Saturday 14 December 2013

जीवन दर्शन का प्रभाव

कभी-कभी सब चीजों को देखते हुए मुझे ऐसा लगता हैं कि उनके प्रति उत्‍पन्‍न होने वाले अनुभव सभी के एक जैसे ही होते हैं। बस इन्‍हें देखने का सभी का नज़रिया अलग-अलग हो जाता है। क्यूंकि सभी मनुष्यों को एक सा ही तो बनाया है विधाता ने। सबके पास सब कुछ एक सा ही तो है।एक सा चेहरा, एक सा दिमाग, एक सा दिल और एक सी आत्मा, लेकिन फिर भी कहीं न कहीं व्‍यक्तिगत अनुभव के स्‍तर पर सभी एक-दूसरे से भिन्न हैं। इस स्‍तर पर सब की सोच अलग हो जाती है। चीजों को देखने-परखने का नज़रिया बदल जाता है, लेकिन चीज़ें वही हैं। यह कुछ वैसी ही बात है जैसे "गिलास आधा खाली है या आधा भरा"। ठीक इसी तरह यह जीवन क्या है, यह आत्मा क्या है, किसी के द्वारा इसकी कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती। इन सबके बीच जो चीज महत्‍वपूर्ण है वो है वह भाव,जो हमारे जीवन के मूल तत्व को उजागर करता है। जिसे दिल-दिमाग या मन-मस्तिष्क के विश्‍लेषण के रोड़े के कारण हम देख नहीं पाते या महसूस नहीं कर पाते। जो लोग अपने साधारण जीवन से अलग हो कर इस मूल तत्व को देख पाने में समर्थ होते हैं, वे ही अपने जीवन के भूत, भविषय और वर्तमान को देखने की क्षमता रखते हैं, लेकिन दुनिया में ऐसे कितने इंसान होंगे जिनके अंदर इस गुण को जानने या परखने की शक्ति विद्यमान है। देखा जाए तो शायद सभी के अंदर यह गुण मौजूद है, लेकिन उसे पहचानने की वो नज़र नहीं है जो होनी चाहिए। मेरे विचार से तो दिल-दिमाग भी आत्मा का ही रूप हैं बल्कि अगर मैं यह कहूँ कि यही आत्मा है तो इसमें कुछ गलत नहीं होना चाहिए।

बात अगर आत्‍मा को पहचान कर इसके अनुकूल कार्य करने की है, तो आत्मा ही हर इंसान को सही और गलत का भेद बताती है। शायद इसीलिए यह प्रचलन में है कि अपनी अन्‍तरात्‍मा की आवाज़ सुनो, क्‍योंकि दिल-दिमाग के निर्णय गलत हो सकते हैं मगर आत्‍मा के नहीं।

एक विचार यह भी उभरता है कि हम अपने दिल और दिमाग को आत्मा से अलग कैसे कर सकते हैं। इनको अलग करके तो आत्मा की कल्पना करना भी व्यर्थ है। इस घोर कलियुग में ऐसे अपरिग्रहण की बात करना ही निरर्थक है। माना कि सारे फसाद की जड़ केवल वस्‍तुओं की लालासा, जरूरतों का बढ़ना है। जबकि एक अच्छे शांतिपूर्ण,सफल एवं सुखी जीवन के लिए जरूरत का कम होना ही जीवन का मूलमंत्र सिद्ध होता है, लेकिन आज की तारीख में शायद यह असंभव सी बात है। कहने को तो यह कहा जाता है कि असंभव कुछ नहीं होता। मेरा भी यही मानना है कि कुछ भी असंभव नहीं है, लेकिन मैं ऐसा भी सोचती हूँ कि जीवन में जो भी मिले उसको उसी रूप में लेते चलना चाहिए जिस रूप में वो है।यही जीवन है और यही इसकी सच्‍चाई।

जीवन का सार गीता में भी लिखा हुआ है, लेकिन फिर भी कुछ बुजुर्ग ऐसा कहते हैं कि गीता भी एक साधारण मनुष्य को 50 वर्ष की आयु के बाद ही पढ़नी चाहिए, क्‍योंकि इससे एक अच्छे-भले इंसान की बुद्धि गृहस्‍थ से विलग हो जाने का ख़तरा बना रहता है। मतलब फिर वह अपना जीवन सहजता से नहीं जी सकता। दुनिया के साथ तारतम्य स्‍थापित नहीं कर सकता, क्‍योंकि गीता में लिखी ज्ञान की बातें इतनी गहरी हैं कि यदि एक आम आदमी उस पर पूरी ईमानदारी से अमल करके चलने लगे तो निश्चित ही वह संत-महात्मा की श्रेणी में आ जाएगा और ऐसा होना उसके पारिवारिक जीवन के लिए सही नहीं होगा।

मैं इस आधुनिक युग में बस यही मानकर चलती हूँ कि जब जो जैसा मिले उसमें मिलकर वैसे ही हो जाओ तो ज्यादा अच्छा है। वरना पानी का बहाव तो चट्टान को भी काट देता है। मैं कोशिश करती हूँ पानी की तरह बने रहने की। चट्टान की तरह नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि मैं किसी वाद-विवाद को जन्‍म दे रही हूँ या मैंने ठान रखी है कि मुझे किसी की कोई बात माननी ही नहीं है। इसलिए कृपया मेरी बातों को अन्यथा न लिया जाए। मैं चाहती हूँ कि दुनिया हर एक इंसान को उस रूप में ही पहचाने जैसे वह वास्‍तविक रूप से होता है।

जीवन क्या है, इस पर बहुत सोचा मगर अब तक समझ नहीं आया। कितनी ही बार पूछा मैंने अमलतास के फूलों से, तपती काली सड़कों से, कूकती हुई कोयल से मगर हर किसी ने मुझे जीवन की एक नई परिभाषा दी। लेकिन जब कभी खुद से एकांत में पूछा तो उपरोक्‍त भाव आए। जीवन तो प्रकृति के कण-कण में है, लेकिन आखिर में इस सिद्धांत पर आकर रुकी कि इंसान का जीवन बड़ी ही तपस्या के बाद मिलता होगा। बड़ा ही जटिल है यह प्रश्न कि जीवन क्या है या आत्मा किसे कहते हैं। इस की कोई निश्चित परिभाषा तो नहीं है,लेकिन फिर कभी-कभी ऐसा लगता है कि इस सब को ठीक तरह से शायद तभी परिभाषित किया जा सकता है जब कोई मृत्यु के बाद की दुनिया को भी देख सकता हो। जिसने उस दुनिया को भी वैसे ही महसूस किया हो जैसे हम इस दुनिया को महसूस करते हैं शायद तभी हम इस जीवन-मरण की परिधि से निकलकर जीवन के सही मायनों को जान सकें। कहते हैं आत्मा अमर होती है। जिस तरह हम कपड़े बदलते हैं उसी तरह से वह शरीर बदलती है। अगर यह सच है तो फिर दिल और दिमाग क्या हैं। ये तो इस शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। फिर वो कौन सा ऐसा तत्व है जो मरने के बाद भी गुंजायमान रहता है। क्या उसी को आत्मा कहते हैं। इस हिसाब से तो व्यक्ति की आवाज़ का दर्जा दिल और दिमाग दोनों से ऊपर होना चाहिए क्‍योंकि व्यक्ति मरता तो है मगर उसकी आवाज़ कभी खत्‍म नहीं होती। कहते हैं मनुष्‍य द्वारा बोले गए सभी शब्द हवा में घुल जाते हैं और तरंगित हो-हो कर बार-बार प्रतिध्‍वनित होते रहते हैं।

खैर वाकई ऐसा कुछ है या यह सब कुछ केवल हमारे मन का भ्रम मात्र है कहना बहुत मुश्किल है। अगर वाकई यह केवल भ्रम है तो फिर कुछ लोगों को कैसे अपना अगला-पिछला जन्म याद रह जाता है। क्‍यों नवजात शिशु घंटों घर की छत को विचित्र भाव से निहारा करते हैं। ऐसा क्या चल रहा होता है उस वक्त उनके मन-मस्तिष्क में कि पल भर के लिए भी उनकी नज़र वहाँ से नहीं हटती। जबकि तब तक तो उनका मस्तिष्क पूरी तरह से विकसित भी नहीं होता। फिर भी उनके चेहरे पर आनेवाले सभी मनोभाव गहरी चिंता में लीन किसी बुजुर्ग व्यक्ति जैसे नज़र आते हैं। अब पता नहीं यह मेरा ही अनुभव है या सभी को ऐसा लगता है। या फिर शायद कोई जवाब ही नहीं इन प्रश्नों का और शायद कभी होगा भी नहीं,क्‍योंकि प्रकृति के खेल निराले है। जिनको समझने के लिए केवल इंसान होना ही काफी नहीं है।

18 comments:

  1. Vikesh Kumar Badola15 December 2013 at 16:24

    जीवन दर्शन के प्रति एक नवीन सोच का विस्‍तार देखने को मिला है इस आलेख में। गहन, गम्‍भीर बात को भी आपने सरलता से लिखा है।

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  2. जीवन तो प्रकृति के कण-कण में है, लेकिन आखिर में इस सिद्धांत पर आकर रुकी कि इंसान का जीवन बड़ी ही तपस्या के बाद मिलता होगा। बड़ा ही जटिल है यह प्रश्न कि जीवन क्या है या आत्मा किसे कहते हैं। इस की कोई निश्चित परिभाषा तो नहीं है,लेकिन फिर कभी-कभी ऐसा लगता है कि इस सब को ठीक तरह से शायद तभी परिभाषित किया जा सकता है जब कोई मृत्यु के बाद की दुनिया को भी देख सकता हो।.....

    बहुत उम्दा पोस्ट लिखा है आपने...

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  3. आत्मा से बढ़कर न कोई द्रष्टा,न गवाह, फिर भी आत्मा से भागकर चलती है दुनिया - सोचते-सोचते कि क्यूँ,कैसे,कब तक कुछ हासिल नहीं होता . अपनी आत्मा में रौशनी हो-यही काफी है

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  4. जीवन दर्शन पर सटीक उम्दा आलेख...!
    RECENT POST -: एक बूँद ओस की.

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  5. Naveen Mani Tripathi15 December 2013 at 21:41

    punarjanm ko samarthan dene wali pustak Geeta hai .Hindu dharm ki samst manytaon ka sambandh punarjanmvad se hai ......Geeta vigyan ke charmotkash pr aadharit hai abhi vigyan vahan tk nahi pahuch saka hai .....Atma ke astittv ke hm prabal samrthak hain . Yah ak mithak hai ki geeta 50 ke bad padhani chahiye ese to jeevan ke prarambhik awastha se hi padhani chahiye ....agar aisa sanskar hm bachchon ko dete hain to aaj bhi bharat ko bhrastachar mukt bharat banaya ja sakata hai ....aur satyug ka prtyksh darshan kiya ja sakata hai ....bahut mahtvpoorn vishay pr apki lekhani uthee hai es pr antheen charcha shadiyon se chal rahi hai geeta padhne ke bad samst anter rahsyon ka gyan apko swth ho jayega ....meri vyktigat salah hai ki ak geeta jaroor padhen kal tk jakar eskan mandir se geeta ghr jaroor layen vishwas kijiye sare prashno ka uttar apko jaroor mil jayega .....apko geeta ka mahan darshan prapt hoga .

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  6. बहुत अच्छा लिखा है आपने. सचमुच जीवन अनंत सोच और व्याख्याओं का विषय है.

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  7. पूरा आलेख बहुत अच्छा लगा । दर्शन का मतलब है देखना और देखना । साक्षी का भाव ही जीव को निर्लिप्त कर देता है । गीता सत्य का दर्शन करने वाली पुस्तक है और लोग नहीं चाहते कि तुम सत्य को जान सको क्योंकि फिर तुम उनके काम के नहीं रहते इसलिए ये मिथक फैलाये हुए है कि बुढ़ापे में जाकर पढ़ो इसे । बुढ़ापे में आकर तो वैसे ही मृत्यु का भय सताने लगता है तब सत्य नहीं सिर्फ एक भय होता है भीतर इबादत तो जवानी में ही होती है |

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  8. jeevan ki gati aur disha karta hai jeevan darshan ...gambheer aalekh ...

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  9. बहुत कुछ है जो नहीं हजम होता.. करना फिर भी पड़ता है.

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  10. एक नई चिंतन धारा...एक गहन विषय पर बहुत सहज आलेख...

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  11. जो प्रश्न मन में आयें, उन्हें उसी समय निवारण के लिये उपाय प्रारम्भ कर देना चाहिये, बाद में पता नहीं क्या है?

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  12. जीवन के मूल तत्व में आस्था बनी रहे तभी जीना सम्भव हो पाता है ..... बहुत अच्छा लिखा है ... बस एक बात मुझे समझ नहीं आती कि किसी ज्ञान को प्राप्त करने की कोई विशेष उम्र का बंधन कैसे लगाया जा सकता है .....

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  13. शास्त्र और शास्ता में यही अंतर है कि जीवन जो अनुभव देता है वो हमारा सत्य होता है और शास्त्र केवल मानसिक विलास भर होता है.

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  14. क्या टिप्प्णी करना आसान नहीं हो सकता है ? बिना इतना कुछ भरे हुए.. पाठकों को अपनी बात कहने में सुविधा होगी..कृपया..

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  15. गहन विषय को बखूबी रक्खा है आपने ...
    जीने की कला इसी बात में है जीवन तत्व में विश्वास और आस्था बनी रहे ... बाकी प्राकृति को कौन समझ सका है अब तक ...

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  16. यहाँ टिप्पणी करने में आपको हो रहे कष्ट के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ अमृता जी। लेकिन चूंकि अब यह साइट ब्लॉगर से जुड़ी हुई नहीं है इसलिए यहाँ इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प भी नहीं है।

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  17. यात्रा वृत्तांत के बाद दर्शन, इससे आपके रेंज का पता लगता है। व‌िचारोत्तेजक लेख, पठनीय, साधुवाद

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  18. संजय भास्कर11 January 2014 at 18:08

    गहन विषय पर आलेख…

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