Tuesday, 6 December 2011

हमारे जीवन के हर पहलू पर पड़ता "सामाजिक प्रभाव"


यूं तो हर इंसान के जीवन पर सामाजिक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है, क्यूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के बिना नहीं जी सकता है। इसलिए शायद उसके जीवन के हर पहलू पर समाज का प्रभाव दिखना लाज़मी है। समाज क्या है, यह तो आप सभी लोग जानते ही हैं। फिर भी हमारे समाज के ढांचे को मैं इस चित्र के द्वारा दिखा रही हूँ। वैसे देखा जाये तो कुछ हद तक ठीक भी है। समाज के कायदे कानून बने ही इसलिए हैं, कि कोई भी मनुष्य उसका पालन करते हुए एक सभ्य नागरिक की ज़िंदगी गुज़ार सके, नाते रिश्तों में यह सामाजिक बंधन बहुत कारगर सिद्ध होते हैं। लोगों के मन में कहीं ना कहीं समाज का डर होता है। जिसके कारण लोग कुछ गलत काम करने से बच जाते है। क्यूँकि कुछ भी गलत काम करने से पहले एक बार तो, हर इंसान के मन में आता ही है, कि लोग क्या कहेंगे। लेकिन मुझे नहीं लगता, कि किसी भी इंसान के जीवन में हर बात को अंजाम देने से पहले यह सोचना ही चाहिए,कि लोग क्या कहेंगे।

अरे भाई "कुछ तो लोग कहेंगे" ही लोगों का काम है कहना ... मगर  मेरा ऐसा मानना है कि लोगों के डर से हर वो काम ना करना जिसको करने की आपकी बहुत इच्छा है। मगर सिर्फ लोगों में वो काम प्रायः नहीं किया जा रहा है इसलिए आप कैसे कर सकते हो, कि यह सोच गलत है।

आज कल हर जगह प्रतिस्पर्धा का ज़माना है। जहां देखो वहाँ एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ लगी हुई है। जैसे तब होता है ना, जब आप बहुत सारे केंकड़ों को एक बाल्टी में भर दो और फिर देखो कितने बाहर आ पाते है, तो शायद एक भी बाहर नहीं आ पायेगा। क्यूँकि हर कोई किसी एक को आगे बढ़ने ही नहीं देता है। ठीक वैसा ही हाल हमारे सामाज का हो गया है। आजकल यदि किसी ने लीग से हटकर कुछ करने की कोशिश की तो लोग जाने क्यूँ तुरंत तरह-तरह की बातें बनाना शुरू कर देते हैं। जैसे किसी बच्चे को किसी बड़े नामचीनी स्कूल में दाखिला नहीं मिला, तो लोग बाते बनाते हैं, कोई अपनी परीक्षा में सफल नहीं हो सका, तो भी लोग बाते बनाते हैं। यदि किसी को बहुत ही बढ़िया कालेज में आसानी से दाखिला मिल जाये तब भी लोग कहने से नहीं चूकते, कहते हैं ज़रूर पैसे खिलाये होंगे माता-पिता ने दाखिले के लिए   किसी को किसी बड़ी कंपनी में नौकरी मिलते-मिलते रह जाये, तो भी लोग बाते बनाते है। यहाँ तक की जब कोई अपने पसंदीदा कपड़े एक बार के बाद दुबारा किसी दूसरी शादी में पहन ले, तब भी लोग कहें ना कहें हमारे मन में यह बात आ ही जाती है, कि हाय!!! लोग क्या कहेंगे। इसके पास एक ही जोडी कपड़े हैं, जो हर शादी में बस यही साड़ी पहन लेती है वगैरा-वगैरा ....

कुल मिला कर मेरे कहने का तात्पर्य यह है, कि सामाजिक गतिविधियों का, समाज के बनाये नियम कानूनों का, प्रभाव हमारे जीवन पर पढ़ना तो ज़रूर चाहिए। मगर इतना भी नहीं, कि हम हमारी ज़िंदगी को अपने तरीके से जीने के बजाए समाज के नज़रिये से जीना शुरू कर दें। क्यूंकि यदि ऐसा हुआ तो वह जीवन जीना नहीं, जीवन गुज़ारना कहलायेगा। जैसे किसी कैदी को जेल में अपनी सजा का वक्त गुज़ारना होता है। क्यूंकि लोगों का क्या है। जितने मुंह उतनी बातें, लोगों को हमेशा अपने घर से ज्यादा पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है, उसकी चिंता ज्यादा रहा करती हैं। उनके घर कब कौन आता है, कौन जाता है, कितने बजे क्या होता है, सबको सब कुछ पता होता है।  फिर भले ही एक बार को आपको ना पता हो, कि आपके घर का कौन सा सदस्य कहाँ जाता और क्या कर रहा है। मगर पड़ोसियों को सब पता होता है। खास कर आपके घर में यदि 15-16 साल की लड़की हैं, तो बस आपको उसके बड़े होने की खबर हो ना हो, पड़ोसियों को आपसे कहीं ज्यादा चिंता रहती है कि आपकी बेटी अब बड़ी हो गई है।

इस सब चक्करों में हमारी ज़िंदगी की बहुत सी छोटी-छोटी खुशियाँ कहीं गुम सी हो जाती हैं। जैसे कई बार लोगों के कहने में आकर हम अपने ही बच्चों पर नज़र रखने लगते हैं। उन पर से हमारा विश्वास उठने से लगता है, जो सही नहीं है। मगर समाज के इन लोगों के डर से कई बार हम वो करने से चूक भी जाते हैं, जिसका असर  हमारी आने वाली ज़िंदगी पर बहुत गहरा प्रभाव डाल सकता है। बच्चों पर अभिभावक ज़ोर डालते हैं, यदि तुम परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास नहीं हुये, तो "लोग क्या कहंगे", इनका बच्चा इतना गधा है। अभिभावकों पर समाज ज़ोर डालता रहता है, कि प्रतियोगिता का ज़माना है, साथ नहीं चलोगे तो पीछे छूट जाओगे और सारी ज़िंदगी लोगों की बातें सुननी पड़ेंगी। यहाँ तक की, एक साड़ी खरीदने से लेकर, नई कार करीदनी हो, या नया मकान, या फिर किसी को उपहार में ही कोई भेंट ही क्यूँ ना देनी हो, या फिर आपने किसी को अपने घर खाने पर बुलाया हो और उसके लिए कोई पकवान बनाने या खिलाने की बात ही क्यूँ ना हो, आपके मन में सदैव सबसे पहले यही बात आती है, कि फलाना क्या कहेगा, कि यह क्या खिला दिया, हमें तो यह पसंद नहीं, या फिर ढिकाना क्या सोचेगा, लोग क्या कहंगे। यह सब सोच कर ही आप लोगों को ध्यान में रखते हुए सभी कार्य करते हो, बल्कि यह सब काम तो ऐसे  हैं, जिनमें लोगों की पसंद कम और आपकी पसंद ज्यादा मायने रखती है, कि आप खुद क्या चाहते हो और उसके हिसाब से आपकी क्षमता कितनी है।
 
कहने का मतलब यह, कि हर छोटी से छोटी बातें जो हमारे जीवन से जुड़ी है। जो कि बहुत ही साधारण सी बातें हैं, जिनसे शायद लोगों का कोई लेना देना नहीं है, फिर भी दिखावे के चक्कर में हम पहले लोगों के बारे में सोचते हैं, बाद में यदि गुंजाइश रही तो अपने बारे में ऐसा क्यूँ ???? दो प्यार करने वाले कई बार समाज के डर से एक नहीं हो पाते हालांकी अब वो ज़माना नहीं रहा। मगर आज भी एक बार तो उनके मन में भी आता ही है, कि कुछ तो लोग कहंगे। यह बात अलग है कुछ काम किए ही इसलिए जाते हैं कि कुछ तो लोग कहें  माना कि समाज का डर होना भी ज़रूर है। मगर इतना भी नहीं, कि कोई भी इंसान अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीना ही छोड़ दे, शायद इसलिए आज कल के बच्चे इतने बेबाक होते हैं। क्यूंकि उनको समाज की फिक्र नहीं होती, कि लोग क्या कहंगे, कौन क्या सोचेगा। बल्कि उनको सिर्फ अपनी ज़िंदगी से प्यार होता है, कि हमको अपने जीवन में क्या करना है। लोगों को जो सोचना है, सोचने दो। आखिर कुछ भी हो हम चाह कर भी कभी किसी की सोच पर कोई पाबंदी तो लगा नहीं सकते...और वैसे भी लोगों का क्या है, थोड़े दिन कहंगे फिर चुप जो जाएँगे...मगर उनके लिए अपनी ज़िंदगी से जुड़े फैसलों का समझौता करना आजकल की पीढ़ी को कतई गवारा नहीं  और शायद यही सही भी है ...आपको क्या लगता है। 

35 comments:

  1. आखिर कुछ भी हो हम चाह कर भी कभी किसी की सोच पर कोई पाबंदी तो लगा नहीं सकते...और वैसे भी लोगों का क्या है, थोड़े दिन कहंगे फिर चुप जो जाएँगे...मगर उनके लिए अपनी ज़िंदगी से जुड़े फैसलों का समझोता करना आजकल की पीढ़ी को कतई गवारा नहीं

    अक्षरशः यही कहना है अपना। आखिर क्यों दूसरों के हिसाब से चला जाए क्यों न खुद सही या गलत निर्णय खुद ही लीजिये जाएँ।
    कॉमर्स मे और शायद मेनेजमेंट के छा त्रों को एक चीज़ रटी हुई होती है कि एक अच्छा व्यापारी या प्रबन्धक वो है जो सुनता सबकी है पर करता अपने मन की है। मेरा आशय भी यही है कि अपने निर्णयों के बारे मे दूसरों का मार्गदर्शन लेना ज़रूर चाहिए पर अंतिम निर्णय अपना ही होना चाहिए।
    हम समाज से प्रभावित तो होते हैं लेकिन क्या सही है क्या गलत है या एक खास परिस्थिति मे क्या करना चाहिये यह निर्णय खुद को ही लेना चाहिये परिणाम बाद मे चाहे जो हो।
    सादर

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  2. गुड अनालेसिश, पल्लवी जी ! मर्यादाये और कुछ नेक सामाजिक बंदिशे है जिन्हें मैं मानता हूँ की इंसान को जहां तक हो सके उनका पालन करना चाहिए, लेकिन हर ख्वाइश को इंसान अगर दुनिया की रुचिनुसार करने लगे वह संभव नहीं और यहाँ दिल की सुननी चाहिए !

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  3. kuch to log kahenge:)sach hai ....log kahne se baaz nahi aaenge aur hum sunne se...kuch to prabhav hota hai samaj ka aur mujhe lagta hai hona bhi chahiye par itna nahi ki ghutan hone lage.....

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  4. जीवन अपनी शर्तों पर, सुख किसी और पर आधारित नहीं, और क्या चाहिये राजा होने को।

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  5. वो कहते हैं न ..when you follow all the rules, you miss lots of fun.

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  6. जी हाँ बिलकुल ठीक कहा आपने शिखा जी :-) आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ।

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  7. कल 07/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  8. zindagi apne tarike se jeeni chahiye , haan kisi ko dukh dekar nahin, n hi maryadaaon ka hanan karke...

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  9. 100% sach kaha aapne , main poori tarah sahmat hoon aapse ,

    blog par aakar honsla afjai ke liye bahut bahut dhnyvaad

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  10. जियो तो अपने तरीके और अपनी शर्तों पर तब है ज़िन्दगी जीने का मज़ा।

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  11. व्‍यक्ति समाज की आड़ में स्‍वयं की मनमर्जी करना चाहता है। समाज और देश दोनों ही अपने-अपने संविधानों से चलते हैं। समाज कहता है कि चोरी करना बुरा है, लेकिन मैं कहूं कि मुझे चोरी करनी है तो? इसलिए समाज ऐसी मर्यादाओं की बात करता है जिससे सर्वजन हिताय होता है ना कि व्‍यक्तिगत बातों पर ध्‍यान देता है। रही बात विवाह पद्धति की तो हमारे यहाँ समाज या जाति आधारित विवाह पद्धति रही है। लेकिन वर्तमान में व्‍यक्ति आधारित विवाह पद्धति हो गयी है। हम संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। आज जितने भी अपराध बड़े श्‍हरों में हो रहे हैं वे सब ऐसे व्‍यक्तियों के द्वारा हो रहे हैं जो अपने समाज का डण्‍डा अपने गाँव में छोड़ आए हैं। कुप्रथाओं को तोड़ने का साहस नहीं है लेकिन स्‍वस्‍थ परम्‍पराओं को तोडने पर आज सभी लगे हैं। होड़ाहोड़ करने के लिए कभी भी समाज नहीं कहता है, यह सब हम अपनी इच्‍छा के लिए करते हैं। इसलिए यदि व्‍यक्ति अपनी मर्यादाओं और अपनी चादर में रहकर पैर फैलाए तो वह सुखी रह सकता है।

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  12. जिस समाज में हम रहते हैं कुछ तो उसके बनाये नियमों को मानना ही पड़ेगा अच्छी पोस्ट आभार ........

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  13. आपकी प्रवि्ष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी की जा रही है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल उद्देश्य से दी जा रही है!

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  14. सही कहा.. आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ।

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  15. व्यक्तिगत सोच और सामाजिक नियमों में संतुलन बनाये हुए चलें तो जीवन न नीरस रहता है , न दिशा भटकता है ।
    बाकि कहने वाले तो कहते ही रहते हैं , उसे ज्यादा तबबजो देना सही नहीं ।

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  16. नियम कानून समाज को अराजकता से बचाने के लिए बनाए जाते हैं पर यही नियम समय के साथ अराजकता फैलाते हैं तो उन्हें ताक पर रखना चाहिए। लोकपाल भी कल अराजक हो सकता है और नेताओं को यह डर है कि उसकी अराजकता उनकी पोल न खोल दे :)

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  17. सार्थक आलेख...कहने वाले तो कहते ही रहेंगे
    अब तो मुझे आपके ब्लॉग का अनुसरण करना ही पड़ेगा...चलिए कर लिया

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  18. सही कहा।
    अपनी शर्तों पर जिंदगी जीना चाहिए पर ये ख्‍याल भी रखना चाहिए कि आपकी वजह से किसी को तकलीफ न पहुंचे।

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  19. आलेख पढ़ा। अच्छा लगा, सदा की तरह।

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  20. समाज व्यक्तियों से मिल कर बना है न की व्यक्ति समाज से ... समयानुसार नियमों में परिवर्तन आते रहते हैं .. और वो परिवर्तन किसी व्यक्ति द्वारा ही किये जाते हैं ...
    दूसरे क्या कहेंगे इस पर ध्यान न दे कर इस बात पर ध्यान दिया जाए की आप जो कर रहे हैं उससे किसी की हानि तो नहीं हो रही ? अच्छा लेख ..

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  21. sahi kaha, kuchh to log kahenge logon ka kaam hai kahna, achchha karo ya bura. bas ye khud hin nirdhaarit karna chaahiye ki kya sahi hai aur kya galat. samaaj bhale jo kahe. tarkpurn lekh ke liye badhai.

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  22. aapne sahi likha hae .samajik niyam, kayde smaj ke kuchh aghoshi thekedaron dvara bnaye gaye haen taaki ve apni manmani kar saken.apni santan ko uske mata pita dvara shi galat samjhaya aur btaaya bhi jata hae.aaj ki pidhi samjhdar hae aur ab unhen parampaon ki aad me ho rahe pakhand ko rokne se koi nahi rok sakta hae.

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  23. आपके आलेख पढ़-पढ़ कर मुझे अब समाज की चिंता सताने लगी है कि हे भगवान यह कैसा समाज है :)) और व्यक्ति के बारे में भी सोचने लगा हूँ कि हाय राम यह कैसा आदमी है :)) अपने बारे में अभी सोचना शुरू नहीं किया. शायद कोई सज्जन सोचे और कहे, "हाँ..हाँ..बस ठीक ही है...और क्या कहें...." :))
    कुल मिला कर व्यक्तिवादी सोच हमेशा रही है और रहेगी. यदि व्यक्ति का निर्णय लेने का अधिकार समाप्त हो जाए तो वह रुमाल हो जाता है. यदि वह समाज पर भारी पड़ने लगे तो वह राजनीतिज्ञ हो जाता है. यदि वह संतुलित-सा हो जाए तो उसे इंसान कहा जा सकता है.
    बहुत बढ़िया आलेख.

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  24. हम जिस समाज मे रहते हैं उससे पोषण और अन्य सुविधायें प्राप्त करते हैं उसके लिये भी हमारा कुछ दायित्व बनता है - व्यक्ति और समाज में
    तालमेल रहे तो अच्छा है .

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  25. बहुत सार्थक लेख है, समाज हमसे बना है हम समाज से नहीं और अगर हर किसी की इच्छा से जीने लगे तो फिर हम जी चुके. वह करें जो अपने को अच्छा लगे जीवन हमारा है - रुचियाँ हमारी हें फिर हम किसी की तरफ क्यों देखें? जिसे हम खुद पसंद न करते हों उसके अनुरुप चलने का तो सवाल ही नहीं. फिर भी हमारा जीवन ऐसा हो कि जिसमें मानवता , नैतिकता और सामाजिकता के विपरीत जाने वाले आचरण से न जुड़ा हो. नैतिकता , मानवता के प्रतिमान कभी समाज विरोधी नहीं होते और अपने व्यवहार में इनका समावेश जरूरी है

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  26. आपने बहुत उपयोगी आलेख प्रस्तुत किया है!

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  27. आपका आलेख बेहद सटीक है...
    जीवन तो अपनी शर्तों पर ही जीना चाहिए...
    The individuality should remain intact!!!
    would like to share this couplet by वहशत कलकतवी
    कुछ लोग हैं कि वक्त के साँचे में ढल गये
    कुछ लोग हैं कि वक्त के साँचे बदल गये

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  28. पल्लवी जी ,
    आपका दमदार आलेख बहुत पसंद आया,.और आपकी बातो १००प्रतिसत सहमत हूँ,...बेहतरीन लेखनी,...बहुत सुंदर पोस्ट,....
    समय निकाल कर मेरे ब्लॉग '"काव्यांजलि"में आइये

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  29. aapne rojmarra ke jeewan se jude tathyon ko bahut behtarin tareekel se chitrit kiya hai..aapne MA angregi bhasa me jarur kiya hai lekin hindi par aapki pakad utni hi jabardast hai...pahli baar aapke blog par aana hua..accha laga..sadar badhayee

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  30. आपकी बातो १००प्रतिसत सहमत हूँ |

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