Tuesday 20 September 2016

यह बदलाव नहीं तो और क्या है ~१


आज बहुत दिनो बाद कुछ लिखने का मन हो रहा है। न जाने क्यूँ पिछले कुछ महीनों से लिखने से मन उचट गया था। व्यतीत होते समय के साथ ऐसा लगता है मानो सब कुछ कितना तेजी से बदल रहा है। औरों के बारे में सोचो, तो लगता है मानो समय ने पंख लगा लिए हों। कई बार अपने गुजरते अच्छे समय के साथ भी ऐसा ही महसूस होता है। मन तो बहुत करता है आज में जीने का, मगर दिमाग है कि आने वाले कल की चिंता की चिता में जलाए डालता है। फिर कभी यूं भी लगता है कि समय ठहर सा गया, जीवन रुक सा गया है। तब मन होता है कि काश कोई तो ऐसा उपाय मिले या कार्य मिले कि जिसमें स्वयं को डुबाकर हम इतना व्यसत हो जाएँ कि खुद को भूल जाएँ। लेकिन चाहत कब किसकी पूरी होती है। जो चाहो वो ही नहीं मिलता और जब मिलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। तभी ग़ालिब का वो शेर याद आता है कि


"हजारों ख्वाइशें ऐसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले 
बहुत निकले मेरे अरमा लेकिन फिर भी कम निकले"

खैर आज मुझे मेरी बात नहीं करनी। लेकिन किसकी करनी है यह भी मैं नहीं जानती। इतना कुछ चल रहा है इतना कुछ हो रहा है हमारे आस पास किसी एक विषय पर बात करना ही कठिन प्रतीत होता है। फिर दिल को सुकून पहुँचाता है बचपन। अब हम तो अपने बचपन में वापस लौटकर जा नहीं सकते किन्तु औरों का बचपन देखकर अपना दिल तो बहला ही सकते है। लेकिन फिर महसूस होता है कि यह वो बचपन नहीं जिसमें हम जीना चाहते है। यह तो नया बचपन है नयी पीढ़ी का बचपन जिससे न हमारी सोच मेल खाती है और ना ही हमारी कल्पना। ऐसा लगता है मानो आजकल के बच्चे किसी और ही दुनिया में जीते है। जहां शायद भावनाओं के लिए कोई जगह ही नहीं है। नयी पीढ़ी में केवल सोच और समझ का ही अंतर नहीं दिखाई देता बल्कि उनका चीजों को महसूस करने का तरीका भी बहुत अलग होता है। तब यह परिवर्तन देख स्वयं को यह महसूस होता है कि अब न सिर्फ हम पुराने हो गए हैं, बल्कि हमारी सोच, हमारा जीवन को देखने का नज़रिया भी बहुत पुराना हो गया है।

इस सब के बावजूद हममें से कुछ लोग समय के साथ बदल जाते है। लेकिन जो नहीं बदल पाते उन्हें यह परिवर्तन असभ्य उद्दण्ड प्रकार के लगते हैं। उनकी नज़र में सब दिखावा होता है। लेकिन जो लोग खुद को सो कॉल्ड व्यवहारिक (प्रेकटिकल) सोच रखने वाला समझते है वह हर बात को स्वीकार करने के लिए राज़ी रहते है। क्यूंकि उन्हें लगता है कि नयी पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का यही एक उपाय है क्यूंकि भावनात्मक लोग तो सदियों से कमजोर की श्रेणी में गिने जाते रहे है। पिछले दिनों यहाँ गणेश उत्सव की बहुत धूमधाम रही। यूँ भी महाराष्ट्र में गणेश उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया जाता है तब मैंने महसूस किया आज की पीढ़ी और अपने आप में आए हुए अंतर को, या यूँ कहूँ कि अंतराल को देखकर। सब के विषय में तो मैं कह नहीं सकती किंतु मेरे अनुभव ने जो मुझे महसूस कराया वो तो यही था कि कितना उदासीन है आज का बचपन कितना अकेला, दुनिया के सुखों से विमुख केवल अपने आप में अपनी ही बनाई हुई दुनिया में मग्न। 

जिसमें मुझे तो जीवन के प्रति कोई जोश कोई उमंग या उत्साह दिखाई नयी दिया। ना मौज ,ना मस्ती ,ना हुल्लड़ ना कोई ज़िद ना उमंग मुझे तो ऐसा कुछ भी दिखाई नयी देता। अगर कुछ है तो वह है केवल गैजेट्स पर खेले जाने वाले काल्पनिक खेल। जिसके आज के बच्चे इतने अत्यधिक आदि हो गए है कि अपनी वास्तविक ज़िंदगी को ही भूल उसमें ही जीने लगे है ।उनके दिमाग़ में सदैव यदि कुछ चलता है तो वह है यह काल्पनिक खेल और कुछ नहीं। कहीं न कहीं इस सबके जिम्मेदार शायद हम ही हैं या शायद बदलता समय जिसके अनुसार हम खुद को आसानी से  बदल नहीं पा रहे हैं। तभी तो हम अपने आराम के लिए छोटे से साल दो साल के बच्चे को भी रोने पर या ज़िद करने पर मोबाइल पकड़ा देते हैं और जब उसे उसकी लत लग जाती है तो केवल उसे ही दोष देते हैं।

ग़ौर से देखा जाए तो आजकल का बचपन है क्या, सुबह उठे स्कूल चले गए। वहाँ से आए नहा धोकर खाया पिया बहुत हुआ तो ग्रहकार्य किया और भिड़ गए टीवी देखने या लेपटॉप पर खेलने, कुछ नहीं मिला तो मोबाइल पर ही शुरू हो गए और जब उससे भी मन भर गया तब याद आती है इस दुनिया में उनके कुछ दोस्त भी हैं। पर फ़ायदा क्या उनका भी हाल वैसा ही है जैसा मैंने उपरोक्त पंक्तियों में व्यक्त करने का प्रयास किया है। आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब गणपति महोत्सव की इतनी धूमधाम और आस -पास हो रही हलचल के बावजूद बच्चों में कोई ख़ास उत्साह या लगाव दिखाई नही दिया। ना बच्चों की आँखों में त्यौहार के प्रति वो चमक ही दिखाई दी जो हम अपने समय में महसूस किया करते थे।

जैसे अपने मुहल्ले के गणपति के लिए ख़ुद फूल चुनकर लाना, प्रतिदिन उनके लिए एक नयी माला बनाना । माता -पिता से ज़िद करके प्रसाद के लिए रोज़ कुछ नया ले जाना। नृत्य एवं खेल ख़ुद प्रतियोगिता में पूरी उमंग और जोश से भाग लेना। मानो यह कोई साधारण प्रतियोगिता नहीं बल्कि जीवन का आधार हो। लेकिन आज इस सब की झलक मात्र भी दिखाई नहीं देती इन बच्चों में, ~"यह बदलाव नहीं तो और क्या है"' ? या शायद मैं ही समय से पहले बुढ़ा गयी हूँ जो ना चाहते हुए भी अपने समय से आज के समय की तुलना कर बैठती हूँ। बस इतना कह सकती हूँ कि यदि अभिभावक अपने बच्चों की क़दम ताल से अपनी ताल मिलाना चाहते है तो उसके लिए उन्हें व्यावहारिक होना होगा। भावनात्मक लोगों या व्यक्तियों की अब इस ज़माने को ज़रूरत नहीं है। मैं बहुत भावनात्मक हूँ इसलिए मुझे तो ताल मिलाना कठीन लगता है पर कोशिश जारी है। आगे तो समय ही बताएगा कि क्या होना है तब तक


जाहि विधि राखे राम, ताही विधि रहिए।
जय राम जी की