खैर हम बात कर रहे थे, इस हत्याकांड से जुड़े खासकर उस व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद जिसने यह हत्या की थी। उसने अपने बचाव के लिए जो ब्यान दिया कि मैं एक मानसिक रोगी हूँ। यह खबर पढ़कर और सुनकर लोग दंग रह गए कि ऐसा कैसे हो सकता है, कि एक मानसिक रोगी खुद कुबूल करे, कि वो एक मानसिक रोगी है। सबको साफ-साफ और सीधा समझ आरहा है कि यह बात उस व्यक्ति ने खुद को सजा से बचाने के लिए कही है। दूसरी बात लोगों के दिमाग में यह आयी कि अगर ऐसा ही था, तो वहाँ के लोगों ने अर्थात उसके परिवार वालों ने उसे किसी मानसिक चिकित्सालय में क्यूँ नहीं रखा। आखिर वह उसे ऐसे बाहर कैसे घूमने दे सकते हैं। यह सब में एक सामूहिक चर्चा के दौरान सामने आये विचारों को मद्देनज़र रखते हुए लिख रही हूँ। क्यूँकि जब आप किसी समहू मे खड़े होते हो, तो चार लोगों के अलग-अलग विचार आपके समक्ष आते हैं और आपको यह समझ आता है कि किसी एक घटना को लेकर लोग कितनी अलग-अलग सोच रखते हैं।
हालांकी अभी यह केस ख़त्म नहीं हुआ है इस केस की अगली सुनवाई अब मार्च में है। मगर अब जो बात में कहने वाली हूँ। उसका मतलब यह कतई नहीं कि,मैं खुद एक भारतीय होकर भी यहाँ के पक्ष में बोल रही हूँ। बल्कि मैं तो सिर्फ सही और गलत में फर्क करने की कोशिश कर रही हूँ। इस विषय में मेरा यह कहना है, कि हमारे यहाँ भी तो पागल सारे आम खुले सड़कों पर घूमते है और ऐसा भी नहीं है कि हमारे यहाँ के लोग खुद को सजा से बचाने के लिए यह हथकंडा नहीं अपनाते, तो फिर जब हमने यहाँ उस व्यक्ति का ब्यान सुना तो, हमको इतना बुरा क्यूँ लगा। हालांकी यह बात अलग है, कि सबको पता है कि सजा से बचने के लिए ही उसने ऐसा कहा तो यह तो हमारे यहाँ भी होता है ना!!! ,हाँ मगर सजा से बचने के लिए यह तरीका अपनाया जाना सरासर गलत है फिर चाहे वो यहाँ हो, या वहाँ (हम से मेरा तात्पर्य यहाँ उन भारतीय लोगों से जिन्होंनें इस बात पर बहुत ही आक्रोश पूर्ण व्यवहार दिखाया था ) लेकिन क्या कभी हमने यह सोचा है, कि हो सकता यहाँ के लोग भी हमारे यहाँ के मानसिक रोगीयों को लेकर ऐसी ही धारणा रखते हो।
अब यदि हम दूसरी घटना की बात करें तो उसको लेकर भी लोगों ने कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया जाहीर की थी, कि यहाँ के बच्चों को देखो सब कुछ माता-पिता ही करते हैं। भारतीय अभिभावकों की तुलना मे यहाँ के अभिभावक अपने बच्चों को खुद पर कहीं ज्यादा आश्रित रखते हैं। उसके बावजूद भी नॉर्वे में रह रहे परिवार के साथ ऐसी घटना घटी। इससे भी लोगों के मन में यही बात आई कि हो ना हो, इस सबके पीछे भी रंगभेद ही एकमात्र कारण रहा होगा। क्यूँकि रंग भेद को लेकर भेदभाव तो हम गाँधी जी के समय से देखते, पढ़ते और सुनते चले आरहे है। कुछ लोगों को तो इसका अनुभव भी होगा। इस बात को लेकर भी हम को बहुत बुरा लगता है। लगना भी चाहिए यह बात है ही सरासर गलत, मगर क्या हमने खुद कभी अपने अंदर झांक कर देखने की कोशिश की है ? कि हम क्या हैं और हम खुद कैसे व्यवहार करते हैं अपने देश में रह रहे आप्रवासियों के साथ? अपने दिल पर हाथ रखकर कहिएगा, कि क्या किसी अफ्रीकन को देखकर हमको अजीब नहीं लगता? क्या उनके लिए हम उनके मुंह पर ना सही मगर पीठ पीछे अपशब्दों का प्रयोग नहीं करते ?? न केवल अफ्रीकन बल्कि ,चीनी जापानी या अन्य किसी भी देश के लोगों के प्रति भी हमारा रवैया कुछ ऐसा ही रहा करता है। वरना उनको चिंकी नाम से यूँ ही संबोधित नहीं किया जाता।
अब यदि हम दूसरी घटना की बात करें तो उसको लेकर भी लोगों ने कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया जाहीर की थी, कि यहाँ के बच्चों को देखो सब कुछ माता-पिता ही करते हैं। भारतीय अभिभावकों की तुलना मे यहाँ के अभिभावक अपने बच्चों को खुद पर कहीं ज्यादा आश्रित रखते हैं। उसके बावजूद भी नॉर्वे में रह रहे परिवार के साथ ऐसी घटना घटी। इससे भी लोगों के मन में यही बात आई कि हो ना हो, इस सबके पीछे भी रंगभेद ही एकमात्र कारण रहा होगा। क्यूँकि रंग भेद को लेकर भेदभाव तो हम गाँधी जी के समय से देखते, पढ़ते और सुनते चले आरहे है। कुछ लोगों को तो इसका अनुभव भी होगा। इस बात को लेकर भी हम को बहुत बुरा लगता है। लगना भी चाहिए यह बात है ही सरासर गलत, मगर क्या हमने खुद कभी अपने अंदर झांक कर देखने की कोशिश की है ? कि हम क्या हैं और हम खुद कैसे व्यवहार करते हैं अपने देश में रह रहे आप्रवासियों के साथ? अपने दिल पर हाथ रखकर कहिएगा, कि क्या किसी अफ्रीकन को देखकर हमको अजीब नहीं लगता? क्या उनके लिए हम उनके मुंह पर ना सही मगर पीठ पीछे अपशब्दों का प्रयोग नहीं करते ?? न केवल अफ्रीकन बल्कि ,चीनी जापानी या अन्य किसी भी देश के लोगों के प्रति भी हमारा रवैया कुछ ऐसा ही रहा करता है। वरना उनको चिंकी नाम से यूँ ही संबोधित नहीं किया जाता।
मुझे अपने बचपन का एक किस्सा आज भी याद है एक बार बस में हमारे साथ एक नीग्रो व्यक्ति बैठा था। जिसे हिन्दी ज़रा भी समझ में नहीं आती थी। उस वक्त उस बस कंडेक्टर ने एक बेहद भद्दा मज़ाक करते हुए जान बूझकर उस व्यक्ति से हिन्दी में कहा था, कि आप लोगों के यहाँ बच्चा पैदा होते ही क्या उसके बाल तवे पर सेंक दिये जाते है क्या...और यह सुनकर बस के सारे लोग उस कंडेक्टर को डांटने या समझाने के बजाए ज़ोर-ज़ोर से हंस रहे थे। जिससे और कुछ हो न हो, मगर उस व्यक्ति हो इस बात का आभास बहुत अच्छे से हो गया था, कि ज़रूर मेरे बारे में कोई हास्यस्प्द बात कही गई है। जिसको सुनकर सब लोग हंस रहे हैं। मगर वो बेचार क्या करता पूरी बस में नीग्रो के नाम पर बस वही एक अकेला था। इसलिए वो भी हंस के रह गया। यह बात तब की है जब में शायद 8-9 साल की रही होंगी तो ज़रा सोचिए कि इतने साल पहले भी हमारे यहाँ अप्रवासियों के प्रति हमारी यह मानसिकता थी, तो अब क्या यह मानसिकता बढ़ी नहीं होगी?? जहां तक मेरी सोच कहती है ज़रूर बढ़ी होगी। बस फर्क शायद सिर्फ इतना ही होगा कि हम सामने वाले व्यक्ति को यह बात हर पल हर जगह दर्शाते नहीं है। ना ही हर घड़ी उसे महसूस कराते है। जो कि यहाँ आज भी जारी है, हाँ बस फर्क यहाँ भी इतना आया है कि अब यहाँ भी उतना खुले आम नहीं होता। मगर होता ज़रूर है, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
ठीक वैसे ही हमारे मन के अंदर भी आप्रवासियों के लिए काफी हद तक वही मानसिकता है, जो यहाँ के लोगों में हम भारतीय लोगों के प्रति है। हाँ मगर इतना परिवर्तन शायद ज़रूर आया है कि अब हम उन आप्रवासियों की भावनाओं को बखूबी समझने लगे हैं। क्यूंकि अब ज्यादातर हर मध्यम वर्गीय परिवारों में से कम से उस घर का एक न एक सदस्य विदेश में हैं। वरना ईमानदारी से कहूँ तो हम लोग तो हमारे यहाँ आये पर्यटकों को भी नहीं बख्श्ते। जबकि उनसे तो हमारे देश को फायदा होता है। उन्हे भी हर छोटी बड़ी चीजों को लेकर ठगा जाता है। तो जब हम नहीं बदल सकते तो फिर भला सामने वाले से बदलने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं हम, एक और 26 जनवरी या 15 अगस्त आते ही अचानक से लोगों में देश प्रेम जाग जाता है और अंगेज़ों को गालियां देते लोग कुछ दिनों बाद चुप हो जाते हैं और उनका सारा जोश ठंडा पड़ जाता है और जैसा की आप सब जानते ही हैं, कि आज के दौर में नौकरी के चलते वैसे ही लोग विदेश जाने लगे है और विदेश में बसने को लालायित भी है। फिर चाहे यहाँ आने के बाद ऐसी ना जाने कितनी अनगिनत घटनाओं का सामना ही क्यूँ न करना पड़े।
ठीक वैसे ही हमारे मन के अंदर भी आप्रवासियों के लिए काफी हद तक वही मानसिकता है, जो यहाँ के लोगों में हम भारतीय लोगों के प्रति है। हाँ मगर इतना परिवर्तन शायद ज़रूर आया है कि अब हम उन आप्रवासियों की भावनाओं को बखूबी समझने लगे हैं। क्यूंकि अब ज्यादातर हर मध्यम वर्गीय परिवारों में से कम से उस घर का एक न एक सदस्य विदेश में हैं। वरना ईमानदारी से कहूँ तो हम लोग तो हमारे यहाँ आये पर्यटकों को भी नहीं बख्श्ते। जबकि उनसे तो हमारे देश को फायदा होता है। उन्हे भी हर छोटी बड़ी चीजों को लेकर ठगा जाता है। तो जब हम नहीं बदल सकते तो फिर भला सामने वाले से बदलने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं हम, एक और 26 जनवरी या 15 अगस्त आते ही अचानक से लोगों में देश प्रेम जाग जाता है और अंगेज़ों को गालियां देते लोग कुछ दिनों बाद चुप हो जाते हैं और उनका सारा जोश ठंडा पड़ जाता है और जैसा की आप सब जानते ही हैं, कि आज के दौर में नौकरी के चलते वैसे ही लोग विदेश जाने लगे है और विदेश में बसने को लालायित भी है। फिर चाहे यहाँ आने के बाद ऐसी ना जाने कितनी अनगिनत घटनाओं का सामना ही क्यूँ न करना पड़े।
खैर यह सब तो शायद चलता ही रहेगा। कहने का मतलब बस इतना है उन लोगों से जिन्होनें ऐसी घटनाओं को देख, सुनकर बेहद आक्रोश दिखाया था, कि केवल ज्ञान बाँटने से कुछ नहीं होता पहले ज़रा एक बार खुद के अंदर भी झांक कर देख लेना चाहिए फिर किसी दूसरे व्यक्ति पर उंगली उठानी चाहिए। क्यूंकि वो कहते है ना
क्यूंकि ज़िंदगी में सबसे ज्यादा मोल उसका नहीं है कि आप ने अपनी ज़िंदगी में क्या खोया क्या पाया। बल्कि वास्तव में अहम बात तो यह हैं कि उन संघर्षों के बाद आप आखिर में क्या बन पाये, कहते हैं ना "एक बार भगवान बनना भी उतना मुश्किल नहीं जितना की एक नेक दिल इंसान बन पाना मुश्किल है"
आपको क्या लगता है :)
"जब आप खुद किसी व्यक्ति पर एक उंगली उठाते हो,
तब आपकी खुद कि तीन उंगलिया खुद आपकी ओर ही इशारा कर रही होती हैं"
आपको क्या लगता है :)
very nice post pallavi ji...
ReplyDeleteआपके विचार काफी संतुलित और वर्तमान घटनाओं पर प्रकाश डालने वाले हैं .....लेकिन काफी हद तक मैंने जो महसूस किया है वह यह कि यह सब व्यक्ति की संकीर्ण सोच का परिणाम है .....व्यक्ति - व्यक्ति से भेद करे यह किसी भी स्तर पर नहीं होना चाहिए ....!
ReplyDeleteभेद करने की प्रवृत्ति हम सबके भीतर ही है, सब में एकरूपता देखने का परमहंसीय गुण तो धीरे धीरे आता है।
ReplyDeleteसबको समान मानने की सोच तो लानी ही होगी अगर सद्भाव का वातावरण चाहिए .....
ReplyDeleteबिहार के लोग और महाराष्ट्र के ठाकरे बंधुओं से बेहतर और क्या उदाहरण हो सकता है, और यह नहीं की सिर्फ ठाकरे बंधुओं के ही ऐसी मानसिकता हो मराठियों की एक बड़ी तादाद भी उनके पीछे है ! नार्वे के उस वक्ती का कसूर सिर्फ यह है की उसने ८७ निर्दोषों का क़त्ल किया, बाकी कोई गुनाह नहीं किया ! क्योंकि भेदभाव से उपजी जलन हर इन्सान की प्रवृति होती है !
ReplyDeleteतुम्हारी पोस्ट पढ़ने के बाद अपनी लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आ गई .....
ReplyDeleteअपने अहंकार को तू थाम
कहीं वो
तेरी महानता को
खत्म ना कर दे |
ना कर तू किसी
कि तरफ अंगुली
देख,तीन तेरी
तरफ है झुकी हुई|
ना कर तू क्रोध
इतना कि
तेरे अंदर का
ज्वालामुखी फट जाये
और सब विवेक को नाश कर दे |.......अनु
बहुत संतुलित और विचारणीय आलेख...सभी जगह भेदभाव एक स्वाभाविक प्रवृति हो चुकी है और जब तक यह दूर नहीं होगी समानता और सद्भाव की बात करना व्यर्थ है...
ReplyDeleteकहना सही है की हम भी उसी मानसिकता के शिकार हैं जिसके पूरा विश्व ... बल्कि हम तो कुछ ज्यादा ही हैं ... एक राज्य के लोग दुसरे राज्य की लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं ... और ये असमानता अपने देश में बढती जा रही है कम होने की बजाये ... पर फिर भी किसी की हत्या करना या माता पिता को बचों से दूर करना गलत है ...
ReplyDeleteबिलकुल ठीक .हम ( भारतीयों ) से ज्यादा इस भेदभाव को कौन करता होगा ? विदेशी छोडो हम तो अपने देश में ही प्रदेश और जातियों के बीच भेदभाव करते हैं और सामने से करते हैं.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteaap ne sahi likha hai ki jab hamare desh mai yaisa hota hai to hum logo ko yaha rah kar kya umida karni chaye.sunadar lekha
ReplyDeleteरंगभेद और नस्लभेद दुनिया में पुराना चला आ रहा है. ध्यान से देखें तो भारत के जातिवाद के पीछे भी नस्लवाद और रंगभेद है. महावीर और बुद्ध श्याम रंग के थे. वे सिंधुघाटी सभ्यता से संबंधित हैं जिसे अफ्रीकी मूल की जातियों ने विकसित किया था. भारत में वह नस्ल आगे चल कर रक्त मिश्रण से काली-भूरी-सी हो गई और अंग्रेज़ इसे ब्राऊन रेस कहते हैं. आम यूरोपीय और आस्ट्रेलियाई हमारी नस्ल को इसी दृष्टि से देखते हैं. भारत में तो आपने भी देखा होगा कि जिसका रंग भूरा है वह काले रंग के भारतीय को पहले जाति की कसौटी पर परखता/देखता है तब उसके प्रति अपना व्यवहार निर्धारित करता है. जनजातीय लोगों के साथ कितना अन्याय होता है इसे हम तभी थोड़ा समझ पाते हैं जब देश से बाहर निकल कर हमारे साथ भी घृणा का सुलूक होता है. आपके आलेख ने मुद्दा बखूबी उठाया है. हमारी सोच सदियों से जिस रंग में रँगी है उसे बदलना काफी कठिन है. हाँ शिक्षा के साथ परिवर्तन हो रहा है लेकिन उसे भी फिल्म 'आरक्षण' के प्रोमो आकर बिगाड़ जाते हैं.
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट।
ReplyDeleteसही कहा, भगवान बनना आसान होता है, इंसान बनना कठिन।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
aadmi ko aadmi hona chahiye!
ReplyDeleteआपके आलेख नई चेतना प्रदान करते हैं और विषय को नये सिरे से सोचने पर मज़बूर करते हैं। मन में बहुत समय तक विचार मंथन चलता रहता है।
ReplyDeleteVicharniya Post. Bura jo dekhan mai chala bura n dikha koy jo dil khoja aapne mujhse bura n koy.
ReplyDeleteकई बार भेदभाव न चाहते हुए भी हो ही जाता है.इसके लिएअपने आप में एक नई सोच की नई चेतना की आवश्यकता है..आप का की ये चेतना युक्त आलेख जरूर नई दिशा देगा..विचारणीय लेख..
ReplyDeleteजब आप खुद किसी व्यक्ति पर एक उंगली उठाते हो,
ReplyDeleteतब आपकी खुद कि तीन उंगलिया खुद आपकी ओर ही इशारा कर रही होती हैं
बहुत पते की बात।
aapke vichaar se aksharsh sahmat hun. videshiyon ke sath hone wala durvyawahaar sach mein dukhad hai chaahe yahan ho ya videshon mein. mujhe lagta hai ki desh koi bhi ho sochne ka tareeka ek jaisa hi hai, thoda kam thoda jyada. fir bhi hamari tulna mein videshi jyada sammaniye vyavahaar karte hain. sach hai ki dusron kee galti hum dhundhte hain aur apni sochte bhi nahin. achchha aalekh, shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteसबसे मुश्किल है- चीज़ों को वैसा ही स्वीकारना जैसी वे हैं।
ReplyDeleteये भेद-भाव तरक्की के रास्ते में सबसे बड़ा रोढा है .....
ReplyDeleteसच कहा आपने एक नेक दिल इंसान बनना बहुत ही मुश्किल काम है.
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