Sunday, 22 January 2012

नैतिक मूल्य...


मानव जीवन में ना जाने कितने ऐसे पहलू होते हैं जिन पर नज़र डालने के बाद जब उन विषयों पर विचार करो तो जैसे आने वाले विचार आपस में उलझते चले जाते है और ऐसा लगने लगता है, कि कितना कुछ है इन विषयों पर लिखने के लिए ,इतना कि शायद पन्ने कम पड़ जाये मगर विचारों का अंत नहीं होगा। जाने क्यूँ मुझे ऐसा ही लगता है। आप सभी को भी ऐसा लगता है या नहीं, यह आप ही बता सकते हैं। खैर हम बात कर रहे थे मानव जीवन में आने वाले अलग-अलग पहलूओं की जैसे मानव जीवन पर पड़ता सामाजिक प्रभाव, परवरिश, अहम, संघर्ष सफलता, सुख-दुख, इत्यादि शायद इस सबसे मिलकर ही मानव की सोच बनी है वैसे देखा जाय तो सभी मानव प्रकृति के पाँच तत्वों से मिलकर ही बने है। मानव मन बहुत ही विचित्र होता है, लेकिन यह मन ही होता है जो उसको साधू या शैतान कुछ भी बना देता है। दया या घृणा कुछ भी भरा होता है मन में और मन के आधार पर ही इंसानी सोच बनती है फिर वह चाहे अच्छी हो या बुरी, अच्छी सोच वाला इंसान साधु बनता है और बुरी सोच वाला इंसान शैतान, यह सभी विषय ऐसे हैं जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

तो हम शुरुवात करते हैं परवरिश से क्यूँकि कोई भी इंसान आगे जाकर साधु बनेगा या शैतान यह सब कुछ उसकी परवरिश पर निर्भर करता है और कुछ हद तक वक्त और हालातों पर भी, मगर फिर भी हर इंसान की परवरिश ही उसके भावी जीवन की नींव होती है। ऐसा कहा जा सकता है। देखा जाए तो हर माता-पिता अपने बच्चे को अच्छी से अच्छी परवरिश देना चाहते हैं और दुनिया के सबसे अच्छे माता-पिता बनाना चाहते है। मगर कहीं न कहीं उन्हें हमेशा यह महसूस होता है, कि वो कोशिश तो बहुत करते हैं अपनी ओर से एक अच्छे अभिभावक बनने की, मगर बन नहीं पाते। क्यूंकि बाल मन अक्सर छोटी-छोटी बातों से बहक जाता है। ऐसी ही परवरिश पर ही वह सारे अन्य पहलू भी निर्भर करते हैं जिन का हमने ऊपर जिक्र किया था जैसे अहम, संघर्ष, सुख-दुख इत्यादि। अगर आपकी परवरिश मजबूत और बहुत अच्छी है तो आपका बच्चा जीवन के इन सारे पड़ावों को सफलता पूर्वक पार कर सकता है, मगर यदि यही-कहीं आप से कोई चूक हो गई तो आपको उसका भरी खामयाज़ा भी उठाना पड़ सकता है।

हांलाकी परवरिश कोई गणित नहीं है कि 2 और 2 हमेशा 4 ही हों, आज़माये गए तरीकों में फर्क भी हो सकता है। मगर उसी फर्क को ध्यान में रखते हुए आपको आगे बढ़ना होता है। क्यूंकि इस बढ़ती हुई उम्र के पड़ाव में एक पड़ाव ऐसा भी आता है। जब बच्चे खुद को आत्म निर्भर समझने लगते है, जबकि वो होते नहीं है बस उन्हें लगता है और माता पिता खुद को जरूरत से (ओवर कॉन्फिडेंट) समझने लगते है। इन सब चक्करों में आपसी तालमेल बिगड़ जाता है। जबकि तब ही सबसे ज्यादा ज़रूरी होता है आपसी तालमेल का बनाए रखना। क्यूंकि बच्चों की वही उम्र ऐसी होती है जिसमें उनके गलत राह पर चले जाने का खतरा बना रहता है। यदि उम्र के उस पड़ाव पर आपने बात को संभाल लिया तो फिर उसके बाद कोई टेंशन नहीं होती। क्यूंकि फिर उसके बाद आपके और आपके बच्चे में जो एक दूसरे के प्रति दोस्ती और भरोसे का जो रिश्ता बनता है वो सारी ज़िंदगी उसे अपने नैतिक मूल्यों से भटकने नहीं देता।

यह तो हुई सही और अच्छी परवरिश की परिभाषा। अब बात की जाये, उस दौरान जाने-अंजाने में हुई भूलों का जो अक्सर अभिभावक भावनाओं में बहकर कर बैठते हैं। जैसे लाड़ में बच्चे को कई सारी गलत बातों में शै:  दे देना। जो उस वक्त तो बचपने में अच्छा लगता है मगर आगे जाकर उसके लिए हानीकारक भी सिद्ध हो सकता है। उसी से जन्म लेता है अहम...और यह अहम ऐसी चीज़ है जो यदि एक बार आ गया तो बस सब कुछ वहीं खत्म, क्यूंकि रिश्तों में दरार पड़ने का सबसे बड़ा कारण यह अहम ही होता है जो सामाजिक ही नहीं बल्कि ज़ाती तौर पर भी इंसान को पूरी तरह बर्बाद कर डालता है। इसलिए यह बहुत ज़रूर हो जाता है, कि हम अपने बच्चे की परवरिश के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखें कि कहीं यह अहम हमारे बच्चे के अंदर भी तो जन्म नहीं ले रहा है। जहां तक मुझे लगता है बच्चे को जरूरत से ज्यादा ध्यान देने और ग़लत बातों पर भी देखकर अनदेखा करने पर ही यह मनोभाव उसके अंदर उत्पन्न होना शुरू होता है। जैसे कुछ लोगो अपने बच्चों की परवरिश करते वक्त बत्तमीजी और शरारत में फर्क भूल जाते हैं और बच्चा है कहकर उसकी की हुई गलती को नज़र अंदाज़ कर देते हैं। तब वही भूल आगे जाकर उनके अपमान का कारण बनती है।

वैसे तो मैं इस मुददे के दौरान कोई औरत मर्द का बवाल खड़ा करना नहीं चाहती ना ही मेरा ऐसा कोई उदेश्य है। हां मगर इतना ज़रूर कहना चाहूंगी, कि हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है। यह बात सभी जानते हैं और जिस प्रकार यह बात सच है, उसी प्रकार यह बात भी उतनी ही सच है, कि हमको रहना भी इसी समाज में है वो भी इस समाज के बनाए हुए सभी कानूनों का पालन करते हुए। जिसका सीधा प्रभाव आज भी सबसे ज्यादा औरतों पर ही पड़ता है। फिर चाहे वो बे पढ़ी लिखी, नीचे तबके की कोई औरत हो, या पढ़ी लिखी अच्छे खानदान से समबन्धित कोई महिला हो। समाज के नियमो का पालन तो सभी को करना होता है। माना की कुछ कानून ऐसे है जो महिलाओं के लिए ठीक नहीं जिनमें बदलाव आना बेहद ज़रूर है। मगर कुछ नियम ऐसे भी हैं जिन्हें ज़ाती तौर पर निभाना आना चाहिये और वो तभी आ साकता है जब अभिभावक बचपन से अपने बच्चे को वो चीज़ सही तरीके से बतायें और सिखाये।

जैसे एक लड़की के लिए जितना ज़रूरी है शिक्षित होना, उतना ही ज़रूरी है घर के काम काज आना और उससे भी ज्यादा ज़रूर है उसके अंदर इस भावना का होना कि जिस तरह उसका अपना घर उसका है उसी तरह उसका ससुराल भी उसका है और वहाँ भी उसे कोई भी काम करने में शर्म महसूस नहीं होनी चाहिए। खासकर इस बात को लेकर तो ज़रा भी नहीं कि अरे मैं इतना पढ़ी लिखी हूँ या मैं नौकरी वाली हूँ मैं भला झाड़ू पौंछा कैसे लगा सकती हूँ। हांलाकी आज कल वो ज़माना नहीं रह गया है। जब घर के सभी काम घर की महिलायें खुद ही किया करती थी। अब तो इन सब कामों के लिए हर घर मे बाई उपलब्ध है। मगर कभी-कभी हो जाता है, जब बाई नहीं आती तो घर के सदस्यों को ही घर का हर छोटा-बड़ा काम करना पड़ता है। मगर कुछ लड़कियां हैं जो यह बात नहीं समझते हुए अपने अहम का हाथ थामे अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार लिया करती है। जबकि इस बात के लिए उन लड़कियों से ज्यादा जिम्मेदार उनके अभिभावक है। जो अपनी बेटियों को यह सिखाते हैं कि बेटा केवल पढ़ाई पर ध्यान दो, घर के काम सीखने की तुम्हें अभी कोई जरूरत नहीं है। जबकि मेरे अनुभव से आजकल ज़्यादातर लड़कों को घर के काम और खाना बनाना आता है ।

तुम पढ़ी लिखी हो यह सब काम तो नौकरों से भी करवाया जा सकता है। ऐसी गलत सोच क्यूँ ? माना, कि यह सब काम नौकर भी कर सकते है। मगर यह ज़रूरी नहीं, कि हर घर में हर काम के लिए नौकर रखा जाना उस घर के सदस्यों को पसंद हो, या उनके लिए संभव हो।  इसकी जगह यह भी तो सिखाया जा सकता है न कि बेटा जितना ज़रूरी पढ़ाई है उतना ही तुम्हारे लिए घर के काम काज आना भी ज़रूरी है। इसलिए दोनों के लिए वक्त निकालो और हो सके तो खाली समय में दोनों पर ध्यान दो आगे तुम्हारे लिए ही काम आयेगा। वैसे भी कोई भी अभिभावक रोज़ घर का काम नहीं करवाते अपनी बेटी से और ना ही करवाना चाहिए। मगर हां बेटी को सारा काम आना ज़रूर चाहिए ताकि वक्त पढ़ने पर वो सब कुछ कर सके और सबका दिल जीत सके। मगर आज कल जैसा मैंने देखा है लोग शायद ऐसी शिक्षा अब देते ही नहीं है। ऐसा ज्यादातर उन महिलाओं के साथ आसानी से देखा जा सकता है जो शादी के पहले नौकरी किया करती थी और शादी के बाद किसी भी कारणवश जब उनकी नौकरी छूट जाती है। तब उनके लिए घर में खुद को स्थापित करना बहुत ही मुश्किल होता है। बात -बात पर उनका अहम उनको अंदर से कचोटता है। जिसके कारण हर छोटी-बड़ी चीजों को लेकर खुद की बात ओरों से मनवाने के लिए उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ता है इस सबके चलते स्वभाव में हमेशा चिड़चिड़ा पन बना रहता है जिसके कारण परिवार के बाकी सदस्यों के साथ ताल-मेल बैठ नहीं पाता और नतीजा तलाक।

हांलाकी संघर्ष करना आना भी एक बहुत ही अहम बात है। यह भी एक बेहद ज़रूरी मनोभाव है जो बच्चे को आना ही चाहिए मगर किस बात के लिए संघर्ष किया जाना चाहिए और किस बात के लिए नहीं इसका सही निर्णय बच्चा तभी ले सकता है जब उसके अंदर आत्मविश्वास हो सही और गलत की पहचान हो और वो तभी पाता हो सकता है जब बचपन से उसे जीवन के मूल्यों की सही शिक्षा दी गई हो।क्यूंकि सही शिक्षा ही किसी भी इंसान के अंदर आत्मविश्वास पैदा कर सकती है। क्यूंकि भावी जीवन में केवल वही आगे बढ़ पाता है जिसके अंदर आंत्मविश्वास होता है। वरना आपने भी स्वयं देखा होगा कि जिन बच्चों में आत्मविश्वास की कमी होती है वही इंसान अक्सर सफलता न मिलने पर आत्महत्या का सहारा लिया करते हैं।    

अंतः बस इतना ही कहना चाहूंगी कि परवरिश के दौरान ही अपने बच्चे को उसके नैतिक मूल्यों की सही शिक्षा दीजिये। जिसके आधार पर वो सही और गलत का भेद समझ कर सही निर्णय ले सके। फिर चाहे वह निर्णय सामाजिक हों या आंतरिक और वो तभी संभव है, जब आपके और आपने बच्चे के बीच आपसी तालमेल ऐसा हो, कि बच्चा आपके सामने अपने मन की किताब बिना किसी झिझक और डर के खोल सके। इसलिए अभिभावक बनाने से पहले उसके सबसे करीबी और भरोसेमंद दोस्त बनकर उसका भरोसा जीतीये और उस ही भरोसे को कायम रखते हुए उसके सबसे अच्छे मित्र की भूमिका के साथ एक अच्छे अभिभावक की भूमिका निभाते हुए उसे सही राह दिखाइये। ताकि जीवन में आगे जाकर उसे आप पर और आपको उस पर गर्व महसूस हो सके। जय हिन्द    

36 comments:

  1. I appreciate the amount of effort you put into making this blog. Very detailed and astonishing piece of work. I hope that you can extend your work to a wider set of audience.

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    http://hbfint.blogspot.com/2012/01/27-frequently-asked-questions.html

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  2. सार्थक लेखन, उत्तम विचार

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  3. परवरिश के दौरान ही अपने बच्चे को उसके नैतिक मूल्यों की सही शिक्षा दीजिये। जिसके आधार पर वो सही और गलत का भेद समझ कर सही निर्णय ले सके। फिर चाहे वह निर्णय सामाजिक हों या आंतरिक और वो तभी संभव है, जब आपके और आपने बच्चे के बीच आपसी तालमेल ऐसा हो, कि बच्चा आपके सामने अपने मन की किताब बिना किसी झिझक और डर के खोल सके। इसलिए अभिभावक बनाने से पहले उसके सबसे करीबी और भरोसेमंद दोस्त बनकर उसका भरोसा जीतीये

    बहुत अच्छी और सार्थक सोच है आपकी.

    मेरे ब्लॉग को न भूलिएगा जी.

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  4. very nicely done article...
    interesting yet useful...
    thanks.

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  5. सार्थक और विचारणीय पोस्‍ट।
    संस्‍कार पर‍वरिश से ही आते हैं......

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  6. आजकल बच्चों को हर क्षेत्र में अव्वल बनाए की कवायद होती है पर इस ओर ध्यान कम ही रहता है अभिभावकों का ........विचारणीय पोस्ट

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  7. परवरिश के विषय पर अत्यन्त उपयोगी और सार्थक आलेख..

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  8. नैतिक मूल्यों का अवबोध और परम्पराओं का संस्कार बचपन से ही सही परवरिश के द्वारा बच्चों में रोपित करनी चाहिए।

    उपयोगी आलेख।

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  9. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन!

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  10. बहुत मायने रखती है परवरिश.सार्थक आलेख.

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  11. परवरिश और परिवेश आदमी को साधु या शैतान बना देते है.... तभी तो किसी घटना पर कहते है- अरे, वो तो ऐसा नहीं कर सकता॥

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  12. सही सलाह। परन्तु,बहुत सिखाया-पढ़ाया बच्चा बहुधा एक प्रोग्राम्ड सॉफ्टवेयर सा व्यवहार भी करने लगता है।

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  13. सार्थक लेख...
    सब बाते अपनी जगह ठीक हैं .....हम अपने बच्चो को बहुत से नैतिक मूल्य सिखाते हैं ...समझाते हैं ...अपने करीब रखने के लिए पारिवारिक मौहोल भी देते हैं...फिर भी अपने इर्द गिर्द बहुत बार देखा है कि ..... हर बच्चा एक पक्षी होता हैं ...जब वो उड़ना सीख जाता हैं तो वो अपने मूल्य ,विचार खुद तय करता हैं ....

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  14. जी हाँ बिलकुल ठीक कहा आपने मगर, मेरा ऐसा मानना है कि उन मूल्य विचारों को बनाने की समझ भी तो उसे हमसे ही मिलती है। जो कुछ भी वह हम से सीखता है और अनुभव करता है, उस ही के आधार पर ही तो वह अपने विचार बना पता है।

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  15. बच्चे आपका विश्वास करें यह आपकी दोहरी सफलता है. बच्चे नैतिक मूल्यों को सीधे माता-पिता के व्यहार से अपनाते हैं. आपके नज़रिए से सहमत हूँ.

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  16. बच्चे तो कोरे कागज़ की तरह होते हैं । उन पर जैसा चाहो रंग भर दो ।
    परवरिश के दौरान ही ये रंग चढ़ाये जा सकते हैं ।
    अच्छा आलेख ।

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  17. परवरिश का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है।
    आवारा फ़िल्म की याद आ गई।

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  18. विचारणीय आलेख ..

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  19. बस इतना ही कहूँगा.... सार्थक लेख.

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  20. बस इतना ही कहना चाहूंगी कि परवरिश के दौरान ही अपने बच्चे को उसके नैतिक मूल्यों की सही शिक्षा दीजिये।bilkul sahi bat khi aapne pallavi jee.

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  21. नैतिक मूल्‍य परिवार में प्रत्‍येक व्‍यक्ति को सिखाने चाहिए। घरेलू कार्य भी क्‍या लड़का और क्‍या लड़की सभी को आने चाहिए। क्‍योंकि आज युवाओं को विदेश जाने की लालसा रहती है और वहॉं सारे ही कार्य स्‍वयं को करने होते हैं।

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  22. नैतिक शिक्षा ही बच्चों के भविष्य का निर्माण करती है,...सार्थक प्रस्तुति,...

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  23. Achha laga ... aapake blog pe aa kar...
    likhte rahiye... :)

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  24. मेरा मानना है अपने खुद के आचरण का प्रभाव सबसे ज्यादा पड़ता है बच्चों पर ... नैतिक क्षिक्षा का प्रभाव ... अच्छे वातावरण का प्रभाव तो निश्चित ही रहता है ....

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  25. जी हाँ बिलकुल ठीक कहा आपने मैं खुद भी यह बिन्दु लिखना चाह रही थी कि घरेलू कार्य भी,लड़के और लड़कियों दोनों को ही आने चाहिए। बल्कि मैंने तो यहाँ तक देखा है, कि आज कल लड़कियों से ज्यादा लड़कों को खाना बनाना ज्यादा अच्छे से आता है :-) मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया...

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  26. आपके इस उत्‍कृष्‍ट लेखन के लिए आभार ।

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  27. सार्थक लेखन..सुन्दर विचार..

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  28. sanskar ..naitik moolya ...yahi neev hain parivar ki ...
    bahut badhia alekh...

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  29. ▬● नैतिक मूल्यों पर सभी ने कभी न कभी लिखा है लेकिन एक सार्थक लेख वही होता है जो अपने लिखने के उद्देश्य पर खरा उतरे...... भगवान करे आपका लेख पढ़ लोग नैतिक होने लग जायें पल्लवी जी.......


    ▬● बहुत खूबसूरती से लिखा है आपने... शुभकामनायें...
    अगर समय मिले तो मेरी पोस्ट पर भ्रमन्तु हो जाइयेगा...
    (किसे दिखाऊँ अधूरी ख्वाहिशें..)
    http://jogendrasingh.blogspot.com/2012/01/blog-post_23.html

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  30. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 30-01-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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