Wednesday 1 April 2015

समाचार पत्र और मेरे विचार

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पिछले कुछ महीनों मैं मुझे ऐसा लगने लगा था कि समाचार पत्रों में केवल राजनीतिक अथवा अपराधिक समाचारों के अतिरिक्त और कोई समाचार आना ही बंद ही हो गए हैं या यह भी हो सकता है कि शायद मैंने ही समाचार पत्र पढ़ने में आज से पहले कभी इतनी रुचि ही न ली हो। इसलिए मुझे पहले कभी यह महसूस ही नहीं हुआ कि आज की तारीख में समाचर से अधिक उसके शीर्षक का महत्व है। फिर चाहे उस शीर्षक के अंतर्गत आने वाले समाचार में दम हो न हो पर शीर्षक में दम अवश्य होनी चाहिए। ताकि वह पाठकों को उस विषय में सोचने के लिए विवश कर दे।

आज ऐसा ही कुछ मुझे भी महसूस हुआ जब मैंने एक और ग्रामीण बच्चों की शिक्षा के विषय में उन्हें ग्लोबल शिक्षा देने की बात पढ़ी। ग्लोबल शिक्षा बोले तो उन्हें (कमप्यूटर और नेट से संबंधित जानकारी देना) या उन्हें यह बताना कि इंटरनेट के माध्यम से भी शिक्षा कैसे ग्रहण की जा सकती, और अपने यहाँ (भारत) में तो शिक्षा प्राणाली का पहले ही बंटाधार है। ऊपर से यह नई पहल खैर   वही दूसरी और महिलाओं से संबन्धित एक अन्य आलेख के अंतर्गत मैंने यह पढ़ा कि समाज में महिलाओं के प्रति लोगों के नज़रिये को बदलने के लिए महिलाओं को अपनी पारंपरिक सोच बदलने की आवश्यकता है। इन दोनों ही विषयों ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया कि जहां आज भी एक ओर ग्रामीण बच्चों की प्राथमिक शिक्षा तक का ठिकाना नहीं है, वहाँ उन बच्चों को ग्लोबल शिक्षा से अवगत कराना क्या सही होगा ?

लेकिन आगे कुछ भी कहने से पहले मैं यहाँ यह बताती चलूँ कि मैं बच्चों के विकास के विरुद्ध नहीं हूँ। किन्तु सोचने वाली बात है यह है कि जहां एक और गाँव में आज भी बहुत से लोग अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते वहाँ ग्लोबल शिक्षा की जानकारी देना। बात कुछ हजम नहीं होती।

ऐसा नहीं कि गाँव के बच्चों को नयी तकनीकों के माध्यम से आगे बढ़ने या पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं है। है, बिलकुल है ! लेकिन जहां गाँव के शिक्षक ही पूर्णरूप से शिक्षित न हों, जो अपने गाँव के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा ही सही तरीके से दे पाने में असमर्थ हों। जहां गरीबी के चलते आज भी शिक्षा के प्रति उदासीनता का भाव हो। वहाँ ग्लोबल शिक्षा की बातें करना मेरी समझ से तो कोई समझदारी वाली बात नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं ग्रामीण बच्चों कि ग्लोबल शिक्षा के खिलाफ हूँ। लेकिन मेरा मानना यह है कि कोई भी नयी इमारत के निर्माण से पहले उसकी नीव का  मजबूत होना अधिक आवश्यक है। तभी आप उस पर एक मजबूत इमारत बनाने में सफल हो सकते हैं। पर कई इलाकों में तो जीवन जीने का ही आभाव है क्यूंकि किसानों की हालत और बढ़ती मंहगाई कि मार से जब कोई भी इंसान अछूता नहीं है तो फिर हमारे उन अन्न दाताओं की तो बात ही क्या।

ऐसे में जीवन यापन से जुड़ी जरूरतों के अभाव में जब प्राथमिक शिक्षा का ही अभाव होगा, जो स्वाभाविक भी है। वहाँ ग्लोबल शिक्षा की बातों को भला कौन समझेगा।

रही महिलाओं के विकास की बात जिसमें एक महिला के द्वारा यह कहा गया कि यदि हमें समाज में अपने प्रति लोगों का नज़रिया बदलना है तो उसके लिए सर्वप्रथम हम स्त्रियॉं को ही अपनी पारंपरिक सोच को बदलना होगा। कुछ हद तक यह बात सही है। लेकिन यदि हम हर वर्ग की महिलाओं की बात करें तो शायद यह एक नामुमकिन सी बात है। क्यूँ ? क्यूंकि हम उस देश में रहते हैं जहां बड़े से बड़े शहर में रहने वाला उच्च शिक्षा प्राप्त इंसान आज भी बेटे और बेटी की परवरिश में फर्क करता है। जहां या तो बेटी पैदा ही नहीं होने दी जाती या फिर उसके पैदा होते ही उसे पारंपरिक रूप से चली आरही दक़ियानूसी बातों को उसके मन में बैठाना शुरू कर दिया जाता है।

खैर यह एक अंत हीन विषय है और अभी यहाँ इस विषय को मद्दे नज़र रखते हुये मैं यहाँ इस बारे में ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं समझती। लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है। ऐसे में भला कोई भी लड़की जिसके दिमाग में बचपन से ही गलत बातें भर दी गयी हों वो आगे जाकर अपनी पारंपरिक सोच को कैसे बदल सकती है। या फिर एक ऐसी लड़की जिसने सदा अपनी माँ पर अत्याचार होते देखा हो। उसके साथ दुर्व्यवहार होते देखा हो। वो लड़की विरासत में क्या पाएगी। फिर ऐसे में हम समग्र रूप से यह कैसे कह सकते हैं कि हमें अपनी पारंपरिक सोच को छोड़कर एक नए सिरे से नए समाज के निर्माण हेतु कुछ नया सोचना चाहिए।

चलिये एक बार को हम यह मान भी लें कि कुछ मुट्ठी भर लोग ऐसा करने मैं सफल हो भी गए, तो क्या होगा। मैं कहती हूँ कुछ नहीं होगा ! क्यूंकि हमारी जनसंख्या का एक बड़ा तबका या एक बड़ा भाग ऐसा है जो इन बातों को या तो समझना ही नहीं चाहता या फिर समझ ही नहीं सकता है। ऐसे हालातों में यह बात समाज का वो बड़ा हिस्सा कैसे समझेगा। यह बात मेरी समझ से तो बाहर है।

अरे जिसे जीने के लिए रोटी कपड़ा और मकान जैसी अहम जरूरत की पूर्ति नहीं हो पा रही है। उसके लिए तो यह बातें किसी प्रवचन से ज्यादा और कुछ भी नहीं है। जो महिला रोज़ काम से थक्कर चूर होने पर भी रोज़ अपने ही घर में, अपनों के द्वारा घरेलू हिंसा का शिकार होती है। वह महिला कैसे बदलेगी अपनी सोच और क्या सिखाएगी अपनी बेटी को, जहां आज भी अपने घर की बहू बेटियों को घर के अहम सदस्य की भांति बराबर का सम्मान नहीं मिलता। जहां एक औरत को आज भी केवल बेटा पैदा करने के लिए किसी बच्चे पैदा करने वाली मशीन की तरह इस्तेमाल किया जाता है। और बेटी पैदा करने पर प्रताड़ित किया जाता है। वह महिला भला अपनी सोच तो क्या अपना कुछ भी बदल सके तो बहुत है। सोच बदलना तो दूर की बात है।

मुझे तो ऐसा लगता है कि जब तक हमारा समाज एक पुरुष प्रधान समाज रहेगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। क्यूंकि सोच बदलने की जरूरत महिलाओं से अधिक पुरुषों को है। जो सदैव अपने अहम में अहंकारी बनकर अपने ही घर की स्त्रियॉं पर जुल्म करते है। अगर कोई सोच बदलनी है तो सिर्फ इतनी कि एक बेटे की परवरिश करते वक्त हमें उसे यह सिखाना है कि बेटा एक लड़की भी एक इंसान है और तुम भी एक इंसान ही हो। यदि वह रो सकती है तो तुम भी रो सकते हो। रोने से कोई लड़का कभी लड़की नहीं बन जाता या कमजोर नहीं हो जाता। अपनी भावनाओं को छिपाने का नाम पुरषार्थ नहीं कहलाता। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भावनाओं को दिखा देने से या जाता देने से कोई स्त्री कमजोर नहीं हो जाती। ठीक उसी प्रकार भावनाओं को छिपा लेने से कोई लड़का या कोई पुरुष मजबूत नहीं हो जाता। बल्कि कहीं न कहीं पुरुषों की यही बात उन्हें अंदर ही अंदर खोखला एवं कमजोर बना देती है। क्यूंकि यदि ऐसा न होता तो सभी देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति को मिलाकर एक स्त्री (जो नारी शक्ति का प्रतीक है) माँ दुर्गा का निर्माण नहीं किया होता। यदि वह चाहते तो अपनी शक्तियों को कोई और भी रूप दे सकते थे। किन्तु उन्होने ऐसा नहीं किया क्यूंकि वह जानते थे कि नारी में ही वह शक्ति है जो पुरुषों को संभाल सकती है।

बस केवल यही एक बात को समझाते हुए हमे अपने व्यवहार के माध्यम से अपने बच्चों के सामने कुछ ऐसे उदाहरण रखने की जरूरत है जिसे देखकर वह स्वयं ही इंसानियत का पाठ पढ़ जाये   क्यूंकि अच्छा या बुरा/सही या गलत बच्चे जो भी सीखते हैं, सर्वप्रथम अपने घर से ही सीखते है और वहीं से उनकी सोच का निर्माण शुरू होता है। इसलिए यदि पारंपरिक सोच बदलने की जरूरत किसी को है तो वो पुरुषों को अधिक है और स्त्रियॉं को कम। जिस दिन सामाज की यह सोच बदल गयी उसी दिन से स्त्रियों के प्रति समाज का नज़रिया अपने आप ही बदल जाएगा। जय हिन्द....

5 comments:

  1. जब स्कूलों में हम अभी तक बुनियादी सुविधाएँ मुहैया नहीं करा पाए तो ग्लोबल शिक्षा की बातें करना बेमानी होजाता है. महिलाओं या बच्चों की दशा में सुधार के वादे सुनते रहे हैं और आगे भी सुनते रहेंगे. जब तक यह सोच जमीनी धरातल पर नहीं उतरती कुछ बदलाव नहीं हो पायेगा. बहुत सारगर्भित आलेख..

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  2. हमे अपने व्यवहार के माध्यम से अपने बच्चों के सामने कुछ ऐसे उदाहरण रखने की जरूरत है जिसे देखकर वह स्वयं ही इंसानियत का पाठ पढ़ जाये... बढ़िया आलेख।

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  3. यह पहलू भी जटिल है, पर गलती किस की तरफ से ज्‍यादा है या मिश्रित है, इस पर विचार करने की ज्‍यादा जरूरत है।

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  4. जब तक हमारा समाज एक पुरुष प्रधान समाज रहेगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। क्यूंकि सोच बदलने की जरूरत महिलाओं से अधिक पुरुषों को है..
    बिलकुल १०० टके की बात कही आपने ...
    बहुत बढ़िया लगा आपके विचारोत्तेजक प्रस्तुति पढ़कर

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  5. ये एक कटु यथार्थ है और कभी न खत्म होने वाला विषय। भले लोग नारी सशक्तिकरण की बातें करतें हों मगर सच तो ये है कि आज भी कई जगह स्थितियां वही ढाक के तीन पात हैं। जब तक मानसिकताएं नहीं बदलतीं नारी सशक्तिकरण एक कोर शब्द है बस।

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