आज सुबह कपडों की अलमारी जमाते वक्त अचानक ही एक पुराने कोट पर नज़र जा पड़ी। जैसे ही उसे उठाया तो उसकी जेब से चंद सिक्के लुढ़ककर ज़मीन पर जा गिरे। कहने को तो वो सिक्के ही थे मगर उनके बिखराव ने मेरे मानस पटल पर ना जाने कितनी बीती स्मृतियों के रंग बिखेर दिये। सिक्कों को तो मैंने अपने हाथों से उठा लिया। मगर उन यादों को मेरी पलकों ने चुना और मेरी नज़र जाकर उस लाल कालीन पर अटक गयी। जिस पर वो सिक्के गिरे थे और तब न जाने कब उस कोट और कालीन को देखते ही देखते मेरा मन बचपन की यादों में खो गया। तो सोचा क्यूँ ना यह अनुभव भी आप लोगों से बांटा जाये।
भोपाल में इन दिनों एक मेला लगता है जिसे स्तिमा कहते हैं। लेकिन अब यह मेला नवंबर दिसंबर में लगने लगा है। यह कहने को तो मेला होता है मगर उसमें बिकते केवल कपड़े हैं। वो कपड़े जो कपड़ा बनाने वाली कंपनियों ने उसमें आए फाल्ट के कारण उसे मुख्य बाज़ार में नहीं बेचा। जबकि उन कपड़ों की वो कमी इतनी बारीक होती है कि अत्याधिक ध्यान से देखने पर ही दिखाई देती है अन्यथा यदि किसी को बताया न जाये तो शायद ही कोई उन कपड़ों की उस कमी को देख पाये। मुझे याद हैं मैंने भी ज़िद करके बचपन में वहाँ से एक कोट खरीदा था। सफ़ेद रंग का काली धारियों वाला कोट। उन दिनों मेरी उम्र कोई 5-6 वर्ष की रही होगी। तब मुझे कोट पहनने का बड़ा शौक हुआ करता था। न जाने क्या बात थी उस कोट में कि उस पर मेरा दिल आ गया था। तब कहाँ किसे पता था कि एक दिन ज़िंदगी मुझे एक ऐसे देश ले जाएगी। जहां कोट जैकेट जैसी चीज़ें मेरी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाएँगी।
फिर धीरे-धीरे एक दिन वो भी आया। जब कॉलेज के दिनों में मैंने मेरी मम्मी का ओल्ड स्टाइल का कोट पहना, खूब पहना। हालांकी वो कोट देखने में ही बहुत ओल्ड फॅशन दिखता था। मगर जाने क्यूँ उसे पहनने में मुझे कभी कोई झिझक या किसी भी तरह की कोई शर्म महसूस नहीं हुई।
सच यूं तो ज़िंदगी एक पहेली से कम नहीं होती। अगले पल क्या होगा यह कोई नहीं जानता। लेकिन फिर भी मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि आने वाले पल का संकेत भी देती है ज़िंदगी, यह और बात है कि हम उस संकेत को उस वक्त समझ पाते है या नहीं या फिर शायद कच्ची उम्र के मासूम मन की कल्पना या सोच मात्र ही आगे चलकर सही साबित हो जाती है। यह ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता। क्यूंकि उस उम्र में जो विचार आते है वो पूरी तरह शुद्ध होते हैं। किसी भी तरह का मोह, लोभ, लालच, कुछ भी तो नहीं होता मन के अंदर, बस एक हवा के झोंके की तरह एक ख्याल मन में आया और आकर चला गया। फिर कभी दुबारा उस ख्याल पर न कोई ध्यान दिया गया न कभी ध्यान देने की ज़रूरत ही समझी गयी। और कभी दूर कहीं भविष्य में जो अब वर्तमान बन चुका है, उसमें खुद को उस ख्याल से जोड़कर देखा तब कहीं जाकर इस बात का यकीन आया कि वाकई ज़िंदगी और वक्त दोनों ही आने वाले समय का संकेत देते हैं। बस हम ही नहीं समझ पाते।
यूं तो उन चंद सिक्को का मेरे कोट की जेब से निकल कर बिखर जाना कोई अचरज की बात नहीं थी। मगर मेरी निगाह अटकी थी उस लाल कालीन पर। क्यूंकि ऐसे ही बचपन में टीवी देख-देखकर मन में एक और इच्छा जागी थी कभी, दो मंजिला घर में रहने की इच्छा। जहां सीढ़ियों पर लाल रंग का कालीन बिछा हो। जिस पर चढ़ते उतरते वक्त एक भव्य एहसास हो जैसे आप कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि कोई खास इंसान हो। यह फिल्मों का असर था शायद, पापा के ट्रांस्फर से यह इच्छा पूरी तो हुई मगर पूरी तरह नहीं। क्यूंकि दो मंज़िला मकान तो मिला। लेकिन उन सीढ़ियों पर बिछा लाल कालीन न मिला। फिर भी माँ को कई बार कहा करती थी मैं कि ज़रा स्टाइल से चढ़ा उतरा करो। लगना चाहिए फिल्मों जैसा घर है अपना, उस वक्त तो मेरी मम्मी यह सुनकर मुस्कुरा दिया करती थी। और मुझी से कहा करती थी कि ज़रा करके दिखना कैसे चढ़ना उतरना है। मैं दिखा भी देती थी। जैसे मेरी मम्मी को तो कुछ पता ही नहीं। मैं ही एक ज्ञानी हूँ। लेकिन तब यह बातें बाल मन की कोरी कल्पनाओं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं थी। इसलिए यह मुझे मिल ही जाये ऐसी कोई भावना नहीं थी मन में, अर्थात उसके लिए कोई ज़िद नहीं थी। बस एक इच्छा थी। जो यहाँ आकर पूरी हुई। मतलब (U.K) में जहाँ- जहाँ भी मैं रही हर शहर, हर घर में मुझे लाल कालीन बिछा हुआ मिला।
ऐसा ही एक और अनुभव हुआ। बचपन से जब भी हंसी हंसी में किसी ने मेरा हाथ देखा सभी ने यह कहा कि यह लड़की विदेश जाएगी। पर मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। बस उस वक्त सदा मन से यही निकला जब जाएगी तब जाएगी, तब की तब देखी जाएगी। अभी तो "मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में" यहाँ तक कि शादी के पहले जब पासपोर्ट बनवाने के लिए कहा गया। तब भी मन में यही बात आई "तेल देखो तेल की धार देखो" तब भी मेरे मन ने कभी विदेश के सपने देखना प्रारंभ ही नहीं किया और शादी के 6 साल तक विदेश जाने का कोई नमोनिशान भी ना था और ना ही मेरे मन में ऐसी कोई इच्छा ही थी। मगर फिर भी आना हो ही गया।
यह मेरी ज़िंदगी में आने वाले पूर्व समय के संकेंत नहीं थे और क्या थे। इसलिए कभी-कभी लगता है शायद ज़िंदगी उतनी भी जटिल नहीं है जितना हम सोचते हैं। हो सकता है यदि हम हमारी ज़िंदगी की हर छोटी बड़ी बात पर गंभीरता से विचार करें तो आगे के लिए खुद को तैयार कर पाने में आसानी हो जाये, नहीं ? यह सब सोचकर लगता है यह सारे अनुभव मेरी ज़िंदगी के पूर्वाभास ही तो थे। जिन्होंने जाने अंजाने मुझे मेरी भविष्य में आने वाली ज़िंदगी का संकेत पहले ही दे दिया था। जब मैं बच्ची थी। और कोमल मन की बाल हट के आगे तो ईश्वर भी हार जाता है। शायद इसलिए उस दौरान मन में उठने वाली सारी इच्छाओं और महत्वकांगक्षाओं को वह भी अपने तराजू में तौलकर झटपट पूरी कर दिया करता था।
हमारी स्मृति ऐसे कार्य करती है कि किसी पुराने स्मृति-चित्र को आज की किसी घटना या परिवेश की किसी चीज़ से जोड़ लेती है. मैं शतप्रतिशत दावे से कह सकता हूँ कि आपको बचपन में ब्लॉगर बनने का कोई आईडिया नहीं आया था क्योंकि तब ब्लॉग की कोई अवधारणा मन में नहीं थी. लेकिन कुछ और याद कीजिएगा तो लगेगा कि आप अच्छा और बहुत अच्छा लिखना चाहती थीं. :)
ReplyDeleteआभास पूर्वाभास का ताना-बाना जीवन से जुड़ा हुआ है। इस पर विचार करो तो पता नहीं क्या-क्या कर खुलके सामने आता है!
ReplyDeleteयूं तो उन चंद सिक्को का मेरे कोट की जेब से निकल कर बिखर जाना कोई अचरज की बात नहीं थी। मगर मेरी निगाह अटकी थी उस लाल कालीन पर। क्यूंकि ऐसे ही बचपन में टीवी देख-देखकर मन में एक और इच्छा जागी थी कभी, दो मंजिला घर में रहने की इच्छा। जहां सीढ़ियों पर लाला रंग का कालीन बिछा हो। तब यह सिर्फ एक इच्छा थी। यह मुझे मिल ही जाये ऐसी कोई भावना नहीं थी मन में, अर्थात उसके लिए कोई ज़िद या उत्सुकता नहीं थी। बस एक इच्छा थी और कुछ ही दिनों में पापा के ट्रांसफर से वो भी पूरी हो गई थी। यह बात अलग है कि उस घर की सीढ़ियों पर कोई लाल कालीन नहीं बिछा था। जो यहाँ आकर मिला। एक बार नहीं बल्कि हर बार मिला।
ReplyDeleteपूरा का पूरा आलेख एक उम्दा संस्मरण जैसा है |पढ़कर बहुत अच्छा लगा |आभार पल्लवी जी |
यह सच है कि कई बार भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है.शायद अवचेतन मन का इस से कुछ सम्बन्ध हो... बहुत रोचक आलेख...
ReplyDeleteबड़े ही मीठे अनुभव हैं...
ReplyDeleteजाने क्यूँ मुझे कभी इस तरह कोई पूर्वाभास नहीं हुआ....खैर उम्र बाकी है अभी...देखते हैं..
enjoy the life which is giving you a red carpet welcome !! :-)
anulata
जी हाँ ,पूर्वाभास हो जाता है,कभी-कभी स्वप्न भी आगत की पूर्व-सूचना दे देते हैं .मैंने भी अनुभव किया है .
ReplyDeleteलाल कालीन पर स्टाईल से चलने की इच्छा तो पूरी हुई और क्या पूर्वाभास हुए ? वैसे जब कोई इच्छा पूरी होती है या कोई बात जो पहले कभी मन में हो तो हम आज की परिस्थिति से जोड़ने लगते हैं । और हमें लगता है कि ज़िन्दगी संकेत तो देती है । वैसे संकेत कई बार मुझे भी मिले हैं । रोचक संस्मरण ।
ReplyDeleteसच है कि आपके मन की ईच्छा पूर्ण अवश्य होती है।
ReplyDeleteहोनी इशारे करती है, हर घटना,पसंद का कोई ख़ास अर्थ होता है, पर समय पर हम इस इंगित को नहीं समझ पाते हैं
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील यादों के सिक्के गिरे कालीन पर
ज़िन्दगी चाहती है कि बस उस पर तनिक ध्यान देते चलो।
ReplyDeleteवर्त्तमान कहीं न कहीं भविष्य के संकेत देता रहता है । भावपूर्ण संस्मरण
ReplyDeleteकाश ऐसा होता कि हम हर प्राप्त संकेत को सहेज कर रख लेते और हमें अपनी गुजरती जिन्दगी में घटती घटनाओं से सहेजे गए संकेतों की तुलना करने का अवसर बार-बार मिलता।
ReplyDeleteसंकेत मिलते हैं अगर हम गौर करें। पाऊलो कॉल्हो ने ’द अल्केमिस्ट’ में omens का जिक्र किया है, विश्वास होता है। रही बात ज़िंदगी कि तो ये उतनी ही जटिल है जितना जटिल हमने खुद उसे बना लिया है।
ReplyDeletepallvi ji yah aapki bachpan ki yaden hain, yah aapka apni jamin se lagav hai, aap purani yadon ko yad kar apne desh aour samaj se judne ka prayas kar rahin hain, desh se bhahar rahe deshbhakt logon ke paas bas purani yaden hi to hoti hain, bhut achha
ReplyDeleteरेशम से कोमल एहसास और अंदाज़ - ए - बयान ..... सस्नेह :)
ReplyDeleteवर्तमान में सोचने पे बहुत सी बातें पूर्वाभास लगती हैं ... पर क्या सच में ऐसा होता है ...
ReplyDeleteगहरे एहसास और मधुर पलों के साथ अतीत को छेड दिया आपने ...
very simple and touching experience ! Thanks for visiting my blog and giving your valuable comments.
ReplyDeleteहूँ... महीन तारों को आपस में सुंदरता से जोड़ा है.. अच्छा लगा..
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