Wednesday 11 June 2014

ज़िंदगी और मौत, दोनों एक साथ...

नमस्कार दोस्तों आज बहुत दिनों बाद कुछ लिखने का समय मिल पाया है। भारत वापस आने के बाद घर मिलने से लेकर रोज़ मर्रा कि दिनचर्या व्यवस्थित होने तक समय ही नहीं मिल सका कि कुछ पढ़ भी सकूँ, लिखना तो दूर की बात थी। लेकिन अब सब व्यवस्थित हो गया है। अब पहले की ही भांति लिखना पढ़ना पुनः प्रारम्भ होगा। यूं भी पिछले दो महिनों में पढ़ने लिखने के लिए बहुत कुछ है। पढ़ने में समय लगेगा तो कृपया ब्लॉगर मित्र यह न समझने कि मैंने उनके ब्लॉग पर आना ही छोड़ दिया है। इसलिए मेरा सभी ब्लोगर मित्रों से निवेदन है कि आप सभी कृपया फिलहाल मेरी ब्लॉग पोस्ट पढ़ें। मैं भी शीघ्र ही आपकी ब्लॉग पोस्ट पर पहुँचने का प्रयास अवश्य करूंगी। मुझे देर हो सकती है, मगर आऊँगी ज़रूर.... आशा है आप मेरा निवेदन स्वीकार करेंगे। और मेरी पोस्ट भी ज़रूर पढ़ेंगे धन्यवाद  

ज़िंदगी और मौत, दोनों एक साथ

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ज़िंदगी को क्या नाम दें यह समझ नहीं आता। लेकिन मौत भी तो किसी पहेली से कम नहीं होती। कभी-कभी कुछ ऐसे मंजर सामने आ जाते है, जो दिल और दिमाग पर अपनी एक छाप सी छोड़ जाते है। ऐसा ही एक मंजर मैंने भी देखा। यूँ तो हर खत्म होने वाली ज़िंदगी किसी नए जीवन की शुरुआत ही होती है। फिर चाहे वो पेड़ पौधे हों या इंसानों का जीवन। लेकिन फिर भी न जाने क्यूँ जब किसी इंसान की मौत होती है तब हमें आने वाली ज़िंदगी या हाल ही में जन्म ले चुकी नयी ज़िंदगी का खयाल ही नहीं आता।

ऐसा शायद इसलिए होता होगा, क्योंकि जाने वाले इंसान से फिर कभी न मिल पाने का दुःख हम पर इतना हावी हो रहता है कि हम नयी ज़िंदगी के बारे में चाहकर भी उतनी गंभीरता से नहीं सोच पाते। दिवंगत आत्मा के परिवारजनों के लिए तो यह उस वक्त संभव ही नहीं होता। लेकिन यदि मैं अन्य परिजनों की बात करुँ तो शायद हर संवेदनशील इंसान के दिमाग में उस नयी ज़िंदगी का विचार आता ही है। नहीं ? मैं जानती हूँ आज के असंवेदनशील समाज में यह बात बेमानी लगेगी। मगर इस बार मेरा अनुभव कुछ ऐसा ही रहा।

२४ अप्रैल २०१४ आज मैंने फिर एक मौत देखी। अपने ही घर के पड़ोसी परिवार के सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति की मौत। यूँ तो वो एक साधारण या आज की तारीख में आम समझे जाने वाले रोग (हृदय घात) से होने वाली मौत ही थी। कोई हादसा या दुर्घटना नहीं थी। मगर न जाने क्यूँ मुझे जब से उनका स्वस्थ बिगड़ने का समाचार मिला था। तब से ही मेरे मन में रह-रहकर यह ख़्याल आ रहा था कि उन्हें कुछ नहीं होगा। ठीक हो जाएंगे वे, जबकि दूसरी ओर न सिर्फ उनके परिवार वाले, अपितु आस पड़ोस के लोग भी उम्मीद का दामन छोड़कर आने वाले बुरे वक्त के प्रति अपना –अपना मन बना चुके थे। इसलिए जब यह दुखद समाचार मिला तब भी घर वालों के चेहरे पर बहुत ज्यादा दुःख दिखायी नहीं दिया। हालांकी दुःख तो होता ही है।

लेकिन इसके बाद जो मैंने देखा। वह मेरे लिए तो इस प्रकार का पहला अनुभव ही था। जब मैं और मेरा परिवार दुःख व्यक्त करने उनके घर पहुँचे तो मैंने देखा, सामने जहां एक ओर उस परिवार के (मुखिया) दिवंगत आत्मा की मिट्टी रखी है। वहीं दूजी ओर उसी घर का सब से नन्हा सदस्य जो मात्र अभी कुछ महीनों का है लेटा-लेटा ज़ोर-ज़ोर से किलकारियाँ मार-मारकर खेल रहा है। हालांकी मैं भली भांति जानती हूँ कि एक अबोध शिशु भला क्या जाने कि जिसकी गोद में वो कल तक खेल रहा था आज वो गोद हमेशा के लिए उस से छिन गयी।

लेकिन न जाने क्यूँ उस वक्त यह ज़िंदगी और मौत का नजारा देखकर मन में एक अजीब सी ही भावना उत्पन्न हुई। जिसे शायद शब्दों में ब्यान कर पाना संभव नहीं है। उस वक्त समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या प्रतिक्रिया है मन मस्तिष्क की, कैसा खेल है यह वक्त या ईश्वर का, इसे किस्मत का खेल कहें या समय की विडंबना। एक तरफ लेटी हँसती खेलती ज़िंदगी और दूजी ओर लेटी शांत स्वभाव लिए मौत। सच कितना अजीब है यह सब। वाकई ज़िंदगी और मौत सच में एक अदबुद्ध, असमान्य पहेली ही तो है। जिसे कभी कोई इंसान समझ ही नहीं सकता। अपनी जिस पोती के साथ खेलने की चाह में उनकी ज़िंदगी गुज़र गयी और जब उसके साथ हंसने खेलने का समय आया। तब ही ईश्वर ने उनसे उनकी ज़िंदगी ही छीन ली।

एक तरफ मातम और दूजी ओर नवजीवन की किलकारियाँ, यह मंज़र भी अजीब था। कुछ क्षणों के लिए तो स्वयं परिवार वालों की समझ में भी नहीं आ रहा था कि पिता की मौत का ग़म मनाए या नव जीवन की किलकारियों की खुशी। मैंने अपनी ज़िंदगी में बहुत सी मौतें देखी  मगर, ज़िंदगी और मौत का ऐसा मंज़र मैंने पहले कभी नहीं देखा। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखा जाये।  तब भी लोग नन्ही सी जान को तो मृत शरीर से दूर ही रखते है। मगर वहाँ ऐसा नहीं था। हालांकी मृत शरीर काँच के बक्से में बंद ही था। किन्तु फिर भी...

लेकिन यदि भावनात्मक दृष्टि को मद्देनज़र रखते हुए देखा जाये, तो हो सकता है कि इसके पीछे का कारण यह हो कि जीते जी तो वह दादा अपनी पोती के साथ खेल ना सके। तो कम से कम अंतिम समय में ही उनकी आत्मा अपनी पोती का वो हँसना खिलखिलाना देख सके, सुन सके। ताकि उनकी आत्मा को शांति मिल सके। हालांकी यह सब मन बहलाने वाली बातें है। लेकिन दुःखी परिवार के लिए उस वक्त यह सभी बातें और बातों से कहीं ज्यादा मायने रखती हैं।

सच कभी-कभी हम जिन लोगों को करीब से जानते नहीं, सिर्फ पहचानते हैं। तब भी उन्हीं लोगों के माध्यम से हमें ज़िंदगी अपना एक नया ही रूप दिखा जाती है। कभी-कभी सोचती हूँ तो लगता है, यदि जीवन की अंतिम सच्चाई और परिणाम यही है। तो फिर हम क्यूँ इतनी घ्रणा, प्रेम, सुख दुःख, अमीरी गरीबी, जैसी मोह माया के फेरे में पड़े रहते है। इतना ही नहीं संतुष्टि नाम की हवा तक हमें कभी छूकर नहीं गुजरती। बाकी सब तो दूर की बात है। क्यूँ हमें जितनी मिले यह ज़िंदगी कम ही लगती है। जबकि जिसे जो चाहिए उसे वो कभी नहीं मिल पाता है। जो ज़िंदगी को तरसता है, उसे मौत 'धीमे जहर' की तरह खत्म करती है और जो मौत चाहता है, उसे ज़िंदगी “प्यासे को पानी की तरह” तरसाती है।      

11 comments:

  1. दो माह के बाद ब्‍लॉग में आपका स्‍वागत है। ऐसा ही है जीवन अौर मृत्‍यु का साक्षात्‍कार। जो इसमें विमर्श या विचार के रूप में गहरा उतरा उसे जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण मिला।

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  2. जीवन और मृत्यु एक ऐसी अनबूझ पहेली है जिसका हल सदैव रहस्यमय है. शायद इसी में इसका आकर्षण है...एक सिक्के के दो पहलू जो साथ रह कर भी अलग हैं...बहुत गहन चिंतन...

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  3. ......तो फिर हम क्यूँ इतनी घृणा, प्रेम, सुख दुःख, अमीरी गरीबी, जैसी मोह माया के फेरे में पड़े रहते है।

    यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके बारे में हम सोचते तो हैं.. लेकिन फिर जाल ही कुछ ऐसा है की सब कुछ बिसराया चला जाता है.

    कैफ़ी आज़मी का शेर याद आ रहा है-

    इंसान के ख्वाहिशों की कोई इन्तेहा नहीं
    दो गज ज़मीन चाहिए दो गज कफ़न के बाद.

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  4. बहुत गहन चिंतन

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  5. अनोखा आलेख विचारणीय

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  6. कुछ दिन पहले आपके अनुभव से मेरा भी साक्षात्कार हुआ था . कमोवेश उठने वाली भावनाएं इक सी ही थी . आपने शब्द देकर उसे और भी बल दिया है.

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  7. यही जीवन है ... और ऊपर वाले की इच्छा के आगे सभी नतमस्तक रहते हैं ... संसार चलता रहता है .. हर घडी आती है बीत जाती है कुछ पल के लिए समय रुक जाता है उनके लिए लिसका सब कुछ खो जाता है ...

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  8. Sanjay Bhaskar25 June 2014 at 14:21

    बहुत गहन चिंतन…

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  9. Maut ko hi him apne swarthi nzeria se dekhte hai.jaise unke maut se game kya hani hai.ydi Marne wale keep ngria se dekhe to WO mukti hai.

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  10. देवेन्द्र सुथार14 July 2014 at 22:21

    सत्य को ठुकराया नहीँ जा सकता है। ऐसे विषय पर गहन चिँतन वैराग्य की ओर गमन हैँ।

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