Friday, 1 August 2025

आखिर क्यों ?

 

आखिर क्यों ?

 आखिर क्यों मानव इतना परेशान है कि लोग हत्या जैसा जघन्य अपराध करने से भी नहीं डर रहे है. क्या यह क़ानून व्यवस्था की कोई कमी है कि लोगों के मन में सजा का डर खत्म होता चला जा रहा है, या फिर यह मामला कुछ और ही है..! हालांकि देखा जाये तो इस दुनिया में सभी बहुत परेशान है क्या मानव क्या पशु पक्षी जिनकी अपनी एक अलग दुनिया होती है जो सिर्फ खुद के जीवन यापन के लिए वो करते है जो मानव समाज में अपराधों की श्रेणी में आता है. जैसे अपनी भूख को मिटाने के लिए किसी दूसरे की हत्या कर देना. हालांकि वो बात अलग है कि किसी जमाने में हम भी वही किया करते थे. आज भी कर रहे हैं तब मजबूरी थी आज स्वाद है. फिर हमने समाज बनाया और फिर धीरे धीरे उससे जुड़े इतने नियम और कानून बना डाले की मानवो के लिए बनाए गए समाज में स्वयं मानवों का ही दम घुटने लगा. प्रतियोगिता के चलते स्वार्थ बढ़ने लगा और फिर स्वार्थ के चलते अपराध और कब हम इतने स्वार्थी हो गए कि हमने ना जनवारों को बक्षा ना मानवों को बक्षा.

खैर आज का मानव कितना स्वार्थी और आत्म केंद्रित हो चुका है कि लोग बस केवल अपना फायदा देख रहे है. फिर चाहे बात छोटी हो या बड़ी, उनका फायदा हो रहा है या नुकसान बस केवल वह ही मायने रखता है और कुछ भी नहीं. यहाँ तक की इंसान की जान की भी आज कोई कीमत नहीं रह गयी है. कोई भी कहीं भी पूर्णतः सुरक्षित नहीं है. इसलिए किसी पर कहीं भी जानलेवा हमला कर देना, या हत्या कर देना, किसी का भी अपहरण कर लेना, बलात्कार, तेजाबी हमले जैसे गंभीर मामले भी अब सन सनी पैदा नहीं करते. हाँ थोड़ी देर के लिए या यूँ कहे कि कुछ दिनों के लिए हंगामा खड़ा होता है, वह भी न्यूज़ चैनल और सोशल मिडिया की वजह से और फिर समय के साथ हम सब भूल जाते है. आखिर क्यूँ इतने असंवेदनशील हो गए है हम...?

 क्या एक मानव होने के नाते अपने अंदर कि मानवता को बचाये रखना हमारा धर्म नहीं है...? बात की जाये यदि हत्या कांडो की तो अब तक न जाने कितनी बार और कितने ही भयावह ढंग से स्त्री का पहले बलात्कार किया जाता है और बड़ी ही बेरहमी और निर्ममता से उनकी हत्या कर दी जाती रही है.  इतने पर भी जब कातिल के दिल को सुकून नहीं मिलता तो लाश के भी टुकड़े -टुकड़े कर के कुत्तों को खिला दिया जाता है और हम यानी की आम जानता क्या करती है, बस एक- दो केन्डील मार्च, थोड़ी नारे बाजी और बस बात खत्म. क्या बस इतना ही कर्तव्य रह गया है हमारा...? कोलकाता में एक डॉ के साथ हुए बलात्कार और फिर उसकी निर्मम हत्या के बाद क्या किया हमनेकुछ नहीं सब भूल गए क्यूँ क्यूंकि वह हमारे घर की बेटी थोड़ी ही ना थी. फिर वो (श्रद्धा) जिसकी लाश के टुकड़े करके उसे फ्रीज में छिपा दिया गया था और उसका प्रेमी हर रोज एक टुकड़ा ले जाकर कुत्तों को खिला दिया करता था. यह सब कोई बहुत पुराने मामले तो नहीं है. फिर तब तो लोगों के मन में विवाह को लेकर कोई डर नहीं समाया. फिर आज दो चार पुरुषों के हत्याकांड क्या सामने आये संसार हिल गया... पुरुषों का ...क्यूँ...?

माना के वह बेचारे निर्दोष थे, बेगुनाह थे. लेकिन बावजूद इसके यह संसार सालों से दहेज़ के चक्करों में प्रताड़ित होती हुई बेटियों के मामलों में क्यूँ नहीं हिला. जबकि ना जाने कितनी ही मासूम बेटियों को दहेज़ की आग में ज़िंदा जला दिया गया. और कितनी ही लड़कियां आज भी घरेलू हिंसा और ना सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक उत्पीड़न का भी शिकार बन रही है. फिर भी यह दहेज प्रथा कम होने के बजाये दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही चली जा रही है.  क्या उनका दर्द, उनकी तकलीफ इन पुरुषों से कम थी...? तंदूर कांड के बाद भी किसी के दिल में यह क्यूँ नहीं आया कि शादी विवाह एक बहुत बड़ा जुआ है, बिना पूरी तरह से जांच पड़ताल किए नहीं किया जाना चाहिए. फिर अब जब यह इंदौर के (सोनम रघुवंशी और राजा) का मामला सामने आया है जिसे मीडिया ने खूब भुनाया है तब से या फिर वो (नीले ड्रम) में बंद कर देने वाले हत्या काण्ड के मामले के बाद से ही पुरुष समाज में इतना हँगामा क्यूँ है बरपा...?? जानते हैं ऐसा क्यूँ हुआ क्यूंकि यह नया था स्त्रियों के विषय से जुड़े अपराध, हिंसा, आदि सुनने के हम आदि हो चुके है और शायद असंवेदन शील भी लेकिन पुरुषों से जुड़ी प्रताड़णा के यह मामले कम देखने और सुनने में आते है. बस शायद इसलिए लोग हैरान है. 

खैर जिस पर बीतती है वही परिवार जानता है कि अपनों को खोने का दर्द क्या होता है. फिर चाहे इस तरह समय से पूर्व हत्या किए जाने के कारण जाने वाला बेटा हो या बेटी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन ऐसा कब तक चलता रहेगा, जनता कब तक न्यूज़ चैनल या सोशल मिडिया के इशारों पर नाचती रहेगी...? और बिना पूरा सच जाने बस आधी अधूरी जानकारी को सही मानकर अपना वक्तव्य देती रहेगी....? आखिर कब तक..? कब हम अपनी सोच अपने विचारों के बल पर मानवता दिखाते हुए मानव होने का परिचय देंगे और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठा सकेंगे. एक समय था जब हम अनेकता में एकता का प्रतीक माने जाते थे और अब एकता तो दूर की बात है, अब तो बस हम रेत के महल की तरह बस बिखरते ही चले जा रहे है. चारों और बस बिखराव ही बिखराव है अशांति ही अशांति....!इस दिखावे के दंश ने हमें ऐसी मार मारी है कि कहीं के नहीं रहे.

 इस संसार में बल्कि मैं तो कहूँगी पूरे ब्रहमाण्ड में कोई सुखी नहीं है, हर जगह हर कहीं जीवन में बस टकराव ही टकराव है, रिश्तों को तो जैसे नज़र ही लग गयी है. प्रेम, दुलार, समर्पण, त्याग, ईमानदारी, मौन, शांति जैसे शब्द तो विलुप्त ही हो गए है. शेष रह गया धोखा, क्लेश, मन मुटाव, तुलना, आरोप, प्रत्यारोप, शक, शिकवे शिकायतें जिसका कोई इलाज नहीं ....! ऐसे हालातों में ज़ाहिर सी बात है  जब जीवन इन सब प्रताड़नाओं से भरा होगा तो मन चौबीस घंटे बस खिन्नता और इर्षाओं से ही तो भरा होगा...नहीं ? तो ऐसा मन, एक ना एक दिन क्रोध में हत्या को ही तो अंजाम देगा और भला दे ही क्या सकता है फिर चाहे इस सब के पीछे का कारण बढ़ती जनसंख्या, बेरोजगारी, गरीबी, सरकार, अकेलापन, कुछ भी हो सकता है. ऐसे में हम किसी एक पर उंगली नहीं रख सकते क्यूंकि इन सब के मिले जुले मिश्रण का ही नतीजा है समाज और उससे जुड़े यह कारण...आपको क्या लगता है...?    

 

1 comment:

  1. आज का मनुष्य हर तरफ से फ्रस्ट्रेशन और डिप्रेशन मे है, क्योंकि होड़ लगी है एक दूसरे से आगे निकलने की किसी भी फील्ड मे और हर फील्ड मे।
    इसमें कोई भी जेंडर का दामन साफ नहीं और मुझे तो ऐसा लगता है कि आज का मनुष्य सिर्फ और सिर्फ सेल्फिश होकर रह गया उसे सब कुछ अपना ही अच्छा चाहिए किसी और से उसे कोई सरोकार ही नहीं अपना काम बनता भाड़ मे जाये जनता।
    इस विषय मे जितना लिखो, सोचो और देखो उतना कम है अभी तो शुरुआत है देखें आगे क्या क्या सुनने, देखने और सहने को मिलता है।
    🙏🏼

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