावे में नहीं, मैं खुद इसी बात में विश्वास रखती हूँ। इसलिए मैंने खुद ऐसा कुछ सांझा नहीं किया। यूं भी मैं उपडेट बहुत कम ही करती हूँ।

खैर मैं भी क्या बात कर रही थी और कहाँ आ गयी। आज हमारे देश के जो हालात है उन्हें देखते हुए तो ऐसा लगता है उसके लिए कौन जिम्मेदार है यह कहना शायद नामुमकिन सी बात है। क्यूंकि इस सब का घड़ा केवल राजनीति पर फोड़ना भी पूरी तरह सही नहीं होगा। हाँ यह ज़रूर कहा जा सकता है कि मुख्य रूप से जिम्मेदार हमारे नेतागण ही हैं। मगर बाकी कई और भी ऐसी चीज़ें हैं जो हमारे मासूम बच्चों के कोमल मन पर देश के प्रति वो मान सम्मान, वो जोश खरोश वाली भावनाएं जगा पाने में असमर्थ है। कहते हैं बच्चे वही चीज़ जल्दी सीखते हैं जो वह देखते हैं। अगर यह बात सच है तो फिर आज की तारीख में या तो बच्चों को कोई ऐसा दिख नहीं रहा है। जिसको देखकर वो कुछ अच्छा सीखें अर्थात "उस जैसा" बनना है वाली बात सीख सकें और ऐसा तो हो नहीं सकता कि ऐसे लोग ही नहीं है। तो फिर क्या कारण हो सकता है कि आज के बच्चे अच्छी बातें कम और बुरी बातें ज्यादा जल्दी सीख रहे हैं। तो फिर तो एक ही बात बचती है वो है हमारा मीडिया और तकनीक जिसने हमारे लिए यदि ज्ञान के नए भंडार खोले तो वहीं दूसरी और भटक जाने के गलत रास्ते भी उसी ने खोले। 

इंटरनेट को ही ले लो जिसने जहां हमें छोटी से छोटी जानकारी आसानी से उपलब्ध कराई लेकिन ना सिर्फ सही बल्कि गलत जानकारी को भी सारे आम लोगों के सामने परोस दिया। रही सही कसर अखबारों ने पूरी कर दी जिसमें खबर के नाम पर बस जुर्म ही जुर्म दिखाई देते हैं या फिर विज्ञापन का भंडार, अब बची फिल्में तो उसमें से गिनी चुनी ही ऐसी होती है, जिन्हें आप पूरे परिवार के साथ मज़े से देख सकें। छोटे पर्दे पर सास बहू की नौक झौंक से फुर्सत नहीं है लोगों को, ले देके एक दो सीरियल देश भक्ति पर बन जाये तो उसमें भी खामियां निकालने में लगे रहते हैं लोग, अब भला ऐसे में बच्चों के सामने कौन सा ऐसा उदाहरण बचता है, जिसे देखने के बाद बच्चों के मन में देश प्रेम के प्रति किसी तरह के कोई बातें घर कर सके।

ऐसा नहीं है कि अच्छाई ख़त्म हो चुकी है और अब बस बुराई का ही राज है। अच्छाई आज भी ज़िंदा है मगर शायद इस मीडिया की मेहरबानी की वजह से अच्छाई कहीं छिपी रह जाती है और आम जनता के सामने टीआरपी को बढ़ाने के चक्कर में केवल बुराई को ही मिर्च मसाला लगा-लगा कर कुछ इस तरह से लोगों के सामने रखा जाता हैं कि सब को वही सच नज़र आने लगता है और नतीजा "अच्छाई" मीडिया की TRP के चक्कर में गेहूं के साथ घुन की तरह पिसकर रह जाती है। आप सब की क्या राय है।                     

Wednesday 7 August 2013

केवल एक सोच...


कल रात महारणा प्रताप धारावाहिक देखा। वैसे अपने बेटे को दिखाने के लिए मैं रोज़ ही यह कार्यक्रम देखती हूँ किन्तु आजकल उनकी शिक्षा से संबन्धित जानकारी दिखाई जा रही है। जो मुझे बहुत ही प्रभावशाली लग रही है। ऐसा नहीं है कि इस कार्यक्रम से पहले किसी और कार्यक्रम में ऐसा कुछ दिखाया नहीं गया है। मगर फिर भी इस धारावाहिक के पात्रों का चुनाव और उनका अभिनय अपने आप में बहुत ही अच्छा और प्रभावशाली है यह मेरी राय है, हो सकता है आपको यह बात आपके नज़रिये से सही न भी लगे, इस बात में मतभेद हो सकता है। इसके पहले जब महाभारत और रामायण जैसे सीरियल आए थे, तब भी मुझे ऐसा ही कुछ लगा था कि यदि इस प्रोग्राम में उन पात्रों को चयन नहीं किया जाता तो शायद वो बात नहीं आती जो इन पात्रों के शानदार अभिनय से आयी थी।

खैर मैं तो महाराणा प्रताप की बात कर रही थी, उनके गुरु के अभिनय ने मुझे बहुत प्रभावित किया और मन से एक आवाज़ आयी कि यदि आज के ज़माने में मुझे ऐसे गुरु और गुरुकुल मिल जाये, तो मैं बिना एक क्षण की भी देरी किए बिना अपने बेटे को वहाँ भेज दूँ। सच कितना सशक्त हुआ करता वह ज़माना, जहां से शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात बालक अपने आप को सही तरीके से पहचान कर अपने व्यक्तिव का सही मायनों में विकास कर पाता था और एक सच्चा और अच्छा नेक दिल इंसान बनकर निकलता था। फिर चाहे वो राजा का बेटा हो या रंक का सभी को एक समान शिक्षा मिला करती थी।

हाँ द्रोणाचार्य और एकलव्य का उदाहरण विरला ही है। मगर उस ज़माने में हर बात के लिए कुछ नियम और कायदे हुआ करते थे। जैसे क्षत्रिय वंश के गुरु अलग हुआ करते थे जो केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे जैसे द्रोणाचार्य जो मुख्यता राजघरानों के बालकों को ही शिक्षा दिया करते थे जिनके मना करने के पश्चात्  भी एकलव्य ने उनकी मूर्ति बनाकर विद्या हासिल की, हालांकी गुरु दक्षिणा के नाम पर जो उन्होंने किया वो गलत था, सरासर गलत। क्यूंकि सही मायने में एक गुरु की नज़रों में सभी विद्यार्थी एक समान होने चाहिए। वह भी बिना किसी भेदभाव के, मगर ऐसा हुआ नहीं था। किन्तु इस सब के बावजूद एक सच्चे और गुणी शिष्य की सच्ची श्रद्धा और निष्ठा ने अपने गुरु को उस पर गर्व करने का, उस पर अभिमान करने का अवसर प्रदान किया। यह बात अलग है कि सार्वजनिक तौर पर गुरु उसकी प्रशंसा नहीं कर सके। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है एकलव्य और कर्ण, कुंती पुत्र कर्ण जिसके गुरु परशुराम ने उसे यह कह कर शिक्षा प्रदान नहीं की थी कि उसने उनसे झूठ बोला कि वह एक ब्राह्मण पुत्र है जबकि वास्तविकता में वह एक क्षत्रिय था। जिसका पता शायद उस वक्त उसे स्वयं भी नहीं था। किन्तु फिर भी उसने उनसे शिक्षा प्राप्त कर एक योग्य योद्धा और एक उच्च सोच रखने वाला इंसान बनकर दिखाया।

यह इस बात का प्रमाण है कि किसी एक बालक या बालिका को एक योग्य गुरु के द्वारा शिक्षा मिल सके तो इस के अतिरिक्त भला किसी को और क्या चाहिए और उस ज़माने की यही एक बात मुझे बहुत पसंद है क्यूंकि तब हर एक को एक सी शिक्षा, एक से परिश्रम, के आधार पर अपनी-अपनी क्षमताओं के स्तर का पता चल जाया करता था, कि उन्हें अपने भावी जीवन में किस और ध्यान देकर कठिन परिश्रम करना है। उनका लक्ष्य क्या है। सच कितनी अच्छी हुआ करती थी हमारी सभ्यता और हमारी संस्कृति। मगर इन गोरों ने आकर सब खराब करके रख दिया और हम इस सो कॉल्ड आधुनिक कहे जाने वाले कंक्रीट के जंगल में विचरते हुए करने लग गए पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण जिसने हमसे हमारी ही धरोहर को छीन लिया।

काश आज भी हमारे भारत में ऐसे गुरुकुलों की परम्परा कायम होती तो शायद आज हमारे देश के हालात कुछ और ही होते। मगर अफसोस कि अब हमारे देश में शिक्षा के नाम पर, ज्ञान के नाम पर केवल रट्टू तोते बनाए जाते है जो कागजों पर ज्यादा-से ज्यादा अंक तो प्राप्त कर लेते हैं। मगर वास्तविकता में थोथे चने से ज्यादा और कुछ भी नहीं है। हमारे यहाँ शिक्षा का उदेश्य अब बच्चों का भविष्य बनाना नहीं, बल्कि केवल पैसा कैसे कमाया जाता है यह सिखाना रह गया है। व्यक्तित्व विकास जाये भाड़ में, उससे किसी को कोई वास्ता ही नहीं है। इस बात पर अधिकतर लोगों का मत यह है कि ज़माना ही प्रतियोगिता का है, यदि हम इसके साथ नहीं चले तो हमारा बच्चा पीछे रह जाएगा। क्या मुंह दिखाएगा वो समाज में, कैसे जीवन यापन करेगा वह अपना और अपने परिवार का  भविष्य में क्या सिखाएगा वह अपनी संतान को इत्यादि...कुछ हद तक यह सभी बातें सही भी हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। मगर क्या सिर्फ पैसा कमाना ही जीवन की एकमात्र उपलब्धि है ? माना कि पैसा बहुत बड़ी चीज़ है, पैसा बहुत कुछ है मगर सब कुछ नहीं यह बात किसी प्रवचन से कम नहीं मगर है तो सच ही...

लेकिन हम यह क्यूँ नहीं सोच पाते या हमारी शिक्षा प्रणाली यह क्यूँ नहीं सोच पाती कि पहले भी पैसा उतना ही महत्वपूर्ण था इंसान के जीवन में जितना आज है। लेकिन फिर भी राजा से लेकर प्रजा तक सभी अपने बच्चों के लिए एक योग्य गुरु की शरण चाहते थे। भ्रष्टाचार और गद्दारी पहले भी हुआ करती थी, इतिहास में इस बात के कई सारे प्रमाण मिल जाएँगे मगर सभी को समान रूप से एक अच्छे गुरु से शिक्षा मिले इस बात का भी खासा ध्यान रखा जाता था। यहाँ तक कि लड़के और लड़कियों को आत्मरक्षा और देश रक्षा की खातिर शस्त्र विद्या सिखाई जाती थी। अर्थात केवल किताबी ज्ञान ही अहम नहीं समझा जाता था। मगर आज हमारी शिक्षा प्राणी का पुरज़ोर केवल बच्चों को किताबी ज्ञान देने पर आमादा है। वह भी केवल रटाकर, समझाकर नहीं, कहने को पाठ्यक्रम में अंतर्गत केरिक्युलर अक्टिविटी के नाम पर खेल कूद, गायन, चित्रकारी, नृत्य आदि कई सारी चीज़ें हैं। मगर अभिभावकों और शिक्षकों का ज़ोर आज भी केवल शिक्षा पर ज्यादा दिखाई देता है। क्यूंकि आज की तारीख में सही मायने में गुरु क्या होता है कि परिभाषा ही बदल गयी है। क्यूंकि शिक्षा प्राणी में गुरु का चयन भी तो उसके अंकों के आधार पर ही होता है या फिर पैसों के दम पर बहुत कम ही लोग ऐसे होते हैं जिन्हें उनकी वास्तविक योग्यता के आधार पर शिक्षक का पद प्राप्त हो पाता हो।

पता नहीं अब कभी दुबारा हम पहले जैसे हो पाएंगे या नहीं लेकिन मेरा हमेशा से यह मानना था और आज भी है कि पहले के लोग हमसे कहीं ज्यादा चतुर और समझदार होने के साथ दूरदर्शी भी हुआ करते थे। हम जो चीज़ आज कर रहे हैं वो कहीं न कहीं पुराने किसी काम को नए तरीके और तकनीक से किया जाना ही है ऐसा मैं नहीं हमारी पुरानी सभ्यता के मिले हुए अवशेष कहते है। जय हिन्द॥