Sunday, 17 April 2016

~"ज़िंदगी से सस्ती मौत" ~


वर्तमान हालातों को देखते हुए लगता है कि आज ज़िंदगी मौत से सस्ती हो गयी है। जान देना मानो बच्चों का खेल हो गया है। ज़रा कुछ हुआ नहीं कि लोग जान ऐसे देते है मानों कुछ हुआ ही नहीं।  देखो न प्रत्यूषा प्रत्यूषा प्रत्यूषा, आज चारों और बस एक ही नाम है। मेरे विचार में तो वह इतनी लोकप्रिय और प्रसिद्ध तब भी नहीं थी जब वह जीवित थी। लेकिन आज अपने एक गलत कदम की वजह से वह इतनी चर्चित है। मनो कह रही हो कि "बदनाम हुए तो क्या नाम ना होगा"। लेकिन वह पहली ऐसी कलाकार तो ना थी जिसने आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध किया। सिल्क स्मिता, परवीन बाबी से लेकर दिव्या भारती, जिया खान और अब यह प्रत्यूषा बेनर्जी सभी ने तो यही रास्ता अपनाया था इसमें नया क्या है। सभी के समय आशंकाओं से भरी चर्चायें यूं ही उठी और फिर समय के साथ साथ सब शांत हो गया। 

लेकिन अफसोस इस बात का है कि हँगामा केवल चर्चित चेहरों पर ही क्यूँ होता है। क्या एक आम इंसान की जान की कीमत इस चर्चित सितारों की जान से भी सस्ती है। हर रोज़ न जाने कितने किसान भाई और बहने इस मार्ग पर चलकर अपनी जान दे देते है और किसी को पता भी नहीं चलता। कोई रोटी के लिए जान दे रहा है, तो कोई प्यार के लिए। जो इन सब से परे है आज, वही बचपन भी इसी समस्या से जूझ रहा है। 

आज मरना जीने से ज्यादा आसान हो गया है। जब ऐसा कुछ सोचती हूँ तो लगता है केवल किसानो भाइयों की समस्या ही ऐसी है जिसके चलते उनके पास और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उन्हें यूं ही मरने दिया जाता रहे। लेकिन बाकी अन्य लोगों की तो ऐसी समस्याएँ नहीं है जिनका हल निकाला नहीं जा सकता। फिर क्यूँ आज की युवा पीढ़ी इतनी कमजोर हो गयी है कि ज़रा सी परेशानी का सामना हुआ नहीं कि बस चले जान देने। इतना भी क्या सामाजिक दबाव के तले दबना कि जान देना मौत से भी आसान लगने लगे। इन हरकतों से तो मुझे ऐसा लगता है कि वास्तव में समस्या शायद उतनी जटिल नहीं होती, जितने स्वार्थी यह खुदखुशी करने वाले इंसान हुआ करते हैं। बात कड़वी ज़रूर है लेकिन सच है। क्यूंकि जाने वाला तो चला जाता है मगर पीछे छोड़ जाता है एक कभी न भरने वाला जख्म अपने माँ-बाप के लिए। जिन्होंने न जाने कितनी तकलीफ़े उठाकर, न जाने कितने सपने सँजोकर अपने बच्चों को पाल पोसकर बड़ा किया होता इस उम्मीद के साथ की कल को उनके बच्चे उनका सहारा बनेगे।

लेकिन बच्चे इतने स्वार्थी हो गये हैं कि इतना बड़ा कदम उठाने से पहेले एक बार भी अपने परिजनो एवं प्रियजनो के बारे में नहीं सोचते। मैं जानती हूँ यह सब कहना बहुत आसान है क्यूंकि "जिस तन लागे वो मन जाने" लेकिन फिर अगले ही पल यह विचार भी रह रहकर मन में आता है कि ऐसा कदम लड़कियां ही ज्यादातर क्यूँ उठती है। बचपन से लेकर युवावस्था तक स्व्छंद जीवन जीने वाली लड़कियां आगे जाकर इतनी कमजोर कैसे हो जाती है कि महज़ प्यार में धोखा मिलने के कारण अपनी जान तक देना उन्हें गलत नज़र नहीं आता। तब मेरा मन कहता है इसका एक ही कारण हो सकता है। लड़की, लड़की ही होती है फिर चाहे देसी हो या विदेशी भावनाएं सभी की समान होती है। अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीते हुए अपनी पसंद का जीवनसाथी पाकर अपना छोटा सा आशियाना बनाने की चाह पहले भी हर लड़की के मन में हुआ करती थी और आज भी होती है।  

लेकिन इस चाह में जब स्वार्थ मिल जाता है तो प्यार भरे रिश्ते में शक का जहर घुलते देर नहीं लगती। क्यूंकि खुद की स्व्छंदता में अंधी लड़कियां अक्सर यह भूल जाती है कि सामने वाले व्यक्ति भी अपनी ज़िंदगी स्व्छंदता से जीने का उतना ही अधिकार रखता है जितना कि वह स्वयं रखती है। अब ज़माना बदल गया है। रिश्तों की परिभाषा भी बदल रही है। अब प्रेम विवाह तो क्या अब तो लिविंग रिलेशनशिप को भी बुरा नहीं माना जाता ऐसे में आप सामने वाले को अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीने के लिए विवश नहीं कर सकते। आपकी मर्ज़ी है शादी करने की मगर यदि उसकी मर्ज़ी है रिश्ता खतम करने की तो आपको उसके लिए जान देने की जरूरत नहीं है, बल्कि उसे जाने देने की जरूरत है। क्यूंकि जिस तरह आपको अपनी ज़िंदगी में किसी और का दखल पसंद नहीं उसी तरह सामने वाले को भी उसकी निजी ज़िंदगी में किसी और का दखल पसंद नहीं आयेगा। खासकर जब, जब वह आप से नाता तोड़ना चाहता हो। फिर चाहे विवाह हुआ हो या ना हुआ हो। यह मायने नहीं रखता और जब ऐसा नहीं हो पाता, बस यही से शुरू होता है दर्द और अकेलेपन का वो सफर जो आत्महत्या पर जाकर ही थमता है। 

चर्चित चेहरों या फिल्मी सितारों में यह सफर आत्महत्या का रूप ले लेता है और आम जन जीवन में यह जहर परिवारों को तोड़ देता है। कहीं न कहीं प्रेम विवाह के सर्वाधिक टूटने के पीछे यही स्वार्थपरक स्व्छंदता ही एक अहम कारण है। हांलाकी अब तो साधारण विवाह में भी यही हाल है। अपनी अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीने की चाह और दोनों के अहम का टकराव दो इन्सानों को विवाह उपरांत भी एक नहीं होने देती। प्रत्यूषा की ज़िंदगी में भी तो ऐसा ही कुछ हुआ जान पड़ता है। वरना लाखों कमाने वाली लड़की की ज़िंदगी में ना तो धन का अभाव था न ही विवाह हेतु लड़कों की कमी। किन्तु उसने जिसे चाह उसी ने उसे छला दिन रात अपने रिश्ते को लेकर असुरक्षा की भावना लिए इंसान कब तक जिएगा। आखिरकार थक हारकर उसने भी समस्या का समाधान खुद को खत्म कर देना ही पाया। ताकि "ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी"।

लेकिन न जाने क्यूँ आत्मनिर्भर होने के चक्कर में आजकल की युवा पीढ़ी यह अहम बात भूल जाती है कि एक इंसान के जीवन में पैसा ही सबसे बड़ी जरूरत नहीं होती। प्यार और अपनेपन की भावनाओं का भी एक अहम स्थान होता है जिस पर इंसान का जीवन टिका होता है। जब यह भावनाएं खत्म तो समझो ज़िंदगी खत्म क्यूंकि फिर चाहे आपके पास कितना भी धन क्यूँ ना हो किन्तु वह आपके जीवन के खालीपन को नहीं भर सकता।   

Wednesday, 6 April 2016

~संदेह ग्रसित विश्वास~


आज की तारीख में 'विश्वास', जैसे किसी दुरलभ चिड़िया का नाम हो गया है। जो अब कभी-कभी या कहीं- कहीं ही देखने को मिलती है। हर देखी सुनी बात पर भी विश्वास करने में संदेह होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जो देख रहे हैं जो पढ़ रहे है उसके पीछे का सच कुछ और ही हो। दिल तो कहता है कि विश्वास करो किन्तु दिमाग कहता है नहीं सावधान! जो दिखाई दे रहा है वह पूर्णतः सत्य ही हो ऐसा ज़रूरी नहीं है। विशेष रूप से सोशल मीडिया के द्वारा प्रसारित किया जाने वाला कोई भी समाचार संदेहास्पद ही होता है। जिसके एक नहीं कई उदाहरण आपने भी देखे सुने और पढे होंगे। जहां हुआ कुछ होता है और तस्वीर बदलकर मिर्च मसाला लगाकर दिखाया कुछ और ही जाता है जिससे पूरा घटनाक्रम ही बदल जाता है। ऐसा सब देखकर, पढ़कर ऐसा लगता है कि कितना फालतू समय है लोगों के पास जो इस तरह की हरकतें करते हैं और बेधड़क परिणाम की परवाह किये बिना उसे सोशल मीडिया पर डाल देते हैं। उससे भी ज्यादा दुख तो तब होता है जब पाठक भी बिना सच्चाई जाने उसे अपने अन्य मित्रों के साथ दुगनी तेज़ी से सांझा करना प्रारम्भ कर देते हैं। 

यह तो थी सोशल मीडिया की खबरों पर आधारित संदेह में घिरा सच। अब यदि बात की जाये वास्तव में हो रही घटनाओ की तो दलितों को लेकर पहले भी ऐसी कई शर्मनाक घटनायें सामने आयी है जिन्होंने इंसानियत का सर शर्म से एक नहीं बल्कि हजारों बार झुकाया है। पर फिर भी किसी ने उन घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया। उलटा ऐसी घटनाओं में वृद्धि ही होती आयी है। हालांकी उनमें भी कुछ ऐसी घटनाएँ भी शामिल हैं जो पूर्ण रूप से सच नहीं है। परंतु अधिकतर वह घटनाएँ है जो सच है। अभी कुछ दिन पहले ही राजस्थान के चित्तौड़गढ़ शहर में तीन दलित लड़कों को मोटरसाइकिल चोरी करने के इल्ज़ाम में उनके कपड़े उतार कर उन्हें जानवरों की तरह पीटा गया। अब यह बात किस हद तक सही है, यह मैं नहीं कह सकती। लेकिन मैं इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि भले ही हमने आतंकवाद के शतरंज में कसाब को मार कर एक बड़ी जीत हाँसिल की हो। लेकिन इस तरह की घटनाओ को अंजाम देकर न जाने कितने कसाब हमने खुद अपने ही घर में तैयार कर लिए है जिसका हमें स्वयं भी अंदाज़ा नहीं है। 

मुझे कोई हैरानी नहीं होगी यदि कल को यह तीनों दलित बच्चे जिनके साथ यह घटना घटी कल को चोरी चकारी लूटमार हत्या या बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करते हुए पकड़े जायेँ। क्यूंकि जब हम अपने किशोर अवस्था के बच्चों के प्रति सजग हैं और हम यह भली भांति जानते हैं कि यह उम्र ही ऐसी होती है जब खुद इस उम्र से गुजरने वाले बच्चे अपने अंदर आ रहे मानसिक एवं शारीरिक परिवर्तनों को ठीक तरह से समझ नहीं पाते तब ऐसे में उनके साथ इस तरह का दर्दनाक दुर्व्यवहार निश्चित तौर पर उन्हें गलत रास्ते पर ही ले जाएगा। फिर बच्चे तो बच्चे ही होते है। फिर हम उन्हें सजा देते वक्त यह क्यूँ भूल जाते है कि वह भी तो बच्चे ही हैं चाहे हमारे हो या किसी और के, दलित भी तो आखिर इंसान ही है। बल्कि मैं तो कहूँगी कि दलित होने जैसे घटिया और ऊंच नीच की बात आज के जमाने में करना ही अपने आप में एक बेवकूफी है। लेकिन आज के समय में भी ऐसी घटनाओ का सामने आना हमारे विकासशील देश के विकसित नागरिक होने पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। 

आखिर कहाँ गए हमारे वो संस्कार जब हम भूखे को खाना खिलाना और प्यासे को पानी पिलाना एक पुण्य का काम समझा करते थे। राहगीरों के लिए पियाऊ और शर्बत पिलाना सबाब का काम समझा जाता था। क्यूँ लुप्त हो गयी यह पुरानी परम्पराएँ यह संस्कार ? क्या वर्तमान हालातों को देखते हुए स्वयं अभिभावक ही इतने आधुनिक हो गए कि उन्होंने अपने बच्चों को इन बातों का महत्व सिखाना तो दूर बताना भी आवश्यक नहीं समझा ? तभी तो आज एक इंसान जो प्यासा है, पानी मांगने पर भी उसे कोई पानी नहीं देता और यदि वो प्यास की अति हो जाने के कारण किसी की बोतल से पानी पीले तो उसे मार-मारकर चलती रेल से टांग दिया जाता है। क्या इंसान की जान की कीमत एक बोतल पानी से भी सस्ती हो गयी है कि लोग "प्राण जाये पर पानी न जाये" की तर्ज पर चलने लगे है। 

उपरोक्त लिखी यह सारी बातें और घटनाए कहीं न कहीं एक इंसान को दूसरे इंसान के प्रति विश्वास पर संदेह का घेरा बनाती है। जो यह सोचने पर विवश करती हैं कि हर घटना हर समाचार विश्वास करने से पहले ही संदेह से ग्रसित होता है। जो ना चाहते हुए भी यह सोचने पर विवश करता है कि क्या वाकई अब इस दुनिया से इंसानियत का जनाज़ा उठ चुका है। यह भी अपने आप में एक संदेह ग्रसित बात है।