अपराधी आखिर कौन ? बलात्कार या बलात्कारी जैसा शब्द सुनकर अब अजीब नहीं लगता। क्यूंकि अब तो यह बहुत ही आम बात हो गयी है। कई बार तो एक स्त्री होने के बावजूद भी अब ऐसे विषयों को पढ़ने का या इस विषय पर सोचने का भी मन नहीं करता। कुछ हद तक तो अब अफसोस भी नहीं होता। हालांकी मैं यह बहुत अच्छे से जानती हूँ कि ‘जिस तन लागे वो मन जाने’ लेकिन अब यह सब कुछ इतना आम और सजह हो गया है कि इन मामलों से जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। फिर भी यदि सोचने का प्रयास किया जाये तो एक सवाल उठा करता है मन में बलात्कार या बलात्कारी क्या है? मेरे विचार से तो यह एक मानसिक विकृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह सब दिमाग की ही तो उपज है।
आप स्वयं ही देख लीजिये बलात्कार होना क्या होता है, से
लेकर बलात्कार हो जाने तक सामाजिक डर में जीती एक स्त्री की यह दशा कि अब इसके
आगे उसकी ज़िंदगी खत्म, न सिर्फ उसकी, जिसका बलात्कार हुआ है। बल्कि
उसके पूरे परिवार की भी ज़िंदगी खत्म क्यूँ ? क्यूंकि इस
पुरुष प्रधान समाज ने सारी बंदिशे केवल एक स्त्री के लिए ही बनाई हैं। यदि कुछ देर
के लिए इस बात को एक अलग ढंग से सोचने का प्रयास किया जाये तो कैसा रहेगा? अगर हम समाज का डर भूल जाएँ तो क्या ज़िंदगी आसान न हो जाएगी? मैं मानती
हूँ बलात्कार होना अपने आप में एक इंसान के लिए (विशेष रूप से एक स्त्री के लिए)
एक भारी हानी है। जिसमें उसका न सिर्फ शारीरिक अपितु मानसिक संतुलन भी बिगड़ जाता
है। लेकिन फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि यदि हम इस खोखले समाज की सड़ी गली मानसिकता
और डर को दूर रखकर इस विषय पर बात करेंगे तो शायद एक पीड़िता के लिए अपनी इस पीड़ा
से उबरना थोड़ा आसान हो जाएगा।
वैसे देखा जाये तो मेरा मानना तो यह है कि बलात्कार करने की भावना इंसान के जिस्मानी जरूरत से ज्यादा उसके दिमाग में व्याप्त होती है। तभी तो ऐसे किसी व्यक्ति को अर्जुन की मछ्ली की आँख की तरह सामने वाली नारी या स्त्री का केवल शरीर ही दिखाई देता है। अन्य और कुछ नहीं दिखाई देता। ना लड़की की उम्र, न जात, न पहनावा, न ही कुछ और अगर कुछ दिखता है, तो वह है केवल उसका शरीर। तभी तो महीने भर की बच्चियों से लेकर वृद्ध औरतों तक के साथ हुये इस तरह के मामले सामने आते है। क्यूंकि यदि यह केवल शारीरिक जरूरत होती तो सामने वाले में भी तो अपने शरीर के अनुसार जरूरतें दिखती। लेकिन ऐसा होता नहीं है।
वैसे देखा जाये तो मेरा मानना तो यह है कि बलात्कार करने की भावना इंसान के जिस्मानी जरूरत से ज्यादा उसके दिमाग में व्याप्त होती है। तभी तो ऐसे किसी व्यक्ति को अर्जुन की मछ्ली की आँख की तरह सामने वाली नारी या स्त्री का केवल शरीर ही दिखाई देता है। अन्य और कुछ नहीं दिखाई देता। ना लड़की की उम्र, न जात, न पहनावा, न ही कुछ और अगर कुछ दिखता है, तो वह है केवल उसका शरीर। तभी तो महीने भर की बच्चियों से लेकर वृद्ध औरतों तक के साथ हुये इस तरह के मामले सामने आते है। क्यूंकि यदि यह केवल शारीरिक जरूरत होती तो सामने वाले में भी तो अपने शरीर के अनुसार जरूरतें दिखती। लेकिन ऐसा होता नहीं है।
खैर अब हम पूरे समाज को सुधार कर सज्जन तो बना नहीं सकते।
इसलिए यदि वर्तमान हालातों को मद्देनजर रखते हुए बात की जाये तो अभिभावक होने के
नाते अब यह जघन्य अपराध हमारी चिंता का अभिन्न अंग बन गया है। जिसके चलते अब इस
अपराध को रोकने के उपाए सोचने के बजाए अब हमें यह सोचना पड़ता है कि हम अपने बच्चों
को इस अपराध से कैसे बचा सकते है। तो उसका भी उपाय है लेकिन इसमें बहुत से मतभेद
भी है। मेरे विचार से सारे फसाद की जड़ है यह आपसी संवाद हीनता। जो बच्चों को दिन
प्रतिदिन अकेला बनाती जा रही है। स्मार्ट फोन और नई नई एप्स आ जाने से बच्चों और
अभिभावकों के बीच का संवाद लगभग खत्म हो चला है। क्यूंकि नौकरी पेशा होने के कारण
पहले ही माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए समय का अभाव है। दूजा रहे सहे समय
में भी बच्चे और माँ-बाप दोनों ही अपने-अपने सेल फोन में व्यस्त रहते है। जिसके चलते
बच्चे अपने मन की बात अपने माता-पिता के साथ सांझा करने से ज्यादा अच्छा अपने
दोस्तों के साथ सांझा करना ज्यादा उचित समझते है। मसलन सड़क पर चलते समय होती छेड़ छाड़ को लड़कियाँ अक्सर अपने मात-पिता से सांझा नहीं कर पाती क्यूँ ? क्यूंकि उन्हें अपने माँ-बाप के
उत्तर पहले से ही ज्ञात होते हैं। इसलिए वह ऐसा सोचने लगते है कि माँ-बाप की बन्दिशों
और ज्ञान बाँटू प्रवचनों को सुनने से अच्छा है, उस बात को अपने मित्रों
से सांझा कर मन हल्का कर लेना।
यह बात कहने सुनने अथवा पढ़ने में जितनी सहज महसूस होती है
वास्तव में यह उतनी ही गहरी और चिंतनीय बात है। पहले जब सयुंक्त परिवार हुआ करते
थे तब पूरे परिवार में कोई न कोई एक ऐसा शख़्स या सदस्य ज़रूर होता था जिनसे बच्चों
को अपनी बात कहने में हिचकिचाहट महसूस नहीं होती थी। क्यूंकि तब बच्चों को घर में
ही ऐसा माहौल मिल जाता था कि उन्हें बाहरी दुनिया में अपने लिए किसी और को खोजने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। किन्तु आज ऐसा नहीं है। भौतिक जरूरतों की पूर्ति के अतिरिक्त भी आज ऐसा बहुत
कुछ है जिसे पाने की चाह में इंसान अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से दूर हो चला है। केवल
अपनी निजी जरूरत के लिए पैसा कमाना अब जीवन का मुल्य उदेश्य नहीं बचा है। और अब ना
ही कोई कबीर दास जी कि इस बात में विश्वास ही रखता है कि
“साईं इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाये”।
अब तो पैसा कमाने की लालसा ने मनुष्य को इतना अंधा बना दिया है कि अब उसे वह सब भी चाहिए जिसकी उसे जरूरत ही नहीं जैसे घड़ी चाहे 200 रु की हो या हजारों लाखों की पर समय तो वही बताती है। लेकिन फिर भी रोलेक्स की घड़ी पहने का चस्का ऐसा है मानो वो समय नहीं आपका भविषय बताएगी। ऐसे और भी बहुत से उदाहरण है। किन्तु यही वह छोटी-छोटी बातें है जिनको पाने की चाह में आप अपने बच्चो से और बच्चे आपसे दूर बहुत दूर होते चले जाते है और आपको पता भी नहीं चलता। जब बच्चे आपसे अपने मन की बात सांझा नहीं कर पाते तो वह बाहर अपने प्रश्नों का उत्तर खोजते है और तब सही जानकारी न मिलने के कारण रास्ता भटक जाते है और उसी भटके हुए रास्ते से जन्म लेती है यह आपराधिक प्रवर्ती जो एक समान्य से बच्चे को कब अपराधी बना देती है उसे स्वयं उसे भी पता नहीं चलता। कोई भी व्यक्ति जन्म से बुरा नहीं होता। शायद इस लिए गांधी जी ने कहा था कि “पाप से घृणा करो पापी से नहीं”। लेकिन इन भौतिक संसाधनों की पूर्ति करने हेतु इंसान पैसा कमाने की एक मशीन बन गया है।
लेकिन बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के पीछे केवल वह एक अकेला
इंसान ही दोषी नहीं होता बल्कि पूरा समाज
दोषी होता है। हम सभी जानते
है कि एक उम्र के बाद बच्चों में शारीरिक परिवर्तन के चलते भोग और संभोग के विषय से
संबन्धित कई तरह के प्रश्न दिमाग में घूमते है। जिसके चलते वह अपने मन के कुतूहल
को शांत करने हेतु बहुत से प्रश्न करते है। कई बार तो उनके प्रश्नों का जवाब स्वयं
हमारे पास भी नहीं होता और हम अपनी कमी को छिपाने के लिए उन्हें डांट कर भागा देते
है। या फिर उस विषय पर बात करने से कतराते है। जिस से उनके मन की जिज्ञासा शांत होने के
बजाय और भी ज़्यादा भड़क जाती है। और फिर वो इंटरनेट या सड़क छाप किताबों के माध्यम से
अपनी जिज्ञासा को दूर करने का प्रयास करते है। नतीजा सही जानकारी का अभाव
उन्हें अपराधी बना देता है। बलात्कार जैसा जघन्य अपराध करने वाला अपराधी। लेकिन बलात्कार करने के पीछे और भी बहुत से कारण है जैसे पैसों का अभाव।
अब आप सोच रहे होंगे कि बलात्कार का भला पैसे से क्या संबंध तो इसका जवाब यह कि गाँव के विकास के नाम पर जो भवन निर्माता उन्हें सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हुए उनसे उनका सब कुछ छीन लेता है और महज़ थोड़े से पैसों के लालच में आकर जब वह भी अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। तब एक दम से मिले हुए पैसो से उन्हें ऐयाशी की लत लग जाती है और वह सारा पैसा पीने, खाने और दिखावे में उड़ा देते हैं। तत पश्चात एक समय के बाद जब पैसा खत्म हो जाता है। तब जन्म लेती है यह अपराधिक प्रवत्ती जरूरतें पूरी करने के चक्कर में लोग इंसान से कब हैवान बन जाते है और तब सिलसिला शुरू होता है अपहरण से लेकर बलात्कार तक का सफर। फिर भी हम हर एक की काया पलट कर उसे एक नेक इंसान तो बना नहीं सकते। इसलिए बेहतर है अपने बच्चों को इस तरह के अपराधियों से बचा कर चलें। तो अब सवाल यह उठा है कि ऐसा कैसे हो। तो उसका जवाब भी वही है अपने बच्चे की बातों पर ध्यान दीजिये। उसका दिन कैसा गया और पूरे दिन में उसने क्या क्या किया उसका पूरा विवरण उसके मुख से सुनिए। खाना खाते वक्त या रात को सोने से पहले थोड़ा सा समय अपने बच्चे के लिए निकाल कर उसे बात करना बेहद ज़रूरी है। ताकि वह अपनी ज़िंदगी में घट रही हर छोटी बड़ी घटना को आपके साथ सहजता से सांझा कर सके। क्यूंकि अधिकतर मामलों में यौन शोषण से पीड़ित बच्चे अपने मन की बात कह नहीं पाते। लेकिन यदि ध्यान दिया जाये तो उनकी चुप्पी और सहमा-सहमा से व्यक्तित्व सब बयान कर देता है।
अब आप सोच रहे होंगे कि बलात्कार का भला पैसे से क्या संबंध तो इसका जवाब यह कि गाँव के विकास के नाम पर जो भवन निर्माता उन्हें सुनहरे भविष्य का सपना दिखाते हुए उनसे उनका सब कुछ छीन लेता है और महज़ थोड़े से पैसों के लालच में आकर जब वह भी अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। तब एक दम से मिले हुए पैसो से उन्हें ऐयाशी की लत लग जाती है और वह सारा पैसा पीने, खाने और दिखावे में उड़ा देते हैं। तत पश्चात एक समय के बाद जब पैसा खत्म हो जाता है। तब जन्म लेती है यह अपराधिक प्रवत्ती जरूरतें पूरी करने के चक्कर में लोग इंसान से कब हैवान बन जाते है और तब सिलसिला शुरू होता है अपहरण से लेकर बलात्कार तक का सफर। फिर भी हम हर एक की काया पलट कर उसे एक नेक इंसान तो बना नहीं सकते। इसलिए बेहतर है अपने बच्चों को इस तरह के अपराधियों से बचा कर चलें। तो अब सवाल यह उठा है कि ऐसा कैसे हो। तो उसका जवाब भी वही है अपने बच्चे की बातों पर ध्यान दीजिये। उसका दिन कैसा गया और पूरे दिन में उसने क्या क्या किया उसका पूरा विवरण उसके मुख से सुनिए। खाना खाते वक्त या रात को सोने से पहले थोड़ा सा समय अपने बच्चे के लिए निकाल कर उसे बात करना बेहद ज़रूरी है। ताकि वह अपनी ज़िंदगी में घट रही हर छोटी बड़ी घटना को आपके साथ सहजता से सांझा कर सके। क्यूंकि अधिकतर मामलों में यौन शोषण से पीड़ित बच्चे अपने मन की बात कह नहीं पाते। लेकिन यदि ध्यान दिया जाये तो उनकी चुप्पी और सहमा-सहमा से व्यक्तित्व सब बयान कर देता है।
इसलिए बच्चे की उम्र को ध्यान में रखते हुए उसे उसकी उम्र के
हिसाब से सभी तरह का ज्ञान आप खुद दीजिये जैसे अच्छे-बुरे स्पर्श की जानकारी से लेकर एड्स जैसी खतरनाक बीमारी के विषय में भी
उससे बिना हिचक बात कीजिये। माना कि आज कल बच्चे आपसे ज्यादा समझदार होते है और आपके बताने से पूर्व ही इंटरनेट के माध्यम से वह सहज ही सारी जानकारी स्वयं ही प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन वह विश्वास जो आपकी बातें और आपका साथ उन्हें देता है। वो वह प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए आपका स्वयं उन से बात करना ज्यादा प्रभावी है। इसलिए समय रहते उसे इन सब के बारे में बताइये और उसकी भी सुनिए। समय
की पाबंदी और मोबाइल का सदुपयोग भी उसे बताइये कि आपातकालीन स्थिति होने पर वह
क्या-क्या कर सकता है/सकती है। उसे यह एहसास भी दिलायें कि मोबाइल फोन सिर्फ बात
करने ,गेम खेलने या इंटरनेट का इस्तेमाल करने या तस्वीरें लेकर सोशल साइट पर डालने के लिए ही नहीं होता। बल्कि कभी कभी इसमें दी हुई सुविधाओं का सही
इस्तेमाल करके भी किसी बड़ी दुर्घटना को होने से टाला जा सकता है।
जैसे किसी भी अंजान बस या टेक्सी में बैठने पूर्व उसके नंबर
प्लेट का फोटो खींच कर अपने माता-पिता को भेज दें। साथ ही वह किस जगह से कितने बजे
चला/चली है और अंदाजन कितने बजे तक पहुँच जाएँगे इस बात का भी विवरण दें। फिर चाहे
वह लड़का हो या लड़की यह नियम दोनों के लिए अनिवार्य होना चाहिए। उसके दोस्त कौन-कौन
है कहाँ रहते है। उनके माता पिता क्या करते इत्यादि की सम्पूर्ण जानकारी भी
माता-पिता के पास होनी चाहिए। एवं उन सभी का पता और फोन नंबर भी सभी अभिभावकों को
ध्यान से अपने मोबाइल में सुरक्षित रखना चाहिए। ऐसा नहीं है कि बलात्कार की यह
घटना केवल लड़कियों के साथ ही होती है। लड़कों के साथ भी ऐसे हादसे होते हैं। इसलिए
जितना गंभीर और सजग हम लड़कियों के प्रति रहते है, उतना ही गंभीर और सजग हमें
लड़कों के प्रति भी रहना पड़ेगा। क्यूंकि लड़का हो या लड़की, बच्चे तो हमारे ही हैं। इस
नाते उनकी पूरी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। और सबसे अहम बात अपने बच्चों को एक दूसरे का सम्मान करना अवश्य सिखाएँ खासकर लड़कों को तभी आगे चलकर वह एक सभ्य नागरिक बन पाएंगे।
बहुत ज्वलंत विषय उठाया है लेकिन इसका समाधान कहाँ है ? मजदूरों की बच्चियां , रिक्शे वालों की बच्चियां , जिनके पास रहने के लिए घर नहीं होते। कहीं पॉलिथीन बाँध कर रहने को मजबूर लोगों के लिए क्या कहेंगे ? दरिंदे उनकी बाहर या अंदर सोई बच्चियों को उठा ले जाते हैं। बड़े घरों में नौकर , संयुक्त परिवार में आने वाले रिश्तेदार मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकते हैं।
ReplyDeleteइंसान जो मानसिक तौर बीमार है ऐसे काम करते हैं और अपराध जगत पर नजर डालें तो काम उम्र के बच्चे और बच्चियां सभी इसके शिकार हो रहे हैं। हम बच्चों को घर में बंद करके नहीं रख सकते हैं। बस बच्चों कोऔर हमें भी जागरूक होना होगा।
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (30.10.2015) को "आलस्य और सफलता "(चर्चा अंक-2145) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!
पग पग सजगता और सावधानी जरुरी है ..जाने कौन भेड़िया कहाँ से आ जाय... ..
ReplyDeleteजागरूक भरी प्रस्तुति हेतु आभार!
विचारशील लेख.
ReplyDeletehttp://lekhniblogspot.blogspot.in/
सही लिखा है.
ReplyDeleteमानव में असंतुष्टि का भाव सदा बना रहेगा। सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर रचना ......
मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन की प्रतीक्षा है |
http://hindikavitamanch.blogspot.in/
http://kahaniyadilse.blogspot.in/
बलात्कार एक मानसिक विकृति है और हमें इसकी शिकार हुई बच्चियों/स्त्रियों के प्रति अपनी सोच को बदलना होगा. बहुत सारगर्भित और सटीक चिंतन...
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