Thursday 22 December 2011

हमारे बुजुर्ग... (हमारे अनमोल रत्न)

जब हम ज़िंदगी में कदम रखते हैं या यूं कहना शायद ज्यादा ठीक होगा कि जब से हमको समझ में आना शुरू होता है , कि ज़िंदगी क्या होती है जीवन किसे कहते हैं तब हमें यह महसूस होता है कि हमसे जुड़ा हर रिश्ता हमारे जीवन रूपी शरीर के अंगों का कोई न कोई आभूषण है। कहते हैं सोना जितना पुराना हो उसकी कीमत उतनी ही ज्यादा होती है क्यूँकि उस पुराने सोने में शुद्धता ज्यादा होगी ऐसा माना जाता है। यदि यही सच है तो फिर इस नाते हमारे घर के बुजुर्ग भी तो एक तरह का पुराना सोना हुए न हमारे लिए, क्यूंकि वह भी तो हमारी ज़िंदगी में पुराने सोने से कम नहीं एक ऐसा सोना जिसकी चमक कभी खत्म नहीं होती। जिनके अनुभव न केवल हमे, बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ी को भी वह शिक्षा और मार्गदर्शन देते हैं। जिस पर चलकर शायद हम कुछ गलतियाँ करने से पहले ही संभल सकते हैं। उनकी ज़िंदगी का अनुभव एक अलग ही अनुभव कराता है, हमारी नई पीढ़ी को, आपके बच्चे एक बार आपकी बात भले ही न सुनते हों, मगर अपने दादा-दादी, नाना-नानी कि बातें वह बहुत जल्दी और बड़े ही रुचि से सुनते है और मानते भी हैं। ऐसे ही थोड़ी दादा-दादी नाना-नानी की कहानियाँ सुनने में मज़ा आया करता था।

हाँ अब ज़रूर ज़माना बदल गया है। आज कल के नई तकनीकी दौर में बच्चों को भले ही बुज़ुर्गों की कहानी में कोई खास रुचि न बची हो, मगर वह उनको नई तकनीक सिखाने के मामले में बहुत उत्सुक रहते हैं। खासतौर पर कंप्यूटर और विडियो गेम्स ...Smile और जिस वक्त बच्चे यह सब चीजों की जानकारी अपने दादा जी, या नाना जी, को दे रहे होते हैं, वो नज़ारा सचमुच देखते ही बनता है। उस वक्त ऐसा लगता है जैसे कोई स्कूल खुला हो जिसमें बच्चे अध्यापक और बुजुर्ग विधार्थी हों।Smile  बड़ा अच्छा लगता है, जब बच्चे कहते हैं अरे दादा जी, आपको तो इतना भी नहीं पता इसे वीडियो गेम कहते हैं। इस बटन को दबाने से यह होता है, उस बटन को दबाने से वो होता है वगैरा-वगैरा... Smileजैसे बस सब कुछ केवल उनको ही आता हो बाकी सब तो बुद्धू ही होते हैं। ऐसे ही थोड़ी वह कहावत बनी है आपने भी ज़रूर सुनी होगी।

"असल से सूद प्यारा होता है"

शायद यही सच भी है इसलिए हर दादा को बेटे से प्यारे अपने नाती-पोते होते हैं ...है न Smile फिर क्यूँ कुछ लोग और कैसे अपने घर के बुज़ुर्गों को वृद्धाश्रम में छोड़ देते है। जब कभी वृद्धाश्रम के विषय में कुछ भी पढ़ने, सुनने या दिखने को मिलता है तो मन बहुत खिन्न हो जाता है। कैसे कर पाते हैं लोग ऐसा सोच कर भी बहुत बुरा लगता है और मन से न चाहते हुए भी ऐसे लोग के प्रति ऐसे अपशब्द मन में आते हैं, कि क्या बोलो। जिन माता-पिता ने आपको पाला पोसा आपकी हर जरूरत को पूरा किया खुद कि इच्छाओं को मार कर आपको वो सब दिया जो आपने चाहा आपके हर अच्छे बुरे वक्त में यह कहकर आपके पीछे हमेशा खड़े रहे, कि बेटा डरो नहीं आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ है गिरोगे तो हम है ना, हम संभाल लेंगे। तुम बस आगे बढ़ो और जीत लो दुनिया को और बदले में हम से मांगा बस थोड़ा सा प्यार और सम्मान और हमने उन्हें क्या दिया। बात-बात पर अपमान प्यार के बदले नफरत फर्ज़ समझने के बदले बोझ क्यूँ कभी कोई भी इंसान हर दूसरे इंसान कि जगह खुद को रखकर नहीं सोच पाता है। क्यूँ हमेशा ठोकर लागने के बाद ही अक्ल आती है। पहले ही क्यूँ नहीं संभल जाते हैं लोग काश ऐसा हो पता।
बचपन में "हेल्प एज इंडिया" नामक संस्था के नाम पर खूब रुपये जमा किए मैंने, बिना उसका महत्व जाने बस धुन सवार रहती थी, जितने का टार्गेट मिला है उसे ज्यादा जमा करना है। ताकि मेडल और प्रमाणपत्र दोनों मिल जायें बस यकीन मानिये मेरे पास हैं भी बहुत, मगर तब यह नहीं पता था, कि इस सब के पीछे यह घोर कड़वा सच छुपा होगा। तब तो बस इतना पता था कि यह जमा किया हुआ पैसा बुजुर्गों को सहायता करने के लिए हैं कब, क्यूँ, कहाँ, कैसे न यह कभी किसी ने बताया था उस वक्त, न मैंने ही जानने कि इच्छा ज़ाहिर की होगी या फिर की भी हो तो पता नहीं। अब याद नहीं, खैर वो अलग बात थी यूं तो इस विषय पर बहुत सी फिल्में भी बन चुकी हैं और आप सभी लोग इस विषय से अंजान नहीं है। मगर फिर भी यह इंसानी जीवन का वो कड़वा सच है जिसे जब तक इंसान खुद बदलना न चाहे बदल नहीं सकता। क्या वाकई इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी हैं हमारे लिए हमारे बुजुर्ग ?? यदि उन्होने भी यही सोच कर हमको भी पैदा होते ही किसी ऐसी ही संस्था में डाल दिया होता क्या आज हम वहाँ होते जहां आज हैं, मैंने कहीं पढ़ा था।

"हमें ज़िंदगी में हमेशा एक ऐसे इंसान की जरूरत होती है,
जो हम से यह कह सके, कि हमारे बदलते स्वभाव के पीछे क्या कारण है
 न कि वह इंसान हम से यह कहे कि तुम बदल गए हो"
      
शायद ऐसा कुछ हमारे बुजुर्ग भी सोचते होंगे हमारे बारे में, नहीं !!! ज़रा अपने दिल पर हाथ रखकर सोचिये क्या हम ने खुद कभी ऐसी कोई कोशिश की है ? न सिर्फ अपने बुजुर्गों के साथ बल्कि अपने दोस्तों के साथ भी कभी ऐसा कुछ पूछा है ??? नहीं ना ...ऐसी ही एक और बात जो पढ़ने में बड़ी रोचक लगी मुझे, जो है तो जीवन का सच मगर कभी मैंने पहले कहीं इस तरह पढ़ा नहीं था।

"कविता हो ,या कलाकृति 
या फिर नाटक हो कोई
रचियता हमेशा नाम अपना देता है 
मगर माँ भी 
अद्वितीय सर्जक है जो 
संतान को जन्म देकर नाम,
पिता का देती है।

और तब भी कुछ लोग यह सारे परित्याग को एक किनारे कर सब कुछ भुलाकर अपने ही अभिभावकों को वृद्धश्रम के हवाले छोड़ देते हैं, कल एक वीडियो भी देखा था जहां ऐसे ही वृद्धश्रम में कुछ लोग आकर वहाँ रह रहे बुजुर्गों को साबुन, पेस्ट, टॉवल जैसे चीज़ें दान में दे रहे थे। यह सब देखकर अंदर ही अंदर एक इंसान होने के नाते इतनी शर्म आई खुद पर कि "कहाँ जा रहे हैं हम" क्या सिर्फ जरूरते पूरी कर देने भर से  हमारे बुज़ुर्गों के प्रति हमारा फर्ज़ पूरा हो जाता है।? क्या सिर्फ जरूरतों की पूर्ति की उनके जीवन का सहारा बन सकती है। कहते हैं बच्चे बुढे एक समान हुआ करते हैं। तो फिर जब बच्चों को अपने अभिभावकों के प्यार और दुलार की जितनी जरूरत होती है तो क्या वही जरूरत बुज़ुर्गों को नहीं होती। इंसानी मन हमेशा से प्यार का भूखा रहा है। जहां भी थोड़ा सा प्यार और सम्मान मिल जाए बस वहीं का होकर रह जाता है, मन और उस वक्त दिल से जो दुआएं निकलती है वो सीधी परमात्मा तक ज़रूर पहुँचती होंगी ऐसा मेरा मनाना है। लोग पुण्य कमाने और अपने पाप काटने के लिए क्या कुछ नहीं करते।
मंदिरों के दर्शन, तीर्थ न जाने क्या-क्या मगर एक इंसान दूसरे की मदद करके पुण्य कमाने का कभी नहीं सोच पाता क्यूँ??? मंदिर में भिखारियों को 1-2 रुपये दे देना ही क्या पुण्य कमाने के लिए या पाप काटने के लिए काफी  है??? जब निः संतान दंपत्ति एक बच्चा गोद लेकर अपने आँगन में खुशियाँ भरने का सोच सकते हैं तो कोई बुज़ुर्गों के प्रति ऐसा नज़रिया क्यूँ नहीं रख पता। ऐसे न जाने कितने प्रश्न है मेरे मन में मगर सबको यहाँ एक साथ प्रस्तुत कर पाना संभव नहीं इसलिए....

अंत में बस ऐसे लोगों से  जिन्हों ने आपने घर  के इन  बहुमूल्य रत्नो को वृद्धश्रम जैसी संस्थाओं में छोड़ रखा है। ज़रा वह लोग स्वयं को उनकी जगह पर रखकर सोचें कि जब यही व्यवहार आगे चलकर उनकी संतान उनके साथ करेगी तब उनको खुद कैसा लगेगा क्यूंकि बच्चे वही करते हैं और सीखते हैं जैसा वह देखते और सुनते है। वो कहते है न

"जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से पाये" 

तो समझदारी इसी में हैं कि आप भी अपने बुज़ुर्गों को वही मान,सम्मान और प्यार दीजिये जिसके वह अधिकारी है और फिर देखिये उनकी दुआओं का असर आपके पास सदा आम-ही-आम होंगे बबूल के कांटे नहीं ...जय हिन्द                 
              

37 comments:

  1. लेख मे बिलकुल सही बात कही है आपने।

    अपने बुजुर्गों का सम्मान करने को प्रेरित करती पोस्ट।

    सादर

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  2. बहुत सटीक आलेख..आज की पीढ़ी यह भूल जाती है कि कभी वे भी इस अवस्था में हो सकते हैं. वे भूल जाते हैं कि जिन माता पिता ने खुद कष्ट भोग कर उन्हें सब सुख सुविधा देने की कोशिश की, उनको अंतिम दिनों में कमसे कम प्यार तो वे दे ही सकते हैं. आर्थिक रूप से समर्थ बुजुर्ग, किसी पर निर्भर न होते हुए भी अकेकेपन का दंश सह रहे हैं. जो आर्थिक रूप से असमर्थ हैं उनके बारे में सोच कर तो रूह काँप उठती है. क्या हम उन्हें दो प्रेम के शब्द या कुछ पल भी नहीं दे सकते?

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  3. जानते सब हैं मगर यही सोचते हैं ऐसा हमारे साथ नही होगा…………सार्थक व सटीक आलेख्।

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  4. "कविता हो ,या कलाकृति
    या फिर नाटक हो कोई
    रचियता हमेशा नाम अपना देता है
    मगर माँ भी
    अद्वितीय सर्जक है जो
    संतान को जन्म देकर नाम,
    पिता का देती है।
    ....
    तो समझदारी इसी में हैं कि आप भी अपने बुज़ुर्गों को वही मान,सम्मान और प्यार दीजिये जिसके वह अधिकारी है और फिर देखिये उनकी दुआओं का असर आपके पास सदा आम-ही-आम होंगे बबुल के कांटे नहीं ...जय हिन्द

    bahut hi sundar saarthak sandesh deti prastuti..aabhar!

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  5. बहुत सही लिखा है आपने .....हमें बुजुर्गों की जगह खुद को रखकर सोचना होगा

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  6. जो बोएगा वाही पायेगा ..
    सोलह आने सच.

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  7. अच्छा गहन विश्लेषण, तभी तो कहा गया है कि ओल्ड इज गोल्ड . घर में एक वृद्ध इन्सान का उपस्थित रहना ही एक बहुत बड़ा सहारा होता है, परिवार के लिए !

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  8. वी एन सक्सेना22 December 2011 at 19:04

    "माँ- - जो संतान को जन्म कर भी पिता का नाम देती हे" प्रेरणादायक सोच है। बहुत बढ़िया लेख है ।

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  9. बुजुर्गों पर बड़ा ही सुन्दर आलेख लिखा है आपने। उनका अनुभव हमारे समाज के लिये आदर का विषय है।

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  10. आप सभी पाठकों और मित्रों का तहे दिल से शुक्रिया ...:) कृपया यूं हीं संपर्क बनाये रखें आभार ...

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  11. बुज़ुर्गों के विषय में बहुत सही बात कही है आपने।
    उम्दा जानकारी मिली आभार !

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  12. मगर माँ भी
    अद्वितीय सर्जक है जो
    संतान को जन्म देकर नाम,
    पिता का देती है।

    प्रेरणादायक सोच, सार्थक व सटीक आलेख् आभार

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  13. हमारी संस्कृति के एक सकारात्मक पक्ष -बुजुर्गों के सम्मान में एक पुरजोर आह्वान है यह पोस्ट....ऐसी रचनात्मकता समाज के लिए बहुत आवशयक है आज

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  14. दिल से लिखा लेख ....
    महसूस होते अहसास ...खुश रहो !
    यहाँ आ कर अच्छा लगा |
    आभार!

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  15. यह कहते हुए संतोष का अनुभव हो रहा है कि मैंने अपने बुजुर्गों को वह सम्मान दिया है,जिसके वे पात्र हैं। वृद्धाश्रमों की कल्पना करके ही रूह कांपती है।

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  16. बढ़िया पोस्ट। ऐसे ही वृद्धाश्रम से लौटकर मैने एक कविता लिखी थी। पढ़िये आपको अच्छी लगेगी...
    http://devendra-bechainaatma.blogspot.com/2009/11/blog-post_15.html

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  17. जैसी करनी वैसी भरनी,..मेरी राय में बुजुर्गों को सम्मान देना चाहिए,.ऐसी हमारी परम्परा भी है,....प्रेरणा देती पोस्ट....

    मेरी नई रचना के लिए "काव्यान्जलि" मे click करे

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  18. संयुक्त परिवार ख़त्म होते जा रहे हैं । इसका प्रभाव हमारी जिंदगी पर भी पड़ रहा है ।
    दादा दादी के लिए बहुत आसान होता है बच्चों का मार्ग दर्शन करना । लेकिन अफ़सोस, अब घर में दादा दादी ही नहीं होते ।
    मानविक संवेदनाएं भी ख़त्म होती जा रही हैं ।
    सोचने पर मज़बूर करता सार्थक लेख ।

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  19. अब ये अनमोल रतन ओल्ड एज होम के पाले हो रहे हैं :(

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  20. बेहतरीन पोस्‍ट।
    गजब की सीख....

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  21. "कविता हो ,या कलाकृति
    या फिर नाटक हो कोई
    रचियता हमेशा नाम अपना देता है
    मगर माँ भी
    अद्वितीय सर्जक है जो
    संतान को जन्म देकर नाम,
    पिता का देती है।
    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं
    पोस्ट में आपके विचार भी अनमोल ...मैं सहमत हूँ

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  22. अपने बच्चों से, संस्कारों की बात करने का समय नहीं आज किसी के भी पास फिर उम्मीद कैसे की जाए कि बड़े होकर वही बच्चे संस्कारी होंगे

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  23. मुझे तो नानी जब भी कहानियां सुनाती हैं तो बड़ा अच्छा लगता है...याद आ रहा है की दो साल पहले के सर्दियों में जब नानी घर गया था तो पूरा दिन धुप में बैठा रहा, नानी भी थी और नानी मुझे देवी-देवताओं के बड़े एक्साईटिंग कहानियां सुना रही थी....बहुत देर तक मैं सुनता रहा..मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था..वैसे भी नानी से सुनी हर कहानी मुझे बड़ी अच्छी लगती है, अब भी...

    बाई द वे, 'हेल्प एज इंडिया' के मेडल और सर्टिफिकेट के चक्कर में आपने भी खूब पैसे जमा किये थे..,हमने भी ;) बस अंतर इतना है की मैं उस टाईम आपसे ज्यादा समझदार रहा हूँगा...मुझे पता था पैसे को किस लिए और क्यों जमा करवाया जाता है :D :D :D हा हा :)

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  24. bilkul sahi baat
    sarthak avam satik aalekh....

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  25. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच-737:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  26. बहुत ही सुन्दर सार्थक लेख बुजुर्गों पर ...!!

    कविता हो ,या कलाकृति
    या फिर नाटक हो कोई
    रचियता हमेशा नाम अपना देता है
    मगर माँ भी
    अद्वितीय सर्जक है जो
    संतान को जन्म देकर नाम,
    पिता का देती है।
    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं

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  27. सही कहा-
    असल से सूद प्यारा होता है।

    दादा-दादी और नाती-पोते के प्यार के रंग बहुत उजले होते हैं।

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  28. tarjube vakt pr hi mil pate hain ....abhar avm badhai

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  29. आप की बात से सौफी सदी सहमत ... धरोहर हैं ये बजुर्ग हमारे जहां तक हो इनकी छात्र-छाया में जीना चाहिए ...

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  30. सभी को अपने-अपने कारणों से बूढ़े होने में डर लगता है. आपने कारण गिनवा दिए हैं. बचपन और बुढ़ापे में यही अंतर है कि बचपन में आने वाले जीवन की संभावनाएँ होती हैं और बुढ़ापा वन वे टिकट का आखिरी पड़ाव होता है जिसमें कम ही लोगों की रुचि होती है. इसी कारण से कई बूढ़े अंतिम आयु में नए रंग दिखाते हैं. कुछ ब्लॉगर बन जाते हैं, कुछ स्माइलियाँ बनाना सीख लेते हैं :))

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  31. बहुत अच्छी और सच्ची प्रस्तुति है आपकी.
    आपके सुन्दर विचार मार्गदर्शक और प्रेरणादाई हैं.
    अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार.

    आनेवाले नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.
    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
    वीर हनुमान का बुलावा है आपको.

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