मेरा बहुत ज्यादा दिमाग खराब हो जाता है जब ऐसा कुछ कहीं पढ़ने को मिले। आखिर कब समझेंगे हम यह इतनी सी बात कि सच्चा दान वही होता जिसका प्रचार न किया जाये। क्यूंकि दिखावे और आडंबरों से ना तो भगवान प्रसन्न होते हैं न इंसान, यहाँ तक कि जिस उद्देश्य को लेकर दान किया जाता है अर्थात मन की शांति वह भी दिखावे से हासिल नहीं होती।
गांधीनगर गुजरात के रूपाल गांव में नवमी पर पल्ली के रूप में माता की सवारी पर भक्तों ने साढ़े पांच लाख किलो घी चढ़ाया जिसकी कीमत करीब 16 करोड़ रुपए आंकी गई। जिसके चलते सड़कों पर मानो घी की नदियाँ बह गयी ...
हम क्या आस्था के नाम पर इतने अंधे हो गए हैं कि हमें सही और गलत में फर्क दिखना भी बंद हो गया है। खुद को पढ़ा लिखा और समझदार समझने वाले हम आप जैसे लोग ऐसी हरकतें करेंगे, मुझे तो यह सोचकर भी शर्म आती है। क्या यही एक प्रगतिशील देश की निशानी है। एक तरफ तो रुपया गिरा जा रहा है जिसके चलते महँगाई की मार से पूरा देश आहत है वहाँ दूसरी और ऐसी बरबादी। मेरी समझ में तो यह नहीं आता कि आखिर हम साबित क्या करना चाहते हैं। आस्था के नाम पर यूं भी हम खाने की बरबादी सदियों से करते चले आ रहे हैं। वह क्या कम था, जो अब घी की नदियाँ बहाने पर आमादा हो गए हैं। क्या मिलेगा इस सब से, अगर इस सब से लोग यह मानते है कि देवी प्रसन्न होंगी। तो मुझे तो यह लगता है कि बजाय इस सब से प्रसन्न होने के देवी और ज्यादा नाराज़ हो जाएंगी। अरे कभी भगवान के बारे में भी तो सोचो, उन्हें कैसा लगता होगा। वह भी तंग आ जाते होंगे एक सीमा के बाद इस तरह के अंधविश्वास और ढकोसलों से, मगर वह बोल नहीं सकते और हम मूर्खों की भांति बस लगे रहते हैं उन पर इस प्रकार अत्याचार करने। आखिर क्या वजह है, हम सब कभी यह क्यूँ नहीं सोच पाते है कि यह सब करके हम स्वयं बाक़ी देशों के सामने अपनी छवि खराब कर रहे हैं। यह सब देख सुनकर या पढ़कर हँसते होंगे अन्य देशों के लोग हमारी मूर्खता पर, यूं भी हम पहले ही सरकार, प्रशासन और कानून के मामलों को लेकर दुःखी हैं। क्यूंकि उन्हें तो आम जनता की न कभी फिक्र थी, न है। वह सदा ही केवल अपना उल्लू सीधा करने का मार्ग तलाशते रहते हैं। तो ऐसे हालातों में कम से कम हमें तो अपने आस पास के लोगों के विषय में सोचना चाहिए, पित्रपक्ष के चलते बुज़ुर्गों के श्राद्ध के बहाने न जाने कितनी बड़ी संख्या में हम अन्न की बरबादी करते है उसके बाद नवरात्रि में कन्या भोज और फिर दीपावली पर घर की साज सज्जा से लेकर आतिशबाज़ी एवं पकवान आदि का दिखावा वह भी विदेशी चीजों को लेकर यह सब क्या कम था। जो लोग अब इस तरह से घी की नदियाँ बहाने पर आमादा है। अरे अगर इतना ही पैसा है लोगों के पास तो उसे किसी महत्वपूर्ण कार्य करने में इस्तेमाल क्यूँ नहीं किया जाता हैं। 16 करोड़ कोई छोटी मोटी बात नहीं है। इतने में तो एक शहर या एक पूरे गाँव का उद्धार किया जा सकता था। कितने ही ग़रीबों को न केवल भोजन बल्कि रहने के लिए एक सुरक्षित स्थान और पहनने के लिए ढंग के कपड़े मुहैया कराये जा सकते थे। कितने ही अनाथालयों की निजी ज़रूरतों को पूरा किया जा सकता था। कितने ही बेरोज़गारों को रोजगार दिया जा सकता था। कितने ही किसान भाईयों का कर्ज़ चुकाया जा सकता था। कितने ही स्कूल खोले जा सकते थे या फिर और कुछ नहीं तो कम से कम सरकारी स्कूलों की व्यवस्था में तो सुधार लाया ही जा सकता था। हज़ारों मसले है जिन पर यदि गौर किया जाता तो शायद भगवान इस घी की नदी की तुलना में इस सबसे ज्यादा प्रसन्न होते। पर नहीं बेजान मूर्तियों पर पैसा पानी की तरह बहाना मंजूर हैं हमें, लेकिन किसी जरूरतमंद की मदद् करना तो हमारी शान के खिलाफ है। क्यूंकि किसी गरीब जरूरतमंद की मदद करने से भला हमें क्या मिलेगा। उसे तो मीडिया भी कवर नहीं करता। किसी को पता ही नहीं चलेगा कि हमने किसी के लिए कुछ किया, तो फिर इस सब का फायदा ही क्या होगा। इसे तो भगवान के नाम पर सोना चढ़ा देने से या फिर घी की नदियाँ बहाने से तो अपने आप ही मीडिया को पता चल जाएगा। तो पब्लिसिटी मिलना तय है और क्या चाहिए। आजकल तो इंसाफ़ भी बिना पब्लिसिटी के नहीं मिलता तो फिर नाम कमाने के लिए तो पब्लिसिटी अनिवार्य है और हम कह रहे हैं हो रहा भारत निर्माण वाह !!!
जय हो... जय हिन्द..
जिस देश के ज्यादातर लोगों को अच्छा खाना, कपड़ा, घर, बीमार पड़ने पर दवा या अस्पताल की सुविधा जैसी मूलभूत जरुरतें नहीं मिल पा रही हैं वहां इस तरह से पत्थर की मूर्तियों पर अंधविश्वास के चलते टनों घी बहाकर करोड़ो रुपयों की बर्बादी करना निश्चित रुप से यह भारत और इसकी मानवीय विचारधारा की अधोगति है। ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर संवेदनशील तरीके से विचार प्रस्तुत करना सार्थक लेखकीय सरोकारों को इंगित करता है।
ReplyDeleteकब हम अंधविश्वासों के जाल से बाहर निकलेंगे....बहुत विचारणीय आलेख...
ReplyDeleteye hamare andhvishvas ke karan hi hota hai , chahe ghar men khane ko na ho lekin agar aisa koi bhi avasar aata hai to har ghar se shagun ke liye kuchh na kuchh jaroor kiya jata hai . doodh aur ghee kee nadiyan hamesha isi tarah se bahati hui dekhi ja sakati hain . ye kabhi kam hoga lagata nahin hai .
ReplyDeleteये एक ऐसा अपराध है जो माफ़ी के लायक नहीं है ... भार जैसे देश में जहां करोड़ों लोगों को एक समय का भोजन नहीं मिल पाता वहां संसाधनों, धन ओर भोजन की इतनी बेकदरी ... वो भी सिर्फ आस्था के नाम पे ... नारायण को पाने के लिए पहले नर को पाना होगा सेवा से ... ये क्यों नहीं समझ पाता इंसान ...
ReplyDeleteहम मूर्खों की भांति बस लगे रहते हैं
ReplyDeleteहम मूर्खों की भांति बस लगे रहते हैं
ReplyDeleteआडम्बर, दिखावा, अंधविश्वास ,धार्मिक पागलपन, यही है जो भारत को पीछे धकेल रहा है |राजनैतिक पार्टियाँ धर्नाधता का फ़ायदा उठाराहे हैं
ReplyDeleteatest post महिषासुर बध (भाग २ )
आस्था के नाम पर पैसे का दुर उपयोग ,,,
ReplyDeleteकाव्यान्जलि: हमने कितना प्यार किया था.
ऐसे कार्यक्रम के आयोजकों को पकड कर जेल मे डाल देना चाहिये. यह सरासर मूर्खता है !
ReplyDeleteविचारणीय आलेख.....
ReplyDeleteउद्वेलित करता आलेख
ReplyDeleteक्या बात वाह! समझो बहार आई
ReplyDeletefully fully agreed......nice written Pallavi
ReplyDeleteशुक्रिया इमरान ...
ReplyDeleteयह अंधश्रध्दा है, बेवकूफी है, अक्षम्य सामाजिक अपराध है. हे प्रभु इन्हें क्षमा मत करना क्योंकि ये जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं।
ReplyDeleteसच एवं सटीक बात ...... ज़रूर है ऐसे मामलों को अनदेखा न किया जाये , समय रहते ही चेतें हम
ReplyDeleteजितना चढ़ावा मंदिरों में दिया जाता है यदि जरूरत मंदों पर खर्च किया जाए तो कोई भूखा न रहे .... विचारणीय लेख ।
ReplyDelete"आजकल तो इंसाफ़ भी बिना पब्लिसिटी के नहीं मिलता'- ग्रेट कमेंट पल्लवी बिटिया. मैं मान गया. ग्रेट !!!!
ReplyDeleteआश्चर्य व खेद मुझे भी हुआ पर आपने उसे अच्छे तरीके से व्यक्त भी कर दिया । महा शिवरात्रि पर जब दूध को पैरों में कीचड बनता देखती हूँ तब भी यही सोचती हूँ कि यह कौनसा रूप है श्रद्धा-भक्ति का ।
ReplyDeleteबहुत उम्दा आलेख...बधाई...
ReplyDeleteवाह!!! बहुत सुंदर !!!!!
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई--
उजाले पर्व की उजली शुभकामनाएं-----
आंगन में सुखों के अनन्त दीपक जगमगाते रहें------
हम कब ऐसे ढकोसले से बाहर निकलेंगे !!
ReplyDeleteगरीबी से त्रस्त हम लोग और अपने को गरीबी के जाल मे फांस रहे ........
मेरे ब्लॉग कि नयी पोस्ट आपके और आपके ब्लॉग के ज़िक्र से रोशन है । वक़्त मिलते ही ज़रूर देखें ।
ReplyDeletehttp://jazbaattheemotions.blogspot.in/2013/11/10-4.html
यही बहुत है और क्या चाहिए ?
ReplyDeleteपुनर्जन्म परामनोविज्ञान के अंतर्गत आता है . विदेशो में इस पर काफ़ी रिसर्च चल रहे है , अपने देश में लगभग नहीं . हमारा देश इस मामले में बहुत पिछड़ा है . मै अपने प्रायोगिक अनुभव अपने हिंदी ब्लॉग के जरिये प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमे अनेक प्रश्नो के उत्तर बुद्धिजीवी वर्ग को मिल जायेंगे -
ReplyDelete-रेणिक बाफना
मेरे ब्लॉग :-
१- मेरे विचार : renikbafna.blogspot.com
२- इन सर्च ऑफ़ ट्रुथ / सत्य की खोज में : renikjain.blogspot.com
परामनोविज्ञान पर काफ़ी रिसर्च चल रहे है , अपने देश में लगभग नहीं . हमारा देश इस मामले में बहुत पिछड़ा है . मै अपने प्रायोगिक अनुभव अपने हिंदी ब्लॉग के जरिये प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमे अनेक प्रश्नो के उत्तर बुद्धिजीवी वर्ग को मिल जायेंगे -
ReplyDelete-रेणिक बाफना
मेरे ब्लॉग :-
१- मेरे विचार : renikbafna.blogspot.com
२- इन सर्च ऑफ़ ट्रुथ / सत्य की खोज में : renikjain.blogspot.com
आज भी अंधविश्वास अपने पाँव पसारे हुए है
ReplyDeleteविश्वास और अन्धविश्वास के बारे में प्रायोगिक अनुभव बांटने के लिए लिखा गया ब्लॉग (हिंदी में ), पढते रहिये -
ReplyDelete१- मेरे विचार : renikbafna.blogspot.com
२- इन सर्च ऑफ़ ट्रुथ / सत्य की खोज में - renikjain.blogspot.com
द्वारा - रेणिक बाफना , रायपुर (छ .ग .), भारत
पाखण्ड पंडो , पुजारियों के कारण ही फ़ैल रहा है , जो अपने धंधे को जमाये रखने के लिए प्रपंच रचते रहते है . जीवन भर एक पुजारी(भगवान का एजेंट) पूजा करता रहता है फिर भी सिद्धि नहीं मिलती/दर्शन नहीं होते जबकि जंगल में बैठा एक तपस्वी जिसके पास दिया, तेल, घी, अगरबत्ती, धूप, फूल,मिठाई आदि नहीं होता फिर भी भगवान उसके सामने प्रकट हो जाते है ! भगवान ने किसी को अपना दलाल या कमीशन एजेंट नहीं बनाया , फिर भी लोग पागलो की तरह पीछे भागते है !
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