Saturday, 4 January 2014

आखिर क्यूँ ???

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कुछ दिनों पूर्व सोनी चेनल पर आने वाले धारावाहिक “मैं न भूलूँगी” का एक भाग देखा। सुना है यह नया धारावाहिक अभी-अभी शुरू हुआ है। मैंने इसके पहले इस धारावाहिक का अब तक का कोई एपिसोड नहीं देखा। लेकिन जो देखा उसने मुझे अंदर तक हिलाकर रख दिया। उस दिन मैंने देखा नायिका सड़क पर खड़ी है और रास्ते से गुज़रता हुआ कोई लड़का अचानक उस पर स्याही फेंकता हुआ निकल गया। यह दृश्य देखकर मैं सिहर उठी न जाने क्यूँ मेरे मुँह से एक प्रकार की चीख सी निकल गयी। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे साथ ही ऐसा कुछ हुआ हो और तेजाब हमले का एहसास मेरे अंदर बिजली की तरह कौंध गया। लेकिन मैं हैरान हूँ कि मात्र इस धारावाहिक के एक दृश्य से मैंने वो महसूस किया जिसके बारे में, मैं आज तक केवल सोचती आयी थी।

यह दृश्य देखने के बाद मेरा मन किया कि किसी के गले लग कर रो लूं तो शायद मेरा मन हल्का हो जाये। ऐसा लगा जैसे कुछ है, जो मेरे अंदर रिस रहा है। जैसे किसी चोट में लगा हुआ कोई कांटा या काँच जो आँखों से दिखाई नहीं देता, मगर अंदर ही अंदर चुभता रहता है। जिसके चुभने से रह-रहकर एक टीस सी उठती रही है। ठीक उसी प्रकार मुझे इस दृश्य को देखने बाद महसूस होता रहा।

पतिदेव भी मेरे ठीक बगल में ही बैठे यह दृश्य देख रहे थे। उन्होंने भी यह सब देखा, सुना, मगर उनकी प्रतिक्रिया कुछ ऐसी आयी थी कि 'अरे उसके हाथ में किताब थी न! उसको चाहिए था उस से अपने चेहरे का बचाव कर लेती, कम से कम चेहरा तो बच जाता'। मैं सोच रही थी कोई ऐसा कैसे कह सकता है। स्याही की जगह यदि तेजाब होता तो ? क्योंकि जब कभी किसी के साथ ऐसी कोई घटना या दुर्घटना घटती है तो उस वक्त उस व्यक्ति को इतना सोचने समझने का अवसर ही कहाँ मिलता है कि वो कोई समझदारी वाला कदम उठा सके।

कहने वाले कह कर निकल जाते है, करने वाले करके निकल जाते है और भुगतना केवल पीड़ित व्यक्ति को पड़ता है। समझ नहीं आता आखिर कब बदलेगी हमारी यह मानसिकता। जब हम अपराधी को सज़ा देंगे ना कि पीड़ित व्यक्ति को समझदारी का पाठ पढ़ाते हुए उसे प्रवचन देते रहेंगे। मगर फिर बाद में लगा कि अमूमन सभी तो ऐसा ही सोचते हैं। घटना हो जाने के बाद जन समूह सिवाय ऐसी बातों के और करता ही क्या है। यह तो एक आम सोच है। अगर उन्होंने भी ऐसा सोचा तो क्या नया किया। लेकिन अब इस सोच को बदलना ही होगा और यह शायद तभी संभव होगा जब हम खुद को उस पीड़ित व्यक्ति की जगह पर रखकर सोचेंगे और अपने आने वाली पीढ़ी को भी इसी तरह सोचना सिखाएँगे।

सच कैसा लगता होगा उस व्यक्ति को जिस पर इस तरह के तेजाबी हमले होते हैं। इसका मात्र अनुमान लगा पाना भी संभव नहीं है। बहुत बहादुर है वो महिलाएं जिन्होंने यह सब झेलते हुए भी आत्महत्या को नहीं ज़िंदगी को चुना। आसान नहीं है ऐसा जीवन जीना, रोज़ दुनिया की कड़वी और तीखी नजरों का सामना करना। जिनमें हमेशा या तो दया दिखे या घ्रणा। सोचकर देखो जब हमारे चेहरे पर किसी सौंदर्य प्रसाधन का विपरीत प्रभाव पड़ जाता है और उस वजह से हमारे चेहरे पर किसी प्रकार के दाग धब्बे या त्वचा रोग हो जाता है तो हम कितना बैचन हो जाते हैं। चेहरे पर लगी मात्र एक छोटी सी खरोंच भी हम से बरदाश नहीं होती। तो ज़रा सोचो उन्हें कैसा लगता होगा जिनका पूरा चेहरा ही नहीं बल्कि पूरी ज़िंदगी हमेशा के लिए खराब होकर रह गयी। लेकिन फिर भी वो ज़िंदा है।

कभी सोचा है क्यूँ ? क्यूँकि  वह महिलाएं इंसाफ चाहती हैं, जीना चाहती है।  अपने सपनों को पूरा करना चाहती है। समाज और लोगों की नज़रों में खोया हुआ अपना मान और स्थान वापस पाना चाहती है और क्यूँ न चाहे, जो भी हुआ इसमें भला उनका क्या दोष। फिर हम क्यूँ उन्हें प्रोत्साहित नहीं करते। क्यूँ उन्हें अपनेपन का एहसास नहीं दिला पाते। क्यूँ उन्हें ऐसा लगता है कि उनके साथ हुए इस घिनौने अपराध के पीछे केवल एक वो व्यक्ति ही अकेला जिम्मेदार नहीं है, जिसने उनके साथ ऐसा किया। बल्कि पूरा समाज जिम्मेदारी है। शायद इसके पीछे भी एक बड़ा कारण है पैसा। पुण्य कमाने के नाम पर हम भगवान के मंदिर में लाखों का चढ़ावा चढ़ा देते है। पंडितों को खाना खिलाते है। शादी ब्याहा में पैसा पानी की तरह बहा देते हैं। लेकिन ऐसी किसी संस्था के कामों के लिए देने को हमारे पास पैसा नहीं होता। जो तेजाब हमलों या अन्‍य दुर्घटनाओं में घायल पीड़ितों की मदद करती हो। क्यूँ ? कारण है अंधविश्वास और पूर्वाग्रह से जकड़ी हुई हमारी खोखली मानसिकता जो हमें चाहकर भी इंसान को इंसान नहीं समझने देती।

मगर पूरी तरह गलत हम भी नहीं है। क्यूंकि लोगों की भावनाओं से खेलने वाली संस्थाओं की भी समाज में कमी नहीं है। जो लोगों को उल्लू बनाकर पैसा ठग लेती है। ऐसे में यूँ ही किसी भी संस्था पर आँख बंद करके विश्वास करना ज़रा मुश्किल है। लेकिन फिर भी में यह कहूँगी कि पंडितों को भोज कराने और शादी ब्याहा में अन अनावश्यक पैसा खर्चा करने से अच्छा है ऐसी किसी संस्था से जुड़कर किसी मरते हुए इंसान की मदद कर देना! नहीं ? फिर चाहे बदले में आपका थोड़ा बहुत नुकसान ही क्यूँ न हो जाये। लेकिन कम से कम मन में यह संतोष तो रहेगा कि आपने जो किया उसको करने के पीछे आपकी मंशा और आपका रास्ता दोनों ही अच्छे और सच्चे थे।

इस सब के चलते यदि देखा जाये तो वह पीड़ित महिलाएं पूरी तरह गलत भी नहीं है। कहीं न कहीं देश की कानून व्यवस्था और प्रशासन की लापरवाही के अलावा हम सब भी इसके जिम्मेदार हैं। सोचने वाली बात यह है कि आखिर कहाँ कमी है, जो हम इस तरह के अपराधों को रोक पाने में असमर्थ है। क्या वजह है जो लोग इस तरह से बदला लेने पर आमादा हो जाते है कि उनके बदले की आग में किसी मासूम की पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो जाती है। हम हमेशा अपराध, अपराध करने वाले और पीड़ित व्यक्ति को देखते हैं और अपनी प्रतिक्रिया देते है। देश समाज कानून- व्यवस्था और प्रशासन को गरियाते है। मगर हम में से ऐसे कितने लोग है, जो इस अपराध के पीछे के कारण को जानने या समझने की चेष्टा करते है। यह काम ना तो सरकार करती है और न हम। इस तरह के अपराध करने वाले को हम मानसिक रोगी समझ लेते हैं और कुछ महीनों बाद भूल जाते हैं। कानून भी यही समझकर उन्हें बेल पर रिहा कर देता है और वो खुले आम घूमते फिरते रहते है। लेकिन पीड़ित व्यक्ति का क्या? उसे न तो सही चिकित्सा प्रदान की जाती है न इंसाफ ही दिया जाता है।

इसी बात को यदि अपराधी की नज़र से देखा जाये तो! आखिर क्या कारण होगा जिसने उसे ऐसा घिनौना और संगीन अपराध करने पर विवश कर दिया। मुझे लगता है इस के पीछे हमेशा मानसिक रोग जिम्मेदार नहीं है। इसके पीछे और भी कई कारण है जैसे नशा करना, गरीबी, बेरोजगारी समाज से मिली दुत्कार निराशा और इन सब चीजों से उत्पन्न होने वाला तनाव, कुंठा, क्रोध जो इंसान की सोचने समझने की शक्ति को खा जाता है। जिसके वशीभूत होकर इंसान सही और गलत में फर्क नहीं कर पाता और बदले की आग में ऐसे संगीन अपराध कर बैठता है।हालांकी यह सरासर गलत है। यह कोई तरीका नहीं है अपनी बात रखने का या अपना क्रोध प्रकट करने का, लेकिन क्या आप को नहीं लगता उपरोक्त लिखे सभी कारण इस सब के जिम्मेदार हो सकते हैं ? रही सही कसर न सिर्फ सरकार बल्कि हमारा आजकल का भौंडा चलचित्र और मिडिया पूरी कर रहा है जो शराब पीकर नशा करने और ब्लू फिल्म जैसी अवैध प्रसारण पर पाबंदी लगाने में नाकामयाब है।

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मैं मानती हूँ कि हर माता-पिता अपने बच्चों की अच्छे से अच्छी परवरिश करना चाहते है और करते भी है। कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को गलत संस्कारों से नहीं नवाजते। लेकिन फिर भी कहीं तो कोई ऐसी कमी है, जिसके कारण आज की पीढ़ी अंदर से खोखली है मजबूत नहीं। आज की तारीख में ज़रा–ज़रा सी बातें लोग झेल नहीं पाते। नतीजा या तो आत्महत्या कर लेते हैं या फिर इस तरह से बदला लेते हैं और सज़ा मिलती है किसी मासूम को जिसकी कोई गलती ही नहीं होती। इस तरह के मामलों में मैं सलाम करती हूँ उस “लक्ष्मी” को जिसने खुद अपने ऊपर यह सब झेला। मगर ज़िंदगी से हार नहीं मानी और ऐसे अपराधों को खत्म करने के लिए अपनी ज़िंदगी को एक नया मोड दिया और ऐसे हादसों के विरुद्ध एक लड़ाई की शुरुआत की और "स्टॉप एसिड अटैक" जैसे अभियान को चलाया। जिसके अंतर्गत तेजाब हमले से पीड़ित सभी महिलाओं को उनके इलाज के साथ –साथ जीने का नया हौसला मिलता है। जहां उन्हें यह एहसास होता है कि ज़िंदगी खत्म नहीं हुई है अभी, क्या हुआ जो तुम्हारे पास तुम्हारा चेहरा नहीं बचा, आत्मा तो अब भी बाकी है, तुम्हारे सपने, तुम्हारा हौसला तो अब भी बाकी है। जिसे तुम से कोई नहीं छीन सकता। सच ही तो है।

उस जज़्बे को मेरा सलाम और उन महिलाओं को भी जो इस कठिन परिस्थिति में भी हँसकर अपना जीवन जी रही है और उन्हें भी भाव भीनी विनम्र श्रद्धांजलि जो इस कुकर्म की भेंट चढ़ गयी।

22 comments:

  1. बहुत सटीक और सारगर्भित आलेख...

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  2. सोशल साइट पर गंभीर लेखन कम ही पढ़ने-देखने को म‌िलता है। पल्लवी उन चंद लेखकों में से हैं ज‌िनका ल‌िखा मैं गंभीरता से पढ़ता हूं। अपने संवेदनशील यात्रावृत्तांतों से पल्लवी ने कई लोगों के दिलों में जगह बनाई है। इस लेख ने न सिर्फ मुझे कुरेदा बल्कि यह हर संवेदनशील व्यक्ति को झिंझोड़ कर रख देगा, ऐसा मेरा विश्वास है। महिलाओं पर तेजाबी हमले कल्पनामात्र से ही सिहरा देते हैं। ये विकृत मानसिकता की कोख की उपज हैं।
    इस भावप्रवण लेख के लिए धन्यवाद पल्लवी।
    कुमा अतुल

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  3. यह कैसी पशुता प्रतिबिम्बित

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  4. समाज में एक तबका संवेदनहीन हो गए हैं और शासक वर्ग बेपरवाह हो गए हैं ...आगे क्या होगा ? पता नहीं ....
    नया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |

    नई पोस्ट सर्दी का मौसम!
    नई पोस्ट विचित्र प्रकृति

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  5. पल्‍लवी जी, आज के माता-पिता अपनी संतान के केरियर की चिन्‍ता करते हैं लेकिन चरित्र की नहीं। यह हमारा उत्तर दायित्‍व है कि हम संतानों में दूसरों के लिए सम्‍मान का भाव पैदा करें। तेजाब फेंकने जैसी घटनाएं अपराधी मानसिकता वाले करते हैं और इन्‍हें भी माता-पिता ही बिगाड़ते हैं। हमारा कानून तो उसका पालन तो सख्‍त होना ही चाहिए लेकिन साथ में समाज का दायित्‍व भी बनता है कि वह युवा पीढ़ी के चरित्र पर निगाह भी रखे।

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  6. इस विषय पर पहले भी बहुत सी चर्चाएँ और परिचर्चा आयोजित की जाती रही हैं... महिलाओं के प्रति घर के अन्दर और बाहर होने वाले अत्याचार एक ज्वलंत समस्या है.. लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद भी हल कोई दिखाई नहीं देता... ऐसा करने वाले पुरुषों के नज़रिए से देखें तो यह एक मानसिक रोग है... "अगर तुम मेरी नहीं हुई तो किसी की नहीं हो सकती" वाली मानसिकता, स्वयम को तिरस्कृत किए जाने से लगने वाली अहम को ठेस.. ये सब उसी मानसिकता के कारण हैं!!
    अच्छा आलेख!!

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  7. परेशानी के रूप में यह बहुत बड़ा विकार आ गया है हिन्‍दुस्‍तानी समाज में। इसके होने की वजहें भी मिली-जुली हैं। कुछ वजहें सेक्‍स, खुलापन, विज्ञापन, समलैंगिक जैसे वेश में बाहर से आईं तो कुछ हमारे समाज की सड़ांध से ही जन्‍मी हैं। सवाल ये है कि पीड़ितवर्ग और उनके समर्थक अपनी जिस शासन-व्‍यवस्‍था से इसकी रोकथाम की गुहार लगाएंगे, वह कहीं-न-कहीं खुद जब इसमें शामिल हो तो वह समाधान कैसे कर सकता है। समस्‍या का अच्‍छा विश्‍लेषण किया गया है। ज्‍यादा सराहनीय यह है कि लेखिका ने पीड़ितों के रूप में खुद को रख कर लेखांकन किया है समस्‍या का।

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  8. सारगर्भित, सटीक एवँ सार्थक आलेख पल्लवी जी ! ऐसे घृणित कार्य नकारात्मक सोच रखने वाले अपराधी करते हैं जिन्हें ना तो माता पिता से अच्छे संस्कार मिलते हैं ना ही स्कूल कॉलेजों में मिली शिक्षा को वे सही अर्थों में ग्रहण करने की क्षमता और योग्यता रखते हैं ! कदाचित ऐसी मानसिकता वाले लोगों के घर का वातावरण भी आपराधिक और शिक्षा दीक्षा दोषपूर्ण होती है ! आप से सहमत हूँ कि इस तरह के अपराधों की शिकार हुई लड़कियों की सहायता और मनोबल को बढ़ाने के लिये ठोस कदम उठाने की सख्त ज़रूरत है !

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  9. सार गर्भित ... सोचने को विवश करता आलेख ...
    हमारे समाज में नारी के प्रति कुछ ज्यादा ही अत्याचार होते हैं ... शायद क़ानून का ढीलापन, पुरुष प्रवृत या कुछ भी कहो ... पर कई नारियों का सतास प्रयास ... मस्तक नत कर जाता है ...

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  10. अफसोसजनक हैं ये वीभत्स हादसे ..... अमानवीयता की हद पार करता व्यवहार

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  11. maheshwari.kaneri5 January 2014 at 19:25

    सटीक और सारगर्भित आलेख…

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  12. जयकृष्ण राय तुषार5 January 2014 at 20:24

    सारगर्भित पोस्ट |आभार

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  13. जयकृष्ण राय तुषार5 January 2014 at 20:44

    आदरनीय पल्लवी जी आप बहुत उम्दा सोच और सारगर्भित ढंग से लिखती हैं आपको पढ़ना काफी अच्छा लगता है |आजकल चैनल्स बहुत ही बिकाऊ टाईप सीरियल बना रहे हैं न वहां अच्छे लेखक हैं न अच्छी सोच के डायरेक्टर |महिलाओं की छवि और अधिक बाजारू बना रहे हैं ये सीरियल |विज्ञानं और तकनीकी युग में भी इनके बस कुछ घिसे पिटे विषय ही हैं |

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  14. samyik aur ati mahatvpoorn lekh .....manavta ki raksha honi chahiye .

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  15. तेजाब के बदले तेजाब हो तो शायद समझ में अाए ।

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  16. काश कभी ऐसे मानसिक विकारों और पशुगुण व्याप्त लोगों को समय रहते रोक लेने के तरीके आ जाएँ.

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  17. पल्लवी ! अच्छा तार्किक विवेचन किया है ,पर मुझे इस समस्या का समाधान सिर्फ यही लगता है कि स्त्री को एक स्वंतत्र व्यक्तित्व समझा जाये और उसके प्रति एक सकारात्‍मक रवैया अपनाया जाये ....... सस्नेह !

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  18. आवश्यकता है हमें स्त्री के प्रति अपनी सोच में बदलाव की. परिवार और समाज का दायित्व है कि वह बच्चों में नैतिक भावनाओं और स्त्री के प्रति सम्मान की सोच विकसित करे...बहुत विचारणीय और सारगर्भित आलेख...

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  19. Dr. sandhya tiwari10 January 2014 at 13:42

    आपने जो डर महसूस किया वो कितनी लड़कियों पर गुजर चुका है लेकिन आपकी तरह मै भी उन लड़कियों की हिम्मत को सलाम करती हूँ .

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  20. संजय भास्कर11 January 2014 at 18:07

    ..... सटीक आलेख पल्लवी जी

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  21. samajik visangati pr apka yah lekh karara prhar kar raha hai .na jane kab desh ki kanoon vyavsth nayay kr sakegi ....badhai

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