Sunday, 16 February 2014

ये कहाँ आ गए हम…

फरवरी का महीना यानी हमारे परिवार के लिए वैवाहिक वर्षगाँठ का महीना है। इस महीने हमारे घर के सभी जोडों की शादी की सालगिरह होती है। कल १७  फरवरी को मेरी भी है। लेकिन आज इतने सालों बाद जब पीछे मुड़कर देखो तो ऐसा लगता है।
“ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ-साथ चलते”
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ये कहाँ आ गए हम...

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फरवरी का महीना यानी हमारे परिवार के लिए वैवाहिक वर्षगाँठ का महीना है। इस महीने हमारे घर के सभी जोडों की शादी की सालगिरह होती है। कल १७  फरवरी को मेरी भी है। लेकिन आज इतने सालों बाद जब पीछे मुड़कर देखो तो ऐसा लगता है।

“ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ-साथ चलते”


लेकिन आज जब वर्तमान ज़िंदगी को इस गीत से जोड़कर देखो। तो तब भी तो ऐसा ही लगता है। समय के साथ-साथ कितना कुछ बदल गया। आज से तेरह साल पहले ज़िंदगी क्या थी और आज क्या है। घर में सबसे छोटी होने के नाते शादी के पहले कभी कोई ज़िम्मेदारी उठायी ही नहीं थी। मगर शादी के बाद किस्मत से मम्मी पापा (सास –ससुर) के बाद सबसे बड़ा बना दिया। सभी की ज़िंदगी में शायद बदलाव का यह दौर तो शादी तय होने के दिन से ही शुरू हो जाता है। नहीं ? न सिर्फ रिश्ते बदल जाते है। बल्कि उनके साथ-साथ ज़िंदगी भी एक नए रंग में, एक नए साँचे में ढलने लगती है।

वैसे तो ऐसा सभी के साथ होता है। लेकिन फिर भी यहाँ रहकर ऐसा लगता है जैसे अंग्रेजों की ज़िंदगी में शायद उतना परिवर्तन नहीं आता है। जितना कि हम भारतीय लोग महसूस करते हैं। यहाँ ज़िंदगी शादी के बाद भी पहले की तरह ही चलती है। सब की अपनी-अपनी ज़िंदगी में अपने आप से जुड़ी एक अलग एवं एक निजी जगह होती है। जिसमें कोई दखल नहीं देता। यहाँ तक कि पति पत्नी भी एक दूसरे की उस निजी कही जाने वाली ज़िंदगी में दखल नहीं देते। यहाँ आपकी ज़िंदगी केवल आपकी रहती है। यहाँ तक कि डॉक्टर भी एक की रिपोर्ट दूसरे के साथ नहीं बाँटता। आपके कहने पर भी नहीं, जब तक दूसरा बाँटने के लिए आज्ञा नहीं दे देता।

मगर अपने यहाँ तो मान्यता ही यह है कि शादी दो व्यक्तियों का मिलन नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन है। दो ऐसे परिवार जो एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न होते है। जिनका न सिर्फ रहन सहन, बल्कि सोच तक मेल नहीं खाती। ऐसे परिवारों में होती है शादियाँ और हम सारी ज़िंदगी निभाते है उन रिश्तों को, जो हमारे जैसे हैं ही नहीं। फिर भी समझौता करना और आपसी सामंजस्य बनाए रखते हुए चलने की दी हुई शिक्षा हमें चाहकर भी अपने बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ जाने की सलाह नहीं देती।

सच कितनी बदल जाती है ज़िंदगी। जहां मुझे एक और भाईयों का तो खूब प्यार मिला।  मगर कभी बहनों का प्यार नहीं मिला। क्यूंकि मेरी कोई बहन नहीं है। लेकिन आज देवरानियाँ भाभी-भाभी करके आगे पीछे घूमती है। जहां कभी यह नहीं जाना था कि प्याज काटकर भी रसे की सब्जी बनाई जा सकती है। वहाँ तरह-तरह का हर एक की पसंद का अलग-अलग तरह का खाना बनाना सीखा। वो भी बड़े प्यार और दुलार के साथ। पूछिये क्यूँ ? क्योंकि मेरी कोई ननंद नहीं है।  इसलिए मेरी शादी के बाद मेरी सासु माँ ने मुझे बेटी की तरह सब सिखाया। यह उनका शौक भी था और शायद जरूरत भी थी ...

यूं तो मुझे सब आता था। लेकिन खान पान में ज़मीन आसमान का अंतर होने के कारण उन्होने मुझे अपने घर के (जो अब मेरा हो चुका था) में ढलना सिखया। मत पूछिये कि क्या-क्या नहीं किया उन्होंने मेरे लिए। शायद मेरे से ज्यादा समझौता तो उन्होंने किया। अपनी सोच के साथ अपनी परम्पराओं के साथ। फिर भी कभी मुझ पर दबाव नहीं डाला गया। 'अब भई किसी को बुरा लगे तो लगे'। 'पर सच तो यही है कि जितना सास का प्यार और दुलार मुझे मिला। उतना शायद आने वाली बहुओं को भी नहीं मिला'। हाँ एक बात ज़रूर कॉमन रही। वो ये कि मुझे बच्चों से शुरू से ही लगाव था, आज भी है। नवरात्रि और गणेश चतुर्थी के समय मेरी डांस क्लास में भी मैं बच्चों से घिरी रहती थी और आज भी जब घर जाना होता है तो अपने भतीजे भतीजियों से घिरी रहती हूँ। रही बात देवरों की, तो वो देवर कम दोस्त ज्यादा है। इसलिए कभी बड़े छोटे वाली बात महसूस ही नहीं हुई।

DSC01590 हाँ छोटे मोटे मन मुटाव लड़ाई झगड़े तो हर घर में होते हैं। आखिर इनके बिना भी तो प्यार नहीं बढ़ता। लेकिन फिर भी इन रिश्तों को निभाने में सजाने में सँवारने में यदि मेरा साथ किसी ने दिया तो वो केवल पतिदेव ने दिया। यदि उनका सहयोग न होता तो शायद मेरे लिए इन रिश्तों को समझना थोड़ा कठिन हो जाता।  लेकिन उन्होंने हर कदम पर मेरा साथ दिया। कई बार अपने परिवार के खिलाफ जाकर भी सही को सही और गलत को गलत बताया। इतना ही नहीं उन्होंने तो मुझे कई गुरु मंत्र भी दिये। जिनसे मुझे बिना किसी तनाव के रिश्तों को संभालने की समझ मिली। लेकिन वो सीक्रेट है भाई हम बता नहीं सकते :) तो कोई पूछे न। यही सब सोचकर और उनका सहयोग पाकर ही कभी–कभी ऐसा लगता है कि यह तेरह साल जैसे तेरह दिन की तरह निकल गए और समय का पता ही नहीं चला। कितना कुछ हुआ इन तेरह सालों में, मैंने ना सिर्फ अपना घर छोड़ा बल्कि आज की तारीख में तो अपना देश तक छोड़े बैठी हूँ। कहाँ मैं अकेली घर की बहू थी और कहाँ आज एक माँ से लेकर भाभी ताई ,चाची, मामी सब बन गयी हूँ। न सिर्फ रिश्तों की बल्कि अब तो शारीरिक काया पलट तक हो गयी है। अब तो पुरानी तस्वीर को देखकर भी यही लगता है कि “ये कहाँ आ गए हम”.... :)

Wednesday, 5 February 2014

आने वाले वक्त का पूर्व संकेत देती है ज़िंदगी ...

आज सुबह कपडों की अलमारी जमाते वक्त अचानक ही एक पुराने कोट पर नज़र जा पड़ी। जैसे ही उसे उठाया तो उसकी जेब से चंद सिक्के लुढ़ककर ज़मीन पर जा गिरे। कहने को तो वो सिक्के ही थे मगर उनके बिखराव ने मेरे मानस पटल पर ना जाने कितनी बीती स्मृतियों के रंग बिखेर दिये। सिक्कों को तो मैंने अपने हाथों से उठा लिया। मगर उन यादों को मेरी पलकों ने चुना और मेरी नज़र जाकर उस लाल कालीन पर अटक गयी।
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आने वाले वक्त का पूर्व संकेत देती है ज़िंदगी ...

आज सुबह कपडों की अलमारी जमाते वक्त अचानक ही एक पुराने कोट पर नज़र जा पड़ी। जैसे ही उसे उठाया तो उसकी जेब से चंद सिक्के लुढ़ककर ज़मीन पर जा गिरे। कहने को तो वो सिक्के ही थे मगर उनके बिखराव ने मेरे मानस पटल पर ना जाने कितनी बीती स्मृतियों के रंग बिखेर दिये। सिक्कों को तो मैंने अपने हाथों से उठा लिया। मगर उन यादों को मेरी पलकों ने चुना और मेरी नज़र जाकर उस लाल कालीन पर अटक गयी। जिस पर वो सिक्के गिरे थे और तब  न जाने कब उस कोट और कालीन को देखते ही देखते मेरा मन बचपन की यादों में खो गया। तो सोचा क्यूँ ना यह अनुभव भी आप लोगों से बांटा जाये।

भोपाल में इन दिनों एक मेला लगता है जिसे स्तिमा कहते हैं। लेकिन अब यह मेला नवंबर दिसंबर में लगने लगा है। यह कहने को तो मेला होता है मगर उसमें बिकते केवल कपड़े हैं। वो कपड़े जो कपड़ा बनाने वाली कंपनियों ने उसमें आए फाल्ट के कारण उसे मुख्य बाज़ार में नहीं बेचा। जबकि उन कपड़ों की वो कमी इतनी बारीक होती है कि अत्याधिक ध्यान से देखने पर ही दिखाई देती है अन्यथा यदि किसी को बताया न जाये तो शायद ही कोई उन कपड़ों की उस कमी को देख पाये। मुझे याद हैं मैंने भी ज़िद करके बचपन में वहाँ से एक कोट खरीदा था। सफ़ेद रंग का काली धारियों वाला कोट। उन दिनों मेरी उम्र कोई 5-6 वर्ष की रही होगी। तब मुझे कोट पहनने का बड़ा शौक हुआ करता था। न जाने क्या बात थी उस कोट में कि उस पर मेरा दिल आ गया था। तब कहाँ किसे पता था कि एक दिन ज़िंदगी मुझे एक ऐसे देश ले जाएगी। जहां कोट जैकेट जैसी चीज़ें मेरी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाएँगी।

फिर धीरे-धीरे एक दिन वो भी आया। जब कॉलेज के दिनों में मैंने मेरी मम्मी का ओल्ड स्टाइल का कोट पहना, खूब पहना। हालांकी वो कोट देखने में ही बहुत ओल्ड फॅशन दिखता था। मगर जाने क्यूँ उसे पहनने में मुझे कभी कोई झिझक या किसी भी तरह की कोई शर्म महसूस नहीं हुई।

सच यूं तो ज़िंदगी एक पहेली से कम नहीं होती। अगले पल क्या होगा यह कोई नहीं जानता। लेकिन फिर भी मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि आने वाले पल का संकेत भी देती है ज़िंदगी, यह और बात है कि हम उस संकेत को उस वक्त समझ पाते है या नहीं या फिर शायद कच्ची उम्र के मासूम मन की कल्पना या सोच मात्र ही आगे चलकर सही साबित हो जाती है। यह ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता। क्यूंकि उस उम्र में जो विचार आते है वो पूरी तरह शुद्ध होते हैं। किसी भी तरह का मोह, लोभ, लालच, कुछ भी तो नहीं होता मन के अंदर, बस एक हवा के झोंके की तरह एक ख्याल मन में आया और आकर चला गया। फिर कभी दुबारा उस ख्याल पर न कोई ध्यान दिया गया न कभी ध्यान देने की ज़रूरत ही समझी गयी। और कभी दूर कहीं भविष्य में जो अब वर्तमान बन चुका है, उसमें खुद को उस ख्याल से जोड़कर देखा तब कहीं जाकर इस बात का यकीन आया कि वाकई ज़िंदगी और वक्त दोनों ही आने वाले समय का संकेत देते हैं। बस हम ही नहीं समझ पाते।

यूं तो उन चंद सिक्को का मेरे कोट की जेब से निकल कर बिखर जाना कोई अचरज की बात नहीं थी। मगर मेरी निगाह अटकी थी उस लाल कालीन पर। क्यूंकि ऐसे ही बचपन में टीवी देख-देखकर मन में एक और इच्छा जागी थी कभी, दो मंजिला घर में रहने की इच्छा। जहां सीढ़ियों पर लाल रंग का कालीन बिछा हो। जिस पर चढ़ते उतरते वक्त एक भव्य एहसास हो जैसे आप कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि कोई खास इंसान हो। यह फिल्मों का असर था शायद, पापा के ट्रांस्फर से यह इच्छा पूरी तो हुई मगर पूरी तरह नहीं। क्यूंकि दो मंज़िला मकान तो मिला। लेकिन उन सीढ़ियों पर बिछा लाल कालीन न मिला। फिर भी माँ को कई बार कहा करती थी मैं कि ज़रा स्टाइल से चढ़ा उतरा करो। लगना चाहिए फिल्मों जैसा घर है अपना, उस वक्त तो मेरी मम्मी यह सुनकर मुस्कुरा दिया करती थी। और मुझी से कहा करती थी कि ज़रा करके दिखना कैसे चढ़ना उतरना है। मैं दिखा भी देती थी। जैसे मेरी मम्मी को तो कुछ पता ही नहीं। मैं ही एक ज्ञानी हूँ।  लेकिन तब यह बातें बाल मन की कोरी कल्पनाओं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं थी। इसलिए यह मुझे मिल ही जाये ऐसी कोई भावना नहीं थी मन में, अर्थात उसके लिए कोई ज़िद नहीं थी। बस एक इच्छा थी। जो यहाँ आकर पूरी हुई। मतलब (U.K) में जहाँ- जहाँ भी मैं रही हर शहर, हर घर में मुझे लाल कालीन बिछा हुआ मिला।   

ऐसा ही एक और अनुभव हुआ। बचपन से जब भी हंसी हंसी में किसी ने मेरा हाथ देखा सभी ने यह कहा कि यह लड़की विदेश जाएगी। पर मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। बस उस वक्त सदा मन से यही निकला जब जाएगी तब जाएगी, तब की तब देखी जाएगी। अभी तो "मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में" यहाँ तक कि शादी के पहले जब पासपोर्ट बनवाने के लिए कहा गया। तब भी मन में यही बात आई "तेल देखो तेल की धार देखो" तब भी मेरे मन ने कभी विदेश के सपने देखना प्रारंभ ही नहीं किया और शादी के 6 साल तक विदेश जाने का कोई नमोनिशान भी ना था और ना ही मेरे मन में ऐसी कोई इच्छा ही थी। मगर फिर भी आना हो ही गया। 

यह मेरी ज़िंदगी में आने वाले पूर्व समय के संकेंत नहीं थे और क्या थे। इसलिए कभी-कभी लगता है शायद ज़िंदगी उतनी भी जटिल नहीं है जितना हम सोचते हैं। हो सकता है यदि हम हमारी ज़िंदगी की हर छोटी बड़ी बात पर गंभीरता से विचार करें तो आगे के लिए खुद को तैयार कर पाने में आसानी हो जाये, नहीं ? यह सब सोचकर लगता है यह सारे अनुभव मेरी ज़िंदगी के पूर्वाभास ही तो थे। जिन्होंने जाने अंजाने मुझे मेरी भविष्य में आने वाली ज़िंदगी का संकेत पहले ही दे दिया था। जब मैं बच्ची थी। और कोमल मन की बाल हट के आगे तो ईश्वर भी हार जाता है। शायद इसलिए उस दौरान मन में उठने वाली सारी इच्छाओं और महत्वकांगक्षाओं को वह भी अपने तराजू में तौलकर झटपट पूरी कर दिया करता था।