Monday 4 August 2014

एक जीवन ऐसा भी

आज सुबह उनींदी आँखों से जब मैंने अपनी बालकनी के बाहर यह नज़ारा देखा तो मुझे लगा शायद आँखों में नींद भरी हुई होने के कारण मुझे ठीक से दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए स्थिर चीजें भी मुझे चलती हुई सी दिखाई दे रही है। मगर फिर तभी दिमाग की घंटी बजी और यह ख़्याल आया कि चाहे आँखों में जितनी भी नींद क्यूँ न भरी हो मगर नशा थोड़ी न किया हुआ है कि एक साथ इतनी सारी सफ़ेद काली वस्तुएं इधर उधर घूमती फिरती सी नज़र आने लगें। "आँखों का धोखा भी कोई चीज़ है भई" 'हो जाता है कभी-कभी'   
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