कंक्रीटों के जंगल के बीच एक छोटे से भू भाग में टीन के पतरों से बने कुछ मकान जो उनमें रहने वाले गरीब मजदूर परिवार के लिए घर कहलाते है। घर जिसका सीधा सा अर्थ होता है एक इंसान के लिए सर छिपाने की एक ऐसी जगह जहां आकर उस इंसान को सुकून मिलता है, शांति मिलती है। या फिर यह कहा जाए कि जिस चार दीवारी में आकार कोई भी अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है, सही मायने में वही घर कहलाता है। फिर चाहे उस घर की दीवारें मिट्टी, लकड़ी, पत्थर या फिर टीन के पतरों की ही क्यूँ न बनी हो। ऐसे ही चंद आशियाने मेरे घर के पीछे भी बने है। कितना अजीब होता है जीवन। विशेष रूप से हम इंसानों का जीवन। जो अपने आप को सहज ही परिस्थिति और वातावरण के अनुसार ढाल लेता है। फिर चाहे वह गाँव का माहौल हो या छोटे बड़े नगरों महानगरों का, जिसे जैसा जीवन मिलता है वह उसी जीवन में खुश रह लेता है।
अब मजदूरों के जीवन को ही ले लीजिये, दूर दराज से अपने-अपने गाँव को छोड़कर ज्यादा पैसा कमाने की लालसा में आए यह लोग, बेचारे न घर के रह जाते है और न घाट के, अर्थात वह ना यहाँ ही चैन से जी पाते हैं और न ही वापस अपने गाँव ही लौट पाते है। लेकिन इस वर्ग की महिलाएं को तो सच में उन्हें दिल से सलाम करती हूँ। जो ज़मीन के उस छोटे से भू-भाग में अपना आशियाँ कुछ यूं बनाती है, मानो यह ही उनका अपना घर हो। एक ऐसा घर जिसे छोड़कर अब वह कहीं नहीं जाएंगी और सदा-सदा के लिए यही रह जायेंगी। लेकिन टीन के पतरों से बने हुए यह नाजुक से घर और आस पास कंक्रीटों का कचरा सारा-सारा दिन उड़ती धूल, मिट्टी, सीमेंट, ढेरों मच्छर मक्खी और भी न जाने कितने प्रकार की गंदगी क्यूंकि एक और जहां उनके पास सर छिपाने के लिए एक पुख्ता या मजबूत छत तक नहीं है। वहाँ ठीक ठाक शौचालय जैसी सुविधा के बारे में सोचना भी शायद व्यर्थ सी बात है। फिर भी बिना किसी विशेष चाह के दिन रात घर और मजदूरी के कामों के बीच भी यह महिलायें घर के सारे कामों के बावजूद अपने लिए इतने कम समय में भी समय से थोड़ा सा समय चुरा ही लेती हैं।
तब किसी एक के घर के पास समूहिक रूप से एकत्रित होकर एक दूसरे से बोलती बतियाती है। किसने क्या बनाया, क्या खाया। अपने -अपने सुख दुख की बातें, संध्या के भोजन की तैयारी के लिए भाजी तरकारी साफ करना। एक दूसरे की कंघी करना, बीच -बीच में पास खेलते अपने बच्चों के साथ खेलने लगना तो कभी उन्हें डांट फटकार देना। उनके मुख पर कभी कोई शोक दिखाई नहीं देता। भविष्य को लेकर या अपने बच्चों को लेकर कोई चिंता या फिर्क भी दिखाई नहीं देती। हालांकि होती तो होगी ही क्यूंकि वह भी तो हमारी तरह इंसान ही है और हर इंसान को अपने लिए न सही लेकिन अपने बच्चों के लिए तो भविष्य की चिंता होती ही है। मगर फिर भी मुझे आश्चर्य होता है उनके व्यक्तित्व को देखकर।
एक ओर हम है, जो लगभग हर पल किसी न किसी छोटी बड़ी चिंता से ग्रस्त रहते है। उन चिंताओं से जो व्यर्थ है। जिनके दूर होने या ना होने से शायद हमें फर्क भी नहीं पड़ता। मगर फिर भी हम हर पल तनाव ग्रस्त रहते है। जिसके चलते मुझे तो यही अहसास होता है कि संतोष और धैर्य जैसे शब्द अब हमारे जीवन से हमेशा के लिए मिट चुके हैं। पूरे जीवन की बात तो दूर, पूरे दिन में शायद ही कुछ पल ऐसे होते होंगे जिसमें हमें किसी प्रकार की कोई चिंता परेशानी या तनाव न रहता हो।
दूसरी ओर हैं वह जिनके पास कुछ भी नहीं है। अगले दिन उन्हें खाना भी मिलेगा या नहीं इस बात तक का पता नहीं है। फिर भी वह निश्चित होकर सोते है। खुश और बेफिक्र मस्त मौला सा जीवन बिताते है/ बिता रहे हैं और एक हम है। जिनके पास सब कुछ है मगर फिर भी ऐसा लगता है कि कुछ नहीं है। पुरुषों को नौकरी व्यापार आदि की चिंता और महिलाओं को चाय की दावत हो या किट्टी पार्टी में क्या पहनना है जैसी बेतुकी चिंताएँ साधारण महिलाएं अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर परेशान रहती हैं कि बच्चे ठीक से पढ़ते नहीं है। क्या होगा इनका आगे चलकर। या फिर शाम के खाने में क्या बनेगा। कल क्या करना है। रोज़ के वही काम होते है लेकिन शुरुआत रोज़ ही एक नयी प्लानिंग के अनुसार करनी पड़ती है। बच्चों ने ठीक से खाया या नहीं खाया। आज क्या पढ़ा क्या नहीं पढ़ा। स्कूल में क्या-क्या हुआ। जैसे कई बातें होती है जो जाने अंजाने परेशानी में डाल ही देती है।
इतने पर भी यह चिताएँ समाप्त नहीं होती। जिनके सयुंक्त परिवार है उनमें रोज़ की अपनी अलग परेशानियां है। जहां हम जैसे एकल परिवार है उनकी अलग समस्याएँ है। उफ़्फ़! ऐसा लगता है जैसे सारी दुनिया का भार हमारे ही कंधों पर है। दिन भर कुछ विशेष न करके भी हम सारा दिन परेशान रहते है। ऐसे में तो यही लगता है कि उन मजदूर महिलाओं का जीवन हम सामान्य वर्ग की महिलाओं के जीवन से कहीं ज्यादा अच्छा है। हालांकि हमेशा से ऐसा ही होता है कि ''हमें पड़ोसी के घर के आंगन में लगी घास हमारे अपने घर के आँगन में लगी घास से ज्यादा हरी दिखाई देती है''। क्यूंकि यह मानव स्वभाव है। जो नहीं है वही चाहिए होता है। फिर दूजे ही पल यह जुमला भी याद आता है कि
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलुका कह गए, सबके दाता राम।
लेकिन सोचो तो एक जीवन सारा-सारा दिन संघर्ष करके भी खुश है और एक जीवन बिना कोई संघर्ष किए मोटी रकम पाकर भी तनाव ग्रस्त है। सच कितना अजीब होता है यह जीवन ...हम इंसानों का जीवन।
बहुत सुन्दर विचारणीय आलेख ...
ReplyDeleteघोर संघर्ष में भी खुश रहना एक कला है.....
विचार अच्छा है, भावना अच्छी भी अच्छी है।
ReplyDeleteजब तक मन में संतोष और संतुष्टि नहीं होगी, जीवन में सुख एक स्वप्न बन कर ही रहेगा. आज जिनके पास सब कुछ है, लेकिन संतुष्टि नहीं, वे दिन रात तनाव से गुज़रते रहते हैं. बहुत सुन्दर और विचारणीय आलेख...
ReplyDeleteइस विभेद पर विस्मय होता है .
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