Monday 23 June 2014

बदलाव को अपनाना ‘आसान है या मुश्किल’

बदलाव को अपनाना ‘आसान है या मुश्किल’

अजीब है यह दुनिया और इसके प्रपंच। कुछ चीजें ‘जस की तस’ चली आ रही हैं और कुछ इतनी बदल गई हैं कि उनके वजूद में उनसे जुड़ी उनकी पुरानी छाया का दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं होता। फिर भी कभी-कभी कुछ चीजों को देखकर लगता है कि अब बस बहुत हो गया। अब तो बदलाव आना ही चाहिए। नहीं? किन्तु जब बदलाव आता है तब भी जाने क्यूँ हम चाहकर भी उस बदलाव को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते। इन दोनों स्थितियों में हमारा मन अशांत ही रहता है। ऐसा शायद इसलिए भी होता है क्योंकि बदलाव को देखते वक्त हमें उसमें खुद का दुःख (खेद) या हमारे साथ अतीत में हुई नाइंसाफ़ी नज़र आने लगती है। अतीत में अपने साथ हुए दुर्व्‍यवहार का हम बदलाव के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते। ऐसे में अकसर न्याय भी हमें अन्याय लगने लगता है। नतीजा बदलाव में भी ईर्ष्‍या उत्‍पन्‍न हो जाती है और हम जहां-तहां खड़े बदलाव भूलकर लकीर ही पीटते रह जाते हैं।

बदलाव और उसे सहजता से अपना नहीं पाने के सन्‍दर्भ में एक क़िस्सा आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर क़ायम है, जो अकसर पुराने दोस्तों से मिलने पर ताज़ा हो जाता है। ज़िंदगी में कई बार कुछ क़िस्से ऐसे होते हैं जिन्हें याद करके चेहरे पर मुस्कान भी आती है और मन से क्रोध भी उभरता है। खैर इतने सालों बाद भारत वापस आने पर जब पुराने दोस्तों से मुलाक़ात हुई तो यूं समझिए जैसे बस यादों की बरसात हुई। पुराने दोस्तों की बातें, पुराने मोहल्ले के अच्छे-बुरे लोग, उनके तरह-तरह के क़िस्से और उनकी अनगिनत कहानियाँ। उस वक्त उनकी ये सब बातें केवल बातें नहीं रहतीं। एक चलचित्र बन जाया करती हैं।

बात उस वक्त की है जब मैंने कॉलेज में प्रवेश लिया था। मेरे घर से कुछ दूर गुप्ता जी का परिवार रहा करता था। उनकी बेटी थी शालिनी उर्फ़ शालू। हमउम्र होने के नाते हम दोस्त थे। लेकिन हमारे बीच इतनी गहरी मित्रता नहीं थी कि वह मुझे अपना हमराज़ बना सके। किन्तु रूढ़िवादी विचारधारा वाले उस परिवार में शालिनी अपनी ही माँ और भाई से बहुत दुःखी व परेशान थी। एक दिन मैंने उसे उसके घर की बालकनी में खड़े होकर आँसू बहाते देखा।

मुझे देखकर उसने अपने आँसू पोंछने, छुपाने का प्रयास किया। मगर वह आंसूं रोक न सकी। मुझे भी इस तरह अचानक उसके सामने आने पर संकोच हुआ। लेकिन मैंने सोचा कि जब इसने मुझे देख ही लिया है तो क्‍यों न इससे रोने का कारण पूछ लूं। उसके कंधे पर हाथ रखकर मैंने कहा, ‘‘क्‍या बात है शालिनी! क्‍यों रो रही हो?’’ आंसुओं से गीली उसकी आंखों ने मुझमें दया की तरंगें उभार दीं। रहा नहीं गया तो मैंने फिर कहा, ‘‘अगर अपना दुख मुझे बताने से यदि तुम्हारा मन हलका होता हो और यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास हो तो कृपया मुझे बताओ कि बात क्‍या है, क्‍यों रो रही हो? शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।’’ मुझसे थोड़ी सी सान्‍त्‍वना पाकर ही उसका दिल मोम की तरह पिघल गया। उसने एक बार में ही अपना सारा दुःख कह सुनाया। उसने बताया, ‘‘मैं अपने ही घर में विश्‍वास के काबिल नहीं रही। मां और भाई दोनों मुझे सन्‍देह भरी नजर से देखते हैं। उन्‍हें मेरी समझदारी पर थोड़ा सा भी यकीन नहीं है। वे मुझे हमेशा टोकते हैं कि इसे सही-गलत का फर्क पता नहीं है। जबकि मैं जानकर कभी किसी गलत राह पर नहीं जाऊंगी, मगर कोई विश्वास करे तब ना। मोहल्‍ले के लड़कों की वजह से मेरी माँ व भाई मुझ पर बिलकुल भरोसा नहीं करते। जो काम मैंने किए ही नहीं उसमें निर्दोष निकलने की मेरी रोज परीक्षा होती है। हालांकि मोहल्‍ले के लड़के इतने बुरे भी नहीं हैं। यहां रहनेवाले लोगों को उनसे किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है। फिर भी उनके कारण मेरा भाई मुझ पर चौबीसों घंटे नज़र रखता है। मैं बिना कार्य के कहीं भी नहीं जाती। तब भी मुझ पर नज़र रखी जाती है। यह मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। अपने दोस्तों के सामने मुझे शर्मिंदगी महसूस होती है। मगर इस सब से केवल मुझे फर्क पड़ता है, मेरे घरवालों को नहीं। यहाँ तक कि मेरी माँ को भी भाई का कहा ही सच लगता है। जो उसने कहा वही सही है। फिर चाहे उसने कोई कहानी बनाकर ही क्यूँ न सुना दी हो। मेरा पक्ष तो कोई जानना ही नहीं चाहता और ना ही मुझे कभी अपनी बात कहने का कोई मौक़ा दिया जाता है। उन्‍होंने मुझे यह चेवावनी पहले से ही दे रखी है कि पिताजी तक यह बात नहीं जानी चाहिए। ऐसे में मैं कहाँ जाऊँ, क्या करुँ! मुझे कुछ समझ नहीं आता। तुम ही कहो पल्लू... यदि कोई लड़का मुझसे प्रेम कर बैठे तो उसमें मेरी क्या गलती है! मैं तो उसे केवल समझा ही सकती हूँ ना कि वो भले ही मुझे पसंद करता है परंतु मेरे मन में उसके प्रति ऐसी कोई भावना नहीं है। फिर भी वो न माने तो मेरी क्या गलती! घर आकर घरवालों को ऐसी बात बताना या उस बारे में बात करना खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। पहले ही बिना किसी दोष के हजार पाबंदियों में जी रही हूँ मैं। न घर के बाहर खड़ी हो सकती हूँ न खिड़की पर। ना ही स्वतन्त्रता से कहीं आ-जा ही सकती हूँ। अब तुम ही कहो कि मैं क्या करुँ। मेरे भाई की अनावश्‍यक पाबंदियों के कारण सारा मोहल्‍ला मुझे शक की नज़र से देखता है। सभी की आँखों में मुझे मेरे प्रति चरित्रहीनता का भाव नज़र आता है। दम घुटता है मेरा। साँस नहीं ली जाती मुझ से। जब बिना कुछ किए ही इतनी सज़ा मिल रही है तो इससे अच्छा है कि ऐसी सजा मैं कुछ करके ही भुगतूं। मन करता है उस लड़के को हाँ बोल दूं और भाग जाऊँ उसके साथ। या मर जाऊँ कहीं जाकर, मगर पापा के बारे में सोचकर रह जाती हूँ।’’

उसकी सारी कहानी सुनकर मेरा मन किया कि मैं खुद उसकी माँ से बात करुँ। लेकिन फिर अगले ही पल लगा कि जब उन्हें खुद अपनी बेटी पर विश्वास नहीं है तो फिर भला वो मेरी बात क्या समझेंगी। खैर यह उस वर्षों पुरानी बात थी। आज स्थिति यह है कि शालिनी और मैं अच्‍छे दोस्त हैं। पहले जो कुछ समाज में घटता था, उसकी परवाह अब किसे है, पर दुख है कि लड़कियों के प्रति भेदभाव के मामले में इतने सालों बाद भी लोगों की मानसिकता में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। यह सोचकर बहुत दुख होता है।एक ओर हम इक्‍कीसवीं सदी की बात करते हैं और दूसरी ओर आज भी लड़के और लड़की के फर्क को अपने दिलो-दिमाग में लिए फिरते हैं। मध्यमवर्गीय परिवारों में शायद यह फर्क बहुत हद तक कम ज़रूर हुआ है, पर मिटा अब भी नहीं है। मगर निम्‍न मध्‍यमवर्गीय व निम्‍न वर्गीय लोगों की सोच तो अब भी वैसी की वैसी ही है , जिससे मेरी मित्र शालिनी पीड़ित थी।  क्या किसी भी मामले में बदलाव लाना या उस बदलाव को अपनाया जाना वास्तव में इतना कठिन है? यह चिन्‍तन का एक गंभीर विषय है।

                                        

9 comments:

  1. बदलाव अच्छे के लिए हो तो हमेशा अछा लगता है अन्यथा नहीं ...
    जहां तक समाज में रहने वालों की सोच का सवाल है जो जाते जाते ही जायेगी ... समय के बदलाव को मानना ही पडेगा अन्यथा ऐसे लोग पिछड़ जायेंगे ...

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  2. लड़कियों को इस प्रकार की मानसिकता का सामना करना ही पड़ता है , पहले घर में और फिर पास पड़ोस में ! हालाँकि मैं मानती हूँ कि आजकल परिवारों में थोडा माहौल बदला है लड़कियों के पक्ष में , हालाँकि बाहर की दुनिया इतनी सुरक्षित नहीं अभी भी !

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  3. Pallvi ji lekh achcha laga ...vakt ke sath badalne me samajgdari hai...

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  4. बहुत अच्‍छी बात करी है आपने इस आलेख में। ऐसी स्थितियों में पिसती बहुत-सी लड़कियां तो अपनी बात अपने अलावा किसी से कह भी नहीं पाती। उन्‍हें बस परिस्थितियों के हवाले हो जाना पड़ता है। कम से कम इस लेख के माध्‍यम से यह बात आई तो सामने। एकान्‍त में पसरे दुख के सन्‍नाटे को इस तरह अनुभव करके उसे अधिकतम लोगों तक पहुंचाने का कार्य वाकई लड़कियों के अधिकारों के प्रति एक प्रकार की बड़ी जागरुकता है। इसका स्‍वागत है।

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  5. लड़कियों के प्रति कुछ बदलाव आया है, पर अभी भी बहुत कुछ बदलाव की ज़रुरत है..बहुत सारगर्भित आलेख...

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  6. बदलाव ,अगर एक सकारात्मक रूप में आये तो स्वागत योग्य है ......

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  7. उसकी सारी कहानी सुनकर मेरा मन किया कि मैं खुद उसकी माँ से बात करुँ। लेकिन फिर अगले ही पल लगा कि जब उन्हें खुद अपनी बेटी पर विश्वास नहीं है तो फिर भला वो मेरी बात क्या समझेंगी............ सही कहा आपने बात यही जाकर अटक जाती हैं। लेकिन आगे जो कुछ भी हुआ होगा शायद अच्छा ही हुआ होगा क्योकि अब अब आप दोनों दोस्त हैं यह जानकर मन को अच्छा लगा ...
    लड़कियों के प्रति हमारी समाज भले ही बहुत कुछ बदलाव आया है, लेकिन अभी यह सूरत बहुत कुछ बदलनी बाकी है

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  8. बेहतरीन प्रस्तुति

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  9. hame kuch badlane se pahle apni soch badlani chahiye, kauki hiro ki basti me hamne kach hi cach batore hai likhe to kai afsane par kagaj sare kore hai,

    thanks pallvi ji sundar vichar

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