Saturday 25 April 2015

एक सपना

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प्राय: लोग कहते हैं कि पत्थरों को दर्द नहीं होता, उनमें कोई भावना ही नहीं होती। किन्तु न जाने क्‍यों मुझे उन्हें देखकर भी ऐसा महसूस होता है कि पत्थर सिर्फ नाम से बदनाम है। दुख-दर्द जैसी भावनाएं उनमें भी व्याप्त होती हैं। तभी तो पत्थरों में भी फूल खिल जाते हैं।

पानी भी पत्थर को काट देता है। वैसे ही जैसे कोई भारी दुख या असहनीय पीड़ा मानव मन को काट देती है। क्या कभी हम ऐसा कुछ सोच पाते हैं! तेज धूप और चिलचिलाती गर्मी में तप रहे पत्थरों के दर्द का एहसास हमें तब होता है, जब हमारे घरों की बत्ती गुल हो जाती है। वरना उसके पहले तो हम सभी अपने-अपने घरों में बंद होकर एसी और कूलर के सामने डटे रहते हैं। हम लोग तो कल्पना तक नहीं करते कि हमारे ही घर के बाहर लगे पत्थर प्रतिदिन कितनी ग्रीष्‍म-पीड़ा सहते हैं। जब शाम ढलते ही दिनभर की तपिश कम होने लगती है तब हमें शायद थोड़ा-सा एहसास होता है दूसरों की पीड़ा, उनके दुख-दर्द का। रात के अंधेरे में जब अचानक बिजली चली जाती है और पास- पड़ोस में चलते पंखों व कूलरों का शोर जब एकदम-से बंद हो जाता है, जब मच्छरों के काटने व भिनभिनाने से हमारी नींद टूट जाती है, जब पसीने में लथपथ-अधूरी नींद से जागे-उनींदी आंखों को मसलते हुए हम खीझ रहे होते हैं, तब हमें प्रकृति याद आती है। उस समय लगता है कि चाँदनी रात की ठंडक क्या होती है। चंद्रमा की मनमोहक आभा क्या होती है। उस हाहाकारी क्षण में हम किसी मृग की भांति शीतलता की तृष्‍णा में बंद कमरों से निकल बाहर छत या बालकनी में आते हैं और ढूँढने लगते हैं उस चाँद को, जिसे हम सामान्‍यत: देखते तक नहीं या उसकी उपस्थिति से अनजान ही रहते हैं।

तब ऐसा लगता है जैसे पत्थर भी हम से क्रोधित होकर यह कहना चाहते हैं कि लोग तो हमें व्‍यर्थ ही हमारे नाम से बदनाम करते हैं, हमने तो तुम से ज्यादा स्वार्थी कोई देखा नहीं, हम पत्थरों ने कभी किसी की तरफ की इच्‍छा या कामना से कभी नहीं देखा, जैसे भी हरे अपने हाल पर रहे और तुम मनुष्‍य तो इतने स्वार्थी हो कि जब तक तुम्हें किसी चीज या व्यक्ति की जरूरत नहीं होती तब तक तुम उसे पूछना तो दूर उसे देखते तक नहीं हो और जब जरूरत होती है तो उसे ही ढ़ूढने व पाने के प्रयत्‍न करने लगते हो।

लेकिन बस, अब बहुत हुआ। अब हम तुम्हें दिखाते हैं कि गर्मी की तड़प क्या होती है। गरम होकर पसीना बहाना किसे कहते हैं और फिर जब पत्थर अपनी गर्मी बरसाने पर आते हैं तो अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाता है और बड़े-बड़ों की नींद उड़ जाती है।

ऐसे में जब गर्मी से राहत पाने इच्‍छा से बिजली के इंतज़ार में दूर हाइवे पर रेंगती हुई गाड़ियों की लाल बत्तियों पर जब नज़र पड़ती है, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो यह लाल बत्तियाँ गाड़ियों की लाल बत्तियाँ नहीं बल्कि हमारे दिमाग में घूम रहे वह विचार हैं, जो व्‍यर्थ ही सोते-जागते हमारे दिमाग में घूमते रहते हैं। लेकिन बहुत चाहकर भी हम इनमें से किसी एक विचार पर अपना सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते।

यह सब देखते ही जैसे हमारी नींद पूरी तरह उड़ जाती है और हमें याद आने लगते हैं वह सारे विचार, बातें, दिनभर हमारे साथ हुई छोटी-बड़ी घटनाएं। सब कुछ एक–एक कर हमारे मस्तिष्क में किसी चलचित्र की भांति घूमने लगता है।

मुझे तो अकसर सोने से पहले यही सब कुछ याद आता है। सबके साथ ऐसा होता है या नहीं, कहना मुश्किल है। शुरुआत होती है समाचार पत्रों में छपे समाचारों को पढ़ने से। समाचार भी किसी मौसम की तरह लगते हैं। आजकल बेमौसम बारिश से नष्‍ट हुई और सूखे से बर्बाद होनेवाली फसलों से परेशान हो आत्महत्या करने को विवश किसानों की खबरों का मौसम गरमाया हुआ है। इसे मौसम कहते दुख तो बहुत होता है लेकिन सच तो यही है।

हर साल यही होता है। सरकारें बदलती हैं, नेता बदलते हैं, परंतु जो कुछ नहीं बदलता, वह है गरीब किसान की किस्मत! जिसे हर साल प्रकृतिक आपदा का सामान करते हुए भारी नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में बजाए उनकी सहायता करने के, उनकी जीवन-‍परिस्थितियों को सुधारने के नेतागण केवल अपनी राजनीतिक चालों को भुना रहे होते हैं। सभी समाचारपत्र और पत्रिकाएँ भी उन गरीब बेबस किसानों की लाचारी और उनकी मजबूरी को मसाला बनाकर बेच रहे होते हैं। यह बेहद शर्म की बात है।

हमारे देश के सभी नेता सत्ता पाते ही इतने स्वार्थी क्‍यों हो जाते हैं कि उन्हें सिवाय अपनी स्वार्थपूर्ति के और कुछ दिखाई ही नहीं देता। हर वर्ष ब्रह्मपुत्र नदी में बाढ़ आने से न जाने कितने लोग डूबकर मर जाते हैं और कितने ही गाँव बह जाते हैं, हजारों लोग बेघर हो जाते हैं, परंतु फिर भी कोई नेता इस समस्या पर ध्यान नहीं देता और घटना हो जाने पर सहायता रा‍शि देने की घोषणा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लिया करता है। मामला प्रकृतिक आपदा का हो या देश के लिए शहीद हुए सैनिकों का, सहायता राशि की घोषणा तो ऐसे की जाती है जैसे यह दे देने से जानेवाला लौटकर चला आएगा या जान की क्षति की भरपाई हो जाएगी।

यही सब सोचते हुए कल रात मुझे एक सपना आया। सपना कुछ ऐसा था कि डर है कहीं किसी दिन यह सच ही न हो जाए। मैंने देखा मैं एक अनजानी सी जगह पर खड़ी हूँ, जहां मेरे चारों ओर सिर्फ कंक्रीट का जंगल है। बिलकुल वैसा ही जंगल जैसा असली जंगल होता है। थोड़ी देर खड़ा रहकर मैंने देखा वहाँ उपस्थित सभी लोगों के हाथों में भरपूर पैसा है। इतना कि उनसे संभाले नहीं संभल रहा है। उस जगह कोई भी गरीब नहीं है। कोई भिखारी नहीं है। कोई भी भूखा-नंगा नहीं है। सभी के हाथों में सोने के सिक्के हैं और घरों में नोटों की बारिश हो रही है। लेकिन प्रत्‍येक व्‍यक्ति पैसों और सोने-चांदी के सिक्के से सम्‍पन्‍न होते हुए भी भूख से तड़प रहा है। कई तो मेरे सामने ही तड़प-तड़प कर मर गए। इंसान, हैवान बन गया है। सब एक-दूसरे को खाने पर आमादा हैं।

अचानक से मैंने कभी आज को देखा, तो कभी गुजरे हुए कल को। आज में देखा कि लोग कंक्रीट के जंगल बनाने के लिए अपनी उपजाऊ धरती व्यापारियों को बेच रहे हैं, ताकि वह उस पर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल खड़े कर सकें या फिर गगनचुम्बी इमारतें बना सकें। बीते हुए कल में देखा कि लोग उसी धरती को माँ मानकर पूज रहे हैं। भविष्य में देखा कि लोग भूख-प्यास से तड़पते हुए इन्हीं इमारतों को गिराकर वापस खेती-किसानी करने को लालायित हैं। क्यूंकि  पैसा चाहे कितना भी ताकतवर क्यूँ न हो किन्तु पेट भरने के लिए इंसान को अन्न ही चाहिए।

5 comments:

  1. लाख टके री बात है। वास्तिवकता यही होगी आने वाले दशक में !

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  2. सटीक और सामयिक रचना

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  3. बहुत ही बढ़िया आलेख भविष्य का आईना दिखा दिया आपने।

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  4. धन्यवाद आप सभी का ...

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  5. रचना दीक्षित27 April 2015 at 01:40

    सामयिक प्रस्तुति

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