आज की तारीख में 'विश्वास', जैसे किसी दुरलभ चिड़िया का नाम हो गया है। जो अब कभी-कभी या कहीं- कहीं ही देखने को मिलती है। हर देखी सुनी बात पर भी विश्वास करने में संदेह होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जो देख रहे हैं जो पढ़ रहे है उसके पीछे का सच कुछ और ही हो। दिल तो कहता है कि विश्वास करो किन्तु दिमाग कहता है नहीं सावधान! जो दिखाई दे रहा है वह पूर्णतः सत्य ही हो ऐसा ज़रूरी नहीं है। विशेष रूप से सोशल मीडिया के द्वारा प्रसारित किया जाने वाला कोई भी समाचार संदेहास्पद ही होता है। जिसके एक नहीं कई उदाहरण आपने भी देखे सुने और पढे होंगे। जहां हुआ कुछ होता है और तस्वीर बदलकर मिर्च मसाला लगाकर दिखाया कुछ और ही जाता है जिससे पूरा घटनाक्रम ही बदल जाता है। ऐसा सब देखकर, पढ़कर ऐसा लगता है कि कितना फालतू समय है लोगों के पास जो इस तरह की हरकतें करते हैं और बेधड़क परिणाम की परवाह किये बिना उसे सोशल मीडिया पर डाल देते हैं। उससे भी ज्यादा दुख तो तब होता है जब पाठक भी बिना सच्चाई जाने उसे अपने अन्य मित्रों के साथ दुगनी तेज़ी से सांझा करना प्रारम्भ कर देते हैं।
यह तो थी सोशल मीडिया की खबरों पर आधारित संदेह में घिरा सच। अब यदि बात की जाये वास्तव में हो रही घटनाओ की तो दलितों को लेकर पहले भी ऐसी कई शर्मनाक घटनायें सामने आयी है जिन्होंने इंसानियत का सर शर्म से एक नहीं बल्कि हजारों बार झुकाया है। पर फिर भी किसी ने उन घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया। उलटा ऐसी घटनाओं में वृद्धि ही होती आयी है। हालांकी उनमें भी कुछ ऐसी घटनाएँ भी शामिल हैं जो पूर्ण रूप से सच नहीं है। परंतु अधिकतर वह घटनाएँ है जो सच है। अभी कुछ दिन पहले ही राजस्थान के चित्तौड़गढ़ शहर में तीन दलित लड़कों को मोटरसाइकिल चोरी करने के इल्ज़ाम में उनके कपड़े उतार कर उन्हें जानवरों की तरह पीटा गया। अब यह बात किस हद तक सही है, यह मैं नहीं कह सकती। लेकिन मैं इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि भले ही हमने आतंकवाद के शतरंज में कसाब को मार कर एक बड़ी जीत हाँसिल की हो। लेकिन इस तरह की घटनाओ को अंजाम देकर न जाने कितने कसाब हमने खुद अपने ही घर में तैयार कर लिए है जिसका हमें स्वयं भी अंदाज़ा नहीं है।
मुझे कोई हैरानी नहीं होगी यदि कल को यह तीनों दलित बच्चे जिनके साथ यह घटना घटी कल को चोरी चकारी लूटमार हत्या या बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करते हुए पकड़े जायेँ। क्यूंकि जब हम अपने किशोर अवस्था के बच्चों के प्रति सजग हैं और हम यह भली भांति जानते हैं कि यह उम्र ही ऐसी होती है जब खुद इस उम्र से गुजरने वाले बच्चे अपने अंदर आ रहे मानसिक एवं शारीरिक परिवर्तनों को ठीक तरह से समझ नहीं पाते तब ऐसे में उनके साथ इस तरह का दर्दनाक दुर्व्यवहार निश्चित तौर पर उन्हें गलत रास्ते पर ही ले जाएगा। फिर बच्चे तो बच्चे ही होते है। फिर हम उन्हें सजा देते वक्त यह क्यूँ भूल जाते है कि वह भी तो बच्चे ही हैं चाहे हमारे हो या किसी और के, दलित भी तो आखिर इंसान ही है। बल्कि मैं तो कहूँगी कि दलित होने जैसे घटिया और ऊंच नीच की बात आज के जमाने में करना ही अपने आप में एक बेवकूफी है। लेकिन आज के समय में भी ऐसी घटनाओ का सामने आना हमारे विकासशील देश के विकसित नागरिक होने पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।
आखिर कहाँ गए हमारे वो संस्कार जब हम भूखे को खाना खिलाना और प्यासे को पानी पिलाना एक पुण्य का काम समझा करते थे। राहगीरों के लिए पियाऊ और शर्बत पिलाना सबाब का काम समझा जाता था। क्यूँ लुप्त हो गयी यह पुरानी परम्पराएँ यह संस्कार ? क्या वर्तमान हालातों को देखते हुए स्वयं अभिभावक ही इतने आधुनिक हो गए कि उन्होंने अपने बच्चों को इन बातों का महत्व सिखाना तो दूर बताना भी आवश्यक नहीं समझा ? तभी तो आज एक इंसान जो प्यासा है, पानी मांगने पर भी उसे कोई पानी नहीं देता और यदि वो प्यास की अति हो जाने के कारण किसी की बोतल से पानी पीले तो उसे मार-मारकर चलती रेल से टांग दिया जाता है। क्या इंसान की जान की कीमत एक बोतल पानी से भी सस्ती हो गयी है कि लोग "प्राण जाये पर पानी न जाये" की तर्ज पर चलने लगे है।
उपरोक्त लिखी यह सारी बातें और घटनाए कहीं न कहीं एक इंसान को दूसरे इंसान के प्रति विश्वास पर संदेह का घेरा बनाती है। जो यह सोचने पर विवश करती हैं कि हर घटना हर समाचार विश्वास करने से पहले ही संदेह से ग्रसित होता है। जो ना चाहते हुए भी यह सोचने पर विवश करता है कि क्या वाकई अब इस दुनिया से इंसानियत का जनाज़ा उठ चुका है। यह भी अपने आप में एक संदेह ग्रसित बात है।
बिल्कुल सही लिखा है आपने। अब किसी पर यकीन नहीं होता, न इंसान पर न बातों पर न घटनाओं पर।
ReplyDeleteइंसानी नस्ल कितने ही नामों में बँटी हुई है. हर टुकड़ा दूसरे पर संदेह करता है. इसका कोई तत्काल समाधान नहीं है. जिन तीन लड़कों को बर्बरता से पीटने की घटना का आपने उल्लेख किया है उसके बारे में इतना कहा जा सकता है कि मान लो उन्होंने चोरी की थी तो उन्हें इसके लिए पकड़ कर पुलिस को सौंपा जा सकता था. बच्चों के लिए भी कानून है. लेकिन इंसान के भीतर की दरिंदगी ने देश के कानून को नहीं माना. उस घटना को देख रहे लोग घेरा बना कर खड़े थे और एक तरह से दरिंदों की ही मदद कर रहे थे.
ReplyDeleteआपका संदेहग्रस्त होना विभिन्न माध्यमों से प्राप्त विरोधाभासी सूचनाओं के कारण है. यह भी एक अलग तरह मानसिक यंत्रणा है.
यह भी एक अलग तरह की मानसिक यंत्रणा है.
ReplyDelete.....बिलकुल सटीक लिखा आपने , अविस्वास की परकस्था है आज का समाज , कोई किसी पर विसवास करे तो कैसे करे जबकि तस्वीर का पहलू हो उल्टा हो जाता है
ReplyDeleteआसान नहीं रहा आज के समय में किसी पर विश्वास करना ... फिर भी विश्वास कायम है आज भी यदि यह पूरी तरह समाप्त हुआ तो मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाएगा ...
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-03-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2305 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और सुचित्रा सेन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteसंस्कार पूर्णतः विलुप्त नहीं हुए हैं, पौधे कम हो गए हैं
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