मृत्यु जीवन का एक शाश्वत सत्य, जिसे देख जिसके बारे में सुन आमतौर पर लोग भयभीत रहते हैं। लेकिन मेरे लिए यह हमेशा से चिंतन का विषय रहा। इससे मेरे मन में सदा हजारों सवाल जन्म लेते हैं। जब भी इस विषय से जुड़ा कुछ भी देखती या पढ़ती हूँ तो बहुत कुछ सोचने लगती हूं। या इस विषय को लेकर मेरे मन में सोचने-समझने की प्रक्रिया स्वतः ही शुरू हो जाती है।
कल अपनी एक सहेली से बात करते वक्त अचानक उसने बात काटते हुए कहा, ‘यार...! मैं बाद में बात करती हूं। कुछ गंभीर बात है। यहाँ अपना करीबी रिश्तेदार गुजर गया है।’ सुन कर मैंने कह तो दिया कि ठीक है बाद में बात करेंगे लेकिन दिमाग में जैसे बहुत कुछ घूमने लगा। बाल्यकाल में अपनी नानी, दादी और फिर उसके बाद अपने नाना की मृत्यु देखी। चारों ओर ग़मगीन माहौल में माँ का रो-रोकर बुरा हाल देखा लेकिन यह सब देखने के बाद भी मेरी आँखों में कभी आँसू की एक बूंद भी नहीं उभरी। ऐसा क्यूँ, इस बात का जवाब मेरे पास भी नहीं है। उस वक्त बड़ों को लगा होगा कि बच्ची है, इसे समझ नहीं है अभी कि अपनों को खो देने का दर्द क्या होता है। या शायद इतने सारे लोगों को रोता देख चकित हो कि ऐसा क्या हो गया जो सभी लोग रो रहे हैं।
लेकिन सच कहूँ तो 4-5 साल की छोटी उम्र में भी मेरे मन में यह विचार कभी नहीं आए। बल्कि यह सब देख मन में एक कौतूहल रहता कि बस एक बार किसी तरह मृत शरीर का मुख देखने का अवसर मिल जाये बस। बड़ों के लाख समझाने, यह बताने पर भी कि मृतक का मुख देख कर तुम्हें केवल यही लगेगा कि वह निद्रालीन है, उसे देख कर भला मुझे क्या मिलेगा जो मैं इतनी बेचैन हो रहती हूं किसी दिवंगत आत्मा के मृत मुखमंडल देखने के लिए। मुझे भी आज तक समझ नहीं आया कि मुझे ऐसा क्यों लगता था और आज भी लगता है। लेकिन ऐसा मुझे मेरे अपनों के लिए ही महसूस नहीं होता है। बल्कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु पर मेरे मन में उसका चेहरा देखने मात्र की उत्सुकता स्वतः ही उत्पन्न होने लगती है। उस वक्त जाने क्यों मेरे मन में अजीब-अजीब विचार आने लगते। सब कुछ रहस्यमय लगने लगता। ऐसा क्यों हुआ? और यदि हुआ तो अब इस अवस्था में क्या सोच रहा होगा उसका मृत शरीर। हालांकि मुझे भलीभांति पता है कि मृत है तो सोच कैसे सकता है। फिर भी मन में रह-रह कर यही विचार आता है कि कैसा लग रहा होगा उस मरे हुए व्यक्ति को उस वक्त, जब वो अपने आस-पास प्रियजनों को इस तरह रोते-बिलखते बंद आँखों से भी देख रहा होगा। क्या उसका ध्यान सभी पर जा रहा होगा! या उनमें से कोई एक खास होगा, जिसे भरी भीड़ में भी ढूंढ लेंगी उसकी वो बंद आंखें और पढ़ लेंगी उसके मन का सच। क्या सच में 13 दिनों तक मृतक की आत्मा घर में रहती है। शायद सही ही है। यह मोह-माया का संसार यों एक ही पल में छोड़ कर चले जाना भी संभव नहीं इंसान के लिए। इसलिए शायद विधाता भी तेरह दिन की मोहलत और दे देता होगा इंसान को कि देख ले तेरे चले जाने से भी, न दुनिया रुकी और ना रुकेगी कभी। लेकिन फिर भी कुछ तो होता है उन दिनों। ऐसे ही एहसास नहीं होता उस व्यक्ति की मौजूदगी का हमें कि वो यही कहीं है हमारे आस-पास लेकिन हम उसे देख नहीं पाते। इसलिए शायद मेरे मन में यह कौतूहल रहा करता है। या शायद सभी को ऐसा लगता है। क्या सभी ऐसा सोचते हैं? यदि सोचते हैं तो फिर बच्चों को क्यों कहानियाँ बना कर सुनाते हैं। सच क्यों नहीं बताते उन्हें। मेरा तो मन श्मशान जाने को भी करता है।
मुझे लगता है कि एक बार देखूं तो जलती हुई चिता किसी की। कैसा लगता है उस वक्त। मन में तो खयाल आता है कि उस चिता की लपटों से भी कोई आवाज जरूर आती होगी। बातें करना चाहती होंगी वो आग की लपटें भी। मरने वाला व्यक्ति भी वो सब कहना चाहता होगा जो वह अपनी जिंदगी में कह नहीं पाया। कैसी अजीब छटपटाहट होती होगी ना वो। चिता के धुएँ में घुट कर रह जाती होगी उसकी आवाज क्योंकि शरीर जो साथ नहीं है उसके। लेकिन क्या कभी कोशिश की जाती है ऐसी किसी आवाज को सुनने की, उसे महसूस करने की। क्या चल रहा होता है उस वक्त उस व्यक्ति के मन में और वहाँ उपस्थित सभी लोगों के मन में जो श्मशान जाते हैं। क्या उन्हें सुनाई देती है कोई आवाज या महसूस भी होता है ऐसा कुछ कि उनके आस-पास की हवा में कुछ है। जो उनसे बहुत कुछ कहना चाहता है। शायद नहीं! अगले ही पल फिर ख्याल आता है कि जाने वाले के चले जाने का उसकी चिताग्नि के कम होने के साथ ही दुःख कम होने लगता होगा। कैसा होता होगा वो मंजर। कहाँ तो हमें आग की एक चिंगारी मात्र से जल जाने पर इतनी पीड़ा होती है। और कहाँ किसी अपने को आग के हवाले करने की पीड़ा और घर लौटते वक्त जैसे सब खत्म...और फिर सभी की जिंदगी आ जाती है पुराने ढर्रे पर...क्या कोई जवाब है मेरे इन प्रश्नों का? ऐसा सिर्फ मुझे ही लगता है या सभी ऐसा सोचते हैं? मेरे दोस्त कहते हैं इस मामले में मैं पागल हूँ। कुछ भी सोचती हूँ, कुछ भी कहती हूँ। आप सबको क्या लगता है।
बहुत अजीब सी स्थिति होती है .....कौतुहल और जिज्ञासा का अद्भुत मिश्रण है इस आलेख में ...!!!
ReplyDeleteजीवन-मृत्यु ही तो श्रेष्ठ सांसारिक आश्चर्य हैं।
ReplyDeleteइस बार बहुत ही दार्शनिक विषय पर लेख है |
ReplyDeleteहाँ ये सब कल्पना करके दुःख या सुख का अनुभव हम स्वयं करते हैं परन्तु सच इससे अलग है आत्मा एक शरीर छोड़ने के बाद दूसरा सरीर धारण कर लेती है | मन को बोझिल मत कीजिये |
ReplyDeletebilkul sahi bat pr aatma sharir chhodane ke bad doosara sareer dharan kar leti hai .
ReplyDeleteआज तो कुछ ज्यादा ही सोच गई आप ! इतना नहीं सोचना चाहिये जी ! किसी की मृत्यु पर बच्चों को कुछ अहसास नहीं होता क्योंकि तब तक उनमे वे संवेदनाएं विकसित नहीं होती . मृत शरीर तो मिट्टी समान होता है . इसीलिये कहते हैं एक दिन मिट्टी मे मिल जाना है .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (27-01-2014) को "गणतन्त्र दिवस विशेष" (चर्चा मंच-1504) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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६५वें गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जीवन मृत्यु इस संसार का खेला है ... सबको गुज़ारना है इस सत्य से ... फिर भी कोतुहूल रहता है ... एक रहस्य सदा बना रहता है मन में .. आपने अच्छे से शब्दों में बाँधा है इस माया जाल को ...
ReplyDeleteक्या कहें ...? जीवन तो ऐसा ही है ...
ReplyDeleteमृत्यु सदैव कौतुहल, रहस्य और कभी भय का विषय रहा है..मृत्यु के बारे में अनेक विचारधाराएँ इस रहस्य को और गहरा कर देती हैं. लेकिन शरीर तभी तक अनुभव करता है जब तक उसमें आत्मा है और उसके निकलने के बाद शरीर मिट्टी के समान हो जाता है. जब आत्मा का शरीर से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा तो उस शरीर और उससे जुड़े संबंधों के बारे में आत्मा का सोचने का कोई अर्थ नहीं. आपने जो प्रश्न उठाये वे हरेक व्यक्ति के मन में कभी न कभी अवश्य उठते हैं. लेकिन जब शरीर और आत्मा के संबंधों का बोध हो जाता है तो उत्तर अपने आप मिल जाते हैं. गीता का मनन इन संशयों को पूर्णतः दूर कर देता है.
ReplyDelete....बहुत सुन्दर और विचारोत्तेजक आलेख के लिए बधाई...
मोह ही मृत्यु को पीड़ादायी बना देता है, सब छोड़कर जाने की इच्छा कैसे होगी भला।
ReplyDeleteमृत्यु अरी चिरनिद्रे तेरा अंक हिमानी सा शीतल
ReplyDeleteतू अनन्त में लहर बनाती, काल जलधि की सी हलचल।
जीवन और मृत्यु संसार का नियम है चाह कर भी कोई कुछ नहीं कर सकता है.. बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
ReplyDeleteमृत्यु सिवाय उस परदे के क्या है जो हमे जीवन भर घेरे रहता है |अगर हो सके तो आप प्रिय ओशो की "मैं मृत्यु सिखाता हूँ" किताब पढ़ें | बाकि तो मरने के बाद ही रहस्यों का पता चल पायेगा :-)
ReplyDeleteमृत्यु के बाद क्या होता है या कहाँ जाना है किसे पता ? पढ़ा है की सशरीर नचिकेता ही गए थे और उनके अनुभव दिल दहला देने को काफी हैं ।
ReplyDeleteमृत्यु तो है ही लेकिन जीवन भी कम रहस्यमयी नहीं.
ReplyDeleteदार्शनिक विषय पर लेख है |जीवन और मृत्यु संसार का नियम है
ReplyDeleteयूं तो उन चंद सिक्को का मेरे कोट की जेब से निकल कर बिखर जाना कोई अचरज की बात नहीं थी। मगर मेरी निगाह अटकी थी उस लाल कालीन पर। क्यूंकि ऐसे ही बचपन में टीवी देख-देखकर मन में एक और इच्छा जागी थी कभी, दो मंजिला घर में रहने की इच्छा। जहां सीढ़ियों पर लाला रंग का कालीन बिछा हो। तब यह सिर्फ एक इच्छा थी। यह मुझे मिल ही जाये ऐसी कोई भावना नहीं थी मन में, अर्थात उसके लिए कोई ज़िद या उत्सुकता नहीं थी। बस एक इच्छा थी और कुछ ही दिनों में पापा के ट्रांसफर से वो भी पूरी हो गई थी। यह बात अलग है कि उस घर की सीढ़ियों पर कोई लाल कालीन नहीं बिछा था। जो यहाँ आकर मिला। एक बार नहीं बल्कि हर बार मिला।
ReplyDeleteपूरा संस्मरण जैसा है पढ़कर अच्छा लगा |