Monday 4 July 2011

क्या हाउस वाइफ़ का कोई अस्तित्व नहीं

आज मैंने वन्दना जी का ब्लॉग पढ़ा और ब्लॉग पढ़ते ही ऐसा लगा, इस विषय पर कहने को तो मेरे पास भी बहुत कुछ है। इतना कुछ कि यह मुद्दा अच्छी ख़ासी चर्चा का विषय बन सकता है।   उनके ब्लॉग का नाम था क्या हाउस वाइफ़ का कोई अस्तित्व नहींऔर इसलिए मैंने अपने ब्लॉग का नाम भी यही रखा है। 
मैं भी इस विषय पर कुछ रोशनी डालना चाहती हूँ। आज हमारे देश में महिलायें भी पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही है, जो हमारे लिए बहुत ही गर्व कि बात है और क्यूँ ना हो थोड़ा ही सही मगर आज की तारीख में कहीं तो नारी को अपना हक मिला है। जागरूकता मिली है। माना कि आज की महँगाई के जमाने में स्त्री और पुरुष  दोनों का ही काम करना बहुत जरूर है। किसी एक के नौकरी में होने पर घर का खर्च चलाना थोड़ा मुश्किल हो गया है। लेकिन यह बात जितनी सच है, उतनी ही सच यह भी है, कि एक स्वस्थ समाज के लिए जितना एक पढ़ी लिखी एवं काम काजी महिला का होना मायने रखता है, उतना ही महत्वपूर्ण एक ग्रहणी की भूमिका भी है, जिस तरह स्त्री और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू है और एक बिना दूसरा अधूरा है। ठीक उसी तरह एक काम काजी महिला और एक कुशल ग्रहणी भी एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह ही हैं। एक के बिना दूसरी अधूरी ही है और हमेशा ही रहेगी।
मगर पता नहीं क्यूँ लोग यह भूल जाते है,  कि एक मात्र नारी ही आप के परिवार का वो हिस्सा है, जो चाहे तो आप के घर को स्वर्ग बना सकती है, और जो चाहे तो नरक भी बनना सकती है।  इसलिए जितना महत्व हम एक नौकरी पेशा महिला को देते हैं, उतना ही सम्मान हमको एक ग्रहणी को भी देना चाहिए जो हम अकसर नहीं दे पाते, खैर यह बात यदि कोई पुरुष कह तो उस में कोई अचंभे की बात नहीं लगती। लेकिन अफसोस तो तब होता है, जब एक नारी ही दूसरी नारी के प्रति यह भावना रखती है कि वह स्वयं काम कर रही है, तो दूसरी घर बैठी ग्रहणी उस के आगे कुछ भी नहीं यह बात मैं इसलिए बोल रही हूँ क्यूंकि यह मेरा खुद का अनुभव है। अच्छी ख़ासी पढ़ी लिखी औरतें मुझ से कई बार पूछती हैं, कि आप सारा दिन घर में बैठे-बैठे बोरे नहीं होते हो। करते क्या हो आप लोग, घर में खाना बनाने और घर के रोज के छोटे मोटे कामों के अलावा और काम ही क्या होता है करने के लिए, हमें तो अगर घर में रहना पड़े तो हमें तो बुखार हो जाता है। आप को नहीं लगता आप की शिक्षा व्यर्थ हो रही है। आप के माता-पिता ने आप को इतना पढ़ाया लिखाया, क्या घर में बैठ कर चूल्हा चौका करने के लिए, अब आप ही बताएं कि घर पर रहने वाले लोगों की शिक्षा क्या व्यर्थ होती है।  क्या शिक्षा के मायने केवल नौकरी करना ही होता है। अगर ऐसा ही है तो फिर आज भी हर माँ अपनी बेटी को एक कुशल ग्रहणी होने के गुण क्यूँ सिखाती है। मुझे आज भी याद है मेरी मम्मी कहा करती है ,कि जमाना चाहे कितना भी क्यूँ न बादल जाए मगर एक औरत के लिए कभी नहीं बदलता औरत चाहे (आई.एस) अफसर ही क्यूँ न हो मगर उस के लिए घर का काम आना भी उतना ही जरूर ही है जितना की उसकी नौकरी। आज भी किसी लड़की की शादी का विज्ञापन जब उसकी शादी के लिए पेपर में जब भी दिया जाता है, तो उस के साथ गृह-कार्य में दक्ष जरूर लिखा जाता है।
कहते है बच्चे का पहला स्कूल उस के लिए उसकी माँ ही होती है। सच ही कहते है, मगर इस के लिए औरत का नौकरी करना जरूरी नहीं क्यूँकि माँ बनने वाली औरत फिर चाहे वो नौकरी करती हो या एक साधारण सी ग्रहणी हो संस्कार हमेशा अच्छे ही देगी और हम दूर क्यूँ जाएं हमारी अपनी माँ ने कभी कोई नौकरी नहीं कि मगर हमें वो शिक्षा दी है, जिसके बल पर आज हम अपने आपको किसी से कम नहीं समझते और अपनी जिंदगी के फ़ैसले खुद कर सकते हैं, यह बात क्या कुछ कम है। मेरी मम्मी एक कुशल ग्रहणी है , मैं भी हूँ  कुशल हूँ या नहीं वो तो मुझे खुद भी पता नहीं किन्तु मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं कि मैं भी अपनी मम्मी कि तरह एक ग्रहणी ही हूँ और मुझे इस बात पर गर्व है।
मगर इस बात का या इस लेख को लिखने का मेरा मत यह नहीं है की मुझे नौकरी करने वाली महिलों से कोई आपत्ति है, ना बिलकुल नहीं, मुझे आपत्ति है तो सिर्फ उनकी इस सोच से जो उन्हें लगता है कि घर में रहने वाली ग्रहणी का कोई अस्तित्व नहीं है, उसकी शिक्षा बेकार है इत्यादि। क्योंकि अगर ऐसा होता तो शायद दुनिया का हर घर आज की तारीक में बर्बाद होता और शायद फिर कभी कोई मर्द यह बात गर्व से नहीं कह पता कि उसकी सफलता के पीछे उसकी घर की ही किसी स्त्री का हाथ है।
अगर ग्रहणियाँ न होती तो शायद ही संयुक्त परिवार भी कभी ना होते और आज यदि देखा जाए तो काफी हद तक संयुक्त परिवार ना होने का एक कारण कहीं ना कहीं बाहर जाकर काम करने वाली महिलायें भी है, क्योंकि मेरा ऐसा मानना है ,घर के बुजुर्ग पुराने पेड़ की तरह होते है, जो आसानी से बदलाव को ले नहीं पाते या यूं कहना ज्यादा ठीक होगा कि समय के साथ बदल पाना उनके बस की बात नहीं होती। ऐसे में जब उन के द्वारा तुलना किये जाने पर यह नजर आता है कि घर की औरत ही घर की जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभा नहीं पा रही है, तो उनसे रहा नहीं जाता और घरों में रोज का कलह होता है। जिसके कारण घर का मर्द तंग आकार अलग होने का निर्णय लेता है और परिवार टूट कर बिखर जाता है। क्योंकि अकसर देखा गया है कि नौकरी पेशा महिला के सामने कई बार ऐसी परिस्थियाँ उत्पन्न हो जाती है जिस के कारण वो चाह कर भी समझौता नहीं कर पांती और कभी-कभी परिवार वाले नहीं कर पाते और नतीजा घर का अलग हो जाना।
 मगर सभी लोग एक से नहीं होते कुछ ऐसी भी महिलायें हैं, जो बड़ी ही कुशलता से अपने घर और नौकरी दोनों ही ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभा रही है। यहाँ मुझे एक बात और दिमाग में आ रही है, कहते हैं सभी रीति-रिवाज, नियम-कानून, हमारी बुज़ुर्गों ने बनाए है ,तो इस बात का ताल्लुक भी कहीं न कहीं उनके बनाये किसी न किसी कानून से जरूर होगा, कुछ तो सोचा होगा उन्होने भी इस विषय पर की औरत घर संभालेगी और मर्द माई कर के लायेगा और इसी बात पर आधारित एक कार्यक्रम Star plus वालों ने भी दिखाया था यदि आप को याद हो तो जिसका नाम था लाइफ बिना वाइफ़ जिस को सब से ज्यादा महिलाओं ने पसंद किया था, और जिसके ज़रिये घर के मर्दों को इस बात का अच्छा खासा पता चला था कि बिना wife के life होना कितना कठिन है। ठीक यही बात कुछ हद तक काम करने वाली महिलाओं पर भी लागू होती है क्योंकि कुछ हद तक तो औरतों में भी वह अहम आ ही जाता है जो अकसर भारतीय मर्दों को होता है, जैसे हमारी कमाई, हमारे अधिकार, हमारा कैरीयर, हमारी शिक्षा यह सब बातें "हम" में ना रह कर मैं में बदल जाती है और फिर बात तलाक तक पहुँच जाती है और ऐसे कई सारे उदाहरण हैं मेरे सामने। मगर मैं यहाँ उनका वर्णन नहीं करना चाहती और फिर घमंड तो राजा रावण का नहीं रहा तो यह तो केवल इंसान हैं।
अंतत बस इतना ही कहना चाहूँगी कि कोई किसी से कम नहीं है। न औरत मर्द से और ना ही कोई ग्रहणी किसी नौकरी पेशा महिला से, सभी की अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण भूमिका है। जिसके चलते सभी एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसलिए कभी सामने वाले व्यक्ति को अपने आप से कम मत समझे। जय हिन्द .....

12 comments:

  1. एक गृहणी का रोले किसी भी सूरत में नौकरी पेशा स्त्री से कम नहीं होता, नौकरी पेशे में सिर्फ बाहरी कार्य होते है गृहणी,बाहर भीतर सभी में पारंगत होती है , सबकी देखभाल, बच्चों की परवरिश, पढ़ाई ,कैरेअर कौन्सेल्लिंग सभी तो बखूबी निभाती है वो फिर कम कैसे..आक सकते है हम और आप .

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  2. हाऊस वाईफ़ को कम आंका ही नही जा सकता और जो आंकते हैं ये उनकी कुंठित सोच का परिणाम है………और स्त्री कोई भी हो चाहे वर्किंग चाहे हाऊस वाईफ़ दोनो ही अपने दायित्वो को अच्छे से जानती हैं। आपने बहुत सुन्दर और सार्थक लिखा है पल्लवी जी।

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  3. सबकी अपनी अपनी सोच है पल्लवी जी. लेकिन जहाँ तक मेरी समझ है की इस दुनिया में बेकार कुछ भी नहीं. हाउस वाइफ बन के जीना तो बहुत सम्मान की बात है.

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    http://www.manoramsuman.blogspot.com
    http://meraayeena.blogspot.com/
    http://maithilbhooshan.blogspot.com/

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  4. एक हाऊस वाईफ़ यानि गृहणि ..ये शब्द ध्यान में आते हुई मुझे अपनी मां का चेहरा ध्यान में आता है तो सोचता हूं कि फ़िर तो उनकी स्थिति अतुलनीय होती है , और ये किसी भी प्रमाणपत्र किसी भी ईनाम की मोहताज़ नहीं होती , पूरी जिंदगी खुद इसका दस्तावेज़ होता है । सोचता हूं कि हाऊस हसबैंड पर मैं कुछ लिख ही डालूं ,देखता हूं कब तक लिख पाता हूं । अच्छी और विचारोत्तेजक पोस्ट है । आपके ब्लॉग का अनुसरक हो गया हूं

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  5. बिलकुल सही कहा है की किसी गृहणी की कीमत किसी से भी कम नहीं बल्कि ज्यादा ही समझिये | पर समाज क्या सर्कार के लिए भी उनकी कोई कीमत नहीं होती है उनके किये कामो की न कोई मूल्य होता है और न ही कोई उन्हें सम्मान दिया जाता है यहाँ तक की उनकी कही बातो को भी ज्यादा ध्यान से सुनाने की जरुरत नहीं समझी जाती है | किन्तु ऐसी महिलाओ को भी कोई कमी नहीं है जो बड़ी खूबी से घर और बाहर दोनों जगह अपने कर्तव्य अच्छे से निभाती है |

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  6. जो लोग ग्रहणी को कम आंकते हैं उनको 7 दिन के लिए ग्रहणी का कार्य करने का मौका दीजिए, अपने आप लाइन पर आ जायेंगे :)

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  7. पल्लवी जी बहुत उम्दा लिखा है आपने. इसमें गृहस्थियों की सारी तस्वीर आ गई है. एक पक्ष बच्चों का भी है. मैंने अपने परिवार में देखा है कि कामकाजी महिलाओं के बच्चे भावनात्मक रूप से अपोषित रह जाते हैं जबकि घरेलू महिलाओं की संतान इस दृष्टि से मज़बूत होती है. कुछ मामलों में देखा है कि जहाँ माता-पिता दोनों घर से बाहर जा कर नौकरी करते हैं उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं. आगे चल कर उनके स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करना पड़ता है. घरेलू महिलाओं की भूमिका अधिक सकारात्मक है.

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  8. Waah didi iss bar aapne ek bahut mahatvapurn topic likha ha,, ye hamare samaj ki sachai ban chuka ha ki aurte shadi ke baad sirf apna ghar sambhalengi ya ye kahena thik hoga ki apne ghar ma kaed hokar rahengi par ye galat ha bahut galat....

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  9. सम्‍यक विचार.

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  10. मेरे ख्याल से आज की महिलाओं को भ्रमित किया गया है यह सोचने के लिए कि जो महिलाएं बाहर काम करती हैं, वही ज़िन्दगी में सफल हैं..
    बुजुर्गों ने अगर महिलाओं को घर का काम सौंपा था तो मेरे ख्याल से इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि घर बनाने, संभालने और संवारने में जितनी मेहनत, निष्ठा और संयम की ज़रूरत है, वह कभी भी एक पुरुष के भीतर नहीं दिखेगी... पर आज की शिक्षा इतनी गहराई में सोचने वाली नहीं रही है..

    बहुत ही सार्थक पोस्ट और वैसी महिलाओं को ज़रूर पढना चाहिए जिनके लिए घर से ज्यादा ऑफिस का काम महत्व रख रहा है..
    एक घर को आबाद भी वही करती है और बर्बाद भी..

    आभार

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  11. मॆ सिर्फ़ इतना ही कहना चाहुगा कि " house wife परिवार रुपी माला को जोड कर रखने वाली डोर है"

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  12. bahut sundar parichay karwaaya aap ne "house wife se" , is sandarbh mai toh koi vivaad he nahi hona chaiye , har ek insaan aapni apni jagah par sthapit hai aur wo apna jimmedaari bakhoobi nibha raha hota hai . "House Wife" hai toh hai , koi uski sakaratmakta se inkaar nahi kar sakta aur na he ye keh sakta hai ki uska koi astitva nahi hai , samaj k nirmaan mai kushal grahni "HOUSE WIFE" ka jo yogdaan hai wo shabdo mai bayan nai ho sakta .....

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