Tuesday, 24 July 2012

जंगल राज बचाएं आइये कुछ कर दिखाएँ

न काटो यह जंगल यह घर है हमारा ,ना मारो हमें यह जग है हमारा जियो और जीने दो 
क्या इन मासूमों को देखकर भी आपका दिल नहीं पसीजा, क्या सचमुच इतने पत्थर दिल हो गए हैं हम, क्या बिगाड़ा है इन मासूमों ने हमारा, कौन होते हैं हम इन्हें इनके माता-पिता से हमेशा के लिए जुदा करने वाले। किसने दिया हमें यह अधिकार कि हम इन नन्हें बेज़ुबान मासूमों को इन्हें इनके घरों से निकाल फेंकें  केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए। ना जाने कहाँ जा रहे हैं हम और क्या चाहते हैं हम, शायद आज की तारीख़ में हम खुद भी नहीं जानते। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में इस कदर अंधे हो चुके है हम, कि इतनी प्रकृतिक बाधाओं को झेलने के बाद भी हमारी आँखें नहीं खुल रही है। माना कि अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ सकता, मगर यदि पांचों उँगलियाँ मिल जाएँ तो मुट्ठी बन जाती है और मुट्ठी प्रतीक है, एकता का, एकता की ताकत का, आज भी हम अपने पर्यावरण को संतुलित बना सकते हैं। मगर यह तभी संभव है जब हम वास्तव में ऐसा करना चाहते हैं। वरना कहने को तो इस विषय पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। मगर कहने का फायदा ही क्या यदि उस कहे हुए पर हम खुद ही अमल ना कर सके। आज पैसों के पीछे इंसान इतना लालची हो चुका है कि उसे अपने स्वार्थ के आगे स्वयं का नुकसान भी दिखाई नहीं देता। खासकर इस व्यापारियों वर्ग को, जिन्होंने पहले ही जंगल काट-काट कर सम्पूर्ण धरती को निर्वस्त्र कर दिया है। जिस के कारण न सिर्फ प्राकृतिक व्यवस्था डगमगा रही है, बल्कि उसका सीधा असर संपूर्ण पर्यावरण और जंगली जानवरों पर भी पढ़ रहा है। 

बेचारे जंगली जानवरों पर पहले ही यह विपदा कम नहीं थी कि अब कोलमाइन्स वालों ने भी उन्हीं स्थानों को चुना जहां जंगल है जहां जानवर बस्ते है। कोई ज़रा मुझे यह बता दे कि हमें किसने हक दिया कि हम अपने फायदे के लिए उनको उनके घरों से बेघर कर दें। यह अमानवीयता की हद नहीं तो और क्या है ऐसा कुछ करने से पहले ऐसा करने वालों के मन में एक बार भी यह बात क्यूँ नहीं आती कि यदि उनके साथ भी यह मासूम और बेज़ुबान जानवर ऐसा ही करें तो क्या होगा। वह बेचारे कुछ बोल नही सकते, इसका मतलब यह तो नहीं कि वो कमजोर हैं। अरे ज़रा सोचकर कर देखो, जिस दिन यह जानवर अपने घरों से निकलकर शहरों और गाँव में प्रवेश करेंगे। उस दिन क्या सुरक्षित रह पाएगा आपका अपना घर द्वार? शायद नहीं क्यूँकि ऐसे हालातों में आप एक आद किसी जंगली जानवार को मार भी सकते हो। मगर जब इनकी पूरी प्रजाति ही आप पर हमला करे, तब तो शायद आपको स्वयं ईश्वर भी नहीं बचा पाएंगे। क्यूंकि आप जैसा बोयेंगे वैसा ही काटना भी पड़ेगा, अभी पेड़ काट रहे हो जल्द ही पाप भी काटने की नौबत आने वाली है। तब क्या होगा तब तो मुंह छुपाने के लिए जंगल भी नहीं रहेंगे।        

अच्छा किया जो सुप्रीम कोर्ट ने इन कोलमाइन्स वालों को अब तक इस बात की मंजूरी नहीं दी है कि वो जंगलों के भीतर जाकर अपना काम कर सके और आगे भी उन्हें यह अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। मेरा भी समर्थन अदालत के फैसले के साथ है। पहले ही हमारी दुनिया से बहुत से जानवरों की प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी है और आए दिन हर एक जानवर की प्रजाति को लेकर वन विभाग चिंता में है कि कैसे और किन प्रयासों के माध्यम से इन प्रजातियों को बचाया जाये। ऐसे में यदि इन कोलमाइन्स वालों को अदालत की ओर से अनुमति मिल जाएगी तो शायद हमारे देश से शेर ,बाघ, चीता, हाथी जैसे जानवरों की जातियाँ एकदम ही लुप्त हो जायेगी। वैसे ही हमारे देश के कुछ एक इलाके ही ऐसे बचे हैं जहां अब भी इन जानवरों की कुछ ही संख्या बाकी है। वो भी न रही तो शायद यह सारे जानवर आने वाले पीढ़ी के लिए केवल किताबों तक सीमित रह जाएँगे और यदि आंकड़ों के आधार पर बात की जाये तो यहाँ सभी जानवरों के आंकड़े ज़ाहिर कर पाना तो संभव नहीं इसलिए मैंने चुना जंगल के राजा को यानि बाघ को, यदपि विगत एक हज़ार साल से बाघों का शिकार किया जाता रहा है फिर भी 20वीं सदी के शुरू में जंगल में रहने वाले बाघों की संख्या 1,00,000 आँकी गयी थी इस सदी के अवसान पर लगभग ऐसी आशंका थी कि विश्व भर में केवल 5,000 से 7,000 बाग ही बचे हैं। आज तक बाघों का महत्व विजय चिन्ह एवं महंगे कोटों के लिए खाल के स्त्रोत में था, बाघों को इसलिए भी मारा जाता था क्यूंकि पहले ऐसी मान्यता थी बाघ मानव के लिए ख़तरा हैं। 1970 के दशक में अधिकतर देशों में बाघों के शौकिया शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था तथा बाघ की खाल का व्यापार भी गैर कानूनी माना जाने लगा था, 1980 के दशक में बाघों की गणना से पता चला कि उनकी संख्या बढ़ रही है और उस वक्त ऐसा लगा कि संरक्षण के प्रयास सफल हो रहे है और उनके विलुप्त होने का अब कोई खतरा नहीं है।




किन्तु स्थिति ऐसी नहीं थी जैसी दिखाई दे रही थी बाघ के अंगों खोपड़ी, खाल, हड्डियों, गलमुच्च, स्नायुतंत्र और खून तक को लंबे समय से एशियाई लोग खासकर चीनी, औषधी और शक्तिवर्धक पेय बनाने में इस्तेमाल करते आए हैं और आज भी कर रहे हैं, जैसे कि गठिया मूषक दंश एवं विभिन्न बीमारियों को ठीक करने, ताकत बढ़ाने में, एवं कामोत्तेजक के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब तक बाघों के शिकार पर प्रतिबंध नहीं लगा था, तब तक उसके शरीर के इन भागों की कभी कमी नहीं रही लेकिन 1980 के दशक अंत में इन अंगों के भंडार ख़त्म हो रहे थे और यह ऐसे सबूत थे कि इनको पाने के लिए तब भी बाघों को मारा जा रहा था। सावधानी पूर्वक की गयी गणना से पता चला कि कर्मचारियों ने जिनकी गैरकानूनी शिकारियों से साँठ गांठ थी या जो उच्च अधिकारियों को खुश करने की फिराक में थे, उन्होंने पहले की गणना को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया था। जबकि इस समय गैरकानूनी तरीके से शिकार की खबरें तेजी से बढ़ रहीं थी तथा बाघों के अंगों का व्यापार तेज़ी से फल फूल रहा था और आपूर्ति में कमी के कारण इनकी कीमतें और बढ़ गयी थी। लेकिन आज अभी भी वास्तविकता यह है कि कई देशों में चीनी विक्रेताओं के पास शक्तिवर्धक पेय आज भी उपलब्ध है। 


इसे ज्यादा शर्मनाक बात इस मामले में और क्या हो सकती है यदि यही हाल रहा तो बच्चे केवल कल्पना में ही शेर,चीते और बाघ देखा करेंगे। तब शायद देवी देवता के किस्से कहानियों में भी इन जानवरों के वजूद का कोई हिस्सा शेष नहीं रह जाएगा। जैसे आज कल डायनासोर्स केवल बच्चों की किताबों और फिल्मों के जरिये हमारे ज़हन में ज़िंदा हैं। कुछ समय बाद यह साधारण से जंगली जानवर भी हमारे ज़हन में बस किताबों के जरिये ही हमारी आने वाली पीढ़ी के ज़हन में रहेंगे। क्यूंकि अब तो ऐसे गंभीर विषयों पर फिल्में भी नहीं बना करती। अब तो फिल्में भी काला पैसा सफ़ेद बनाने का एक मात्र जरिया बनती जा रही है।जिसमें कला या कहानी के लिए कोई जगह नहीं होती। खैर हम यहाँ फिल्मों कि नहीं अपने प्यारे मासूम जानवरों की बात कर रहे हैं। इसलिए यदि हम यह चाहते हैं कि अपने बच्चों को सच में यह जानवर दिखा सकें और हमारे बच्चे आगे भी इन जानवरों के किस्से और कहानियों का मज़ा ले सकें और इनके स्वभाव से सीख लेकर आगे बढ़ें जैसे हम करते आयें है। तो इसके लिए हमें कोई न कोई गंभीर कदम उठाना ही होगा।कैसे भी इन जंगलों को कटने से बचाना ही होगा और साथ ही साथ मिल जुलकर ऐसे कार्य करने वालों का विरोध भी करना होगा। अरे जब विदेशों में जानवरों को गोद लेने तक की व्यवस्था भी है। तो हमारे यहाँ क्यूँ कुछ नहीं हो सकता। हम तो जानवरों से बचपन से ही जुड़े होते है। फिर चाहे उस जुड़ाव का एक हिस्सा पालतू और उपयोगी जानवर ही क्यूँ न हो। ईश्वर ने हमें बुद्धि दी ताकि हम जानवरों से हटकर अपनी पहचान बना सकें। 


लेकिन तब भी आज जो हालात हैं। उन्हें देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता कि हम जानवरों से कुछ अलग हैं बल्कि शायद जानवर ज्यादा समझदार हैं क्यूँ वह वफादार है और हम, हम खुद ही यह कहते हैं कि जहरीले साँप से भी क्या डरना इंसान से जहरीला तो पूरी कायनात में कोई नहीं, क्यूंकि एक तरफ तो कुछ मुट्ठी भर लोग मासूम जानवरों को बचाकर प्राकृतिक व्यवस्था को कायम रखने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे है। तो दूसरी और उतनी ही तेज़ी से इस बिगड़ते पर्यावरण को लोग जंगलों को मिटाकर और बर्बाद करने की कोशिश में लगे हैं। आप सोच रहे होंगे कहना बहुत आसान है मगर करना उतना ही मुश्किल, भाषण देना तो सभी को आता है। लेकिन प्रयास बहुत कम ही लोग कर पाते हैं। हम इंसानों को यदि कुछ आता है, तो बस एक दूसरे पर, या सामाजिक व्यवस्था पर या, बनाए गए क़ानूनों पर आरोप प्रत्यारोप मढ़ना। लेकिन एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वयं अपने अंदर झांक कर देखे और फिर किसी पर किसी तरह का दोषारोपण करे। लेकिन नहीं हम तो हमेशा खुद को साफ और सही कहते है एवं दूसरों को गंदा कहने या गलत ठहराने के आदि हो चुके है।


जबकि सच्चाई तो यह है कि यदि इस देश का हर नागरिक अपने देश की कानून व्यवस्था और नियमों का ईमानदारी से पालन करे तो शायद आने वाली बड़ी दुर्घटनाओं और त्रासदियों से, न सिर्फ मुल्क को बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति एवं पर्यावरण के अंतर्गत आने वाले सभी जीव जंतुओं को भी बचाया जा सकता है।  लेकिन अफसोस कि हमारे यहाँ तो लोग कानून को जेब में लिए घूमते हैं। यहाँ तो बस पैसा फेकों तमाशा देखो, ऐसे में भला उन मासूम बेज़ुबान जानवरों का क्या क़ुसूर है। इस सब की सज़ा उन्हें क्यूँ दी जा रही है?? गली का एक कुत्ता भी पागल हो जाये तो लोग उसे तुरंत गोली मार देते हैं और यहाँ तो जंगल काटने के पीछे सभी पागल हुए जा रहे है उनका क्या ?? पेड़ काटकर जंगल मिटाना और जंगली अबोध जानवरों से उनका घर छीन लेना, अपने शौक के लिए उनका शिकार करना उनके अंगों को बेचना, खाल को बेचना, यहाँ तक के खून तक नहीं छोड़ते हम और इतना ही नहीं, यदि इतने पर भी वो अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर हमला करें या अपनी भूख मिटाने के लिए जब किसी शहर या गाँव की और प्रस्थान करें, तो उन्हें ही दोषी मानकर उनकी जान लेने पर उतारू हो जाते हैं लोग क्यूँ ? तब भी केवल अपना ही स्वार्थ नज़र आता है लोगों को तब भी सर्वप्रथम केवल अपना परिवार अपनी जान की सुरक्षा ही नज़र आती है। मगर उस जानवार ने ऐसा क्यूँ किया इसके बारे में तब भी नहीं सोचता इंसान, ना जाने हम यह क्यूँ भूल रहे हैं, कि न केवल सम्पूर्ण सृष्टि, बल्कि प्रकृति और पर्यावरण को संतुलित बनाए रखें के लिए जितना इंसानों का होना अनिवार्य है उतना ही जानवरों का होना भी अनिवार्य है। जय हिन्द... 

Friday, 20 July 2012

सत्यमेव जयते


सत्यमेव जयते


आज की तारीख़ में यह एक बहुचर्चित कार्यक्रम है। जिसमें दिखाये जाने वाले सभी विषय हमारे समाज के लिए कोई नये नहीं है। किन्तु जिस तरह इन सभी विषयों को इस कार्यक्रम के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। वह यक़ीनन काबिले तारीफ़ है। क्यूँकि कुछ देर के लिए ही सही वह सभी विषय हमें सोचने पर मजबूर करने में सक्षम सिद्ध हो रहे हैं और हमारे ऊपर प्रभाव भी डाल रहे है, कि हम उन विषयों पर सामूहिक रूप से एक बार फिर सोचे विचार करें। लेकिन यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ कुछ देर विचार कर लेने से, सोच लेने से इन सब दिखायी गई समस्याओं का समाधान हो सकता है ? नहीं! बल्कि इन विषयों पर हम सभी को गंभीरता से सोचना होगा अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और इतना ही नहीं हम जो समाधान निकालें उस पर हमें खुद भी अमल करना होगा। तभी शायद हम किसी एक विषय की समस्या पर पूरी तरह काबू पा सकेंगे, वरना नहीं। ऐसा मेरा मानना है। वैसे तो इस कार्यक्रम पर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस कार्यक्रम ने ना सिर्फ आम जनता को, बल्कि लेखकों को भी लिखने के लिए बहुत से विषय दे दिये है। इसलिए मैं इस कार्यक्रम की बहुत ज्यादा चर्चा न करते हुए सीधा मुद्दे पर आना चाहूंगी।


हालांकी मेरा आज का विषय भी इस ही कार्यक्रम से जुड़ा है और वह है 'छुआछूत' का मामला जिसके तहत मैं पूरे कार्यक्रम का विवरण नहीं दूंगी। मैं केवल बात करूंगी उस बात पर जो इस कार्यक्रम के अंतर्गत इस छुआछूत वाले भाग के अंत में कही गयी थी। लेकिन बात शुरू करने से पहले मैं यहाँ कुछ और अहम बातों का भी जि़क्र करना चाहूंगी। वो यह कि यह 'छुआछूत' की समस्या हमारे समाज में ना जाने कितने सालों पुरानी है। राम जी के समय से लेकर अब तक यह समस्या हमारे समाज में अब न केवल समस्या के रूप में, बल्कि एक परंपरा के रूप में आज भी विद्दमान है। जो कि आज एक प्रथा बन चुकी है, एक ऐसी कुप्रथा जो सदियों से चली आ रही है। जब मैंने वो सब सोचा तो, मेरा तो दिमाग ही घूम गया। हो सकता है उस ही वजह से शायद आपको मेरा यह आलेख थोड़ा उलझा हुआ भी लगे। एक तरफ तो भगवान राम से शबरी के झूठे बेर खाकर यह भेद वहीं खत्म कर दिया और यदि हम प्रभु के रास्ते पर चलना ही उचित समझते है, तो केवट और शबरी के साथ प्रभु ने सतयुग में ही इस भेद को बदल दिया था। लेकिन हम आज भी वहीं के वहीं हैं।    
खैर वैसे भी बात यहाँ इंसान और भगवान की नहीं 'छुआछूत' की है। जो तब भी थी और आज भी है और इस सब में मुझे तो घोर आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह छुआछूत की मानसिकता सबसे ज्यादा हमारे पढे लिखे और सभ्य समाज के उच्च वर्ग में ही पायी जाती है। निम्न वर्ग में नहीं, ऐसा तो नहीं है। मगर हाँ तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो बहुत कम और लोग इस मानसिकता के चलते इस हद तक गिर जाते हैं, कि इंसान कहलाने लायक नहीं बचते। क्योंकि यह घिनौनी और संकीर्ण मानसिकता न केवल बड़े व्यक्तियों को, बल्कि छोटे-छोटे मासूम बच्चों को भी इस क़दर मानसिक आहत पहुँचाती है कि उन्हें बाहरी दुनिया से कटना ज्यादा पसंद आता है। बजाय उसे जीने के, उसे देखने के, क्योंकि या तो लोग उन्हें घड़ी-घड़ी पूरे समाज के सामने अपमानित करते है या उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है।       

कुछ बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को शायद ऐसा लगता है कि अब ऐसा नहीं होता। अब यह प्रथा हमारे समाज से  लगभग ख़त्म हो चुकी है। क्यूंकि शायद उनको ऐसा कुछ आमतौर पर या अब खुले आम देखने सुनने को नहीं मिलता। मगर वास्तविकता यह है, कि आज भी लोग भले ही इन लोगों के सामने उनके मुंह पर कुछ न बोलें मगर पीठ पीछे अपशब्दों में ज़रूर कुछ न कुछ बोला ही जाता है। ऐसा शहरों में होता है अर्थात यह कहना गलत नहीं होगा कि समस्या का रूप ज़रूर बदल गया है, मगर समस्या है आज भी वहीं की वहीं, लेकिन गाँव में तो आज भी दलितों के साथ उसी ही तरह का व्यवहार होता हैं। जैसा आज से कई साल पहले हुआ करता था। उनको समान अधिकार नहीं दिया जाता, वह किसी के साथ उठ बैठ नहीं सकते, एक नल से पानी नहीं पी सकते, एक मंदिर में भगवान की आराधना नहीं कर सकते और यदि किसी तरह मंदिर में जाने की इजाज़त मिल भी जाये तो एक ही दरवाजे से मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। उन्हें एक जैसा प्रसाद तक नहीं मिल सकता क्यूँ ? क्योंकि वह दलित है?

लेकिन जरूरत के वक्त हम जैसे सो कॉल्ड(so called) उच्च श्रेणी में आने वाले लोगों को घर के कामों के वक्त इन्हीं दलितों की आवश्यकता पड़ती है। फिर चाहे अपने घरों में काम करवाने के लिए कामवाली बाई रखना हो, या साफ सफ़ाई करवाना हो, खुद ही सोचिए कि क्या खाना बनाने वाली बाई रखते वक्त आप उसकी जाति का ध्यान रखते हैं ? पूछने पर हर कोई बोलेगा हाँ, हम तो हमेशा ब्राह्मण जाति के व्यक्ति से ही खाना बनवाते हैं। लेकिन आज की इस दौड़ भाग भरी ज़िंदगी में किसके पास इतना समय है कि वो उस व्यक्ति का इतिहास निकलवाकर पूर्णरूप से पुष्टि करता बैठे कि वह व्यक्ति वास्तव में ब्राह्मण है भी या नहीं, साधारण रूप से सामने वाले ने कहा और हमने मान लिया यही तो होता है। खासकर यदि मेट्रो सिटी की बात की जाये तो, तब कहाँ गुम हो जाता है, हमारा यह भेद भाव और सिर्फ यही नहीं बल्कि कुछ अय्याश क़िस्म के उच्च वर्ग में गिने जाने वाले लोगों के लिए तो इस निम्न समाज की लड़कियाँ उनकी शारीरिक भूख मिटाने का समाधान तक बन जाती है। उस वक्त वो उनका बिस्तर बाँट सकती है। मगर उसके अलावा उनके घर के बिस्तर पर साधारण रूप से बैठ भी नहीं सकती। बहू बेटी बनना, बनाना तो दूर की बात है क्यूँ ???

वैसे देखा जाये तो इस समस्या का शायद कोई समाधान है ही नहीं...और शायद है भी, वह है यह (intercaste marriage) अर्थात अंतरजातीय विवाह, लेकिन जिस तरह हर एक चीज़ के कुछ फ़ायदे होते है, ठीक उसी तरह कुछ नुक़सान भी होते हैं। इस विषय में मुझे ऐसा लगता है कि यदि ऐसा हुआ अर्थात अंतरजातीय विवाह हुए तो किसी भी इंसान का कोई ईमान धर्म नहीं बचेगा। सभी अपनी मर्जी के मालिक बन जाएँगे और उसका गलत फायदा उठाया जाना शुरू हो जायेगा। हालाकीं में कोई धर्म अधिकारी नहीं हूँ लेकिन फिर भी मैं जितना समझती हूँ उसके आधार पर कह रही हूँ कि मुझे ऐसा लगता है कि एक इंसान को सही मार्गदर्शन दिखाने और उस पर उचित व्यवहार करते हुए चलने कि प्रेरणा भी उसे अपने धर्म से ही मिलती है। क्यूंकि "मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना हिन्दी हैं हम वतन हैं हिंदोस्ता हमारा" और धर्म किसी भी बात एवं कार्य के प्रति इंसान को एक सीमा के अंदर रहते हुए आस्था और विश्वास का पाठ सिखाता है। जो एक समझदार और सभ्य इंसान के लिए बेहद जरूरी है और यदि यह अंतरजातीय विवाह होने शुरू हो गए तो मुझे नहीं लगता कि इस बात का सही उद्देश्य ज्यादा दिन कायम रह पाएगा। क्यूंकि जिस तरह की सोच हमारे यहाँ के लोग में आज भी विद्दमान है उसके चलते जल्द ही इस बात का गलत फायदा उठाये जाने की संभावना अधिक है। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि अंतरजातीय विवाह से तो अच्छा है किसी एक धर्म का सर्वमान्य होना। जो सपने में भी संभव नहीं, :) यह केवल मेरी एक सोच है। जिसमें सार्थकता कुछ भी नहीं।        

खैर मगर अफ़सोस इस बात का है कि हमारे समाज की यह विडम्बना है, या यूं कहिए कि यह दुर्भाग्य है कि यहाँ न सिर्फ आज से बल्कि, सदियों पहले से हम धर्म के नाम पर लड़ते, मरते और मारते चले आ रहे। क्योंकि शायद हम में से किसी ने आज तक धर्म की सही परिभाषा समझने की कोशिश ही नहीं की, क्योंकि धर्म कोई भी हो, वह कभी कोई गलत शिक्षा नहीं देता। इसलिए शायद हमारे बुज़ुर्गों ने बहुत सी बातों को धर्म से जोड़कर ही हमारे सामने रखा। ताकि हम धर्म के नाम पर ही सही, कम-से-कम उन मूलभूत चीजों का पालन तो करेंगे। मगर उन्हें भी कहाँ पता था कि पालन करने के चक्कर में लोग कट्टर पंथी बन जाएँगे और एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान समझना ही छोड़ देगा। जिसके चलते संवेदनाओं का नशा हो जायेगा जैसे कि आज हो रहा है। आज इंसान के अंदर की सभी संवेदनायें लगभग मर चुकी हैं। आज हर कोई केवल अपने बारे में सोचता है। सब स्वार्थी है, किसी को किसी दूसरे की फिक्र नहीं है इसलिए आज देश पर भ्रष्टाचार का राज चलता है।


जिसके कारण देश चलाने वालों का नज़रिया देश के प्रति देशप्रेम न रहकर स्वार्थ बन गया है और उनकी सोच ऐसी की देश जाये भाड़ में उनकी बला से, उन्हें तो केवल अपनी जेबें भरने से मतलब है। अब हम आते हैं मुद्दे की बात पर जो इस कार्यक्रम के अंत में आमिर ने कही थी कि यदि देखा जाये तो ऐसी मानसिकता के जिम्मेदार कहीं न कहीं हम खुद ही हैं। क्यूंकि आज हम अपने बच्चों को बचपन से ही झूठ बोलना और भेदभाव करना खुद ही तो सिखाते है और आगे चलकर जब वही बच्चा कोई गलत काम करता है, या झूठ बोलता है। तब बजाय हम खुद अपने अंदर झाँकने के उस बच्चे पर आरोप प्रत्यारोप की वर्षा करते हैं। दोषारोपण करते है। मगर यह नहीं देख पाते कि हमने ही उसे यह कहा था कभी, कि अरे बेटा फलाने अंकल आये तो कह देना मम्मी पापा घर में नहीं है, या फिर अरे इसके साथ मत खेलो वह भंगी का बेटा है या चमार का बेटा है। (इन शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए माफी चाहूंगी) मगर हकीकत यही है घर में जब लोग बच्चों को समझाते है, तो इसी लहज़े में समझाते हैं मैंने खुद देखा है। यहाँ बहुत से लोग दिखावा करने के चक्कर में अपने बच्चों को उन दलितों के बच्चों के साथ खेलने की मंज़ूरी तो दे देते है। मगर उनके साथ खाना-पीना या उनके घर जाने की अनुमति नहीं दे पाते। क्योंकि वो लोग भले ही कितने भी साफ सुथरे क्यूँ न हो, मगर हमारी मानसिकता ऐसी बनी हुई है कि वह लोग हमेशा हमें खुद की तुलना में गंदे ही नज़र आते है।


क्या है इस समस्या का वाकई कोई निदान?? मेरी समझ से तो नहीं जब तक एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान नहीं समझेगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। रही बात इंसानियत की तो आज के ज़माने में इंसानियत की बात करना यानी एक ऐसी चिड़िया के विषय में बात करने जैसा है जिसकी प्रजाति लुप्त होती जा रही है। जिसका अस्तित्व लगभग खत्म होने को है। और यदि हमें इस चिड़िया को लुप्त होने से बचाना है तो संवेदनाओं को मरने से रोकना होगा। अपनी सोच बदलनी होगी जिसकी शुरुआत सबसे पहले खुद के घर से अर्थात खुद से ही करनी होगी। क्योंकि अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ सकता। इसलिए इस विषय पर सामूहिक रूप से चर्चा करना और इस समस्या के समाधान हेतु आगे आना और मिलजुल कर प्रयास करना ही इस परंपरा या इस कुप्रथा का तोड़ साबित हो सकता है इसलिए "जागो इंसान जागो" अपने दिमाग ही नहीं बल्कि अपने दिल के दरवाजे भी खोलो। क्योंकि भले ही ईश्वर ने दिमाग को दिल के ऊपर का दर्जा दिया हो, मगर तब भी दिमाग के बजाय दिल से लिए हुए फ़ैसले ही ज्यादा सही साबित होते है। जय हिन्द....                        

Friday, 13 July 2012

गुड़िया के बाल उर्फ केंडी फ्लॉस


गुड़िया के बाल का नाम तो आप सभी ने सुना ही होगा कुछ लोग इसे बुढ़िया के बाल के नाम से भी जानते हैं अर्थात इसे दोनों नामों से जाना जाता है। क्यूंकि वो देखने में बिलकुल गुड़िया के और बुढ़िया के दोनों ही के बालों की तरह नज़र आता है। चलिए आज आपको फिर ले चलते है बचपन के उन्हीं गलियारों में ठीक उस बजाज बल्ब के पुराने विज्ञापन की तरह

"जब मैं छोटा बच्चा था बड़ी शरारत करता था,
मेरी चोरी पकड़ी जाती जब रोशन होता बजाज"  

आप भी सोच रहे होंगे न अजीब पागल लड़की है, बात कर रही है गुड़िया के बाल की और विज्ञापन लिख रही है बजाज बल्ब का खैर हम बात कर रहे थे गुड़िया के बाल की, तो शायद आपको भी याद होगा कि अपने जमाने में यह गुड़िया के बाल कितने गहरे गुलाबी रंग के आया करते थे और उन दिनों चटकीले रंगों की चीजों का चलन भी कुछ ज्यादा ही हुआ करता था। जैसे आपको याद होगा वो 1 रूपये वाली लाल, पीली, नारंगी आइसक्रीम या यह गहरे गुलाबी रंग के बुढ़िया के बाल जिन्हें खाने के बाद ज़ुबान भी गुलाबी हो जाया करती थी और उन्हें बेचने वाला इन बुढ़िया के बालों को एक काँच के बक्से में रखकर लाया करता था। कितना आकर्षण हुआ करता था ना उन दिनों, इस मीठी सी चीज़ का वैसे तो हर मीठी चीज़ को मिठाई नहीं कहा जा सकता। क्यूंकि आज कल तो दवाइयाँ भी मीठी हुआ करती है। लेकिन यह एक ऐसी चीज़ हुआ करती थी, जो न तो मिठाई में आता है, न टॉफी में, न बच्चों की गोलियों में, लेकिन चूँकी इसका स्वाद बहुत तेज़ मीठा और बच्चों की मीठी गोली नुमा खुशबू लिए हुए होता है। इसलिए शायद इसे (केंडी फ्लॉस) कहने लगे होंगे यहाँ, लेकिन आज मैं यहाँ इसे बच्चों की मिठाई के नाम से ही संबोधित करूंगी।

आज बहुत दिनों बाद जब मैंने यह बच्चों की मिठाई उर्फ़ बुढ़िया के बाल खाये तो मुझे बहुत अच्छा लगा। एक ही निवाले के साथ जैसे सारा बचपन घूम गया मेरी आँखों में, हालांकी मुझे मीठा ज्यादा पसंद नहीं है। मैं तीखा खाने की शौकीन हूँ। लेकिन जब मैं खुद बच्ची थी, तब मुझे यह मिठाई खाने में बहुत अच्छी लगती थी। इसको बेचने वाला जैसे ही घंटी बजाते हुए निकलता था, तो बस उस घंटी की आवाज़ सुनने भर से ही मैं इसे खाने के लिए बहुत उत्साहित हो जाती थी। तब शायद ही मुझे कभी यह ख़्याल आया हो कि यह बुढ़िया के बाल बनते कैसे है। तब तो बस मुझे यह खाने से मतलब हुआ करता था। वैसे तो बच्चे हर नयी चीज़ को लेकर हमेशा से ही बहुत जिज्ञासु प्रव्रर्ती के हुआ करते है। मगर इस मामले में, मैं शायद उनमें से नहीं थी। मगर आज जब मैं बच्चों को किसी ऐसी चीज़ के लिए बहुत उत्सुक देखती हूँ तो, मुझे अपना बचपन बहुत याद आता है। ऐसा ही एक नज़ारा मुझे अभी हाल ही में देखने को मिला। अभी कुछ दिन पहले ही मेरे बेटे के स्कूल में समर फेयर (summer fair) लगा था। वहाँ उस मेले में मेरा भी उसके साथ जाना हुआ। मगर अफसोस, कि जल्दबाज़ी के चक्कर में ,मैं वहाँ अपना केमरा ले जाना ही भूल गई और उस वक्त मेरे मोबाइल में भी बैटरी अंतिम चरणों में थी, इसलिए मैं  चाहकर भी वहाँ की कोई तस्वीरें नहीं ले पायी। :-(                    

खैर जब मैं वहाँ पहुंची तो मुझे वहाँ मेले को देखकर, बड़ा अलग सा अनुभव हुआ।  हालांकी यह पहली बार का अनुभव नहीं था लेकिन हाँ स्कूल के नज़रिये से इसे पहला अनुभव कहा जा सकता है। वहाँ पहुँचने पर एकदम से थोड़ी देर के लिए मुझे ऐसा लगा कि कितना फर्क आ गया है, तब से आज तक हर एक चीज़ में और चीज़ें ही क्यूँ, अब तो न सिर्फ चीजों में बल्कि बच्चों की मानसिकता में भी एक बहुत बड़ा परिवर्तन मुझे उस दिन देखने को मिला। 
आज मैं अपने उसी अनुभव को आप सब के साथ सांझा करना चाहती हूँ। वैसे तो बच्चे कहीं के भी हों सब एक से ही होते हैं। यह मेरा अनुभव भी है और विश्वास भी, सभी की सोच लगभग एक सी होती जिसके चलते उनका व्यवहार भी एक सा ही देखने को मिलता है। उदाहरण के तौर पर जैसे लड़के और लड़कियों के खिलौने में आज भी वही फर्क है जो हमारे जमाने में था। यानि लड़कियां चाहे यहाँ की हों या अपने देश की उनके खिलौनो में आज भी वही रसोई का सामान ही होता है बस फर्क सिर्फ यहाँ और वहाँ उपयोग होने वाली वस्तुओं का है। जैसे अपने यहाँ लड़कियों के घर-घर खेलने वाले समान में रसोई गॅस होती है। तो यहाँ बिजली से चलना वाला हॉब होता है वहाँ प्रैशर कुकर होता है, तो यहाँ ओवन या माइक्रोवेव और यदि लड़कों की बात की जाये तो वो कहते है न boys are always boys तो बिलकुल ठीक ही कहते है क्यूंकि लड़कों के खिलौनों में यहाँ और वहाँ अर्थात देश और विदेश कहीं कोई खास अंतर नहीं है। जहां अपने इंडिया में लड़कों को बंदूक ,कार, और एलियन बनने का शौक है, तो यहाँ भी लड़कों को यही सब शौक है खास कर छोटे-छोटे लड़कों में एलियन से लड़ने वाला सुपर हीरो बनने का कुछ ज्यादा ही शौक होता है और अब शायद अपने यहाँ भी जिसके चलते बेन टेन, पावर रेंजर, बेट मैन जैसे सुपर पावर वाले सुपर हीरो लड़कों की  पहली पसंद में आते है। :)    

लेकिन इस सब से हटकर जो अनुभव मुझे मेरे बेटे के स्कूल के मेले में घूमने के दौरान हुआ, उसने मेरे इस विश्वास को ज़रा डगमगा दिया। अपने जमाने में हमारे लिए मेले का अर्थ हुआ करता था केवल भरपूर मनोरंजन, जी भर के मौजमस्ती खाने पीने से लेकर खेलने खुदने और सभी मन चाहे झूलों पर झूलना ही मेले जाने का एकमात्र उद्देश्य हुआ करता था। फिर चाहे वहाँ चार पालकी का झूला हो, 6 का हो, या 12 का हो उससे हमको कोई फर्क नहीं पड़ता था। हमारे लिए अहम हुआ करता था मौज मस्ती मनोरंजन, यानि हम उस दौरान जो भी करें उसमें बस मज़ा आना चाहिए। यही हमारा मुख्य उद्देश्य रहा करता था। 

किन्तु आज ऐसा नहीं है आज मनोरंजन के साधनों में भी उम्र का फर्क आ गया है। अब जहां बड़े-बड़े मेलों में पहले से ही झूलों को लेकर उम्र का बंधन होता है, वहीं स्कूलों में लगने वाले मेलों में बच्चे खुद ही अपनी उम्र के हिसाब से अपना मनोरंजन चुन लिया करते हैं। जैसे मेरे बेटे को उसके स्कूल मेले में ज़रा भी मजा नहीं आया। पूछिये क्यूँ ? भला मेले में जाकर भी किसी बच्चे को मजा न आए ऐसा भी होता है कभी.....मगर ऐसा हुआ।  क्यूंकि उसके हिसाब से वहाँ लगे सभी झूले और आय मनोरंजन के सभी साधन उसकी उम्र से छोटे बच्चों के लिए थे। उसके हिसाब से वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था, जो उसकी उम्र के बच्चों को मज़ा दे सके। हालांकी मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश भी की, कि कोई फर्क नहीं पड़ता बात तो मस्ती की है। जो मन करे वो कर लो, मगर उसने मुझसे साफ कह दिया, मुझे यहाँ कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। मेरा कोई दोस्त भी नहीं दिख रहा है सभी छोटे बच्चे ही नज़र आ रहे हैं। इसलिए आप चलो घर, मगर मैं कहाँ मानने वाली थी :-) मुझे तो मेला देखकर ही मन हो रहा था कि और कुछ नहीं तो कम से कम पूरे स्कूल का एक चक्कर तो बनता ही है। तो बस मैंने उसे लिया और कहा ठीक है चलते हैं, जल्दी क्या है। कम से कम देख तो लें, क्या-क्या है तुम्हारे स्कूल में अर्थात ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम यही देख लें कि कौन-कौन से स्टाल लगे हैं। तब कहीं जाके वो तैयार हुआ। 

बस तभी वहीं घूमते-घूमते हम पहुंचे इस गुड़िया के बाल वाले स्टाल पर जहां लम्बी लाइन लगी हुई थी मैंने भी अपने बेटे से कहा कि कुछ भी हो जाये यार हार्दिक यह तो खाना ही है, इसके बिना मेले में आने का शगुन पूरा नहीं होगा यार। चल लग जा लाइन में, बेचारा मन ना होते हुए भी मेरे मारे लाइन में लगा रहा। मेरा प्यारा सा आज्ञाकारी बेटा:-) तब मैंने देखा वहाँ आसपास बच्चों की भीड़ लगी थी। ऐसे बच्चों की जिन्हें वो लेने में कोई खास दिलचस्बी नहीं थी। मगर वो बनता कैसे है, यह देखने की बेहद उत्सुकता उन सभी बच्चों की आँखों में और उनके चहरे पर साफ नज़र आ रही थी। सबका हाव भाव कुछ ऐसा लग रहा था देखने में, जैसे कोई जादुई मशीन हो जिसमें मात्र पाउडर डालने से रुई जैसे बल्कि रुई से भी नरम गुड़िया के बाल बन जाते हैं। वो भी इतने मीठे की मुंह में रखते ही गायब हम्म यम,यम :-) आपके मुंह में भी पानी आ गया ना :-) और क्यूँ ना आए ,वो है ही बच्चों की ऐसी मिठाई कि बच्चे ही क्या बड़ो के मुंह में भी पानी आए बिना नहीं रह पाता है और भई हम तो ऐसी चीजों को देखकर थोड़ी देर के लिए यह हाइजीन, वाइजिन सब भूल जाते है। याद रखते है तो बस उस चीज़ को खाने का मज़ा। अब कोई हमें इस बात के लिए बेवकूफ समझे तो समझता रहे हमारी बला से .....:)

खैर लाइन में हमारा नंबर आया और हमने एक बड़ा सा गुड़िया के बाल वाला पैकेट खरीदा और पूरे रास्ते खाते-खाते आए और खूब मज़ा किया वो खाने के बाद मेरे बेटे के चेहरे पर भी थोड़ी चमक आ गयी थी और थोड़ी देर के लिए ही सही वो मेले की बोरियत को भूल गया था :) और इसे ज्यादा मुझे क्या चाहिए था :) है ना...      
                   

Friday, 6 July 2012

सावन का महीना और मैं ....


यूं तो ज़िंदगी में भी नजाने कितने मौसम आते जाते है। लेकिन चाहकर भी कभी कोई मौसम ठहरता नहीं ज़िंदगी में, हमेशा पतझड़ के बाद ही बहार आती है ,और बहार के बाद फिर पतझड़ बिलकुल सपनों के पंछियों की तरह नींद की डाल पर कुछ देर के लिए आए सपने वक्त की हवा के साथ उड़ जाते है और हमारे दिल में अपने कदमों के कुछ निशां छोड़ जाते हैं। जिनके सहारे कभी तो यह ज़िंदगी सुकून से गुज़र जाती है  तो कभी इन्हीं सपनों के पूरा ना होने पर एक टीस सी रह जाती है मन के किसी कौने में कहीं....मगर वक्त कभी एक सा कहाँ रहता है इसलिए शायद प्रकृति भी हमारे साथ कभी धूप तो कभी छाँव की अटखेलियाँ खेला करती है सदा।

लंबी चली गर्मियों के बाद आज फिर 'मौसम ने ली अंगड़ाई' और एक बार फिर 'आया सावन झूम के' आज सुबह जब उनींदी आँखों से देखा खिड़की की ओर तो जैसे एक पल में सारी नींद हवा हो गयी ऐसा लगा जैसे यह सुहाना मौसम बाहें फैलाये मेरे नींद से जागने का ही इंतज़ार कर रहा था। यूं तो यहाँ (U K) में सदा ही बारिश हुआ करती है। मगर आज न जाने क्यूँ एक अलग सा एहसास था इस बारिश में, ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यह बारिश का पानी मुझसे कुछ कहना चाहता है। मुझे कुछ याद दिलाना चाहता है। तभी सहसा याद आया सावन का महीना इस महीने यानि 9-7-2012  तारीख़ से सवान के सोमवार शुरू हो रहे हैं। यह याद आते ही मुझे सब से पहले याद आया वो मंदिरों में होती शिव आराधना वो मंत्रो उच्चारण से गूँजते मंदिर वो मंदिर के बाहर बेलपत्र, धतूरे,और पूजा के अन्य सामग्री से सजी दुकानों का कोलाहल सब घूम गया आँखों और इस सबके साथ-साथ मन प्रकृति के सुंदर नज़ारों में कही खो गया।
जैसा के आप सभी जानते ही होंगे कि सवान के महीने में हरे रंग का सर्वाधिक महत्व होता है। क्यूंकि सावन के महीने में धरती सूरज की तपिश से मुक्त होकर अपनी धानी चूनर छोड़ हरीयाली से परिपूर्ण ठंडी-ठंडी हरी चुनरी जो ओढ़ लिया करती है। बड़े बड़े पेड़ों से लेकर नन्हें-नन्हें पौधों पर पड़ी बारिश की बूंदें जैसे बचपन पर आया नव यौवन का निखार, जल मग्न रास्ते, सभी झीलों,तालाबों और नदियों में बढ़ता जलस्तर बहते पानी का तेज़ होता बहाव जैसे सब पर एक नया जोश ,एक नयी उमंग छा जाती है।
हर कोई, चाहे "प्रकृति हो या इंसान" इस मौसम में एक नये जोश के साथ अपने-अपने जीवन की एक नयी शुरुवात करने की इच्छा रखते है। इसलिए तो प्रकृति भी नए अंकुरों को जन्म देकर उन्हे नन्हें हरे-हरे पौधों के रूप में बदल कर नव जीवन की शुरआत का संदेशा देती नज़र आती है। वो घर आँगन में पड़े सावन के झूले, वो उन झूलों पर आज भी झूलता बचपन और उस बचपन में मेरे बचपन की झलक जिसे आज भी सिर्फ मैं देख सकती हूँ।
वो हरी-हरी चूड़ियों की खनक वो मिट्टी की सौंधी खुशबू में मिली मेहंदी की महक, वो मेहंदी के रंग को देखने का उतावला पन की रंग आया या नहीं,:-) वो नए कपड़ों को खरीद कर जल्द से जल्द पहने की होड वो भाइयों के आने का बेसब्र इंतज़ार, वो मिठाइयों की दुकानो पर सजे फेनी और घेवर की खुशबू, वो बाज़ारों का कोलाहल वो फुर्सत के पल में घड़ी-घड़ी बनती चाय और पकोड़ों की महक वो ताश के पत्ते, वो पिकनिक की जगह तलाशता बचपन वो गर्मागर्म भुट्टों का स्वाद,वो पानी सी भरी सड़कों पर बिना कीचड़ की परवाह किए बेझिझक भीगना वो मम्मी की डांट की बस बहुत होगया बहुत भीग लिए, अब बस करो और भीगोगे तो बीमार पड़ जाओगे।

सब जैसे एक साथ किसी चलचित्र की तरह चल रहा है आँखों में वो जामुन का स्वाद, वो सबसे सुंदर राखी चुन लेने की उत्सुकता और भी नजाने क्या-क्या....मेरे लिए तो इतना कुछ छुपा है इस सावन के मौसम में जिसे पूरी तरह व्यक्त कर पाना शायद मेरे बस में नहीं, बस एक यादों का अथाह समंदर है जिसमें यादों की ही लहरें उठ रही है। एक अजीब सी बेकरारी है। एक अजीब सा खिंचाव जो हर साल, हर सावन में, हर बार मुझे यूं हीं खींचता है अपनी ओर, और उन यादों के आवेग में मेरा मन बस यूँ हीं बहता चला जाता है। किसी मदहोश इंसान की तरह जिसे मौसम का नशा चढ़ा हो। ना जाने क्यूँ कुछ लोग नशे के लिए शराब का सहारा लिया करते है। कभी कुदरत के नशे में भी खोकर देखें ज़रा उसमें जो नशा जो खुमारी है वो शायद ही उस नशे में हो जिसे लोग नशा कहा करते हैं।

लेकिन इन सब चीजों के बाद भी सावन का महीना एक अत्यंत महवपूर्ण चीज़ के बिना अधूरा हैं और वह है संगीत वो सावन के गीत और उस पर बॉलीवुड का तड़का इसके बिना तो सावन नहीं भड़का वो चाय का कप और बारिश का पानी और किशोर कुमार की आवाज भला और क्या चाहिए ज़िंदगी में इस आनंद के सिवा :)
आप भी मेरे साथ मज़ा लिजिए इन सावन की बूंदों और किशोर कुमार के इस मधुर गीत के साथ जिसने मेरे मन के सभी एहसासों को ज़ाहिर कर दिया।
है ना!!! 
सावन के इन मधुर गीतों के बिना भी भला सावन पूरा है कभी ...:-) 
                                      

Monday, 2 July 2012

ऐसा भी होता है कभी-कभी ...


यूं तो बात अनुभव की है और कई बार अनुभव परिस्थितियों पर निर्भर करते है अर्थात यदि किसी विषय विशेष को लेकर आप को अपनी ज़िंदगी में कोई अनुभव होता है तो वो अनुभव बहुत हद तक परिस्थिति पर भी निर्भर करता है कि उस वक्त परिस्थिति आपकी मांनसिकता के अनुकूल है या विपरीत है क्यूंकि यदि उस वक्त आपकी मनः स्थिति के मुताबिक परिस्थिति अनुकूल है तो आपका अनुभव सुखद रहेगा और यदि परिस्थिति विपरीत है तो अनुभव दुखद भी हो सकता है दुखद अर्थात खरा या कड़वा या फिर यूं कहिए जैसे खाने में कभी-कभी नमक का ज्यादा होना। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी होता है कभी-कभी और क्यूँ न हो आखिर हूँ तो मैं भी एक इंसान ही इसलिए किसी-किसी बात को लेकर मेरे भी विचार बदलते रहते हैं। कभी ऐसा सोचती हूँ तो कभी वैसा।

अब  देखिये ना कामकाजी महिलाओं और गृहणियों को लेकर आज तक मैंने कितना कुछ लिखा है। लेकिन फिर भी मुझे खुद कभी-कभी ऐसा लागने लगता है कि कामकाजी होना ज्यादा अच्छा है। अब जैसे उदहारण के तौर पर यदि मैं कहूँ तो मेरे बेटे की कक्षा में उसके जितने भी दोस्त हैं उन सभी दोस्तों की मम्मियाँ जॉब करती है जिसके चलते उसे भी ऐसा लगता है कि मेरी माँ को भी जॉब करनी चाहिए क्यूंकि उसे ऐसा लगता है कि यदि मैं जॉब नहीं करती तो मैं कुछ नहीं करती अर्थात मुझे बहारी दुनिया के विषय में कोई जानकारी नहीं जिसके चलते मैं यहाँ इंगलेंड में रहने लायक नहीं हूँ। दरअसल उसकी ऐसी भावना या ऐसी सोच उसके नज़रिये से गलत नहीं है, क्यूंकि उसकी पढ़ाई यही से शुरू हुई है और जब से उसे थोड़ी बहुत समझ आयी है, तब से उसने यही देखा है उसकी माँ के अलावा बाकी सभी बच्चों की माँयें यहाँ जॉब करती है। जबकि इंडिया में उसकी दादी, नानी चाचीयाँ कोई जॉब नहीं करता। तो स्वाभाविक है उसके मन में यही छवि बननी ही थी, कि इंडिया में सभी औरते ऐसी ही होती है जो केवल घर में रहती है। इसलिए उन्हें बाहर की दुनियाँ के विषय में कोई खास जानकारी नहीं होती है।

यही सब देख कर लगता है कि यार जॉब करनी चाहिए हालांकी मैंने उसकी यह गलतफ़हमी कई बार दूर करने की कोशिश भी की, कई बार उसे समझाया भी की ऐसा नहीं है जैसा वो सोचता है। लेकिन थोड़े दिन शांति रखने के बाद फिर उसे लगने लगता है कि नहीं वो जो सोचता है वही सही है। इस सब के चलते ही मुझे भी कभी -कभी लगने लगता है कि उसे दिखाने के लिए ही सही मुझे जॉब कर लेनी चाहिए। मगर फिर दूसरे ही पल यह भी लगने लगता है कि नहीं गृहणी होने में भी कोई बुराई नहीं है। क्यूंकि मेरे जॉब कर लेने से शायद उसकी यह सोच पक्की हो जाएगी जो मैं ज़रा भी नहीं चाहिती।

यानि मुझे "पल में तोला पल में माशा" वाली स्थिति महसूस होने लगती हैं। वैसे तो मुझे अपने पति देव से कोई शिकायत नहीं, ना ही मुझे पर किसी तरह की कोई बंदिश है। मैं जब चाहूँ जो चाहूँ कर सकती हूँ। फिर चाहे वो मन चाहा कोई काम हो या पैसा खर्च करना। मैं जब चाहूँ जितना चाहूँ बेझिझक पैसा खर्च कर सकती हूँ। उन्होंने आज तक मुझे कभी नहीं रोका। अरे-अरे आप यह मत सोचिए कि मैं किसी तरह का कोई दिखावा कर रही हूँ। ऐसा ज़रा भी नहीं है, मैं तो बस अपनी बात को सही ढंग से कहने की कोशिश कर रही हूँ कि मुझ पर किसी तरह की कोई बंदिश नहीं है फिर भी कभी-कभी लगता है कि यार जॉब करनी चाहिए। जॉब करने से आत्म निर्भरता तो आती ही है साथ ही आत्म विश्वास भी बढ़ता है। यानि कुल मिलाकर एक अलग सी स्वतंत्रता का अनुभव होता है।

कहने का मतलब और कुछ न हो कम से कम कुछ भी करने से पहले ज्यादा सोचना नहीं पड़ता। क्यूंकि आप जो भी करते हो वो आपका अपना निर्णय होता है, इसलिए अंजाम की ज्यादा चिंता नहीं होती। हालांकी इसका मतलब यह नहीं है कि अंजाम की परवा होती ही नहीं है। आखिर जो भी है आपकी मेहनत भी उसमें शामिल है ऐसे में बिना सोचे समझे तो आप उस पर पानी नहीं फिरने दे सकते है ना !!! ऐसा ही शायद हर गृहणी भी सोचती है इसलिए वो भी अपने पति की कमाई को यूं ही केवल अपने शौक के लिए नहीं उड़ा देती। इसलिए पति भी बेफिक्र रहा करते है और कोई बंदिशें भी नहीं लगाते, क्यूंकि उनको पता है कि मेरी पत्नी जो भी करेगी सोच समझ कर ही करेगी। यूं ही नहीं कोई भी निर्णय लेकर अपनी मन मुताबिक पैसा पानी की तरह बहा देगी।  यानि दोनों ही सूरतों में पैसा खर्च करने से संबन्धित कोई भी निर्णय बहुत सोच समझ कर ही लिया जाता है। फिर चाहे वो कोई कामकाजी महिला का निर्णय हो या किसी गृहणी का, मगर फिर कभी -कभी दिल में ख़्याल आ ही जाता है विपरीत परिस्थिति का वो शायद इसलिए कि वो कहते है न

"पड़ोसी से के घर के आँगन की घास 
हमेशा खुद के आँगन की घास से ज्यादा ही हरी नज़र आती है"

शायद इसलिए जैसे मुझे जॉब को लेकर लगता है कभी-कभी हो सकता है ऐसा ही जॉब वाली महिलाओं को हम गृहणियों को लेकर भी लगता ही कभी-कभी, कि रोज़-रोज़ की ऑफिस की टेंशन से अच्छा है पति की कमाई पर ऐश करो :-) आखिर हैं तो वो भी इंसान ही ना। वाकई ऐसे अनुभव ज़िंदगी में ना जाने कितनी बार होते हैं जिनमे ऐसा लगता है कभी यह सही तो कभी लगता है वो सही है और फिर थोड़ी देर बाद ज़िंदगी वही अपने ढर्रे पर आ जाती है और उस क्रम में चलने लगती है जैसे पहले चल रही होती है। बस ये कमबख़्त दिमाग ही है जो एवईं यहाँ वहाँ भटकता रहता है। 

मगर फिर सोचा कि ऐसी कितनी महिलायें हैं हमारे देश में हमारे समाज में जिनको इस मामले में इतनी स्वतन्त्रता नहीं मिल पाती जितनी हमको मिली है। लोग आज भी अपनी पत्नियों के साथ कैसा-कैसा सुलूक करते है। उन महिलाओं के लिए तो जीवन जीना कठिन है फिर चाहे वो कामकाजी हो या ना हो, सामने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता। कई बार तो कई महिलाओं से काम कराया ही जाता है महज़ पैसे के लिए ताकि उनके पति अपने शौक और जरूरते पूरी कर सकें फिर चाहे उनकी पत्नी काम करना चाहे या ना चाहे उसकी मर्जी की कोई अहमियत नहीं हुआ करती। फिर ऐसे में बिना पति की इजाज़त पैसा खर्च करना चाहे जरूरत के लिए ही क्यूँ ना करना हो, उस स्त्री के लिए बहुत दूर की बात है और शौक का तो सवाल ही नहीं उठता।

मैं एक गृहणी हूँ मेरी मम्मी भी एक गृहणी है मेरे दादी, नानी सभी गृहणी ही रही है शायद इसलिए इसलिए मुझे कभी जॉब करने का ख़्याल भी नहीं आया न ही ज़रूरत ही महसूस हुई कभी, लेकिन कभी-कभी ऐसा कुछ हो जाता है कि कहीं दिल के किसी कोने में लगने लगता है कि जॉब करनी चाहिए। मगर जब उपरोक्त लिखी बातों को कहीं पढ़ती हूँ सुनती हूँ या देखती हूँ और जब यह ख़्याल आते हैं तो लगता है भगवान ने जिसको जो दिया वही अच्छा है उसमें ही इंसान को खुद को खुशनसीब समझना चाहिए, ना कि दूसरों को देखकर खुद को कम समझने की भूल करनी चाहिए। कामकाजी महिलाओं और गृहणियों दोनों का ही अपनी-अपनी जगह एक अलग ही महत्व है। है न ... आपको क्या लगता है