Thursday, 23 February 2012

ख्वाइशें ....





"कमबख़्त यह ख्वाइशों का काफिला भी बड़ा अजीब होता है
गुज़रता भी वहीं से हैं जहां रास्ते नहीं होते"   

इंसान एक मगर उसकी ख्वाइशें अनेक वो भी ऐसी-ऐसी की हर इंसान बस यही कहता नज़र आता है।

हज़ार ख्वाइशें ऐसी की हर ख्वाइश पर दम निकले, 
जितने भी निकले मेरे अरमान बहुत कम ही निकले....

हर इंसान के साथ आख़िर ऐसा क्यूँ होता है। किसी के पास सब कुछ है, तो भी उसे और भी बहुत कुछ पाने की चाह है और जिसके पास कुछ भी नहीं उसे तो किसी न किसी चीज़ की चाह होना लाज़मी है ही, क्यूँ कभी कोई इंसान संतुष्ट नहीं होता ? शायद इसलिए, कि जिस दिन इंसान अपने आपसे संतुष्ट हो गया उस दिन उसकी आगे बढ़ने की चाह ख़त्म हो जायेगी और यदि ऐसा हुआ तो उसका विकास रुक जायेगा। इसलिए शायद किसी ने ठीक ही कहा है।

"इंसान की ख्वाइश की कोई इंतहा नहीं 
दो गज़ ज़मीन चाहिए दो गज़ कफन के बाद" 

मगर जैसा कि मैंने उपरोक्त पंक्तियों में कहा है कि कमबख़्त यह ख्वाइशों का काफिला भी अजीब होता है। जब तक मंज़िल मिल नहीं जाती तब तक ऐसा ही महसूस होता रहता है, कि इन ख्वाइश के पूरा होने के लिए कोई रास्ता ही नहीं है। कुछ ख्वाइशों को तो हम भूलकर अपने जीवन में आगे बढ़ते रहते हैं मगर वास्तव में उन्हें भी हम भूला नहीं करते कहीं न कहीं हमारे मन में वो ख्वाइशें सदा बनी रहती हैं। जिनको लेकर यही लगता है कि काश यह ख्वाइश कभी पूरी हो पाती तो कितना अच्छा होता। मगर इंसान के जीवन में कुछ ख्वाइशें ऐसी भी होती हैं। जिसका उसे यकीन होता है,कि यह तो पूरी हो ही सकती हैं और होती भी हैं मगर यह ज़रूरी नहीं होता की एक बार के प्रयास से ही वो पूरी हो जायें, कई बार बार-बार प्रयास करने पर भी सफलता देर से हाथ लगती है। जिसके कारण हम कभी-कभी बहुत ही हताश और निराश हो जाते हैं ऐसे में जरूरत होती है धेर्य रखने की जो कुछ लोग ऐसी परिस्थिति में नहीं रख पाते।

नतीजन कभी-कभी तो स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है कि कुछ पलों के लिए ऐसा भी लगने लगता है कि अब तो बस दुनिया ही ख़त्म है। अब कुछ बचा ही नहीं जीने के लिए, ऐसी परिस्थियों के चलते कुछ लोग तो इस कदर हताश और निराश हो जाते है, अपनी ज़िंदगी से कि आत्महत्या जैसा गंभीर कदम तक उठा लेते हैं। उस वक्त हम अक्सर यह भूल जाते हैं, कि "जहां चाह हो वहाँ राह भी निकल ही आती है" इसलिए किसी भी परिस्थिति से घबराना नहीं चाहिए बल्कि ठंडे दिमाग से उसका हल निकालने के बारे में सोचना चाहिए। मगर उस वक्त और उन हालातों में उस इंसान की मनस्थिति इन बातों को समझने की शक्ति जैसे खो ही देती है। तब दिमाग में अधिकतर नकारात्मक खयाल ही ज्यादा आते है। कोई समझाये तो भी कुछ समझ नहीं आता है, बस एक ही बात मन में रह-रह कर उठती है, कि जिस पर गुज़रती है वही जानता है। कहना बड़ा आसान होता है, या यूं कहिये कि किसी दूसरे को समझना भी एक बार आसान लगता है, मगर जब वही स्थिति खुद पर आती है, तो अक्सर हम खुद को ही नहीं समझा पाते कि क्या सही है और क्या गलत। तब हमारे मन में भी तो यही आता है ना!!!

"जाके पैर न फटे बिवाई    
वो क्या जाने पीर पराई" 

वैसे देखा जाये तो ऐसी परिस्थियाँ आमतौर पर सभी के जीवन में एक न एक बार ज़रूर आती हैं। कुछ लोग इन परिस्थियों से पार पा जाते है। तो कुछ लोग इन से जूझते रहते है और कुछ वो जो हारकर कोई गलत कदम उठा लिया करते हैं। मैं यह तो नहीं कहती, कि ऐसा बड़ों के साथ कम और बच्चों के साथ ज्यादा होता है। लेकिन देखा जाये तो यह भी गलत नहीं होगा। माना कि ऐसी परिस्थियाँ दोनों के जीवन में ही आती है, मगर बड़े लोग खुद पर शायद काबू पाने में थोड़े ज्यादा सक्षम होते हैं। बच्चों से यहाँ मेरा तात्पर्य (टीनएजर्स) से हैं यानि कि 13,14 साल के बच्चों से लेकर 20,22 साल तक के लोग। मुझे ऐसा लगता है, कि यही वो आयु वर्ग है जो जीवन में आने वाली नित-नई परिस्थियों का सामना करते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ना सीख रहे होते हैं और उस वक्त उन बेचारों की गिनती न तो बच्चों में होती है और ना ही बड़ों में जिसके कारण वह कभी-कभी परिस्थितियों के अनुसार सही निर्णय नहीं ले पाते। शायद यही एक कारण हो, कि परीक्षा में फेल हो जाने जैसे मामूली कारण को भी वह झेल नहीं पाते और बात आत्महत्या जैसा गंभीर रूप धारण कर लेती है या फिर प्यार में नाकायाबी भी कुछ हद तक ऐसा ही गंभीर परिस्थिति में ला खड़ा कर देती है। 

ऐसा केवल मेरा कहना या मानना नहीं है, बहुत सारी फिल्मों में भी यह बात दिखाई गई है। फिर चाहे वो 3 Idiots जैसी कोई फिल्म हो या फिर मुन्ना भाई MBBS जैसी कोई फिल्म, खैर हम बात कर रहे थे उन टीनएजर 
बच्चों के भटकने की वैसे देखा जाये तो गलती उनकी भी नहीं है आज कल के आधुनिक युग में बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा ने बच्चों और अभिभावकों दोनों को इस कदर हैरान परेशान कर रखा है कि शायद दोनों ही अपने-अपने दायित्वों को भूलकर बस भागे चले जा रहे हैं इस प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में, जिसके चलते इसका सबसे ज्यादा दबाव पड रहा सिर्फ और सिर्फ बच्चों पर, जहां उनको हर ओर से मात्र इतना कहा जा रहा है और समझाया जा रहा है कि 

"जीवन एक दौड़ है यदि तुम तेज़ नहीं भागोगे तो 
कोई और तुम को कुचलकर आगे निकल जाएगा"

इसलिए बस भागो और हमेशा अव्वल आने की कोशिश में लगे रहो। मगर कोई उनसे एक बार भी यह पूछने का कष्ट नहीं करता कि तुम क्या चाहते, और जो भी चाहते उसको करने के लिए सही तरीका क्या है। जबकि मेरे हिसाब से तो अभिभावकों को खुद आगे बढ़कर अपने बच्चे की इच्छा अनुसार उसका मार्ग दर्शन करना चाहिए।  मगर अफसोस कि आज के इस युग में भी बहुत ही कम अभिभावक ऐसा कर पाते हैं। मेरी तो यह समझ में नहीं आता की जब अभिभावक खुद उन परिस्थितियों से गुज़र चुके होते हैं तो फिर वो बजाए अपने उन अनुभवों को अपने बच्चों के साथ सांझा करने के उन पर अपनी मर्ज़ी क्यूँ थोपते है। ? फिर चाहे वो मामला पढ़ाई लिखाई का हो या प्यार मोहब्बत का, बाकी मुझे तो ऐसा लगता है, कि उस उम्र में तो माता-पिता को बच्चों से दोस्तों जैसा व्यवहार करते हुए अपने जीवन के ऐसे अनुभवों को अपने बच्चों के साथ सांझा करना ही चाहिए। इससे ना सिर्फ बच्चे आपके और भी करीब हो सकते हैं। बल्कि उनको अपने जीवन में आने वाली वैसी परिस्थियों से लड़ने की प्रेरणा भी मिल सकती है।

अन्तः बस इतना ही कहना चाहूंगी की परीक्षा का समय नजदीक आ रहा है और फिर उसके बाद परिणाम, हमारी कोशिश बस इतनी होनी चाहिए कि हम न सिर्फ अपने बच्चों को बल्कि दूसरों के बच्चों को भी इतना प्रोत्साहन दें कि उसका मन भी आगे आने वाली परिणाम रूपी समस्या से जूझने के लिए मजबूत हो सके और यदि संभव हो तो अपने आसपास रह रहे ऐसे अभिभावकों को भी समझाने की कोशिश करें कि यदि परिणाम अच्छा न भी आया तो भी बच्चों को शांत मन और ठंडे दिमाग से समझाये न की उसको यह एहसास दिलाये कि  उसने अव्वल न आकर समाज में उनकी नाक कटवादी अब तेरे लिए दुनिया ख़त्म ....  

मुझे तो केवल एकमात्र यही एक तरीका सही नज़र आता है आपको क्या लगता है?  

27 comments:

  1. बहुत सार्थक और सारगर्भित आलेख...

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  2. शुक्रवार के मंच पर, तव प्रस्तुति उत्कृष्ट ।

    सादर आमंत्रित करूँ, तनिक डालिए दृष्ट ।।

    charchamanch.blogspot.com

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  3. ख्वाहिशे न कभी पूरी होती हैं न कम ... यह तो समुद्र का पानी है

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  4. सारा संसार ही ख्‍वाहिशों में सिमटा हुआ है ... सार्थक व सटीक लेखन ..आभार ।

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  5. थोड़ी लगाम भी बड़े काम की चीज है वरना इस नई पीढी का हाल वही होगा जो आज अमेरिका की वर्तमान पीडी के समक्ष है ! मिंया ओबामा कहते-कहते थक गए है कि जवानो सुधरों वरना चीन और इंडिया आगे निकल जायेंगे !

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  6. hamari kwaishe hi hamko har waqt ghere rehti hai ......bahut sunder

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  7. परीक्षा श्रेष्ठता सिद्ध नहीं करती है..

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  8. यह मन तो चलायमान होता है । इसकी इच्छाओं की कोई सीमा नहीं । इसे वश में रखना ही समाधान है । जिसने इच्छाओं को जीत लिया , उसने मोक्ष का रास्ता पा लिया ।

    यही है ना गीता का ज्ञान ।
    लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में लालसा और विकास में अंतर रखना ज़रूरी है ।

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  9. bahut sateek vishleshan kiya hai. aaj sabse badi samasya pratispardha hai, jisase abhibhawak aur bachche prabhaawit hain. mata-pita apni khwaaishon ko apni santaan ke jariye pura karna chaahte han, is karan bhi paisthiti bhayawah ho rahi hai aur parinaamswaroop asantosh badhta ja raha hai. bahut achchha lekh, badhai.

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  10. शुक्रिया डॉ जेन्नी शबनम जी, मैंने इस आलेख के माध्यम से जो संदेश लोगों तक पहुँचाना चाह, उस उदेश को केवल अभी तक आपने वैसा समझा जैसा मैं चाहती थी। :) आपकी बातों से सहमत हूँ मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और अपने महत्वपूर्ण विचारों से मुझे अनुग्रहित करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद....

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  11. सहमत हूँ...सिर्फ नम्बर रेस ही सब कुछ नहीं है......

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  12. सुन्दर विचारोत्तेजक निबंधात्मक आलेख!

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  13. पढाई करके नौकर बनने का भूत हमपर इतना हावी है कि हम डिग्रियों को ही सबकुछ मान बैठे है। समाज में प्रतिष्‍ठा भी इसी बात की है। इसीकारण माता-पिता बच्‍चों पर अपनी ईच्‍छा थोपते हैं और हताशा में बच्‍चे गलत कदम उठा लेते हैं।

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  14. आप अंत में ये लिख कर की "आपको क्या लगता है", गडबडी कर देती हैं..अरे जवाब लिखने में बहुत सोचना पड़ता है जी ;)

    एनीवे,
    प्रवीण भैया की बात को मैं भी कहूँगा,
    परीक्षा श्रेष्ठता सिद्ध नहीं करती है...इसका उदाहरण मेरा एक दोस्त ही है!!

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  15. 1.चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई.
    2.आधी छोड़ पूरी को धावै, आधी पावै न पूरी पावै.
    सुंदर विचारोत्तेजक लेख.

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  16. परीक्षाएँ पड़ाव मात्र हैं. जीवन तो चलने का ही नाम है. अभी हाल ही में हमारे एक पड़ोसी परिवार ने 92 प्रतिशत अंक पाने वाला अमूल्य जीवन खो दिया. जाने वाले का जाने का फैसला अपना था. अब उसके 92 प्रतिशत अंक दर्शाने वाले प्रमाण-पत्र ही बचे हैं. मन बहुत उदास है. बच्चों को स्वस्थ सोच देना अधिक महत्वपूर्ण है. आपके दृष्टिकोण से सहमत हूँ.

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  17. अति उत्तम,सारगर्भित सराहनीय प्रस्तुति,सुंदर आलेख,...

    NEW POST काव्यान्जलि ...: चिंगारी...

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  18. हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले।
    बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन कम निकले॥
    ख्वाहिशें किसी के लिए पूरी करने के लिए होती हैं, तो किसी के लिए पूरे करवाने के लिए।

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  19. निश्चित ही विचारणीय मुद्दा है. उत्तम चिंतन...सारगर्भित आलेख.

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  20. मैं केवल इतना ध्यान रखता हूँ कि बिटिया खूब खेल रही है या नहीं. आतंरिक प्रसन्नता ही काग़ज़ के टुकड़े में भी चमक लाती है.

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  21. सारगर्भित सार्थक प्रस्तुति,बधाई,...

    पल्लवी जी,.. समर्थक बन गया हूँ,आपभी बने मुझे खुशी होगी,...

    NEW POST ...काव्यान्जलि ...होली में...

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  22. Pallavi ji,
    apne bachchon ke abhibhavakon ko bahut achchha sandesh diya hai is lekh me...sach apki bachchon ke manobhavon ke samajh aur unko age badhane ki koshish prashansaniya hai...ise ap kisi patrika ya akhbar ke liye bhi bhej sakti hain..bahut saral bhasha me ek preranadayak lekh..
    Hemant

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  23. आपकी पोस्ट ब्लोगर्स मीट वीकली (३३) में शामिल की गई है /आप आइये और अपने विचारों से अवगत करिए /आपका स्नेह और आशीर्वाद इस मंच को हमेशा मिलता रहे यही कामना है /आभार /
    इसका लिंक है
    http://hbfint.blogspot.in/2012/03/33-happy-holi.html

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