साधारण लोग सोचते है मृत्यु एक विराम है जिसके आगे सब समाप्त हो जाता है। शेष कुछ भी नहीं रहता सिवाए मिट्टी के पर क्या यही सच है। मेरे अंदर कई प्रश्न उठते है मगर जवाब आजतक नहीं मिला। मृत्यु क्या है एक जीवन का अंत या फिर एक नयी शुरुआत। मृत्यु को लेकर हम यह मानते है कि मरणोपरांत उस जाने वाले व्यक्ति की आत्मा तेराह दिन तक उसी घर में वास करती है। इसलिए ही तो किसी कि मृत्यु के उपरांत तेरहा दिनों का शोक मनाया जाता है। इसी सिलसिले में दूसरी और जानेवाले व्यक्ति की अंतिम इच्छा का भी बड़ा महत्व होता है। इतना कि कानून व्यवस्था भी किसी अपराधी को प्राण दंड देने से पूर्व उसकी अंतिम इच्छा के विषय में पूछती है और उसे पूर्ण करने का हर संभव प्रयास किया जाता है।
तो फिर दूसरी और ऐसा क्यूँ लगता है कि मौत तो अन्त है। अर्थात जब अन्त ही हो गया जीवन का, तो फिर कैसी आशा या अभिलाषा। जानेवाला चला गया। कहते है जब कोई जाता है तो उसके साथ उसका सर्वस्व चला जाता है। क्यूंकि जाते वक्त इंसान इस संसार रूपी मोहमाया से ऊपर उठ जाता है। उसका दुख-दर्द, भावनाएं सब समाप्त हो जाता है। तो अब प्रश्न यह उठता है कि जब जीवन ही खत्म हो गया तो उसके उपरांत उसकी इच्छा का क्या महत्व रह जाता है, जिसे उसके परिवार जन या संबंधी पूरा किया करते है। क्या उस व्यक्ति के अपूर्ण कार्यों का पूर्ण किया जाना या उसकी इच्छा पूर्ति की जाना क्या उस व्यक्ति तक पहुँचता है ? क्या मरणोपरांत भी एक इंसान इस मोहमाया से मुक्त नहीं हो पाता या यह सिर्फ हम ज़िंदा इंसानों के मन का भ्रम मात्र है।
या फिर कोई अंजाना अनकहा दबा छिपा सा डर जिसके दो प्रकार है। एक कहीं ऐसा न हो की यदि जानेवाले की अंतिम इच्छा पूरी नहीं की गयी तो वह भूत प्रेत बनकर हमें डराएगा। दूजा या फिर हम वास्तव में जानेवाले की अंतिम इच्छा को पूरा करना चाहते है ताकि कहीं इस मोह माया के चक्कर में उसकी आत्मा मोक्ष को प्राप्त करने से वंचित न रह जाये।
लेकिन यदि जानेवाला व्यक्ति परिवार के समस्त सदस्यों को अतिप्रिय है। तो फिर एक जीवित इंसान होने के नाते तो हम अपने उस प्रिय व्यक्ति को सदा अपने पास अपने निकट रखना चाहेंगे ना। फिर चाहे वह किसी भी रूप में हमारे निकट क्यूँ न रहे। कम से कम इस बात की तसल्ली तो रहेगी कि हमारा प्रिय व्यक्ति हमेशा हमारे साथ है। फिर ऐसे में हम उसकी मोक्ष की कामना कैसे कर सकते है। क्यूंकि मोक्ष का अर्थ तो दुबारा फिर कभी जन्म न लेना होता है ना ? सदा सदा के लिए ईश्वर में लीन हो जाना ही तो मोक्ष कहलाता है। है न ?
क्या उस वक्त, वास्तव में हम ऐसा सोचते है। ऐसा ही चाहते है। या फिर खुद को भ्रम में रखकर यह महसूस करने का निरर्थक प्रयास करते है। कि ऐसा करने से वह सदा-सदा के लिए हमारे पास रह जाएगा। क्यूंकि उस समय शायद हम यह स्वीकार ही नहीं कर पाते कि हमारा प्रिय वह व्यक्ति अब हमसे बहुत दूर जा चुका है। इतना दूर कि अब हम सिर्फ उसके दिखाये मार्ग पर चल सकते है। उसकी बातों का अनुगमन कर सकते है किन्तु उसे देख नहीं सकते, उसे छु नहीं सकते। न जाने क्यूँ मेरा मन कहता है! यदि हम वास्तव में उस दिवंगत आत्मा के प्रति ऐसी सोच रखते है। तब भी हम स्वार्थी ही बने रहते है। क्यूंकि हम इंसान है। जीवित इंसान और स्वार्थ हमारी प्रवृति है। हम भले ही यह सोचे कि हम अपने उस प्रिय व्यक्ति के प्रति लगाव और मोह को त्यागकर ही उसके मोक्ष कि कामना करते हैं। तो क्या आपको नहीं लगता कि ऐसा करने के पीछे भी कहीं न कहीं हमारे मन का डर ही हमें ऐसी कमाना करने के लिए विवश कर रहा होता है। इसलिए तो हम जानेवाले की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते है। क्यूंकि एक तरफ तो हमारे मन में यह डर व्याप्त रहता है कि जाने वाला इंसान हमें अब भी देख रहा है। इसलिए यदि हमने उसकी अंतिम इच्छा पूरी न कि तो वह न जाने हमारे बारे में क्या सोचे और फल स्वरूप हमें क्या दंड दे।
कहीं ऐसा न हो कि किसी अपूर्ण इच्छा के चक्कर में उसे मुक्ति ही ना मिले और वह भटकती हुई आत्मा बनकर हमें डराय। शायद इसलिए हम पूरे विधि विधान सहित उसकी समस्त मनोकामनाओं (जो हमें ज्ञात होती है) को पूर्ण करने का प्रयास करते है। कितने स्वार्थी हो जाते है हम। एक तरफ उन्हें मोक्ष दिलाना चाहते है और दूसरी और यह भी मानते है कि वह हमें देख रहे है। इसलिए ऐसा कोई कार्य न हो जिस से उनकी आत्मा को दुख पहुंचे। यानि बात घूम फिरकर वापस वही आ जाती है कि जब जीवन ही समाप्त हो गया तो फिर कैसा दु;ख-सुख कैसी अभिलाषा तेरहा दिन पश्चात तो स्वयं आत्मा का मोह भी हमसे छूट जाता है और वह भी नया जन्म ले लेती है। या नया शरीर धारण कर लेती है। फिर कैसी मोक्ष।
यूं भी मोक्ष का मिलना न मिलना तो दिवंगत आत्मा के कर्मफल पर ईश्वर को निर्धारित करना होता है। फिर हम कौन होते है अपने कर्मो से किसी को मोक्ष दिलाने वाले। क्या वास्तव में यह संभव है वह भी इस घोर कलयुग में, मुझे तो नहीं लगता। पर मेरे मन को तो यहाँ भी चैन नहीं। गीता में लिखा है आत्मा तो कभी मरती नहीं, मारता तो केवल शरीर है। और यदि देखा जाये तो हमें हर एक इंसान के शरीर से ही तो प्यार होता है। आत्म तक तो हम पहुँच ही नहीं पाते। क्यूंकि हमारे अंदर उतना सामर्थ है ही नहीं कि हम किसी व्यक्ति को उसकी आत्मा के आधार पर प्रेम कर सके। फिर चाहे रिश्ता कोई भी हो। शरीर ही तो माध्यम है आत्मा तक पहुँचने का ? नहीं !
जैसे व्यक्तिव से पहले चेहरा ही पहचान होता है। ठीक उसी तरह आत्मा से पहले तो शरीर ही दिखाई देता है न । तो फिर इस नाते हमे शरीर के जाने का दुख ज्यादा होना चाहिए न ? होता भी वही है। तभी तो हम गीता पढ़कर अपना मन बहलाने की कोशिश करते है। फिर भी हम आत्मा की शांति के विषय में अधिक सोचते है। जबकि हम यह भली भांति जानते है कि आत्मा तो स्वयं ही परमात्मा का स्वरूप है। तभी तो वह हमारा पथ प्रदर्शक होने का कार्य कर पाती है। हाँ यह बात अलग है कि हम ही अपने अहम और स्वार्थ में इतने अंधे हो जाते हैं कि चाहकर भी अपनी आत्मा की आवाज को अनुसूना करके सहज ही पापा के भागीदार बन जाते है। इस सबके बावजूद भी पार्थिव शरीर से ज्यादा उस आत्मा रूपी परमात्मा की इतनी चिंता क्यूँ करते है ? आखिर क्यूँ ?