Saturday 20 March 2021

स्माइल करो और शुरु हो जाओ ~

क्या जीवन सच में इतना आसान व सरल है कि बस मुसकुराओ और शुरू हो जाओ...! नहीं ऐसा नहीं है, जीवन यदि इतना ही सरल होता, तो आज लोग यूँ अवसाद का शिकार हो आत्महत्या ना कर रहे होते। जीवन के छोटे -छोटे निर्णयों से लेकर जीवन में आने वाले गंभीर चरणों तक मनुष्य को संघर्ष ना करना होता। हर कोई बस मुसकुराता और अपने लक्ष्य के प्रति सजग हो जाता। फिर तो शायद इस संसार में कोई दुखी ही ना होता। नहीं...! सच में यह सब कहना कितना सरल है ना, लेकिन वास्तव में कितना कठिन होता है कि बस मुसकुराओ और शुरू हो जाओ। इक्कीसवीं सदी में आने के बाद भी हम आज तक दहेज प्रथा, नारी उत्पीड़न, घरेलू हिंसा जैसी बातों से उबर नहीं पाए हैं और बात मुसकुराने की करते हैं। आज भी एक तलाक शुदा महिला को लोग अजीब नज़रों से देखते है। आज भी एक महिला की दूसरी शादी को लेकर लोगों के मन में हज़ार तरीके के सवाल उठ रहे होते हैं। आज भी महिलाओं की आज़ादी लोगों की नज़रों में एक काँटा बनकर खटकती है और हम महिला दिवस मनाने कि बात करते है। वहीं दूसरी ओर अंतरजातीय विवाह को ना स्वीकार कर पाने और हत्या को अंजाम देने जैसे अपराध भी कम नहीं जिसमें प्यार को सजा मिलते देर नहीं लगती आखिर हम क्या चाहते हैं ? 

यदि बात बच्चों कि जाए, तो क्या हम आज भी अपने बच्चों के साथ समान व्यवहार कर पाते हैं ?या सिर्फ यह भी कहने कि बातें हैं। इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। आज की तारीख में हम बेटियों को संभालते -संभालते बेटों को संभलाना भूल रहे हैं। बल्कि कई बार मुझे तो यह भी लगता है कि हम बच्चों में बराबरी का ध्यान रखने के चक्कर में यह भी भूल जाते हैं कि लड़का भी एक इंसान ही है उसके अंदर भी वही भावनायें हैं जो एक लड़की के अंदर होती है। लेकिन इस मामले में भी बढ़ती प्रतियोगिता के चक्कर में आज हम केवल लड़की को सुरक्षित करते हैं, लड़कों को नहीं। क्या यह गलत व्यवहार नहीं है। फिर आगे जाकर जब समस्या उत्पन्न होती है तो सारा घड़ा पुरुषों के सर फोड़ देते हैं। लड़कों पर भी सामाजिक जिम्मेदारियों का उतना ही दबाव होता है जितना एक लड़की के ऊपर फिर भी हमें ऐसा लगता है कि लड़का तो सामाजिक बंधनों से मुक्त है। जबकि सभी जानते हैं कि यह सच नहीं है। 

इतने दबावों और जिम्मेदारियों के बाद यह कहना आसान है कि “स्माइल करो और शुरु हो जाओ” ....? वहीं दूसरी ओर एक तरफ हमें घर संभालने वाली बहु चाहिए होती है तो दूसरी और हम अपनी ही बेटी को पढ़ा लिखाकर उसके पैरों पर खड़ा देखना भी चाहते है। जो कि एक बहुत ही अच्छी बात है। लेकिन फिर बहु और बेटी में फर्क क्यों करने लगते है बेटी के लिए वर ऐसा ढूंढते है कि उससे ससुराल में कभी काम ना करना पड़े और वही दूसरी ओर बहु से यह उम्मीद लगा बैठते है कि वह घर और बाहर दोनों जगह संभाले। बेटी और बहू के अधिकारों में फर्क रखने वाले हम महिला दिवस की बातें करते हैं। 

महिलाओं के अधिकार क्या है यह शायद स्वयं एक महिला को भी ठीक से पता नहीं होगा पर फिर भी इस अधिकारों की लड़ाई में हर महिला आगे आकर महिलाओं के अधिकारों पर बोलने को खड़ी है। महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों कि दुहाई आज हर जगह दी जा रही है। फिर क्या समाचार पत्र और क्या सोशल मीडिया। लेकिन क्या इसके प्रति केवल पुरुष ही जिम्मेदार है। क्या इस सब में महिलाओं की कोई गलती नहीं होती। हाँ मैं मानती हूँ अधिकतर मामलों में महिलाएं निर्दोष होती है। लेकिन कुछ मामले ऐसे भी होते है जिन में महिलाएं आपने प्रति बने नियम और कानून का गलत फायदा उठती है। 

खुद की गलती छिपाने के लिए या फिर खुद को मासूम और निर्दोष साबित करने के लिए पुरुषों पर दोषारोपण करने से जरा नहीं हिचकिचाती ऐसी महिलाओं को क्या कहेंगे आप जो अपने बचाव में किसी पुरुष सहकर्मी पर गंभीर से गंभीर आरोप लगाने से पहले एक बार भी यह नहीं सोचती की इसका अंजाम उस व्यक्ति के जीवन पर क्या असर डाल सकता है। बात यहाँ अधिकारों की है तो इसका यह अर्थ तो नहीं कि अपने अधिकारों का गलत उपयोग कर किसी की ज़िंदगी हमेशा के लिए बर्बाद कर दी जाए। फिर चाहे वह किसी पुरुष का जीवन हो या महिला का इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 

जरा सोचिए इतना कुछ घटता बढ़ता है जीवन में फिर कोई कैसे बस “स्माइल करे और शुरू हो जाये”

23 comments:

  1. कहीं न कहीं कमी रह ही जाती है, जिंदगी जैसा जीना चाहे इंसान वैसा जी सकता है, बशर्ते उसे अपने आप पर भरोसा हो

    बहुत अच्छी चिंतनशील प्रस्तुति

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद जी 🙏 जो आपने भावनाओं को समझा।

      Delete
  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (21-03-2021) को    "फागुन की सौगात"    (चर्चा अंक- 4012)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

    ReplyDelete
  3. लोग इतनी सूक्ष्मता से नहीं देखते, तभी तो आसानी से बड़ी बड़ी बातें कह लेते हैं ... आसान कुछ भी नहीं होता है

    ReplyDelete
  4. आपकी .यह पोस्ट पढ़ कर मुझे पचास वर्ष से भी पहले पढ़ा एक वाक्य याद हो आया. उसमें कहा गया था कि दुनिया में दो ही जातियां है - स्त्री और पुरुष. आपकी पोस्ट उन्हीं दोनों का संघर्ष है. एक दूसरे की ग़लती निकालना, दोष देना वगैरा. दरअसल उन दोनों बीच जो साझा है उस पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत दोनों को है.

    ReplyDelete
    Replies
    1. बिल्कुल ठीक कहा आपने अंकल🙂👍🏼

      Delete
  5. मेरी समझ से इन सभी बातों के पीछे सबसे बड़ी वजह ये होती है कि -हम सोचते कुछ है... करते कुछ और है..... और पाना कुछ और चाहते है
    दूसरी वजह हमारी दोहरी मानसिकता.....जहाँ हम अपने और अपने अपनों के लिए कुछ और सीमा रेखा तय रखते है और.... दुसरो के लिए और..
    और तीसरी वजह है हम भारतियों की "अति" हम हर कार्य में अति कर देते है,देखा देखि के चलन में खुद का चलन भी भूल जाते है।
    वाकई सोचने की ही जरूरत है.....गंभीर प्रश्न पर विचारणीय लेख

    ReplyDelete
  6. सुंदर व्याख्यात्मक अभिव्यक्ति! एक चिंतन देता सवाल ।
    आपने सुंदरता से कहा है सब ।

    ReplyDelete
  7. चिंतनीय प्रस्तुति ।

    ReplyDelete
  8. ज़िन्दगी को समझते बूझते ज़िन्दगी गुज़र जाती है और कब सबकी ख़ातिर एक सी रही है ज़िन्दगी... मुस्कुराइए और शुरू हो जाइए, किसी विज्ञापन की टैगलाइन तो हो सकती है... ज़िन्दगी की नहीं!
    बहुत ही बेहतरीन ढंग से अपनी बात कही है! बहुत सुन्दर!!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार सहित धन्यवाद 🙏

      Delete
  9. गंभीर प्रश्न पर विचारणीय लेख, जो मैं पहले भी पढ़ चुकी हूं 🙏

    ReplyDelete
  10. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  11. वेहले लोगों के चोचले भर है इस तरह की उक्तियाँ | बाकी तो दीपक तले अन्धेरा सदा रहा है और आगे भी रहेगा

    ReplyDelete
  12. बहुत ही चिंतनपूर्ण एवं विचारणीय लेख ।

    ReplyDelete

अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए यहाँ लिखें