Friday 31 January 2020

बचपन की यादें




कल अपने भाई के मुख से कुछ पुरानी बातों कुछ पुरानी यादों को सुनकर मुझे बचपन की गालियाँ याद आ गयीं। जिनमें मेरे बचपन का लगभग हर इतवार बीता करता था। कितनी मासूम, कितनी भोली हुआ करती है वो यादें, जिनमें बचपन बीता होता है। सच कहते है लोग, लोग मर जाते है पर यादें कभी नही मरती। अंधे मोड़ की गलियों की उन दीवारों में से एक दीवार पर बने ताक पर हर राह चलते राहगीर का पूरी श्रद्धा से माथा टेकना, बिना यह जाने की उस ताक में विराजमान खुदा किस धर्म से संबंध रखता है। अपने आप में बहुत अपना पन लिए होता था। तब मैं बच्ची ही थी पर उन अंधे मोड़ों की गलियों से गुज़रने में भी मुझे किसी प्रकार का कोई डर नही लगा कभी, पर आज जब कभी किसी सड़क के एक (छोटे से ही सही), किंतु सूने रास्ते से गुज़रते वक्त कई तरह के भाव आते हैं मेरे मन में, खैर में बात कर रही थी बचपन की गलियों की, हम हर इतवार अपनी नानी के घर जाया करते थे और उनके घर का रास्ता इन अंधी गलियों से होकर ही गुज़रता था।

रास्ते में वो ताक जिसकी बात मैंने ऊपर बात की है, वह भी पड़ता था। सभी की देखा देखी मैं भी वहाँ अपना छोटा सा माथा टेक लिया करती थी। फिर वहां से सीधे हाथ पर मुड़ते हुए एक पुराने सेठ जी का बहुत बड़ा बंगला भी हुआ करता था। शायद आज भी है। लेकिन जबकि यह बात है, तब वहां कोई नही रहता था। उन दिनों पूरा बंगला किसी भूत बंगले से कम नही दिखता था। परन्तु मम्मी ने कभी भूत से डरना नही सिखाया। तो कभी उस बंगले के सामने से निकलते समय डर नही लगा। हाँ कुछ एक पागल भी वहां बैठे अपनी धुन में अजीब अजीब हरकतें करते रहते थे। वह एक अलग बात है। उसी रास्ते पर आगे चलकर एक दोराहा आता था, जिसकी एक सड़क नानी के उस पुराने महौले" (विकेश जी यह आपके लिए) की और जाती थी और एक चौक की ओर, भोपाल का वह इलाका आज भी पुराने भोपाल अर्थात (सिटी) के नाम से जाना जाता है।

हम बायीं ओर मुड़कर जल्द से जल्द नानी के घर पहुंच जाना चाहते थे। पर उससे पहले हमें सामना करना होता था बहुत सारी गायों का, जिन्हें लोग घर बुला बुलाकर अपने हाथों से रोटी खिलाया करते थे। तो कोई बचा हुआ भोजन डाल रहा होता था। तो कोई यूं ही उन गायों को सहला रहा होता था।  नानी के घर भी एक गाय बंधी थी, जो नियम से आकर खुद ही रोटी ख़िलाने की मांग करती थी। एक राम मंदिर भी है वहाँ, जिसमे और बहुत सारी बचपन की यादें छिपी है। मंदिर के अंदर प्रवेश करते ही बायीं ओर से कुछ सीढ़ियां ऊपर को जाती है। कहते हैं वहां उपर कोई कुआँ है, पर मैंने कभी ऊपर जाकर नही देखा। सामने से जो रास्ता अंदर मंदिर की ओर जाता है, वहां दायीं तरफ एक संगेमरमर का बड़ा सा चबूतरा बना है और उसके आस पास लोहे की सलाखें लगी है। शायद वो चबूतरा वहाँ ठहरने व्ले साधु संतों के सोने बैठने के लिए बनवाया गया होगा। उस चबूतरे पर एक पठार का तकिया जैसा भी कुछ बना हुआ है। उन दिनों बचपन में वह चबूतरा हम बच्चों को बहुत ऊँचा महसूस होता था। ऐसा लगता था कभी आसानी से उस पर चढ़ ही नही पाएंगे और आज इतना नीचा लगता है कि बचपन की बात सोच-सोचकर हंसी आती है।

कैसे गधे थे उस वक़्त हम सभी ....कि यह विचार ही नहीं आया कभी कि एक दिन बड़े भी तो होंगे सभी। मुझे आज भी याद है, मैं और मेरा छोटा भाई (मेरी मौसी का बेटा) हम दोनो उस चबूतरे पर बैठकर मिनी बस का खेल खेला करते थे और पूरे समय एक ही संवाद बार-बार दौहराते रहते थे "रंगमहल, न्यू मार्केट जवाहर चौक, मोती मस्जिद, चले चलो"फिर जब भूक लगती तब पंडित जी ढेर सारे मुरमुरे और मिश्री खाने को दे दिया करते थे। वह मंदिर आज भी जस का तस है। एक आत्मीय शांति है वहां, एक अद्भुद खिचाव है।

खिचाव और शांति से याद आया नानी के घर में भी उपर पूजा वाली अटारी में भी ठीक वैसी ही शांति महसूस होती थी जैसी उस मंदिर में हुआ करती थी। उस समय कहने को तो, हम बच्चे ही थे। लेकिन तब भी हम वो सुकून वो शक्ति, वो शांति महसूस करते थे। जो किसी पवित्र जगह पर की जक सकती है। तब ज्यादा कुछ समझ नही आता था। लेकिन ऐसा लगता था कि इससे अच्छी जगह और कोई हो नही सकती खेलने के लिए।
फिर भी बाल मन पर पड़ी छाप अमिट होती है। मुझे आज भी वो दिन भुलाय नही भूलता। जब एक दिन मैं, अपने छोटे भाइयों संग अपनी नानी के घर उस पूजा वाली अटारी में खेल रही थी। तब शायद मम्मी, मौसी और नानी भी वहां मौजूद थे। कौन-कौन था यह मुझे ठीक तरह से याद नही है। किन्तु दो बड़े लोग तो थे, यह पक्का है। क्योंकि पूजा वाली अटारी ऊपर थी, तो सभी को यह डर रहा होगा कि कोई बच्चा वहां की खिड़कियों से झांकने के चक्कर में नीचे ना गिर जाये। इसलिए हम जब वहां खेलते कोई ना कोई बड़ा वहां अवशय होता ही था।

हम वहां नानाजी के संग पूजा भी करते थे। कोई चंदन घिसता, तो कोई फूल बत्ती को घी लगाता। जिसे नाना जी जो काम करने के लिए कहते, वो बच्चा पूरी शिद्दत से वही काम करता। एक दिन जब हम वहां खेल रहे थे। तब नीचे से आवाजे आने लगी "राम नाम सत्य है" हमें कुछ समझ नही आया। जब खिड़की से झांककर देखा तो बहुत सारी भीड़ एक नोजवान लड़के का शव लिए वहां से जा रही थी। उस अर्थी पर लेटे हुए उस मृत लड़के की तस्वीर, आज भी मेरे दिमाग में है। मम्मी और मौसी आपस में बात करते हुए कह रहे थे। अरे इस लड़के ने ना मंदिर के कुँए में खुद कर आत्महत्या की है। तब से लेकर आज तक मैंने वो कुआ कभी नही देखा। परंतु आज भी, जब मैं उस मंदिर में जाती हूँ तो मुझे वो शव यात्रा वाला दृश्य याद आ जाता है।

नानी के घर के आगे एक और मंदिर है, जो बड़ वाले महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं वहाँ लगे बड़ के पेड़ की जड़ में से शिवलिंग अपने आप बाहर आया था। तब से, उस मंदिर का नाम, बड़ वाले महादेव के नाम से जाना जाने लगा था। मगर हम बच्चे उसे कछुए वाला मंदिर कहा करते थे। क्योंकि उस मंदिर के अंदर बने कुँए में बहुत से छोटे बड़े कछुए होते थे। शायद आज भी हों। जिन्हें देखने की उत्सुकता उन दिनों कभी खत्म ही नही हुआ करती थी। अब, यह आज तक ठीक से पता नही है कि उस युवा लड़के ने कौन से मंदिर के कुँए में कूद कर अपनी जान दी थी।

लेकिन हाँ बच्चों की उत्सुकता देखते हुए कछुए वाले मंदिर के कुँए के ऊपर लोहे का बना जाल जरूर लगा दिया गया था। ताकि कोई भी उसमें झांकने के चक्कर में अंदर ही न गिर पड़े। आज अपने भाई से उन गलियारों की बात सुनकर मन किया कि फिर एक बार उसका हाथ पकड़ कर ठीक बचपन की तरह उन गलियों से गुज़रते हुए नानी के घर जाय जाए। किन्तु अब वहां कोई नही रहता। वो मिट्टी का पावन घर जिसमे हमारी स्मृतियां थी अब तो कब का टूट कर एक पक्का मकान बन चुका है।

अब नही आती वहां कोई गाय, न वो पूजा वाली अटारी ही शेष रही, जिसे नानी अपने हाथों से लीपकर अपने मन के भावों से भर दिया करती थी। हां अब यदि वहां स्मृतियों के नाम पर कुछ बचा है, तो वह है, वहाँ जाने वाला रास्ता और वो दोनो मंदिर जिनमें आज तक कोई बदलाव नही आया है। शेष तो अब स्वयं ही एक याद बन गया है। एक सुनहरे बचपन की चंद मीठी सी यादें।