Tuesday 2 December 2014

अजीब दास्तां है यह!

सच ही तो हैं इस गीत की यह पंक्तियाँ कि...अजीब दास्तां है यह, कहाँ शुरू खत्म यह मंजिल हैं कौन सी न वो समझ सके न हम....

यह ज़िंदगी भी तो एक ऐसी ही दास्तां हैं। एक पहेली जो हर पल नए नए रंग दिखती है। जिसे समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा लगता है। कब कहाँ किस मोड पर ज़िंदगी का आपको कौन सा रंग देखने को मिलेगा यह अपने आप में एक पहेली ही तो है। इसका एक उदाहरण अभी कुछ दिनों पहले दीपावली के अवसर पर ही मैंने स्वयं अपने घर के पीछे ही देखा और तब से मेरे मन में रह रहकर यह विचार उठ रहा है कि चाहे ज़माना कितना भी क्यूँ न बदल जाये। चाहे दुनिया के सारे रिश्ते बदल जाएँ। मगर माता-पिता का अपने बच्चों से रिश्ता न कभी बदला था, न बदला है और ना ही कभी बदलेगा। इस बार जब मुझे इतने वर्षों बाद अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ दीपोत्सव मनाने का मौका मिला तो मन बहुत खुश था। लेकिन साथ ही एक ओर आसमान छूती महँगाई कहीं न कहीं मन को झँझोड़ रही थी कि क्या फायदा ऐसे उत्सव मनाने का जहां आपके ही घर के नीचे रह रहे मजदूरों के घर एक दिया भी बामुश्किल जल पा रहा हो।

विशेष रूप से पटाखे खरीदते वक्त यह विचार आया कि कहाँ तो हम आप जैसे लोग हजारों रुपये पटाखों के रूप में यूं ही जला देंगे और कहाँ उन घर के मासूम बच्चों को शायद एक फुलझड़ी भी नसीब न हो। ऐसे मैं मुझे मेरे भोपाल की एक रीत बहुत याद आती है। जिसमें हर दिपावली पर पटाखे जलाने से पूर्व और लक्ष्मी पूजन के बाद सभी आस-पास के लोग एक दूसरे के घर जलते हुए दिये लेकर जाते हैं और अपने से पहले पड़ोसी के घर से रोशनी की शुरुआत करते हैं। आज भी यह परंपरा वहाँ कायम है या नहीं मैं कह नहीं सकती।

मगर मुझे वो रीत बेहद पसंद थी और आज भी है। किन्तु इतने सालों बाद यहाँ लौटने पर जो मुझे एक अपार निराशा हुई वह यह थी कि अब यहाँ आमने सामने भी कौन रहता है यह तक पता नहीं। कभी यदि भूल से सामने पड़ गए तो नमस्कार, चमत्कार जैसा ही महसूस होता है। फिर भला ऐसे माहौल मैं कौन किसके घर दिया रखने जाएगा। ऐसे मैं तो लोग यदि एक दूसरे को देखकर दिपोत्सव की शुभकामनायें भी दे दें तो बहुत है।

खैर मैं बात कर रही थी कि दुनिया का कोई भी रिश्ता बदल जाये मगर माता पिता का अपने बच्चों से रिश्ता कभी नहीं बदल सकता। मैंने देखा दिवाली के बहुत दिनों बाद एक दिन अचानक तड़के सुबह-सुबह बहुत तेज़ी से पटाखे चलने की आवाज आ रही है वो भी वो (लड़) वाले पटाखे जिनकी आवाज से अचानक ही नींद टूट गयी और ज़्यादातर लोग हड्बड़ा कर उठे होंगे इसका मुझे यकीन हैं। उनींदी आँखों से जब घर की बालकनी में जाकर देखा तो जो देखा उसे देखकर चेहरे पर एक मोहक सी मुस्कान बिखर गयी। मैंने देखा हमारे ही इमारत के नीचे रहने वाले कुछ मजदूर भाइयों ने अपने छोटे छोटे मासूम बच्चों के लिए अपने घर से एक छोटा सा टीन की छत का एक टुकड़ा जमीन पर बिछा दिया है और वहाँ मौजूद कुछ 10-12 बच्चे उस पर तेज़ी से एक साथ उछल रहे हैं। जिसके कारण पटाखों की सी आवाज़ आरही है और सभी बच्चे उस आती हुई तेज़ आवाज़ से इतने खुश हैं कि शायद असली पटाखे बजाते वक्त हम आप भी इतना खुश नहीं होते होंगे, जितना वह खुश थे।

आखिर गरीब माता-पिता ने भी अपने बच्चों की खुशियों का रास्ता ढूंढ ही लिया। उनके इस जज़्बे को मेरा सलाम और दुनिया के हर माता-पिता को मेरा प्रणाम....जय हिन्द                             

3 comments:

  1. समय के साथ सब कुछ बदल जाता है. गरीब लोग भी पैसे की कमी होते हुए भी ख़ुशी मनाने का तरीका ढूंढ लेते हैं...बहुत सार्थक और सुन्दर आलेख...

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  2. दुनिया और खासकर भारत के ऐसे जीवन-विरोधाभासों को देखकर ऐसे विचार उपजना स्‍वाभाविक है।

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  3. माँ बाप तो हमेशा ही अपने बच्चों के लिए ही करते हैं ... उन्ही की शुशी के लिए जीते हैं ... पर शायद अब बच्चे ये बात नहीं समझते ... जीवन की रफ़्तार में सब कुछ होता रहता है ...

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