Wednesday 16 May 2012

बच्चों समेत सामूहिक आत्महत्या सही या गलत ??

पोस्ट शुरू करने से पहले ही मैं बतान चाहूंगी कि यहाँ मैंने जिन घटनाओ का वर्णन किया है। उसकी प्रेरणा मुझे किसी और की पोस्ट को पढ़कर मिली जिसे पढ़कर मेरे मन में आए विचारों  को मैंने लिखा है न की किसी तरह की कोई चोरी उस पोस्ट को पढ़कर मुझे जो लगा वही मैंने लिखा, वो भी इसलिए की वहाँ उस पोस्ट पर केवल एक टिप्पणी में सारी बातें लिख पाना संभव नहीं हो सकता था। इसलिए उसे आज एक पोस्ट बनाकर लिख रही हूँ कृपया इस पोस्ट को चोरी ना समझे धन्यवाद.... 


कहाँ से शुरुआत की जाये इस विषय की कुछ समझ नहीं आ रहा है। अभी कुछ दिन पहले कहीं किसी का एक आलेख पढ़ा था, लेखक का नाम तो याद नहीं मगर उस आलेख को पढ़कर मन इस आम मगर गंभीर विषय पर सोचने के लिए विवश हो गया। आम इसलिए कहा क्यूंकि  आज कल यह खबरें बहुत आम ही हो गई हैं। लगभग रोज़ ही हर समाचार पत्र में आप इस तरह की दो चार खबरों को पढ़ते ही होंगे। जैसे फलां स्त्री ने लगातार दहेज की मांग को लेकर प्रताड़ना झेलते रहने के कारण अपने बच्चों समेत आत्महत्या कर ली। तो कभी किसी पुरुष ने अपनी बेवफ़ा पत्नी के कारण अपने बच्चों समेत आत्महत्या कर ली। कुल मिलाकर पैदा करने वाले अभिभावकों ने ही परिस्थितियों के चलते स्वयं अपने बच्चों की ही जान ली और बाद में खुद को भी मार डाला। इस तरह की घटनायें गरीब परिवारों में ज्यादा देखने, सुनने और पढ़ने को मिलती है। क्यूंकि शायद उनकी ज़िंदगी में जीवन यापन हेतु या अपने बच्चों की सही परवरिश हेतु पर्याप्त साधन नहीं है। जैसे अच्छी नौकरी, पैसा खुली हुई मानसिकता इत्यादि इस विषय पर गंभीरता से सोचने पर मुझे तो इन घटनाओं के पीछे यही सब कारण नज़र आए हो सकता है आपका नज़रिया अलग हो। खैर वह आलेख पढ़कर मुझे कुछ देर के लिए ऐसा लगा था कि सचमुच बहुत ही महत्वपूर्ण एवं विचारणीय मुद्दा है। क्यूँ यह बातें आज के समाज में बहुत ही आम बातें हो गई है।

फिर कुछ सवाल उमड़े मन में, कि एक तरफ तो हम कहते हैं, कि बच्चे जब तक इतने परिपक्व नहीं हो जाते कि वह अपनी ज़िंदगी का फैसला खुद कर सकें। तब तक बच्चे अपने माँ बाप की अपनी जागीर के समान होते हैं। वह जैसा चाहे करे अपने बच्चों के भविषय के साथ यह उनका पूर्ण अधिकार है और दूरी तरफ हम ही उन अभिभावकों को यह कहते नज़र आते हैं, कि उनको कोई हक नहीं बनता कि वो अपने साथ अपने बच्चों को भी सजा दें। क्यूंकि मरना जीना तो ऊपर वाले के हाथों में है, उसने हमें केवल थोड़ा बहुत जीवन देने का अधिकार दिया है। मगर किसी की जान लेने का आधिकार हमें अब तक प्राप्त नहीं हो सका है। यहाँ मेरा तात्पर्य भूर्ण हत्या से नहीं बल्कि सामूहिक आत्महत्या से है। एक तरफ बच्चों को पैदा करने से लेकर उनके लालन पोषण की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी उनके माता-पिता पर होती है। सभी यही कहते है और इसी नियम पर चलने की शिक्षा दी जाती है। बच्चे पैदा किये हैं, तो अब उनका अच्छा बुरा सोचना भी आप पर निर्भर करता है, कि उनके लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा, क्या सही है, क्या गलत सब कुछ, यानि उनकी सम्पूर्ण परवरिश तो फिर यदि इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए जब कोई अपने बच्चों को अपने साथ ही ख़त्म कर लेता है तो उस वक्त हम सभी को वह बात गलत नज़र क्यूँ आने लगती है।  

आखिर ख़त्म करने से पहले भी उसके माता या पिता ने अपने उस बच्चे के भविष्य के बारे में सोचा ही होगा तभी इतना बड़ा और कठिन कदम उठा पाते हैं लोग और फिर इस तरह की घटनाओं में हो रही वृद्धि का कारण केवल वो माता या पिता नहीं, जो अपने बच्चों के साथ ऐसा करते हैं। माना कि आत्महत्या करना किसी समस्या कोई हल नहीं, मगर यह बात यदि पूरी तरह गलत है, तो कुछ हद तक शायद सही भी हो। क्यूंकि आत्महत्या का अहम कारण यदि बढ़ती आबादी है तो कहीं न कहीं उसका एक अहम कारण आज के हालात भी हैं जैसे बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, आजकल का डरावना और असुरक्षित वातावरण जहां सिर्फ पैसे वालों का राज हैं गरीब की कोई कीमत नहीं, न सिर्फ गरीब बल्कि आम आदमी यानि मध्यम वर्ग की भी कोई खास सुरक्षा व्यवस्था नहीं है। वहाँ यदि इन सब परिस्थितों के बारे में सोचते हुए अपने बच्चों का भविष्य देखते होंगे गरीब माँ-बाप, तो शायद उन परिस्थितियों में यही एक कदम ठीक नज़र आता होगा उन्हें, वरना यूं ही अपने हाथों से अपने ही बच्चों की जान ले लेना इतना भी आसान नहीं, उनके बाद उनके बच्चों का क्या होगा? कौन उनका ख़्याल रखेगा? कौन उनकी देख भाल करेगा? यह सब सोचकर ही शायद उनके माता पिता यह कदम उठाने के लिए खुद को बेहद मजबूर पाते होंगे। नहीं?? तभी वह ऐसा करने के लिए विवश हो जाते होंगे। वैसे भी देखा जाये तो जब किसी के मन में एक बार ज़िंदगी की मार झेलते-झेलते आत्महत्या का विचार घर कर ले तो लगभग उस व्यक्ति का दिमाग काम करना बंद ही कर देता है। फिर आप लाख समझालो ज़्यादातर व्यक्ति आत्महत्या कर ही लेते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है, कि इस नज़रिये से देखा जाये तो इसमें क्या गलत है, मैं जानती हूँ यहाँ शायद आप सबको यह सब पढ़कर ऐसा लग रहा होगा कि मैं आत्महत्या जैसे अपराध को बढ़ावा दे रही हूँ। मगर ऐसा है नहीं, बात दरअसल यह है कि हमारे समाज में लोग दो मुंही छुरी की तरह व्यवहार करते हैं। यदि कभी किसी का कोई जवान बेटा आत्महत्या कर ले, तो भी लोग यही कहते हैं, कि देखो अपने बूढ़े माता-पिता के बारे में एक बार भी नहीं सोचा और इतना बड़ा कदम उठा लिया और यदि किसी कि जवान बेटी ऐसा कुछ कर ले तो और सौ (100) तरह की बातें होने लगती हैं। लेकिन आत्महत्या करने जैसे उठाये गए इतने बड़े कदम के पीछे कारण क्या रहा होगा कि सामने वाले ने ज़िंदगी जीने से ज्यादा मौत को अपनाना ज्यादा आसान समझा इस बात पर ना तो कोई ध्यान देता है ना ही कोई ध्यान देना चाहता है इसी तरह जब कोई पुरुष आत्महत्या कर ले तो लोग कहते हैं परिवार के बारे में सोचना चाहिए था छोटे-छोटे बच्चे हैं उनका क्या होगा वगैरा-वगैरा....और स्त्री कर ले तो भी वही पचास तरह की पच्चीसियों बातें। यानि मरने के बाद भी लोग ताना मारने और बुराई करने से बाज़ नहीं आते और इतना ही नहीं कई बार तो लोग उस मरने वाले व्यक्ति के परिवार का जीना भी हराम कर देते हैं। तो ऐसे में यदि कोई अपने पीछे समाज का नज़रिया और उसकी संकीर्ण मानसिकता को सोचते हुए अपने बच्चों के साथ खुद को ख़त्म कर लेता है तो इसमें गलत क्या हुआ।?

हांलांकी में यहाँ आत्महत्या के पक्ष में नहीं बोल रही हूँ और ना ही मैं इस तरह कि हो रही घटनाओं से सहमति रखती हूँ, कि जो हो रहा है वह सब सही है और मैं उस से सहमत हूँ ना!!! बिलकुल नहीं मेरी नज़र में तो आत्महत्या से बड़ी कायरता ओर कोई नहीं।  

मगर फिर भी जिस व्यक्ति ने ऐसा कुछ किया यदि उसकी नज़र से देखो या सोचने का प्रयास करो कि आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी रही होगी कि जिसके आगे उसे अपने साथ-साथ अपने परिवार की जान लेना ज्यादा आसान लगा होगा तो कभी-कभी किसी विषय, विशेष को लेकर कई बार लगने भी लगता है, कि शायद उसके पास वाकई इसके अलावा और कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं होगा परिस्थितियों ने वरना तो, अपनी जान सभी को प्यारी होती है। इतना भी आसान काम नहीं है आत्महत्या कर लेना। हांलांकी इन सब बातों के बावजूद भी यह कहना गलत नहीं होगा कि "जहां चाह हो वहाँ राह भी निकल ही आती है" बस ज़रूरत होती है थोड़े से होंसले और सब्र की, मगर शायद ऐसा करने वाले व्यक्ति को यही सब्र और जीने का होंसला उस वक्त नहीं मिल पाता होगा। जब उनको इसकी सबसे जरूरत होती होगी। इसलिए वह ऐसा कदम उठाने पर मजबूर हो जाते है।   
आप सभी को क्या लगता है अपने साथ अपने बच्चों की भी जान लेनी वाली घटनाओं में होती वृद्धि कहाँ तक सही है।

31 comments:

  1. sahi to nhi hai,mahilye apne baad bachho ki kharabi se dar se log aaise karte hai

    आखिर असली जरुरतमंद कौन है
    भगवन जो खा नही सकते या वो जिनके पास खाने को नही है
    एक नज़र हमारे ब्लॉग पर भी
    http://blondmedia.blogspot.in/2012/05/blog-post_16.html

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  2. आपका कहना सही है आत्महत्या किसी समस्या का हल नही मगर मजबूरीवश ऐसा कदम जो उठाते हैं तो उनके लिये भी ये कदम उठाना इतना आसान नही होता होगा क्योंकि जान सभी को प्यारी होती है चाहे इंसान कितना भी मजबूर हो और यदि वो मजबूरी से भी बढकर दुष्कर जीवन जी रहा हो तो शायद उस वक्त उसकी सोचने समझने की शक्ति कितनी कुंद हो जाती होगी आपने इस दृष्टि से सही विश्लेषण किया है फिर भी यही कहा जायेगा कि आत्महत्या करना गलत ही है………बस नज़रिये का ही फ़र्क होता है या कहिये परिस्थितियाँ ही ऐसा करवा लेती हैं।

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  3. आत्महत्या वह स्थिति है , जहाँ कोई सोच हाथ नहीं पकडती .... गलत सही कहकर भी क्या ! बच गए तो नसीहतें , नौबत से बेखबर .... आत्महत्या अकेले हो या सामूहिक , मिठाई खाने जैसी बात नहीं

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  4. पश्चिमी दुनिया का नंगापन हिंदुस्तान में भी आम होता जा रहा है। नई तालीम दिलाने वाले मां-बाप अपनी औलाद के लिए ऊंचे ओहदे का ख़याल तो रखते हैं लेकिन उसके किरदार का क्या होगा ?
    इसे वे भुला देते हैं।
    यही वजह है कि अकेले बेंगलुरू में ही हर साल 2 हज़ार से ज़्यादा लोग ख़ुदकुशी कर रहे हैं।
    वर्ष 2011 में पूरे भारत में 6 लाख लोगों ने आत्महत्या की थी।
    ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार हरेक चौथे मिनट पर एक भारतीय आत्महत्या कर रहा है। बड़ों की सोच ही बच्चों के मन में बैठती जा रही है।
    नंगेपन और ख़ुदकुशी दोनों का इलाज है इसलामी सोच।
    कुछ लोगों को नागवार लगे तब भी बच्चों की जिंदगी बचाने के लिए यह बताना ज़रूरी है कि आत्महत्या की दर मुसलमानों में सबसे कम है विश्व के अन्य समुदायों की अपेक्षा।
    कृप्या सोचें।
    यही बात कन्या भ्रूण हत्या के बारे में है।
    जो बात मुसलमानों की अच्छी है उनसे सीख लो।
    जो बात आपकी अच्छी है उसे उन्हें सिखा दो।
    निकृष्ट का परित्याग ऐसे ही संभव है।

    आपकी पोस्ट अच्छी है और ब्लॉगिंग का सार्थक इस्तेमाल यही है।
    http://tobeabigblogger.blogspot.in/2012/05/blog-post.html

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  5. आज (१६-५-२०१२) के पेपर में भी न्यूज़ है कि एक अमेरिकी माँ अपने बच्चे के साथ दफन होने के *सनक* में आ कर बच्चों को गोली मार कर आत्महत्या करली ....

    आत्महत्या एक *सनक ही है .... जीना कठिन तो जरुर होता है .... नामुमकिन नहीं ....

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  6. गलत तो सभी हैं --हत्या , आत्महत्या , और सामूहिक आत्महत्या भी .
    कारण कुछ भी हो , अंत में मनुष्य की मानसिक स्थिति जो डिप्रेशन की शिकार होती है -- इसकी जिम्मेदार है . यह एक पल होता है जिसे यदि टाल दिया जाए तो जान बच सकती है .

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  7. हत्या हो आत्महत्या चाहे सामूहिक आत्महत्या,,है तो गलत लेकिन लोग डिप्रेशन में ऐसी गलती कर जाते है,..

    MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बेटी,,,,,

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  8. bahut pareshani ke hakaat hen

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  9. वास्तव में सबसे गलत तो वह परिस्थिति है जिसके कारण इस तरह की स्थिति आती है. हमारी ओछी मानसिकता और लालच ने ही तो यह स्थिति उत्पन्न की है.

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  10. suicide is crime against society, does not matter it has been committed alone or in group.its a coward step of dipressed mind . nice read.

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  11. काश जीवन बचा रहे, जीवन को आधार और कारण मिलता रहे।

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  12. मार्मिक ।
    जीवन महत्वपूर्ण है ।।

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  13. मेरी नज़र में आत्महत्या ही गलत है चाहे वो कैसी भी हो .......सही और गलत के बीच एक हल्की सी लकीर होती है और वो कभी-कभी दिखाई नहीं देती और इंसान गलत कदम उठा लेता है .......आपका आलेख बहुत सी बातें सोचने को मजबूर करता हैं ,आत्महत्या कोई भी समस्या का हल नहीं है बल्कि मुझे तो ये एक संक्रमित बीमारी सी लगती है जिससे कई लोग प्रेरित हो जाते हैं ...

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  14. हालाकी इन सब बातों के बावजूद भी यह कहना गलत नहीं होगा कि "जहां चाह हो वहाँ राह भी निकल ही आती है" बस ज़रूरत होती है थोड़े से होंसले और सब्र की, मगर शायद ऐसा करने वाले व्यक्ति को यही सब्र और जीने का होंसला उस वक्त नहीं मिल पाता होगा। जब उनको इसकी सबसे जरूरत होती होगी। इसलिए वह ऐसा कदम उठाने पर मजबूर हो जाते है।

    अत्महत्या करने का निर्णय डिप्रेशन के शिकार लोग ही लेते हैं ॥उस समय कोई हौसला मिल जाये तो यह स्थिति टल भी सकती है ... लेकिन सामूहिक अत्महत्या सच ही किसी बड़ी मजबूरी में ही किया जाता है ... विचारणीय लेख

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  15. आत्‍महत्‍या जैसा निर्णय निश्चित तौर पर हताशा की चरम सीमा पर पहुंचकर ही लिया जाता है जहां सभी रास्‍ते बंद हो चुके होते हैं पर सामूहिक तौर पर आत्‍महत्‍या काफी कुछ सोचने को विवश कर देती है ...

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  16. जीवन ईश्वरीय देन है..विचारणीय लेख

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  17. आत्म हत्या कोई खेल नहीं है ,कोई यूं ही इतना बड़ा निर्णय नहीं लेता। जब कोई रास्ता नहीं रह जाता तभी यह सोच मन मे आती है।


    सादर

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  18. कल 18/05/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  19. आपकी पोस्ट 17/5/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें

    चर्चा - 882:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  20. प्रस्तुति काबिले-तारीफ है...!
    जिंदगी से बड़ा तो कोई कारण हो नहीं सकता कि फ़ोकट में मौत को आत्मसात कर लें।आत्महत्या के बारे में सोचना भी एक छद्म हत्या है खुद की ।जिंदगी बड़ी खुबसूरत है कोई बताएं ये सब उन लोगो को जो विवशता और बुझदिली के किलों में रहने के शौक़ीन मिजाज़ है...

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  21. जीवन में परिस्थितियाँ बहुत कुछ तय कराती हैं, पर यक़ीनन जीवन को सहेजा जाये इससे बेहतर कुछ नहीं ..... सधी हुई विचारणीय पोस्ट

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  22. jeevan kaise bhi khatm karne ki koshish karna galat hai... vicharniya post

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  23. जीवन खत्म करना अपराध है.और अपने साथ बच्चों का भी...ये तो हत्या हुई...किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं.

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  24. इश्वर न करे किसी घर में कोई ऐसी घटना कभी न घटे .. जब भी किसी घर में ऐसी घटना को देखा है मन बार वही घूम फिर वहीँ मंडराने लगता ... परिवार की क्या दशा होती है यह देखते नहीं बनती हैं ... लेकिन सबके अलग कारण होते हैं ..
    बढ़िया विचारोपरक आलेख

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  25. आदमी जब डिप्रेसन में होता है तो उसके सोचने समझने की शक्ति खत्म हो जाती है और उसे मृत्यु के अलावा और कोई हल नहीं सूझता. वह सोचता है कि उसकी मृत्यु के बाद बच्चे अनाथ हो जाएंगे और कौन उनकी देखभाल करेगा, इसलिये आत्महत्या करने से पहले वह बच्चों की भी हत्या कर देता है. हत्या या आत्महत्या किसी तरह उचित नहीं लेकिन एक डिप्रेसन से घिरा आदमी इसके अलावा कुछ सोच नहीं पाता. यह एक बीमारी है जिसका इलाज़ ज़रूरी है, न कि उसके निर्णय पर कोई गलत या सही का फैसला देना. बहुत सुन्दर और विचारोत्तेजक आलेख...आभार

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  26. पल्लवी जी,सबसे पहले तो मैं यही कहूंगा कि आत्महत्या दुनिया का सबसे बड़ा पाप और कायरतापूर्ण कार्य है। यह बात सभी पढ़े लिखे व्यक्ति जानते ही होंगे।---लेकिन उसके बावजूद आज समाज में ऐसी घटनायें हो रही हैं। इसके पीछे बहुत सारे कारण हो सकते हैं--विषम आर्थिक परिस्थितियां/मानसिक तनाव/गृह कलह--वगैरह। लेकिन सबसे बड़ा कारण जैसा कैलाश जी ने भी लिखा है--वो है ऐसी विषम परिस्थितियों के कारण पैदा हुआ अवसाद---जिसमें कि व्यक्ति अपनी सोचने समझने की पूरी शक्ति खो बैठता है। इससे उबरने का बस एक रास्ता है---दवाएं,व्यक्ति को उन स्थितियों से दूर करना जिससे वो अवसाद में आया,उसे अनुकूल माहौल देना।
    शायद आपने समाचारों में पढ़ा भी हो कि अभी लखनऊ के एक अधिकारी(एस डी एम) ने सल्फ़ास खाकर आत्महत्या कर ली।जब कि कार्यालय से लेकर उनके घर तक का पूरा माहौल उनके बहुत अनुकूल था और वो काफ़ी लोकप्रिय भी थे।-----आज समाजषस्त्रियों,मनोचिकित्सकों को इस दिशा में काफ़ी प्रयास करने की जरूरत है।--अपने बहुत ही ज्वलन्त मुद्दे को लेकर एक प्रभावशाली लेख लिखा है।---हेमन्त

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  27. बहुत सुन्दर और जागरूक करती पोस्ट |आत्महत्या को मैं भी कायरता मानता हूँ |
    अभी एक शेर भी मैंने कहा है -जिंदगी बाँह में बांधा हुआ ताबीज नहीं /गर मिली है तो इसे जीने की कूवत रखना |

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  28. सही है आपकी बात..

    ज्यातादर आत्महत्या डिप्रेसन की वजह से होता है..और ये डिप्रेसन किस तरह की चीज़ है इसे खूब अच्छी तरह समझ सकता हूँ!!
    और जहाँ तक बात रही की अपने साथ साथ पुरे परिवार की जान लेने की..तो सोचिये किस परिस्थितियों में ये कदम लोग उठाते होंगे!!

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  29. आत्महत्या एक प्रकार की बीमारी है. विपरीत परिस्थितियाँ व्यक्ति को इस हद तक मानसिक रूप से बीमार कर सकती हैं कि वह परिवार सहित जीवन से बाहर चला जाए. महिमामंडित सती प्रथा इसी बीमारी का एक रूप है. बहुत बढ़िया आलेख.

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