Thursday, 29 October 2015

बचाव आखिर कैसे हो ?


अपराधी आखिर कौन ? बलात्कार या बलात्कारी जैसा शब्द सुनकर अब अजीब नहीं लगता। क्यूंकि अब तो यह बहुत ही आम बात हो गयी है। कई बार तो एक स्त्री होने के बावजूद भी अब ऐसे विषयों को पढ़ने का या इस विषय पर सोचने का भी मन नहीं करता। कुछ हद तक तो अब अफसोस भी नहीं होता। हालांकी मैं यह बहुत अच्छे से जानती हूँ कि जिस तन लागे वो मन जाने लेकिन अब यह सब कुछ इतना आम और सजह हो गया है कि इन मामलों से जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। फिर भी यदि सोचने का प्रयास किया जाये तो एक सवाल उठा करता है मन में बलात्कार या बलात्कारी क्या है? मेरे विचार से तो यह एक मानसिक विकृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह सब दिमाग की ही तो उपज है।

आप स्वयं ही देख लीजिये बलात्कार होना क्या होता है, से लेकर बलात्कार हो जाने तक सामाजिक डर में जीती एक स्त्री की यह दशा कि अब इसके आगे उसकी ज़िंदगी खत्म, न सिर्फ उसकी, जिसका बलात्कार हुआ है। बल्कि उसके पूरे परिवार की भी ज़िंदगी खत्म क्यूँ ? क्यूंकि इस पुरुष प्रधान समाज ने सारी बंदिशे केवल एक स्त्री के लिए ही बनाई हैं। यदि कुछ देर के लिए इस बात को एक अलग ढंग से सोचने का प्रयास किया जाये तो कैसा रहेगा? अगर हम समाज का डर भूल जाएँ तो क्या ज़िंदगी आसान न हो जाएगी? मैं मानती हूँ बलात्कार होना अपने आप में एक इंसान के लिए (विशेष रूप से एक स्त्री के लिए) एक भारी हानी है। जिसमें उसका न सिर्फ शारीरिक अपितु मानसिक संतुलन भी बिगड़ जाता है। लेकिन फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि यदि हम इस खोखले समाज की सड़ी गली मानसिकता और डर को दूर रखकर इस विषय पर बात करेंगे तो शायद एक पीड़िता के लिए अपनी इस पीड़ा से उबरना थोड़ा आसान हो जाएगा।

वैसे देखा जाये तो मेरा मानना तो यह है कि बलात्कार करने की भावना इंसान के जिस्मानी जरूरत से ज्यादा उसके दिमाग में व्याप्त होती है। तभी तो ऐसे किसी व्यक्ति को अर्जुन की मछ्ली की आँख की तरह सामने वाली नारी या स्त्री का केवल शरीर ही दिखाई देता है। अन्य और कुछ नहीं दिखाई देता। ना लड़की की उम्र, न जात, न पहनावा, न ही कुछ और अगर कुछ दिखता है, तो वह है केवल उसका शरीर।  तभी तो महीने भर की बच्चियों से लेकर वृद्ध औरतों तक के साथ हुये इस तरह के मामले सामने आते है। क्यूंकि यदि यह केवल शारीरिक जरूरत होती तो सामने वाले में भी तो अपने शरीर के अनुसार जरूरतें दिखती। लेकिन ऐसा होता नहीं है।  
खैर अब हम पूरे समाज को सुधार कर सज्जन तो बना नहीं सकते। इसलिए यदि वर्तमान हालातों को मद्देनजर रखते हुए बात की जाये तो अभिभावक होने के नाते अब यह जघन्य अपराध हमारी चिंता का अभिन्न अंग बन गया है। जिसके चलते अब इस अपराध को रोकने के उपाए सोचने के बजाए अब हमें यह सोचना पड़ता है कि हम अपने बच्चों को इस अपराध से कैसे बचा सकते है। तो उसका भी उपाय है लेकिन इसमें बहुत से मतभेद भी है। मेरे विचार से सारे फसाद की जड़ है यह आपसी संवाद हीनता। जो बच्चों को दिन प्रतिदिन अकेला बनाती जा रही है। स्मार्ट फोन और नई नई एप्स आ जाने से बच्चों और अभिभावकों के बीच का संवाद लगभग खत्म हो चला है। क्यूंकि नौकरी पेशा होने के कारण पहले ही माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए समय का अभाव है। दूजा रहे सहे समय में भी बच्चे और माँ-बाप दोनों ही अपने-अपने सेल फोन में व्यस्त रहते है। जिसके चलते बच्चे अपने मन की बात अपने माता-पिता के साथ सांझा करने से ज्यादा अच्छा अपने दोस्तों के साथ सांझा करना ज्यादा उचित समझते है। मसलन सड़क पर चलते समय होती छेड़ छाड़  को लड़कियाँ अक्सर अपने मात-पिता से सांझा नहीं कर पाती क्यूँ ?  क्यूंकि उन्हें अपने माँ-बाप के उत्तर पहले से ही ज्ञात होते हैं। इसलिए वह ऐसा सोचने लगते है कि माँ-बाप की बन्दिशों और ज्ञान बाँटू प्रवचनों को सुनने से अच्छा है, उस बात को अपने मित्रों से सांझा कर मन हल्का कर लेना।

यह बात कहने सुनने अथवा पढ़ने में जितनी सहज महसूस होती है वास्तव में यह उतनी ही गहरी और चिंतनीय बात है। पहले जब सयुंक्त परिवार हुआ करते थे तब पूरे परिवार में कोई न कोई एक ऐसा शख़्स या सदस्य ज़रूर होता था जिनसे बच्चों को अपनी बात कहने में हिचकिचाहट महसूस नहीं होती थी। क्यूंकि तब बच्चों को घर में ही ऐसा माहौल मिल जाता था कि उन्हें बाहरी दुनिया में अपने लिए किसी और को खोजने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। किन्तु आज ऐसा नहीं है। भौतिक  जरूरतों की पूर्ति के अतिरिक्त भी आज ऐसा बहुत कुछ है जिसे पाने की चाह में इंसान अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से दूर हो चला है। केवल अपनी निजी जरूरत के लिए पैसा कमाना अब जीवन का मुल्य उदेश्य नहीं बचा है। और अब ना ही कोई कबीर दास जी कि इस बात में विश्वास ही रखता है कि
“साईं इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाये”।

अब तो पैसा कमाने की लालसा ने मनुष्य को इतना अंधा बना दिया है कि अब उसे वह सब भी चाहिए जिसकी उसे जरूरत ही नहीं जैसे घड़ी चाहे 200 रु की हो या हजारों लाखों की पर समय तो वही बताती है। लेकिन फिर भी रोलेक्स की घड़ी पहने का चस्का ऐसा है मानो वो समय नहीं आपका भविषय बताएगी। ऐसे और भी बहुत से उदाहरण है। किन्तु यही वह छोटी-छोटी बातें है जिनको पाने की चाह में आप अपने बच्चो से और बच्चे आपसे दूर बहुत दूर होते चले जाते है और आपको पता भी नहीं चलता। जब बच्चे आपसे अपने मन की बात सांझा नहीं कर पाते तो वह बाहर अपने प्रश्नों का उत्तर खोजते है और तब सही जानकारी न मिलने के कारण रास्ता भटक जाते है और उसी भटके हुए रास्ते से जन्म लेती है यह आपराधिक प्रवर्ती जो एक समान्य से बच्चे को कब अपराधी बना देती है उसे स्वयं उसे भी पता नहीं चलता। कोई भी व्यक्ति जन्म से बुरा नहीं होता। शायद इस लिए गांधी जी ने कहा था कि “पाप से घृणा करो पापी से नहीं”। लेकिन इन भौतिक संसाधनों की पूर्ति करने हेतु इंसान पैसा कमाने की एक मशीन बन गया है।


लेकिन बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के पीछे केवल वह एक अकेला इंसान ही दोषी नहीं होता बल्कि पूरा समाज दोषी होता है। हम सभी जानते है कि एक उम्र के बाद बच्चों में शारीरिक परिवर्तन के चलते भोग और संभोग के विषय से संबन्धित कई तरह के प्रश्न दिमाग में घूमते है। जिसके चलते वह अपने मन के कुतूहल को शांत करने हेतु बहुत से प्रश्न करते है। कई बार तो उनके प्रश्नों का जवाब स्वयं हमारे पास भी नहीं होता और हम अपनी कमी को छिपाने के लिए उन्हें डांट कर भागा देते है। या फिर उस विषय पर बात करने से कतराते है। जिस से उनके मन की जिज्ञासा शांत होने के बजाय और भी ज़्यादा भड़क जाती है। और फिर वो इंटरनेट या सड़क छाप किताबों के माध्यम से अपनी जिज्ञासा को दूर करने का प्रयास करते है। नतीजा सही जानकारी का अभाव उन्हें अपराधी बना देता है। बलात्कार जैसा जघन्य अपराध करने वाला अपराधी। लेकिन बलात्कार करने के पीछे और भी बहुत से कारण है जैसे पैसों का अभाव।

अब आप सोच रहे होंगे कि बलात्कार का भला पैसे से क्या संबंध तो इसका जवाब यह कि गाँव  के विकास के नाम पर जो भवन निर्माता उन्हें सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हुए उनसे उनका सब कुछ छीन लेता है और महज़ थोड़े से पैसों के लालच में आकर जब वह भी अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। तब एक दम से मिले हुए पैसो से उन्हें ऐयाशी की लत लग जाती है और वह सारा पैसा पीने, खाने और दिखावे में उड़ा देते हैं। तत पश्चात एक समय के बाद जब पैसा खत्म हो जाता है। तब जन्म लेती है यह अपराधिक प्रवत्ती जरूरतें पूरी करने के चक्कर में लोग इंसान से कब हैवान बन जाते है और तब सिलसिला शुरू होता है अपहरण से लेकर बलात्कार तक का सफर। फिर भी हम हर एक की काया पलट कर उसे एक नेक इंसान तो बना नहीं सकते। इसलिए बेहतर है अपने बच्चों को इस तरह के अपराधियों से बचा कर चलें। तो अब सवाल यह उठा है कि ऐसा कैसे हो। तो उसका जवाब भी वही है अपने बच्चे की बातों पर ध्यान दीजिये। उसका दिन कैसा गया और पूरे दिन में उसने क्या क्या किया उसका पूरा विवरण उसके मुख से सुनिए। खाना खाते वक्त या रात को सोने से पहले थोड़ा सा समय अपने बच्चे के लिए निकाल कर उसे बात करना बेहद ज़रूरी है। ताकि वह अपनी ज़िंदगी में घट रही हर छोटी बड़ी घटना को आपके साथ सहजता से सांझा कर सके। क्यूंकि अधिकतर मामलों में यौन शोषण से पीड़ित बच्चे अपने मन की बात कह नहीं पाते। लेकिन यदि ध्यान दिया जाये तो उनकी चुप्पी  और सहमा-सहमा से व्यक्तित्व सब बयान कर देता है।  


इसलिए बच्चे की उम्र को ध्यान में रखते हुए उसे उसकी उम्र के हिसाब से सभी तरह का ज्ञान आप खुद दीजिये जैसे अच्छे-बुरे स्पर्श की जानकारी से लेकर एड्स जैसी खतरनाक बीमारी के विषय में भी उससे बिना हिचक बात कीजिये। माना कि आज कल बच्चे आपसे ज्यादा समझदार होते है और आपके बताने से पूर्व ही इंटरनेट के माध्यम से वह सहज ही सारी जानकारी स्वयं ही प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन वह विश्वास जो आपकी बातें और आपका साथ उन्हें देता है। वो वह प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए आपका स्वयं उन से बात करना ज्यादा प्रभावी है। इसलिए समय रहते उसे इन सब के बारे में बताइये और उसकी भी सुनिए। समय की पाबंदी और मोबाइल का सदुपयोग भी उसे बताइये कि आपातकालीन स्थिति होने पर वह क्या-क्या कर सकता है/सकती है। उसे यह एहसास भी दिलायें कि मोबाइल फोन सिर्फ बात करने ,गेम खेलने या इंटरनेट का इस्तेमाल करने या तस्वीरें लेकर सोशल साइट पर डालने के लिए ही नहीं होता। बल्कि कभी कभी इसमें दी हुई सुविधाओं का सही इस्तेमाल करके भी किसी बड़ी दुर्घटना को होने से टाला जा सकता है।

जैसे किसी भी अंजान बस या टेक्सी में बैठने पूर्व उसके नंबर प्लेट का फोटो खींच कर अपने माता-पिता को भेज दें। साथ ही वह किस जगह से कितने बजे चला/चली है और अंदाजन कितने बजे तक पहुँच जाएँगे इस बात का भी विवरण दें। फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की यह नियम दोनों के लिए अनिवार्य होना चाहिए। उसके दोस्त कौन-कौन है कहाँ रहते है। उनके माता पिता क्या करते इत्यादि की सम्पूर्ण जानकारी भी माता-पिता के पास होनी चाहिए। एवं उन सभी का पता और फोन नंबर भी सभी अभिभावकों को ध्यान से अपने मोबाइल में सुरक्षित रखना चाहिए। ऐसा नहीं है कि बलात्कार की यह घटना केवल लड़कियों के साथ ही होती है। लड़कों के साथ भी ऐसे हादसे होते हैं। इसलिए जितना गंभीर और सजग हम लड़कियों के प्रति रहते है, उतना ही गंभीर और सजग हमें लड़कों के प्रति भी रहना पड़ेगा। क्यूंकि लड़का हो या लड़की, बच्चे तो हमारे ही हैं। इस नाते उनकी पूरी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। और सबसे अहम बात अपने बच्चों को एक दूसरे का सम्मान करना अवश्य सिखाएँ खासकर लड़कों को तभी आगे चलकर वह एक सभ्य नागरिक बन पाएंगे।  

Friday, 23 October 2015

गुनाहों का देवता


"गुनाहों का देवता" यह नाम तो आप सभी ने देखा सुना और पढ़ा ही होगा। शायद ही कोई ऐसा हो जिसे हिन्दी साहित्य में रुचि हो और उसने यह उपन्यास न पढ़ा हो। क्या कहूँ क्या लिखूँ निःशब्द हूँ मैं इस रचना को पढ़कर। जी हाँ धर्मवीर भारती जी की अपने आप में एक अदबुद्ध अद्वितीय रचना है यह "गुनाहों का देवता" वाकई लोग चाहे जो कहें या जो भी समझें मगर इस उपन्यास की भवानाएं ही इस उपन्यास की जान है। प्रेम की जिन ऊँचाइयों और गहराइयों को लोग महसूस तो करते किन्तु कहने से डरते है या यूं कहिए कि समझ ही नहीं पाते उन आंतरिक भावनाओं को, यूं इनती सादगी और खूबसूरती के साथ पन्नों पर उतार देना कि पढ़ने वाले को यह कहानी अपनी सी लगने लगे यह आसान नहीं होता। और ना ही यह हुनर हर किसी लेखक में होता है।

मैंने यह उपन्यास पहले भी पढ़ा था। मगर छोटे पर्दे पर जब इस कहानी को एक धारावाहिक के रूप में देखा तो मन किया कि एक बार फिर पढ़ा जाये। पढ़ा भी सही। किन्तु ऐसी प्रेम कहानी तो सिर्फ फिल्मों में ही देखने को मिलती है। सच में ऐसा सच्चा प्रेम कोई किसी को कर सकता है ? पढ़कर यकीन नहीं होता। मगर इतिहास गवाह है ऐसी कई अदबुद्ध प्रेम कहानियों का पता नहीं वह सब भी सच्ची है या ऐसे ही किसी लेखक की कोई कल्पना। यह कहना मुश्किल है। मगर जो भी है भावनाओं का ऐसा उछाल है कि आप स्वयं को उसमें गुम किए बिना रह ही नहीं सकते। यह एक ऐसा उपन्यास जो पीढ़ियों से पढ़ा जा रहा है। मैंने इस उपन्यास के विषय में अपनी माँ से सुना था। उनका कहना है जब वह कॉलेज में हुआ करती थी, तब उनके मित्रों एवं उनके सहपाठियों को यह उपन्यास पृष्ट अंक के साथ कंठस्थ हुआ करता था।  

कल्पना है या सच यह तो मैं नहीं कह सकती। मगर यदि सच है तो इतनी ईमानदारी और बेबाकी से सच लिखने के लिए भी हिम्मत चाहिए। नहीं ? ऐसा लगता है मानो लेखक ने अपना दिल निकाल कर रख दिया हो जैसे कि शब्दों के एक-एक अक्षर से मानो जीवन के सभी रस टपकते है। विशेष रूप से प्रेम त्याग और समर्पण का भाव सच प्रेम त्याग मांगता है। मगर क्यूँ ? इस रचना में जीवन के हर एक रंग को हर एक रस को बखूबी सँवारा गया है। जिसके चलते यह उपन्यास पाठक को अपनी और आकर्षित करने में पूर्णतः सक्षम है।      

सच कहूँ तो फिल्मों के माध्यम से आज तक बहुत सी प्रेम कहानियाँ देखी है। कुछ पढ़ी भी है, जैसे हीर राँझा, लैला मजनू, सोनी महिवाल,रोमियो जूलियट इत्यादि। पर 'सुधा और चंदर' की इस प्रेम कहानी जैसा कोई नहीं मिला न पढ़ने को, ना देखने को, फिर भी आज तक किसी उपन्यास ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया। जितना इसने किया है। इसके विषय में जितना भी कहा जाये वह कम ही होगा। कितने सच्चे है इसके सभी पात्र सुधा,चंदर, बिनती, गेसू पम्मी बल्कि सभी, ऐसा लगता है मानो कल ही बात हो। यूं कहने को तो ६० के दशक की है यह कहानी, मगर पढ़ो तो ऐसा लगता है जैसे इस कहानी का कोई न कोई चरित्र अपने आस पास ही हो। जैसे यह कोई कहानी नहीं बल्कि सब साक्षात हो। जैसे आप इन सबको बहुत पहले से जानते हो। मानो समय की आपाधापी में यह दोस्त कहीं खो गए थे। मगर पढ़ते पढ़ते न जाने कहाँ से आपके करीब आगये आपके साथ -साथ हँसे खेल ,रोये भी ऐसा अध्बुध लेखन तो अब शायद हिन्दी साहित्य में भी दुबारा देखने को ना मिले। संभवतः ऐसा नहीं होगा। हाँ यह ज़रूर हो सकता है कि मुझे ही इस विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं है।

लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि ऐसी सुंदर प्रेम कहानी कोई मात्र बीस (२०) अंकों की कड़ी में कैसे दिखा सकता है। यूं भी यह कहानी देखने वाली नहीं बल्कि पढ़कर महसूस की जाने वाली कहानी है जिसकी हर एक भावना आपके दिल को छूकर गुजरती है। तभी तो पात्रों के साथ-साथ आप हंस खेल पाते है रो पाते है। क्यूंकि भावनाओं को दिखाया नहीं जा सकता। उन्हें तो केवल महसूस किया जा सकता है। फिर भी मैं यह ज़रूर कहूँगी की पढ़ने और देखने में और लिखने में भी बहुत बड़ा अंतर होता है। क्यूंकि जहां तक फिल्मों की बात है उसमें किरदारों के चयन पर बहुत कुछ निर्भर करता है। यदि वो चयन सही न बैठा तो समझो पूरी कहानी बर्बाद हो जाती है। यूं भी हर एक व्यक्ति का नज़रिया अलग होता है। इसलिए मेरे विचार से इस तरह की कहानियाँ देखने से ज्यादा पढ़ने में रुचिकर लगती है और ज्यादा आनंद देती है। 

इसलिए जो भी इस धारावाहिक के माध्यम से इस बेहतरीन उपन्यास को जानने और समझने की भूल कर रहे हों उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि वह श्री धर्मवीर भारती जी कि इस खूबसूरत कृति को पहले पढ़ें फिर देखें तो उन्हें स्वतः ही इस उपन्यास की गहराई का भान हो जाएगा और उन्हें कुछ कहने कि जरूरत ही नहीं पड़ेगी। क्यूंकि इस खूबसूरत कृति को यूं समय की बन्दिशों में बांध कर दिखाया जाना संभव ही नहीं है। जो दिखा रहे है। वह कहीं न कहीं जाने अंजाने इस उपन्यास के साथ नाइंसाफी कर रहे है। इसलिए एक बार फिर कहूँगी कि यदि आप वास्तव में इस खूबसूरत रचना का लुफ्त उठाना चाहते है तो इसे पढ़िये और फिर फैसला कीजिये। इसे ज्यादा और क्या कहूँ  इस रचना की तारीफ के लिए तो मेरे पास शब्द ही नहीं है।क्या लिखूँ क्या न लिखूँ। कुछ कहते नहीं बनता।                    

Thursday, 15 October 2015

आखिर ऐसा क्यूँ होता है?

आखिर ऐसा क्यूँ होता है। आज हर कोई केवल अपनी बात कहना चाहता है किन्तु किसी दूसरे की कोई बात सुनना कोई नहीं चाहता। हर कोई ऐसा एक व्यक्ति चाहता है जो पूरे संयम और धेर्य के साथ आपकी पूरी बात सुने वह भी बिना कोई प्रतिक्रिया दिये। न सिर्फ सुने, बल्कि आपको समझने का भी प्रयास करे। मगर ऐसा कहाँ कोई मिलता है। लोग तो बात पूरी होने से पहले ही उस बात पर टीका टिप्पणी शुरू कर देते है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी बात को ही सही साबित करने में लग जाते है। सुनना समझना और कहना तो दूर की बात है। ऐसे लोग अकसर कुतर्क ज्यादा करते है और तर्क कम। नहीं? फिर चाहे इस बहस में अहम मुद्दा ही कहीं लुप्त क्यूँ न हो जाये। इसे उन्हें कोई मतलब ही नहीं होता। 

ऐसा विचार मुझे इसलिए आया क्यूंकि न जाने क्यूँ पिछले कुछ दिनों से मुझे ऐसा लग रहा है कि कितना कुछ घट रहा है। कितना कुछ हो रहा है हमारे आस पास, हमारे देश में, हमारे शहर में, हमारे गाँव में, कितना कुछ ऐसा है जो कहीं न कहीं घुट रहा है हमारे अंदर। जिसे हम कहना चाहते है। क्यूंकि हम इस बात को स्वीकार करें या न करे कि भले ही आज इंसान बहुत स्वार्थी होगया है। देश के बारे में सोचना तो दूर अब कोई अपने अलावा और किसी के बारे में सोचना भी पसंद नहीं करता। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि हम चाहे कितनी भी कोशिश कर लें स्वयं को इन आस पास चल रही गतिविधियों से हटाने की किन्तु चाहे न चाहे इनका असर हम पर पड़ ही जाता है। फिर चाहे वह हमारे देश से जुड़ा कोई राजनैतिक मामला हो या आस पास घटित हुई कोई गंभीर घटना। बल्कि मैं तो यह कहूँगी की गंभीर ही क्यूँ कभी कभी तो कोई साधारण सी घटना भी हमें हिला जाती है। और कभी कभी कोई बड़ी घटना का भी हम पर कोई असर ही नहीं होता। कितना अजीब है न यह सब ! लेकिन सच है। 


अब देखिये न आजकल गौ माँस पर पूरे देश में बबाल मचा हुआ है। वहाँ बहुत से ऐसे लोग है जो न हिन्दू है ना मुसलमान मगर उन्हें भी इन मामलों पर बोलना और अपनी प्रतिक्रिया देना सांस लेने जितना आवश्यक है। और जो लोग मेरी तरह हिन्दू है मगर उन्हें इन मामलों से कोई खासा फर्क ही नहीं पड़ता। या यूं कहिए फर्क तो पड़ता है। मगर किस से जाकर कहें अपने मन की बात। कोई सुनने समझने वाला भी तो होना चाहिए। लेकिन जब कोई है ही नहीं तो क्या करना है किसी से कुछ कहकर। जो हो रहा है, जो चल रहा है सो चलने दो। जबकि सभी यह जानते हैं कि गाय को पूजे जाने के बावजूद भी गाय के माँस का सबसे ज्यादा निर्यात भी हमारा देश ही करता है। फिर चाहे वह गौ माँस खाने के लिए करता हो, या फिर चमड़े से बने जूते हो सब भारत से ही बनकर जाते है और यह कोई आज की बात नहीं है। यह बरसों से होता अरहा है। गाय की पूजा करने वाले ही ना जाने ऐसे कितने व्यापारी होंगे जो धंधे के नाम पर स्वयं अपनी गायों को कसाइयों के हवाले करते है। आप खुद ही सोचिए कसाइयों के पास और बूचड़ खाने में गाय आती कहाँ से है कटने के लिए। स्वयं चलकर तो वह आएगी नहीं की लो मैं आ गई काट डालो मुझे और भर लो अपनी जेबें कोई न कोई तो उसे बेचता ही है। है ना ! तो क्या हर वो व्यक्ति मुसलमान ही होता है ? यदि आप ऐसा सोचते है तो बहुत गलत सोचते है। ऐसा नहीं है। 

हालांकी इन मामलों में कुछ किया नहीं जा सकता है। सिवाए इसके की हम काटे जाने वाले जानवरो को दी जा रही प्रताडना में कुछ हद तक कमी ला सकें तो शायद यह भी एक प्रकार का पुण्य ही हो जाये। क्यूंकि अब इंसान इतना गिर चुका है कि पैसा कमाने के लिए वह जो करे वह कम है मैंने कहीं पढ़ा था या शायद किसी से सुना था कि गायों को काटने से पहले उन्हें कई दिनों तक भूखा रखा जाता है। क्यूंकि भूखा रहने के कारण उनका हेमोग्लोबिन बढ़ जाता है, जो माँस खाने वाले के लिए बहुत फायदेमंद होता है। कितनी घटिया सोच है यह! मगर कुछ किया नहीं जा सकता। क्यूंकि जब तक मांग है तब तक सप्लाई भी होगी ही। यह संसार में चल रहे हर व्यापार का एक सबसे अहम नियम है जिस से हम इंकार नहीं कर सकते।        
इसी तरह पुणे में पिछले दिनों यहाँ एक और घटना घटित हुई, जब एक ६८ साल पुरुष ने अपनी पत्नी का गला काट कर उसकी हत्या कर दी और उसका सिर लेकर सड़कों पर निकल पड़ा। क्यूंकि उसे अपनी पत्नी पर संदेह था कि उसकी पत्नी के उसके दामाद के साथ नाजायज़ संबंध है। यह समाचार भी जंगल में आग की तरह फैला। और लगभग सभी समाचार पत्रों ने इसे छापा। लेकिन इस से हुआ क्या ? लोगों ने दो दिन बात की और फिर वही हुआ जो हमेशा से होता आया है। अर्थात सभी की ज़िंदगी अपने-अपने रास्ते। 





अभी आज ही १२ अक्टूबर २०१५ के समाचार पत्र में ही ऐसी ही एक और घटना ज़िक्र है जिसमें एक माँ ने अपने पाँच साल के बेटे की हाथों की नस काट कर उसकी हत्या कर दी और स्वयं भी चौथी या शायद पाँचवी मंज़िल से कूद कर आत्महत्या कर ली। समाचार पत्रों में छापे तथ्य के अनुसार दो दिन बाद महिला का जन्मदिन था जिसे मनाए जाने को लेकर पति और पत्नी में कुछ विवाद हो गया और महिला ने अपने बेटे सहित ऐसा दर्दनाक और दुखद कदम उठा लिया। मगर सोचने वाली बात है न इतनी मामूली सी बात पर भी भला कोई इंसान ऐसा भयानक कदम उठा सकता है क्या ? खुद के लिए कोई ऐसा कुछ कर भी ले तो एक पल को फिर भी बात समझ आती है लेकिन अपने साथ साथ अपने छोटे से बच्चे की यूं बेरहमी से जान ले लेना कोई मज़ाक नहीं है। फिर इतनी बड़ी घटना पर यह पेपर वाले इतना साधारण सा तर्क कैसे दे सकते है। यह बात मेरी समझ से तो बाहर है। इस पर क्या कहेंगे आप। कहना तो सभी बहुत कुछ चाहते है। मगर पचड़ों में कौन पड़े सोचकर कह कुछ नहीं पाते। और कई मामले तो ऐसे होते है जिसमें स्त्री पुरुष की सोच आड़े आ जाती है। मेरी तो यह समझ में नहीं आता की जब एक स्त्री और एक पुरुष एक इंसान है तो फिर दोनों की सोच इतनी अलग क्यूँ हो जाती है। उपरोक्त लिखे दोनों ही मामलों में हत्या का शिकार एक महिला ही हुई है। इसलिए महिलाओं की सोच इस विषय पर अलग है और पुरुषों की अलग। आखिर ऐसा क्यूँ ?

Thursday, 8 October 2015

प्लैटिनम और आभूषण

"रिश्तों की डोरी में एक धागा मेरा एक तुम्हारा "

यह पंक्ति पढ़कर क्या आपको कुछ याद आया। संभवतः नहीं! क्यूंकि टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के बीच घड़ी घड़ी होते मध्यांतर पर ध्यान ही कौन देता है। है ना! लेकिन मैं शायद उनमें से हूँ जो कार्यक्रमों पर कम और विज्ञापनों पर अधिक ध्यान देती हूँ। या यूं कहिए कि मेरा ध्यान स्वतः ही विज्ञापनों पर चला जाता है। यह पंक्ति भी आभूषणों के विज्ञापन की ही एक पंक्ति है। जिसमें विज्ञापन के माध्यम से अब सोना चाँदी छोड़कर प्लैटिनम से बने आभूषणों का प्रचार प्रसार किया जा रहा है। एक तरह से सही है, समय के साथ जब सभी कुछ बदल रहा है तो आभूषण भी बदलने ही चाहिए। रही बात पैसों की तो आमतौर पर आज के जमाने में आभूषणों के नाम पर किसी के पास पैसे की कोई कमी नहीं होती है। सोने चाँदी, हीरे मोती से बने एक एक आभूषण तो आज की तारिख़ में लगभग सभी के पास होते है। फिर भले ही एक-एक नग ही क्यूँ ना हो। है न ? 

लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इस तरह के विज्ञापन समाज में चल रही दहेजप्रथा जैसी कुप्रथाओं को और बढ़ावा दे रहे है। मेरे विचार से तो ऐसे विज्ञापनों पर बंदिश होनी ही चाहिए। क्यूंकि जहां एक गरीब आदमी अपनी रोज की रोटी रोजी में पिस रहा है। कर्जे के बोझ तले दबकर आत्महत्या कर रहा है। जिसके लिए अपनी बेटी का विवाह एक सपना मात्र है। एक ऐसा सपना जो उसके जीवन के संघर्ष के चलते शायद कभी पूरा हो ही नहीं सकता है। वहाँ दूसरी और एक आदमी अपनी दौलत शौहरत दिखा दिखाकर अपनी बेटी के लिए बहुमूल्य आभूषण बनवाये तो यह एक गरीब इंसान का परिहास उड़ाने जैसा ही जान पड़ता है। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है भई। हालांकी कोई किसी को दिखा-दिखाकर ऐसे काम नहीं करता है। मगर तब भी अपने बच्चों की शादी विवाह जैसे मौकों पर धनाड्य लोग पैसा पानी की तरह बहाते है। जिसमें ना सिर्फ पीने खाने बल्कि साज-सज्जा पर ही अधिक से अधिक धन खर्चा जाता है। 

मैं यह नहीं कहती कि आपके पास पैसा है तो आप उसको खर्चो मत। खर्चो बिलकुल खर्चो, आपका पैसा है। भला मैं कौन होती हूँ किसी को उसके अपने पैसे को खर्चने से रोकने वाली। मेरी तो बस इतनी ही गुजारिश है कि दिखावा मत करो। मैं जानती हूँ दहेज प्रथा जैसी बीमारी हमारे समाज से कभी खत्म नहीं हो सकती है। हालांकी समय बदल रहा है। अब आज की पीढ़ी के लड़के और लड़कियों ने इस कुप्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाना प्रारम्भ कर दिया है। मगर आज भी इस जहरीले सर्प की जड़ें हमारे समाज में बहुत गहरी है। इतना आसान नहीं है इस कुप्रथा को मिटाना। इसलिए जो भी माता-पिता अपनी बेटी को उपहार में जो कुछ भी देना चाहते है वह दें। इसका उन्हें सम्पूर्ण अधिकार है। किन्तु यदि वह कोई ऐसी वस्तु देना चाहते है जो बहुमूल्य है तो वह बिना किसी शोर शराबे और दिखावे के भी दे सकते है। उसके लिए चार लोगों को दिखाना ज़रूरी नहीं है कि देखो मैंने अपनी बेटी को हीरे का सेट दिया है या प्लैटिनम के आभूषण दिये है। यदि आप सम्पन्न है, तो आप दे सकते है। किन्तु एक बार औरों की बेटियों के विषय में भी सोच लें तो आप छोटे नहीं जो जाएँगे। क्यूंकि आपका यूं अपने पैसे का दिखावा करना एक आम आदमी या मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए परेशानी का सबब कब बन जाता है। यह किसी को पता ही नहीं चलता। 

इतना ही नहीं प्रतियोगिता में फँसे और दिखावे के चक्कर में पड़े लालची इंसान और लोभी समाज फिर दहेज की ऐसी ही मांग करते हैं। जो एक आम इंसान के लिए दे पाना संभव ही नहीं होता। विशेष रूप से उस वक्त तो बिलकुल नहीं जिस वक्त विवाह की बेदी पर दुल्हन बैठी अपने पाणिग्रहण संस्कार का इंतज़ार कर रही हो। उस समय इस दहेज की बेतुकी मांग का खामियाज़ा हमारी मासूम बेटियों को भुगतना पड़ता है। कहीं लड़की के सर्वगुण सम्पन्न होते हुये भी उसका विवाह केवल दहेज न दे पाने के कारण नहीं हो पाता। तो कहीं समाज में बदनामी के डर से उसके अभिभावक आत्महत्या कर लेते है। और यदि किसी तरह विवाह सम्पन्न हो भी जाये तब भी बात इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि हालात बेकाबू हो जाते हैं, तो लड़की को जलाकर या जहर देकर मारने की कोशिश की जाती है। विवाह जैसा पवित्र बंधन एक बाज़ार बन जाता है। जहां लड़के लड़कियों की बोली सी लगाई जाने लगती है। 

इतना ही नहीं अब तो लोग न सिर्फ विवाह बल्कि जन्मदिन की दावत भी ऐसी देते है कि कई बार उस दावत में शामिल हुए माता-पिता को अपने आप में शर्मिंदगी सी महसूस होने लगती है। क्यूंकि हर कोई तो इतना अमीर नहीं होता कि अपने बच्चों के जन्मदिन की हर दावत हर बार किसी बड़े आलीशान होटल में दे पाये। नतीजा बच्चों में एक दूसरे की देखा देखी प्रतियोगिता कि भावना पैदा हो जाती है। जिसके चलते ना चाहते हुए भी माँ-बाप के सिर पर एक अनचाहे बोझ आ पड़ता है। ऐसे में अपने बच्चे की खुशी कौन से माँ-बाप नहीं चाहते। साल भर तक एक-एक पैसा जोड़-जोड़कर वह केवल अपने बच्चे का जन्मदिन ऐसे मानना चाहते है जैसे किसी ने ना मनाया हो। मगर अफसोस कि यह दिखावे का नाटक है कि बंद होने का नाम ही नहीं लेता। उल्टा दिन दूनी रात चौगना बढ़ता ही जाता है। इसे तो अच्छा है कि पैसे वाले लोग इस दिखावे के बजाए अपने बच्चों कोई किसी अनाथालय में ले जाकर वास्तविक दुनिया से उनका परिचय कराएं ताकि उसे अपने आस-पास के लोगों में समान भाव बनाए रखने की शिक्षा मिल सके तथा शादी ब्याह के मौके पर अमीर से अमीर अभिभावक भी अपनी लड़की को ऐसे विदा करें जैसे एक आम इंसान करता है। मानती हूँ यह इस समस्या का हल नहीं है। किन्तु फिर भी उम्मीद पर दुनिया कायम है। हो सकता है इस सब से कुछ भी न हो। लेकिन यह भी हो सकता है कि शायद इससे दिखावा कम हो जाये और एक दूसरे से बढ़कर बेमतलब की बातों में पैसा खर्च करने से अच्छा लोग वही पैसा किसी अच्छे कामों में लगाएँ। 
जय हिन्द।      
                                      

Sunday, 4 October 2015

ममता के बदलते अर्थ

आज के वातावरण में जहां एक ओर प्रतियोगिता का माहौल है। वहाँ क्या रिश्ते और क्या व्यापार अर्थात रिश्तों में भी इतनी औपचारिकता आ गयी है कि कई बार यकीन ही नहीं होता। इस का कारण जागरूकता है या विकास, यह कहना मुश्किल है। क्यूंकि यदि जागरूकता की बात की जाये तो आज की नारी जागरूक है। जो घर में रहकर केवल गृहकार्य में उलझकर अपनी ज़िंदगी बिताना नहीं चाहती और यदि विकास की बात की जाए तो गाँव के विकास के नाम पर शहरों में बढ़ रही आबादी है। जिसने जहां एक ओर संयुक्त परिवारों को नष्ट किया तो वहीं दूसरी और आपसी प्रतियोगिता ने न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक स्तर पर भी लोगों को बिगाड़ दिया।

खैर संयुक्त परिवारों के नष्ट हो जाने से यदि किसी का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, तो वह इन बच्चों का हुआ है। छोटे-छोटेनन्हें –नन्हें बच्चे। जो संयुक्त परिवारों में कब पलकर बढ़े हो जाते थे, इसका पता ना उन्हें स्वयं लगता था न उनके माता-पिता को ही पता चलता था। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अपनो के बीच माँ से दूर रहकर भी बच्चा माँ की ममता पा लिया करता था। सयुंक्त परिवारों में अक्सर परिवार की कुछ बन्दिशों के चलते पैसों का अभाव हो ही जाता था। मगर तब भी अपने बच्चों के प्रति माँ की ममता कभी कम ना होती थी। किन्तु आज ऐसा नहीं है। आज न पैसों का अभाव है न सयुंक्त परिवारों की ही कोई बंदिश है। मगर तब भी बच्चा अपनी माँ की ममता पाने के लिए लालायित रहता है। क्यूंकि कामकाजी महिला चाहकर भी अपने परिवार को उतना समय नहीं दे पाती, जितना वो देना चाहती है।

सच कभी-कभी उन नन्हें-नन्हें बच्चों को देखकर बहुत दया आती है। वो छोटे-छोटे से बच्चे जो अभी बोलना भी नहीं जानते, वह बेचारे सुबह से शाम तक अपनी माँ की गोद या उसकी एक जादू की झप्पी पाने के लिए तरस जाते है। हालांकी यूं देखा जाये तो माँ की ममता का कोई निश्चित रूप नहीं होता। कोई भी अन्य स्त्री या महिला, चाहे तो किसी भी बच्चे को ममता दे सकती है। फिर चाहे वो मासी के रूप में हो या ताई चाची या फिर किसी आया का ही रूप क्यूँ न हो। मगर वो कहते है न माँ, `माँ ही होती है`। उसकी जगह इस दुनिया में कोई दूजा कभी ले ही नहीं सकता। बस वही बात यहाँ भी लागू होती है।

लेकिन फिर आजकल के जमाने में एक की आमदनी से भी तो काम नहीं चलता। दूजा यदि चल भी जाता है, तब भी कोई स्त्री घर में रहकर बच्चे पालना या घर संभालने जैसा उबाऊ काम करना नहीं चाहती। क्यूंकि घर का काम तो केवल वह महिलाएं करती है, जिन्हें या तो काम नहीं मिलता या फिर उनमें बाहर काम करने की काबलियत नहीं होती। वही तो ग्रहणी कहलाती है। क्यूंकि आजकल की पढ़ी लिखी जागरूक महिलाओं के माता-पिता ने भला उन्हें इन सब कामों के लिए थोड़े ही पढ़ाया लिखाया था। यह सब काम करने से तो उनकी शिक्षा व्यर्थ चली जाएगी। इसलिए यदि उच्च शिक्षा प्राप्त की है, तो नौकरी तो करना ही करना है। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा। बच्चे के लिए एक आया ही तो रखनी पड़ेगी न। या फिर उसे (डे केयर) में डालना होगा। तो डाल देंगे व्हाट्स ए बिग डील अर्थात उसमें कौन सी बड़ी बात है। आखिर कमा किस के लिए रहे है। उस बच्चे के लिए ही ना ! ताकि भविष्य में उसे अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवा सकें। उसके सभी अरमान पूरे कर सकें। नहीं ?

आज की नारी आत्मनिर्भर है। उसे किसी के सहारे की कोई जरूरत नहीं है। वह घर और नौकरी दोनों एक साथ बखूबी संभाल सकती है। सच है। ऐसे ही थोड़ी 'सुपर वुमन' या 'सुपर मोम' होने का खिताब मिल जाता है भई!!! मगर अफसोस इस सब में यदि कोई पिस जाता है, तो वह है वो नन्ही सी जान। क्यूंकि उस मासूम को तो शायद यह समझ ही नहीं आता कि उसकी असली माँ कौन सी है। जो सारा दिन में कुछ घंटों के लिए उसके साथ समय बिता पाती है वो। या फिर जो सारा दिन आया के रूप में उसके साथ रहकर उसका लालन पालन करती है वो। लेकिन मुझे तो यह समझ नहीं आता कि जब एक माँ खुद के सपनों को पूरा करने की खातिर या खुद को साबित करने की खातिर नौकरी करती है। ठीक उसी तरह यह आया का काम करने वाली औरतें भी तो केवल पैसा कमाने के लिए ही यह काम करती है। भावनाओं के लिए नहीं। फिर कैसे कोई माँ अपने दिल के टुकड़े को किसी अंजान औरत के पास छोड़कर बे फिक्र हो जाती है।

ऐसी महिलाएं का एकमात्र उदेश्य सिर्फ पैसा कमाना ही होता है। बच्चे की जरूरत या आवश्यकता से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। कई मामलों में तो ऐसी औरतें बच्चे को प्यार करना तो दूर, उल्टा प्रताड़ित तक करने लग जाती है। बात-बात पर उसे डाँटती है। उसके हिस्से के दूध की चाय बनाकर पी जाती है। उसके लिए दिये गए बिस्कुट फल आदि उसे कम देती है और खुद ज्यादा खाती है। इतना ही नहीं बल्कि सारा दिन बैठकर या तो टीवी देखती है या फिर मोबाइल पर लगी रहती है। ऐसे मामले कम नहीं है। मगर जिस प्रकार हाथ की पांचों उंगलियां एक सी नहीं होती। उसी प्रकार हर इंसान एक सा नहीं होता। कभी-कभी कोई कोई आया या दायी, माँ से बढ़कर भी होती है। इतिहास गवाह है। पन्ना दायी का नाम यूं ही स्वर्ण अक्षरों में नहीं लिखा गया है। मगर वह वक्त और था। क्यूंकि यह कलियुग है। यहाँ जन्म देने वाली माँ को ही स्वयं अपने बच्चे के लिए समय नहीं है। तो किसी और से हम उम्मीद ही कैसे रख सकते है।

इतनी सब बातें मेरे दिमाग में इसलिए आयी क्यूंकि मैं रोज ही अपनी सोसाइटी में कई सारे ऐसे परिवार देख रही हूँ जिनमें बच्चे बाइयों के सहारे पाले जा रहे हैं और बाइयाँ तो फिर बाइयाँ ही होती है। जो बच्चों को पार्क में छोड़कर खुद मोबाइल पर बतियाती रहती है या फिर दूसरी बाई से गप्पे लड़ाती रहती है। बच्चा पार्क में क्या कर रहा है, कहाँ जा रहा है, क्या खा रहा है, जैसी बातों का ध्यान रखना तो दूर। कई बार उन्हें होश ही नहीं रहता कि एक बच्चे की ज़िम्मेदारी भी है उन पर, मगर उन्हें इस सब से क्या मतलब। उन्हें तो बस एक निश्चित तारीख़ पर मिलने वाले अपने पैसों से मतलब होता है। बच्चा यदि बीमार पड़ा, तो माँ-बाप कराएंगे इलाज।

मै यह नहीं कहती कि एक स्त्री केवल पैसा कमाने के लिए ही नौकरी करती है। ना ऐसा नहीं है। नौकरी करने का अर्थ किसी भी इंसान के लिए सिर्फ पैसा कमाना ही नहीं होता है। और बहुत से कारण होते है। मगर उस सब की चर्चा फिर कभी। अभी तो बात परवरिश की हो रही है। तो मुझे ऐसा लगता है कि एक अबोध बच्चे को यूं किसी नौकर के भरोसे छोड़कर जाने से तो अच्छा है। माँ या पिता में से कोई एक कुछ दिनों के लिए नौकरी छोड़ दे। मगर आज कल नौकरी भी आसानी से कहाँ मिलती है। इसलिए छोड़ने का दिल नहीं करता। सही है। मगर इस समस्या का हल यह नहीं कि आप पैसा कमायें और और आपके बच्चों की देखभाल आपके माता-पिता या सास ससुर करें। 

आपको पाल पोस कर बड़ा कर उन्होंने अपना फर्ज़ निभा दिया। अब आपका बच्चा आपकी ज़िम्मेदारी है, उनकी नहीं। अब उनके भी आराम के दिन है। तो अब ऐसे में क्या सही विकल्प बचता है? मेरे विचार से तो माँ या पिता में से किसी एक का नौकरी छोड़ देना ही बेहतर है। लेकिन पुरुष प्रधान समाज होने के कारण पिता जी तो नौकरी छोड़ने से रहे कम से कम अपने हिन्दुस्तानी परिवारों में तो कतई ऐसा हो ही नहीं सकता है। लेकिन एक बच्चे की सही और अच्छी परवरिश केवल उसके अपने माँ-बाप के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता। यह एक कड़वा सच है। फिर चाहे कोई माने या ना माने। आप पैसा देकर सब कुछ खरीद सकते है मगर माँ की ममता या पिता का प्यार नहीं खरीद सकते।