Wednesday 8 April 2015

विज्ञापन और हम

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जाने क्यूँ कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि शायद मुझे इस युग में पैदा होना ही नहीं चाहिए था। क्यूंकि इस युग के हिसाब से मेरी सोच मेल नहीं खाती। मुझे हमेशा पुरानी चीज़ें आकर्षित करती है। न जाने क्यूँ मुझे पुराना ज़माना ही आज की तुलना में अधिक प्रभावित करता है। अब मुझे यह पता नहीं कि ऐसा सिर्फ मुझे ही महसूस होता है या सभी ऐसा ही महसूस करते है।

खैर अब टीवी पर प्रसारित किए जाने वाले विज्ञापनो को ही ले लो। लोगों के मन में बसे डर कमजोरियों या फिर उनकी कमियों को निशाना बनाकर धनार्जन करने की कला तो कोई इन विज्ञापन निर्माताओं से सीखे। मुझे तो कई बार ऐसा भी लगता है कि एक सामाजिक राजनैतिक या फिर कोई धार्मिक अथवा पारिवारिक धारावाहिक बनाने या लिखने से कहीं अधिक कठिन होता होगा यह विज्ञापन बनाना, नहीं! इंसान के सर से लेकर पाँव तक उपयोग में लायी जाने वाली हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीजों को लोग के समक्ष इस तरह से प्रसारित करना कि न सिर्फ देखने वाला अपितु उस विज्ञापन को सुनने वाला प्रत्येक व्यक्ति भी उस वस्तु को लेने के लिए लालायित हो जाये। अर्थात साम दाम, दंड भेद सब करके मुर्गा फंसना चाहिए बस, फिर हलाल तो वो खुद ब खुद हो ही जाएगा।

कहीं न कहीं यह विज्ञापन हमारी ज़िंदगी से जुड़ा एक अहम पहलू है। जिसे आज हर एक व्यक्ति का जन जीवन प्रभावित है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।  क्यूंकि कहीं न कहीं चाहे अनचाहे हर व्यक्ति अपनी किसी न किसी चीज़ का विज्ञापन कर रहा है। हाँ यह बात अलग है कि इंसान की ज़िंदगी से जुड़ा हर विज्ञापन आपको टीवी या रुपहले पर्दे पर नज़र नहीं आता। पर फिर भी कुछ विज्ञापन सड़कों पर देखे जा सकते हैं, तो कुछ अखबारों मे रखकर किसी बिन बुलाये महमान की भांति रोज़ ही घर आ जाते है। रही सही कसर रेडियो टीवी और समाचार पत्र पूरी कर देते हैं। फिर इस विषय में यह क्या सोचना कि ‘क्या तेरा क्या मेरा’ यह तो आज के आधुनिक युग की अहम अवश्यकता है। क्यूंकि विज्ञापन हमारी रोज़ मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पहलू है। आज सभी को इसकी जरूरत है। फिर चाहे वह कोई व्यापारी हो या फिर कोई आम इंसान। विज्ञापन की जरूरत तो होती ही है।

अब हम ब्लॉगर्स को ही ले लीजिए अपने ब्लॉग के प्रचार प्रसार के लिए हम भी तो सोशल साइट का सहारा लेते ही है। खैर यह महज़ एक उदाहरण के तौर पर कही गयी बात है, कोई इसे दिल पर न लगाएँ। लेकिन यूं देखा जाए तो हम सभी व्यापरी है। कोई पैसा लेकर चीज़ें बेचता है ,तो कोई ईमान, रही सही कसर तो लोग रिश्ते बेचकर पूरी कर देते है। तभी तो आज इस मुल्क में सभी कुछ बिकता है, क्या शरीर क्या आत्मा। खैर विषय से न भटकते हुए हम वापस आते हैं विज्ञापन पर, कुछ विज्ञापन ऐसे होते है जो हमारे दिलो दिमाग पर छा जाते है। जिन्हे हम कभी नहीं भूल पाते। जैसे ''वॉशिंग पाउडर निरमा'' का विज्ञापन, इत्यादि और फिर ऐसा हो भी क्यूँ न आखिर विज्ञापन निर्माता विज्ञापन बनाते ही इसलिए हैं ताकि उनके बनाए विज्ञापन का जादू लोगों के सर चढ़कर बोले और उनका उत्पाद या वस्तू धड़ा-धड़ बिके।

लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है। आज के युग में हर चीज़ को विज्ञापन बनाकर बेचा जाता है। खासकर लोगों की भावनाओं को, सही मायने में देखा जाये तो लोग की भावनाओं से खेलना ही विज्ञापन निर्माताओं का असल पैंतरा है, नहीं ! आज की तारीख में लोगों की भावनाओं से खेलकर डर बेचने का दूसरा नाम ही तो विज्ञापन है। जैसे हाथ धोने या नहाने के साबुन के विज्ञान को ही ले  लीजिये।  जिसमें यह कहा जाता है कि ‘साबुन शेयर करना मतलब किटाडूँ शेयर करना’ अब बताइए भला यह कोई भी कोई बात हुई। साबुन भी भला कभी गंदा होता है क्या ? हाँ बर्तन साफ करने के मामले में मान सकती हूँ। लेकिन यदि आपके घर में कोई अस्वस्थ नहीं तो मेरी समझ से एक ही साबुन का इस्तेमाल कोई बुरी बात नहीं है। या फिर वॉटर फ़िल्टर के विज्ञापनों को ले लों उनमें भी तो बीमारियों का डर दिखाया जाता है। कि यदि किसी आम फिल्टर का पानी पियो तो आप बीमार पड़ सकते हो इसलिए केवल हमारी कंपनी के फ़िल्टर से पियो वो ज्यादा स्वच्छ पानी देगा। वगैरा-वगैरा।

विज्ञापन की दुनिया में मुझे कमाल की बात तो यह लगती है कि एक व्यक्ति के जीवन से जुड़ी हर एक वस्तु फिर चाहे वो भोग विलास की सामग्री हो या जीवन की एक अहम जरूरत ऐसा कुछ भी नहीं जिसका विज्ञापन न बना हो। मगर मुझे अफसोस तो तब होता है। जब जागुरुकता के नाम पर एक व्यक्ति के गोपनीय विषयों तक का विज्ञापन बना दिया गया है। गोपनिए विषय जैसे ‘’सैनिट्री नैपकिन, गर्भनिरोधक गोलियाँ’’, ‘’शक्तिवर्धक दवाएं’’ हों या कोंडम इत्यादि। लेकिन आमतौर पर लोगों का ऐसा मानना है कि जिन लोगों को ऐसे विषयों में अपने चिकित्सक से भी बात करने में असहजता या शर्म महसूस होती है वह इन विज्ञापनो के माध्यम से ही उस विषय में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते है।

ताकि उन्हे उनकी समस्या से जुड़ा हल किसी भी औषधि की दुकान पर आसानी से उपलब्ध हो जाएगा। वह भी बिना किसी हिचकिचाहट और परेशानी के और उन्हें किसी शर्मिंदगी का सामना भी नहीं करना पड़ेगा। कुछ हद तक यह बात सही है। लेकिन यह समस्या की गंभीरता पर अधिक निर्भर करता है। फिर चाहे व साधारण बुखार खांसी जैसी आम समस्या हो या एड्स (AIDS), ब्रेस्ट कैंसर (breast cancer) जैसी अन्य अहम शारीरिक समस्याएँ। मगर एक सीमित समय के विज्ञापन के दौरान आपको उस विषय की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं हो सकती और ना ही सही परामर्श ही मिल सकता है। ऐसे में आप विज्ञापन से प्रभावित होकर सामान या दवा तो खरीद सकते हैं किन्तु कब कहाँ और कब तक उसका सेवन आपके लिए उपयुक्त है यह केवल आपका चिकित्सक ही आपको बता सकता है। और एक सही परामर्श दे सकता है। याद रहे यहाँ में उन लोगों के विषय में बात कर रही हूँ जिन्हें आज भी आपने बात खुल कर कहने में शर्म आती है। खासकर अपने शरीर से जुड़ी बातें।

विदेशों में तो ऐसा कोई भी समान खरीदने से पहले आपको अपने वयस्क होने का प्रमाण पत्र दिखाना अनिवार्य होता है। किन्तु शायद हमारे यहाँ ऐसा कोई नियम नहीं है या फिर हो भी तो उसका कोई पालन नहीं करता फिर चाहे वह ग्राहक हो या दुकानदार। पर यह सही नहीं है।

इसलिए कई बार यह विज्ञापन जितने उपयोगी सिद्ध होते हैं उतने ही हानिकारक भी सिद्ध होते हो सकते है। मेरी समझ से केवल विज्ञापन से प्रभावित होकर उल्टी सीधी चीज़ें खरीदने से अच्छा है। उस वस्तु से जुड़े विशेषज्ञ का परामर्श अवश्य ले ले। अब जब बात ऐसी हो तो बच्चों का ज़िक्र आना तो स्वाभाविक ही है। वैसे यूं देखा जाये तो आजकल इंटरनेट का ज़माना है। और आजके बच्चे हम से कहीं ज्यादा जागरूक और समझदार भी है। अब किसी को किसी की विशेष टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है। लेकिन फिर भी जब यौवन आता है तो नए जोश और नयी उमग के साथ हजारों सवाल भी लाता है। जिसका यदि सही समय पर सही उत्तर न मिले तो मामला बिगड़ भी सकता है इसलिए अभिभावक होने के नाते हमारी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उन्हें सही समय पर सही जानकारी से अवगत कराएं। क्यूंकि आज भले ही उनके सारे सवालो के जवाब इंटरनेट पर मौजूद क्यूँ ना हो। मगर अभिभावकों के अनुभव से भरा एक प्रेम और सहोदर्य बच्चों में आत्मविश्वास जगाता है ताकि वह जोश और भावनाओं में बह कर कोई ऐसा कदम न उठा लें। जिससे आगे जीवन में उन्हें पछताना पड़े।

3 comments:

  1. जो दीखता है वो बिकता है !!

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  2. बहुत महत्‍वपूर्ण विषय पर जागरुक विचार प्रकट किए हैं। यह अालेख इसकी मूल अवधारणा के साथ अत्‍यन्‍त विचारणीय है। इस पर श्‍ाोध करके आलेख को विस्‍तृत निबंधाकार भी दिया जा सकता है।

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  3. जाने क्यूँ कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि शायद मुझे इस युग में पैदा होना ही नहीं चाहिए था। क्यूंकि इस युग के हिसाब से मेरी सोच मेल नहीं खाती। मुझे हमेशा पुरानी चीज़ें आकर्षित करती है। न जाने क्यूँ मुझे पुराना ज़माना ही आज की तुलना में अधिक प्रभावित करता है।
    चिंता न करें पल्लवी जी हम भी आप ही की जमात में शामिल हैं।
    बिलकुल सही है विज्ञापनों के लिए भी एक सेंसर बोर्ड हो तो शायद ये समस्या कुछ कम हो पाये

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