Sunday, 8 December 2013

पुराना मोहल्ला



कुछ ऐसा है हमारी भाबो का पुराना मोहल्ला ।


मंदिरों में मंत्र उच्चारण और भजन कीर्तन से पूरे मोहल्ले का वातावरण बहुत ही शालीन महसूस हो रहा है। लोग मंदिरों में अपनी-अपनी पूजा की थाली के साथ आ रहे हैं। मोहल्ले की सभी बुज़ुर्ग महिलाएं अपनी-अपनी पूजा की टोकरी से रूई निकाल कर बाती बनाने में मग्न हैं। कोई अपनी पूरी दिनचर्या सुना रहा है तो कोई आनेवाले कल की बातें बता रहा है और कोई हर आने-जानेवाले को राम–राम कहते हुए मंदिर में अपनी हाजिरी दर्शा रहा है। बच्चे वहीं मंदिर के आस-पास खेलते हुए शोर मचा रहे हैं। मंदिर के बूढ़े पंडितजी, जिनकी कमर ज़रा झुकी हुई है, सदा किसी न किसी मंत्र का जाप करते रहते हैं और बीच-बीच में मंदिर में चल रही गतिविधियों पर नज़र भी रखे रहते हैं। अब भी उनका मंत्र जाप चल रहा है लेकिन अगर जरूरत पड़े तो वे किसी की खबर लेने में भी हिचकिचाते नहीं।

मंदिर में खेलते बच्चों से उन्हें ख़ासी परेशानी रहा करती है। वे बच्चों पर चिल्लाते हैं, ''हजार बार मना किया है तुम सबको। यह कोई खेलने की जगह नहीं है। ये मंदिर है, भगवान का घर है। यहाँ शांति रखा करो। जाओ बाहर जाकर खेलो। मगर नहीं तुम बच्‍चे लोग तो किसी की सुनते ही नहीं हो। ठहर जाओ, मिलने दो तुम्हारे माता-पिता को सब बताऊंगा।’’ ये उनका रोज़ का कहना है और बच्चों का रोज़ का सुनना। न बच्चे ही मानते हैं खेलने से और ना ही उन्हें टोके बिना पंडित जी का ही भोजन हज़म होता है। …….कहते-कहते भाबो अपने अतीत में खो जाती है। लम्‍बी-गहरी उसांसे लेते हुए भाबो बच्‍चों से कहती है, ''ऐसा था यह हमारा मोहल्ला। जहां कभी सन्नाटा अपने पाँव नहीं पसार सकता था। जहां हर गली-कूचे में कौन-कौन रहता है, कौन क्या करता है, सभी की खबर सभी को रहा करती थी। जहां वक्त आने पर सभी एक-दूसरे के दुःख-सुख में साथ खड़े होते थे। आते-जाते सब एक-दूसरे का कुशल-मंगल पूछते चलते थे।’’ पुराने मोहल्‍ले की सच्‍ची कहानी बच्‍चे ऐसे सुन रहे हैं जैसे भाबो उनकी आंखों के सामने इसे एक चलचित्र की भांति प्रस्‍तुत कर रही हो। भाबो बताती जाती है, ''वहाँ ना, बच्चे बिना किस डर के बीच सड़क पर क्रिकेट खेलते थे। उन्हें देखकर तो सड़क पर आने-जानेवाले लोगों का मन भी करता कि वे भी कुछ समय उन बच्चों के खेल में शामिल हो जाएं। अपना मनोरंजन कर लें। उन दिनों ऐसा लगता मानो पूरा मोहल्‍ला एक संयुक्त परिवार है। जहां सब मिलजुल कर रहते। जैसे किसी को किसी से कोई शिकायत ही न हो और अब सोचती हूँ तो लगता है जैसे उस समय सभी बड़े संतुष्ट थे वहाँ अपने जीवन से। बच्चों का बीच सड़क पर खेलना। उनकी गेंद का जब-तब किसी के भी घर में चले जाना और महिलाओं से डांट खाना और फिर खेलने लगना। यही बातें तो हमारे मोहल्‍ले की शान थीं। मोहल्‍ले में किसी को किसी की बात का बुरा नहीं लगता था कभी। आज की तरह नहीं कि ज़रा किसी के बच्चे को ऊंची आवाज में कुछ बोल क्या दो कि लोग ज़माना सर पर उठा लेते हैं। इतना ही नहीं। तब ये जो आजकल के औपचारिकता वाले रिश्ते हैं न, जिन्हें तुम सब लोग अंकल-आंटी कहते हुए निभाते हो, ऐसा नहीं होता था तब। उस वक्‍त पास-पड़ोस के सभी लोग बुआ, चाचा, मौसी और ताऊ के मीठे रिश्तों से बंधे होते थे। इसलिए कोई भी अपने से बड़ों की बात का बुरा नहीं माना करता था। और ऐसा हो भी क्यूँ नहीं! डांटनेवाले भी सभी को अपना बच्चा समझकर ही तो डाँटते थे। यह तो कुछ भी नहीं है। कई बार मोहल्‍ले के बड़े-बूढ़े पड़ोसी बच्चों को चपत भी लगा देते थे। मगर कोई बुरा नहीं मानता था। और एक आज का ज़माना है। डांट तो बहुत दूर की बात है आजकल के बच्चों से तो बात करना भी मुसीबत को न्‍यौता देने से कम नहीं है हाँ...।’’

बच्‍चों को पुराने मोहल्‍ले की बातों में रुचि लेते हुए देख भाबो जैसे एक सांस में सारी पुरानी बातें कह देना चाहती हो, ''और पता है वो जो बाजूवाले चाचा की परचून की दुकान थी ना, वहीं से सारे मोहल्ले का राशन आता था। मजाल है किसी की जो उनके रहते बाहर जाकर कुछ खरीद लाए। मोहल्ले के बाहर थोड़ी दूर एक और बाज़ार था ज़रूर। मगर चाचा की दुकान सा अपनापन नहीं था वहां। चाचा तो यूँ भी उधारी कर लेते थे। कई बार तो खुश होने पर वे बच्चों को नारंगी-संतरेवाली दो-चार गोलियां भी दे देते। वो भी मुफ्त।’’

कहानी में मनपसन्‍द चीज के जिक्र पर उत्‍सुकतावश सभी बच्‍चे अचानक पूछ बैठते हैं, ''सच भाबो!!’’

''और क्या। नहीं तो क्या मैं झूठ बोल रही हूँ? अरे यह तो कुछ भी नहीं है। कभी-कभी तो राशन पहले देते थे और पैसा बाद में लेते हमारे चाचा। वैसे भी बात पैसे की नहीं विश्वास की होती है। चाचा भी सब जानते-समझते थे। इसलिए कभी बुरा नहीं मानते थे। पता है मोहल्‍ले से कुछ दूर बच्चों का एक स्कूल भी था, जहां तुम्हारे पिता जी पढ़ा करते, जो बारहवीं कक्षा तक ही था। मोहल्ले के सभी घरों के बच्चे उसी स्कूल में जाया करते। मोहल्‍ला, स्‍कूल, मंदिर, चाचा की दुकान सब जगह बच्‍चे अकेले जाते लेकिन उनकी चिंता-फिक्र किसी को नहीं होती थी। आह कितने खूबसूरत दिन हुआ करते थे वो! पुरुषों की सुबह अधिकतर मंदिर की घंटी बजने की आवाज से होती और नाश्ता मोटे हलवाई के गरमा-गरम पोहा, जलेबी और कट चाय से। मेरे मुंह में तो मोटे हलवाई का नाम सुन कर अब भी पानी आ जाता है। तब घर में नाश्ता पानी सिवाय महिलाओं के और कोई नहीं करता था। सो उन्हें भी सुबह के नाश्ते की कोई खास फिक्र नहीं होती थी।’’

खाने की बात पर बच्‍चे अपनी लार पोंछते हुए पूछते हैं, ''अच्छा। सच भाबो ऐसा क्या जादू था मोटे हलवाई के पोहे जलेबी में जो आज भी उसके नाम से ही तुम्हारा मन ललचा रहा है।''

''अरे यह न पूछो बच्चों। आह क्या स्वाद था उसके हाथ की बनी करारी जलेबी में वाह!!! पहले महिलायें अपने-अपने घर के काम से निपटने के बाद एक-दूसरे के घर जाया करतीं। आपस में दुख-सुख बांटतीं। आज की तरह नहीं कि पड़ोस में कौन रहता इतना भी पता नहीं होता एक ही मोहल्‍ले में रहनेवालों को। अब तो किसी को टीवी से ही फुर्सत नहीं है। जाने ऐसा क्या आता है मुए उस बुद्धू बक्से में कि सब बा से ही चिपके रहते हैं सारा-सारा दिन। न खाने की फिकर है न सोने की। हमारे जमाने में ऐसा नहीं था लल्ला। तब औरतें घर-बार की साफ-सफ़ाई, भोजन आदि से निपट कर दोपहर 2 बजे ऊन और सलाई लेकर मोहल्ले के नुक्कड़ पर डेरा जमा लिया करतीं थीं। शाम के चार बजते ही सभी को नल आने की फिक्र और शाम की चाय की याद सताने लगती। घरों में पानी भरने की हड़कंप मच जाती। क्या दोपहर और क्या सुबह दोनों में कोई फर्क ही नज़र नहीं आता था। बच्चे स्कूल से आते ही अपनी-अपनी चीजें इधर-उधर फेंक कर खेलने जाने को मचलने लगते। तब सब तुम लोगन की तरह नहीं होते थे कि धूप में काले हो जाने के डर से सारा-सारा दिन घर में ही पड़े रहवें। तब तो बच्चों को खेलने के नाम पर न खाने की फिक्र रहती न नहाने की। उन्‍हें तो बस दोस्त यार ही नज़र आते थे’’।

पुराने मोहल्ले के बच्‍चों की कहानी सुन कर बच्‍चों को भाबो का मुख टी.वी. स्‍क्रीन सा दिखने लगा। वे तरह-बेतरह की कल्‍पनाओं में डूबते-उतरते गौर से भाबो की कथा सुनते रहे। पुराने जमाने का सुखद चरित्र-चित्रण करते हुए भाबो में आत्‍मविश्‍वास भर गया। इस वक्‍त उसे नया जमाना भी पुराना ही प्रतीत होने लगा।

वह बोलती गई, ''अरे तब तो, जब तक माँ कुछ कहे तब तक तो बच्चे घर से “'यह जा वह जा’”। इधर कार्यालय से सबके पतिदेवों के आने का समय भी हो जाता था। तब ना हम सब लोग घर आए मेहमान का भगवान समझ कर स्‍वागत करते थे। उसके बाद रात के भोजन की तैयारी करते थे।''

रिंकू को गौर से अपनी ओर मुखतिब देख भाबो उसके गाल को प्‍यार से थपथपाते हुए कहती, ''रिंकू बेटा तेरी माँ की तरह नहीं कि पति दफ़्तर से कब आया कब चला गया मैडम को पता ही नहीं होता। चाय-पानी पूछना तो दूर की बात है। अरे हमारे जमाने में तो मोहल्‍लेवाले सूरज के ढलते-ढलते ही रात के भोजन की तैयारी शुरू कर देते थे। बड़े-बजुर्ग, बच्चों को चिल्ला-चिल्ला कर घर वापस बुलाते। अपने-अपने घर के दरवाजे से सभी महिलाएं बच्‍चों को घर आने की आवाज देतीं।'' भाबो की बातें सुन कर रिंकू को मजा आ रहा था। इसलिए वह भाबो के पास थोड़ा और खिसक आया। भाबो उसको देख कर मुस्‍कुरा गई और कहती रही, ''रिंकू बेटा तब तेरे पापा भी उन्‍हीं बच्‍चों में शामिल रहते जो इतना चिल्‍लाने के बाद भी घर आने का नाम नहीं लेते थे। तेरा पापा पता क्‍या बोलता था?''

''क्‍या बोलते थे भाबो?'' उत्‍सुकता से रिंकू बोला।

भाबो के दिमाग में जैसे पुराने मोहल्‍ले की एक-एक बात रिकॉर्ड की गई हो। वह बोली, ''तेरा बाप कहता, माँ ज़रा देर और रुको तो। यह अधूरा खेल तो पूरा कर लें।'' मगर ना बच्चे ही समय पर घर आते और ना ही माताएं उन्‍हें जोर-जोर से पुकारने से बाज आतीं। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान घड़ी की सुइयां इशारा करना शुरू कर देतीं कि मंदिर की आरती का समय हो रहा है और सब अपनी-अपनी पूजा की टोकरी लिए सन्‍ध्‍या पूजा करने टोली बना कर मंदिर की ओर निकल पड़ते। रिंकू बेटा, प्रसाद का लालच तेरे पापा को भी मंदिर तक खींच ही लाता था।''

''वो क्यूँ भाबो, भला मंदिर जाने जैसा बोरिंग काम भी कोई करता है? क्या वो भी सिर्फ जरा से प्रसाद के लिए? मैं तो कभी न जाऊँ।'' पाश्‍चात्‍य स्‍टाइल में कन्‍धे उचकाते हुए टोनी बोला।

भाबो ने तुनकमिजाजी मुंह बनाते हुआ कहा, ''अरे तुम लोग तो घर गुसु हो घर गुसु। तुम क्या जानो दोस्तों से बार-बार मिलने का चाव क्या होता है। प्रसाद तो केवल एक बहाना हुआ करता था। मंदिर और प्रसाद के बहाने एक बार फिर दोस्तों से गपियाने का मौका भी भला कोई छोड़ सकता था। इस बहाने थोड़ा और खेलने को जो मिल जाया करता।''

बच्‍चों को लग रहा था जैसे भाबो उन्‍हें एकदम नई दुनिया की बात बता रही है। अब बच्‍चे किसी तरह का कोई प्रश्‍न ही नहीं कर रहे थे। भाबो को लगा उन्‍हें पुराने मोहल्‍ले की सच्‍ची कथा अच्‍छे से रुच रही है। इसलिए उसने कहने की रफ्तार बढ़ा दी। वह आवाज साध कर कहने लगी, ''परिवार के सब लोग साथ में खाना खाते थे। खाने के बाद बच्चे अपनी पढ़ाई-लिखाई में लीन हो जाते। पुरुष लोग रेडियो पर देश-दुनिया के समाचार सुनने लगते। महिलाएं चौका उठा कर बचा हुआ खाना गाय को खिलाने की व्यवस्था करती। फिर थोड़ी देर के लिए टीवी देख लेती थी। तब टीवी बस नाम के लिए देखा जाता था। आज की तरह नहीं कि घर-परिवार समेत सारी दुनिया ही बा में सिमट कर रह जाए। कछु सूजता ही नहीं बाके बिना किसी को। तब तो हर काम का एक निश्चित समय हुआ करता था। ऐसा नहीं कि कभी भी कुछ भी करते रहो। देर रात तक जागने को अपनी शान समझते रहो। तब रात को जल्‍दी सो जाया करते। तुम्‍हें सुनकर आश्चर्य होगा कि उन दिनों रात इतनी जल्दी सुनसानी हो जाने पर भी किसी के मन में किसी चोर, डाकू या लुटेरे का डर नहीं था। आह!!! कैसा स्वर्ग जैसा था हमारा मोहल्‍ला। जहां सब अपनी-अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट थे। जो वहाँ बसे सभी परिवारों की एक छोटी सी खूबसूरत दुनिया थी।'' कहते-कहते भाबो की आंखों के पोर भीग गए।

जिस जगह पर बैठ कर भाबो कॉलोनी के बच्‍चों को पुराने मोहल्‍ले की स्‍वर्गिक जीवन की कथा सुना रही थी उसी के एक घर से तभी तेज कर्कश आवाज आई, ''रिंकू ओ रिंकू।'' सुनते ही सब चुप। थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया। रिं‍कू धीरे से भाबो के कान में बोला, ''लो हो गया पूरे मूड का सत्यानास। कितना अच्छा लग रहा था भाबो आपसे से कहानी सुनना। अब माँ की सुनो।'' भाबो उँगली होंठों पर रख रिंकू को इशारे से चुप रहने को कहती है। एक बार फिर वही कर्कश आवाज गूंजती है, ''रिंकू ओ रिंकू। कितनी बार कहा है दादी को परेशान मत किया करो। देखो कितनी रात हो गई है। अभी स्कूल का होमवर्क भी करना है तुम्हें। कहीं फेल हो गए तो क्या होगा। सारे मोहल्ले में हमारी नाक कट जाएगी। दिनभर बस खेल-खेल-खेल और कुछ सूझता ही नहीं है तुम्‍हें। धूप में ज्यादा खेलोगे तो काले हो जाओगे। ऊपर से ज़माना बहुत खराब है। खेलना ही है तो घर में खेलो ना। किसके लिए ला कर दिये हैं तुम्हें इतने गेम और इतने मंहगे-महंगे खिलौने। अरे जो खिलौने तुम्हारे पास हैं वे पूरी कॉलोनी में किसी के पास नहीं हैं समझे।'' अपनी मम्‍मी के भाषण पर रिंकू और भाबो के चेहरे उतर गए। पुराने मोहल्‍ले की कहानी सुन कर उन्‍हें जितनी सुखानुभूति हो रही थी, रिंकू की मम्‍मी का स्‍वार्थी और घमण्‍डी व्‍याख्‍यान सुन कर उन्‍हें उतना ही दुख हुआ। वे अपने को संयत कर पुराने मोहल्‍ले की कुछ और बातों का आनन्‍द लेते लेकिन रिंकू की मम्‍मी चुप न हुई। वह बोलती रही, ''और हाँ कल वो शर्मा आंटी मिली थी। उसने बताया कि कल तुमने उनके घर जम कर पकोड़े खाये! कोई जरूरत नहीं है किसी के घर कुछ भी खाने-पीने की। राम जाने कौन क्या खिला-पिला दे। अपने घर का साफ पानी ही पिया करो। या फिर बिसलरी खरीद कर ही पिया करो। पता नहीं लोगों के घर में एक्वागार्ड है भी या नहीं। वह है ना, क्या नाम है उनका शर्मा आंटी। उनका दिया कुछ भी न खाया करो। वह सब घर में ही बनाती है। उनके यहाँ तो जैतून का तेल भी इस्तेमाल नहीं होता। बेकार में तुम्‍हारी तबियत खराब हो जाएगी। इससे अच्छा है पिज्जा ऑर्डर कर दिया करो। कम से कम ताज़ा तो मिलेगा। पता नहीं शर्मा आंटी कॉलोनी के बच्चों को इतना क्यूँ खिलाती है! साफ सफाई का भी ध्यान रखा है या नहीं, पता नहीं। इसलिए कह रही हूँ कोई जरूरत नहीं उनके यहाँ कुछ खाने-पीने की समझे। रही बात खेल की तो अपने घर के आँगन में जो खेलना है खेल लिया करो, पर ज्यादा किसी से घुलने-मिलने की जरूरत नहीं है। फिर कोई कुछ कहता है तो अच्छा नहीं लगता।''

मोहल्‍ले में जैसे इस वक्‍त रिंकू की मम्‍मी की आवाज डरावनी बन कर गूंज रही थी। सहसा भाबो को लगा जैसे अन्‍दर कुछ टूटने लगा है। बच्‍चों को आदर्श सिखाने के बहाने उसने पुराने मोहल्‍ले की जो अधूरी कहानी सुनाई और जिसे बच्‍चे ध्‍यान से सुनने लगे थे, उसमें जैसे बड़ा विघ्‍न उत्‍पन्‍न हो गया। रिंकू की मम्‍मी थी कि चुप होने को राजी ही न हो। वह तीखे स्‍वर में बोलती रही, ''क्रिकेट खेलने की तो बिलकुल ही जरूरत नहीं है। बेकार में यहाँ-वहाँ गेंद चली जाती है और मेहता अंकल को चिल्लाने का मौका मिल जाता है। किसी की खिड़की का काँच टूटने का खर्चा देना पड़ता है सो अलग। इससे तो अच्छा वीडियो गेम खेल लिया करो। और सुनो कल मुझे कुछ सामान ला देना। कुछ मेहमान आने वाले हैं। सामान माल से जा कर ही लाना। पास की डेरी से मत ले आना। कितना गंदा रखता है वह सब कुछ। मक्खियाँ छी मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं उसकी दुकान पर। छी छी छी…उफ़्फ़ तू तो माल से ही पैकेट वाला दूध और दही लाना। अब तो छोटी दुकानों से कुछ भी ख़रीदने का धर्म ही नहीं बचा। किसी बड़ी कंपनी का ही लाना। ऐसा न हो कि पैसा भी खर्च कर दो और किसी ऐरी-गैरी कंपनी का उठा लाओ। केवल अमूल या नेसले का ही लाना।'' रिंकू परेशान है और मन में सोचता है कि एक बार माँ का रिकॉर्ड शुरू हो जाये तो बंद होने का नाम ही नहीं लेता। चिढ़ कर रिंकू जोर से कहता है, ''हाँ हाँ माँ मैं सब समझ गया। तुम बिलकुल चिंता न करो। मैं तुम्हारी सब बातों को याद रखूँगा।''

रिंकू अपने घर जाते-जाते भाबो की बातों के बारे में सोच रहा है। भाबो, रिंकू और कॉलोनी के दूसरे बच्‍चों के दिल और दिमाग में एक ही प्रश्न चक्की की तरह घूम रहा है। कि भाबो के पुराने मोहल्‍ले में कितना अपनापन, प्‍यार और एकता थी। और हमारी कॉलोनी में रह रहे आज के लोगों में स्‍वार्थ, घमण्ड और परायेपन की भावना कितनी गहरा गई है! रिंकू को भाबो का मोहल्‍ला एक सपना सा लग रहा है। जैसे भाबो ने उसे अपनी ज़िंदगी की असलियत नहीं बल्कि कोई मनगढ़ंत कहानी सुनाई थी। भाबो को अनुभव हुआ जैसे वह अब इस दुनिया में ही नहीं है। जहां वह रहा करती थी उसके मुकाबले ये दुनिया तो कुछ और ही है। जहां लोगों को न तो खुद पर भरोसा है और ना ही अपने परिवार वालों पर।

(साभार जनसत्‍ता, रविवार०८ दिसम्‍बर २०१३ को जनसत्‍ता के रविवारी विशेषांक में प्रकाशित कहानी)http://epaper.jansatta.com/195615/Jansatta.com/08122013#page/14/1

 

 

17 comments:

  1. विकेश कुमार बडोला8 December 2013 at 14:48

    बहुत-बहुत शुभकामनाएं। अच्‍छी व सामाजिक कहानी।

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  2. सामाजिक ताने बाने में बुनी ... संवेदनशील पोस्ट ... बधाई इसके प्रकाशन की ...

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  3. कहाँ छपी - इससे अधिक महत्व्पूर्ण हैं आपकी कहानी की भाबो, जिनकी बातों में पंचतंत्र सी अपने ज़माने की कहानियाँ थी- जहाँ कोई पराया नहीं था,बचपन बचपन था … पर इति यानि बीती कहानी

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  4. सामाजिक परिवेश को दिखाती एक बहतरीन रचना !!
    शुभकामनायें !!

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  5. आज के दिन भाबो की दुनिया उसके सपनों की दुनिया है जो स्वप्न की भाँति ही उसका प्रिय संसार है और उसके साथ-साथ है. रिंकू के मन का अपना संसार है और परिवर्तनीय है.वह भाबो के संसार को महसूस तो कर सकता है लेकिन उसमें रह नहीं सकता.

    यह कहानी अतीतराग की बात करती है लेकिन उससे जुड़ती हुई प्रतीत नहीं होती. यही इस कहानी में निहित आधुनिकता-बोध है.

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  6. फ्लैश-बैक में कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे लोगों से मिलवा दिया... और फिर अचानक आज में धकेल दिया!! कॉनट्रास्ट है, मगर असलियत भी यही है!!

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  7. maheshwari.kaneri8 December 2013 at 22:31

    अच्‍छी व सामाजिक परिवेश को दिखाती सुन्दर रचना

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  8. aap ki kahani ne bachpan mr pahucha diya...bhasha bahut hi sadhi haui hai..jo tana-baana aap ne buna hai vo lajvab hai...antim line bahut hi prabhavotpadak..aap ko shubhkamna..aisa srijan khoob karen..regards.

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  9. बदलते परिवेश और अतीत की सुमधुर यादें ...सुंदर ताना बना बुना है आपने ....प्रकाशन की बधाई ...!!

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  10. MOTE HALWAI.... KAYASTH PURA KI GALIYON MEIN BHRMAN KARWA DIYA...

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  11. बदलते वक्त ने कितना कुछ बदल दिया
    हमारा प्यारा सा मोहल्ला फ्लेटों में बट गया।

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  12. इसलिए तो कहा था कि आकर पढ़ो यह कहानी...कुछ कुछ नयी तो कुछ पुरानी

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  13. बहुत बढ़िया कहानी.......मन से जुड़ी....

    अनु

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  14. पुरानी यादों को ताज़ा कराती बहुत सुन्दर कहानी...कितना बदल गए हैं हम सब आज़...

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  15. naveen mani tripathi14 December 2013 at 19:17

    samaj bahut teji se badal raha hai shyad paschaty sabhyat ka andhnukarn ho raha hai samvedanayen simatati ja rahi hain shayad se sab adhunikata ki prteek hain .....kahani behad dil chasp lagi ....abhar pallvi ji .

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  16. आर डी सक्सेना14 December 2013 at 20:40

    इस भावाभीनी कथा का कोइ अंत नहीं | नित नवीन लगती है | पुराने प्रेमपगे दिन लौटें या न लौटें , उनकी स्मृति सदा अंतर को आल्हादित रखती है | भौतिकता और अर्थगणित के नवीन युग में ऐसे भावप्रवण लोग अब नगण्य से हैं | भाबो किरदार के माध्यम से यह कथा हमें भी हमारे अतीत में ले जाती है और नए युग को नई दृष्टि से देखने की लालसा जगाती है | यह कथा, हमारे बीच सुसुप्त पडी असंख्य भाबो को जाग्रत भी करती चलती है | साधुवाद |

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