न काटो यह जंगल यह घर है हमारा ,ना मारो हमें यह जग है हमारा जियो और जीने दो |
बेचारे जंगली जानवरों पर पहले ही यह विपदा कम नहीं थी कि अब कोलमाइन्स वालों ने भी उन्हीं स्थानों को चुना जहां जंगल है जहां जानवर बस्ते है। कोई ज़रा मुझे यह बता दे कि हमें किसने हक दिया कि हम अपने फायदे के लिए उनको उनके घरों से बेघर कर दें। यह अमानवीयता की हद नहीं तो और क्या है ऐसा कुछ करने से पहले ऐसा करने वालों के मन में एक बार भी यह बात क्यूँ नहीं आती कि यदि उनके साथ भी यह मासूम और बेज़ुबान जानवर ऐसा ही करें तो क्या होगा। वह बेचारे कुछ बोल नही सकते, इसका मतलब यह तो नहीं कि वो कमजोर हैं। अरे ज़रा सोचकर कर देखो, जिस दिन यह जानवर अपने घरों से निकलकर शहरों और गाँव में प्रवेश करेंगे। उस दिन क्या सुरक्षित रह पाएगा आपका अपना घर द्वार? शायद नहीं क्यूँकि ऐसे हालातों में आप एक आद किसी जंगली जानवार को मार भी सकते हो। मगर जब इनकी पूरी प्रजाति ही आप पर हमला करे, तब तो शायद आपको स्वयं ईश्वर भी नहीं बचा पाएंगे। क्यूंकि आप जैसा बोयेंगे वैसा ही काटना भी पड़ेगा, अभी पेड़ काट रहे हो जल्द ही पाप भी काटने की नौबत आने वाली है। तब क्या होगा तब तो मुंह छुपाने के लिए जंगल भी नहीं रहेंगे।
अच्छा किया जो सुप्रीम कोर्ट ने इन कोलमाइन्स वालों को अब तक इस बात की मंजूरी नहीं दी है कि वो जंगलों के भीतर जाकर अपना काम कर सके और आगे भी उन्हें यह अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। मेरा भी समर्थन अदालत के फैसले के साथ है। पहले ही हमारी दुनिया से बहुत से जानवरों की प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी है और आए दिन हर एक जानवर की प्रजाति को लेकर वन विभाग चिंता में है कि कैसे और किन प्रयासों के माध्यम से इन प्रजातियों को बचाया जाये। ऐसे में यदि इन कोलमाइन्स वालों को अदालत की ओर से अनुमति मिल जाएगी तो शायद हमारे देश से शेर ,बाघ, चीता, हाथी जैसे जानवरों की जातियाँ एकदम ही लुप्त हो जायेगी। वैसे ही हमारे देश के कुछ एक इलाके ही ऐसे बचे हैं जहां अब भी इन जानवरों की कुछ ही संख्या बाकी है। वो भी न रही तो शायद यह सारे जानवर आने वाले पीढ़ी के लिए केवल किताबों तक सीमित रह जाएँगे और यदि आंकड़ों के आधार पर बात की जाये तो यहाँ सभी जानवरों के आंकड़े ज़ाहिर कर पाना तो संभव नहीं इसलिए मैंने चुना जंगल के राजा को यानि बाघ को, यदपि विगत एक हज़ार साल से बाघों का शिकार किया जाता रहा है फिर भी 20वीं सदी के शुरू में जंगल में रहने वाले बाघों की संख्या 1,00,000 आँकी गयी थी इस सदी के अवसान पर लगभग ऐसी आशंका थी कि विश्व भर में केवल 5,000 से 7,000 बाग ही बचे हैं। आज तक बाघों का महत्व विजय चिन्ह एवं महंगे कोटों के लिए खाल के स्त्रोत में था, बाघों को इसलिए भी मारा जाता था क्यूंकि पहले ऐसी मान्यता थी बाघ मानव के लिए ख़तरा हैं। 1970 के दशक में अधिकतर देशों में बाघों के शौकिया शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था तथा बाघ की खाल का व्यापार भी गैर कानूनी माना जाने लगा था, 1980 के दशक में बाघों की गणना से पता चला कि उनकी संख्या बढ़ रही है और उस वक्त ऐसा लगा कि संरक्षण के प्रयास सफल हो रहे है और उनके विलुप्त होने का अब कोई खतरा नहीं है।
किन्तु स्थिति ऐसी नहीं थी जैसी दिखाई दे रही थी बाघ के अंगों खोपड़ी, खाल, हड्डियों, गलमुच्च, स्नायुतंत्र और खून तक को लंबे समय से एशियाई लोग खासकर चीनी, औषधी और शक्तिवर्धक पेय बनाने में इस्तेमाल करते आए हैं और आज भी कर रहे हैं, जैसे कि गठिया मूषक दंश एवं विभिन्न बीमारियों को ठीक करने, ताकत बढ़ाने में, एवं कामोत्तेजक के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब तक बाघों के शिकार पर प्रतिबंध नहीं लगा था, तब तक उसके शरीर के इन भागों की कभी कमी नहीं रही लेकिन 1980 के दशक अंत में इन अंगों के भंडार ख़त्म हो रहे थे और यह ऐसे सबूत थे कि इनको पाने के लिए तब भी बाघों को मारा जा रहा था। सावधानी पूर्वक की गयी गणना से पता चला कि कर्मचारियों ने जिनकी गैरकानूनी शिकारियों से साँठ गांठ थी या जो उच्च अधिकारियों को खुश करने की फिराक में थे, उन्होंने पहले की गणना को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया था। जबकि इस समय गैरकानूनी तरीके से शिकार की खबरें तेजी से बढ़ रहीं थी तथा बाघों के अंगों का व्यापार तेज़ी से फल फूल रहा था और आपूर्ति में कमी के कारण इनकी कीमतें और बढ़ गयी थी। लेकिन आज अभी भी वास्तविकता यह है कि कई देशों में चीनी विक्रेताओं के पास शक्तिवर्धक पेय आज भी उपलब्ध है।
इसे ज्यादा शर्मनाक बात इस मामले में और क्या हो सकती है यदि यही हाल रहा तो बच्चे केवल कल्पना में ही शेर,चीते और बाघ देखा करेंगे। तब शायद देवी देवता के किस्से कहानियों में भी इन जानवरों के वजूद का कोई हिस्सा शेष नहीं रह जाएगा। जैसे आज कल डायनासोर्स केवल बच्चों की किताबों और फिल्मों के जरिये हमारे ज़हन में ज़िंदा हैं। कुछ समय बाद यह साधारण से जंगली जानवर भी हमारे ज़हन में बस किताबों के जरिये ही हमारी आने वाली पीढ़ी के ज़हन में रहेंगे। क्यूंकि अब तो ऐसे गंभीर विषयों पर फिल्में भी नहीं बना करती। अब तो फिल्में भी काला पैसा सफ़ेद बनाने का एक मात्र जरिया बनती जा रही है।जिसमें कला या कहानी के लिए कोई जगह नहीं होती। खैर हम यहाँ फिल्मों कि नहीं अपने प्यारे मासूम जानवरों की बात कर रहे हैं। इसलिए यदि हम यह चाहते हैं कि अपने बच्चों को सच में यह जानवर दिखा सकें और हमारे बच्चे आगे भी इन जानवरों के किस्से और कहानियों का मज़ा ले सकें और इनके स्वभाव से सीख लेकर आगे बढ़ें जैसे हम करते आयें है। तो इसके लिए हमें कोई न कोई गंभीर कदम उठाना ही होगा।कैसे भी इन जंगलों को कटने से बचाना ही होगा और साथ ही साथ मिल जुलकर ऐसे कार्य करने वालों का विरोध भी करना होगा। अरे जब विदेशों में जानवरों को गोद लेने तक की व्यवस्था भी है। तो हमारे यहाँ क्यूँ कुछ नहीं हो सकता। हम तो जानवरों से बचपन से ही जुड़े होते है। फिर चाहे उस जुड़ाव का एक हिस्सा पालतू और उपयोगी जानवर ही क्यूँ न हो। ईश्वर ने हमें बुद्धि दी ताकि हम जानवरों से हटकर अपनी पहचान बना सकें।
लेकिन तब भी आज जो हालात हैं। उन्हें देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता कि हम जानवरों से कुछ अलग हैं बल्कि शायद जानवर ज्यादा समझदार हैं क्यूँ वह वफादार है और हम, हम खुद ही यह कहते हैं कि जहरीले साँप से भी क्या डरना इंसान से जहरीला तो पूरी कायनात में कोई नहीं, क्यूंकि एक तरफ तो कुछ मुट्ठी भर लोग मासूम जानवरों को बचाकर प्राकृतिक व्यवस्था को कायम रखने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे है। तो दूसरी और उतनी ही तेज़ी से इस बिगड़ते पर्यावरण को लोग जंगलों को मिटाकर और बर्बाद करने की कोशिश में लगे हैं। आप सोच रहे होंगे कहना बहुत आसान है मगर करना उतना ही मुश्किल, भाषण देना तो सभी को आता है। लेकिन प्रयास बहुत कम ही लोग कर पाते हैं। हम इंसानों को यदि कुछ आता है, तो बस एक दूसरे पर, या सामाजिक व्यवस्था पर या, बनाए गए क़ानूनों पर आरोप प्रत्यारोप मढ़ना। लेकिन एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वयं अपने अंदर झांक कर देखे और फिर किसी पर किसी तरह का दोषारोपण करे। लेकिन नहीं हम तो हमेशा खुद को साफ और सही कहते है एवं दूसरों को गंदा कहने या गलत ठहराने के आदि हो चुके है।
जबकि सच्चाई तो यह है कि यदि इस देश का हर नागरिक अपने देश की कानून व्यवस्था और नियमों का ईमानदारी से पालन करे तो शायद आने वाली बड़ी दुर्घटनाओं और त्रासदियों से, न सिर्फ मुल्क को बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति एवं पर्यावरण के अंतर्गत आने वाले सभी जीव जंतुओं को भी बचाया जा सकता है। लेकिन अफसोस कि हमारे यहाँ तो लोग कानून को जेब में लिए घूमते हैं। यहाँ तो बस पैसा फेकों तमाशा देखो, ऐसे में भला उन मासूम बेज़ुबान जानवरों का क्या क़ुसूर है। इस सब की सज़ा उन्हें क्यूँ दी जा रही है?? गली का एक कुत्ता भी पागल हो जाये तो लोग उसे तुरंत गोली मार देते हैं और यहाँ तो जंगल काटने के पीछे सभी पागल हुए जा रहे है उनका क्या ?? पेड़ काटकर जंगल मिटाना और जंगली अबोध जानवरों से उनका घर छीन लेना, अपने शौक के लिए उनका शिकार करना उनके अंगों को बेचना, खाल को बेचना, यहाँ तक के खून तक नहीं छोड़ते हम और इतना ही नहीं, यदि इतने पर भी वो अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर हमला करें या अपनी भूख मिटाने के लिए जब किसी शहर या गाँव की और प्रस्थान करें, तो उन्हें ही दोषी मानकर उनकी जान लेने पर उतारू हो जाते हैं लोग क्यूँ ? तब भी केवल अपना ही स्वार्थ नज़र आता है लोगों को तब भी सर्वप्रथम केवल अपना परिवार अपनी जान की सुरक्षा ही नज़र आती है। मगर उस जानवार ने ऐसा क्यूँ किया इसके बारे में तब भी नहीं सोचता इंसान, ना जाने हम यह क्यूँ भूल रहे हैं, कि न केवल सम्पूर्ण सृष्टि, बल्कि प्रकृति और पर्यावरण को संतुलित बनाए रखें के लिए जितना इंसानों का होना अनिवार्य है उतना ही जानवरों का होना भी अनिवार्य है। जय हिन्द...