Thursday 2 February 2012

ज़रा सोचिए...


मैंने कुछ दिन पहले एक पोस्ट देखी थी फ़ेसबुक पर जिसे देखकर मेरा मन बहुत खिन्न हो गया था। मैंने खुद भी उस पोस्ट को अपनी फेसबुक पर सांझा भी किया था। विषय था गरीब और भूखे बच्चों को खाना पहुंचाने वाली संस्था का प्रचार जिसे देखकर अच्छा भी लगा कि कोई संस्था तो है जिसने इस विषय में कुछ अच्छा सोचा फिर दूजे ही पल यह भी लगा कि क्या यह संस्था सच में विश्वसनीय है? क्या आज कल के इस भ्रष्टाचारी समाज में, जहां जिसको देखो वह किसी न किसी माध्यम से केवल भ्रष्टाचार मिटाओ का नारा लगता हुआ ही नज़र आता है। ऐसे हालातों में भला कोई किसी पर सहजता से कैसे विश्वास करे। वहाँ ऐसे सार्थक सोच रखने वाली कोई संस्था पूरी ईमानदारी से कार्य करेंगी। यह एक विचारणीय बात थी। ऐसे ना जाने कितने सवाल दिमाग में हलचल मचाने लगे तब लगा, कि यार जब हम फेसबुक जैसी जगह पर कुछ भी करते है। जैसे कभी किसी के सड़े हुए जोक को भी लाइक कर देते हैं। या फिर किसी भी पसंदीदा पोस्ट को सांझा कर लेते हैं। फिर भले ही वह किसी फ़िल्म का गीत ही क्यूँ न हो। या फिर नया साल हो या दिवाली दशहरा जैसे त्यौहार सभी को संदेश के जरिये न जाने कितने जाने-पहचाने और अंजाने लोगों तक को शुभकामनायें दे डालते है। तो भला ऐसे में यह सार्थक संदेश को भी क्यूँ न आमलोगों तक पहुंचाया जाये क्या पता इसे पढ़कर ही कुछ लोगों का ज़मीर जाग जाये और उन गरीब मासूम भूखे बच्चों का कुछ भला हो जाये।  

वाकई जरा सोचिए कितना कुछ है हमारे आस-पास जिसके बारे में यदि ग़ौर से सोचा जाये और ध्यान दिया जाये तो बहुत सी समाज सेवायें बड़ी सरलता के साथ ही की जा सकती है। क्या अपने कभी सोचा है हमारे यहाँ कितने परिवार ऐसे हैं जिनमें परिवार के सदस्यों से अधिक खाना बनता है और फिर बच जाता है जिसे ज्यादातर या तो घर में काम कर रही बाई को दे दिया जाता है या फिर भिखारियों को या फिर अंत में जानवरों को मगर आज कल के युग में इतनी गरीबी और महंगाई होते हुए भी भिखारियों और काम करने वाली बाइयों के नखरे भी कम नहीं है और जहां तक मुझे लगता है आप सब भी मेरी इस बात से भली-भांति परिचित होंगे। बाइयाँ कहती हैं हम कोई भिखारी नहीं कि आप हमको रात का बचा हुआ खाना दो, देना है तो ताज़ा दो, वरना रहने दो और इन में से कुछ ऐसे भी है जो कह नहीं पातीं वो आपके घर से खाना ले तो जाती तो हैं। मगर बाहर जाकर या तो कूड़े में डाल देती हैं या जानवर को खिला देती है। जानवर को खिला दिया जाये तो भी ठीक लगता है। क्यूंकि वह बेचारे खुद तो कुछ कर नहीं सकते लेकिन कूड़ेदान में डाल देने से भला किसका भला होने वाला है। इस से तो अच्छा है वही खाना किसी जरूरतमंद को दे दिया जाये, बदले में आपको सैकड़ों दुआएं ही मिलेंगी भला आपका ही होगा। मगर अफसोस कि आजकल के ज़माने में ऐसी सोच रखने वाले शायद ना के बराबर ही लोगों है।  

आजकल न तो ऐसे लोगों की कमी है जो इस ओर सोचते हों और ना ही अब भिखारी भी ऐसे हैं जो खाना या अनाज लेने की इच्छा रखते हो। क्यूंकि आज कल के भिखारी भी कम नहीं है उनको बोलो आटा ले लो महाराज, तो कहते है नहीं पैसा दे दो एक वो ज़माना था जब भिखारी खुद पैसों के बदले आटा, चावल या कोई भी अनाज लेना पसंद करते थे। ताकि उनके साथ-साथ उनके परिवार का पेट भी पल जाये ...और एक आज का ज़माना है कि आप सामने से अनाज दो तो भी सामने वाला भिखारी वो न लेकर पैसे मांगता है और कुछ तो अनाज भी नहीं छोड़ते ऊपर से पैसे भी मांगते है। खास कर वो जो हाथी पर बैठकर भीख मांगते हैं। देखा जाये तो इसमें उनकी भी गलती नहीं वारदाते ही आज कल ऐसी होती हैं कि एक इंसान को दूसरे इंसान पर भरोसा करने से पहले दस बार सोचना पड़ता है।

अब जैसे रेलवे स्टेशन की बात ही ले लीजिए वहाँ भी अब लोग भिखारियों को भीख में खाना देना पसंद नहीं करते। क्यूंकि एक बार का एक किस्सा है। एक सज्जन को लूटने के लिए एक भिखारी ने पहले उनका दिया हुआ खाना लिया और दूजे ही पल ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाया कि मेरी तबीयत खराब हो रही है। मेरा पेट दुखने लगा इन साहब ने मुझे जाने कैसे खाना खिला दिया और जब उन सज्जन ने बात संभालने की कोशिश की तो उनसे बदले में पैसों की मांग की गई थी। शर्म आती है मुझे तो कभी-कभी यह सोचकर कि कितना बेशर्म होता जा रहा है इंसान, सब अपने बारे में सोचते हैं दूसरों के बारे में बहुत कम जब अपने घर कोई दावत होती है तब हम अपने सभी रिश्तेदारों को बुलाते हैं अच्छा से अच्छा खिलाते हैं एक से बढ़कर एक उपहार भी पाते है। मगर हममें से कितने ऐसे लोगों हैं जो सिर्फ गरीबों के लिए दावत बुलाते हों ?? देखा जाये तो शायद एक भी नहीं होगा। हाँ मगर जब किसी को दुआओं की जरूरत महसूस होती है, तभी लोगों को भूखे नगों और गरीबों की याद आती है। उसके पहले कभी नहीं आती, या फिर दूसरों को दिखाने के लिए लोग दान पुण्य करते हैं कि समाज में दिखा सकें कि देखो कितना बड़ा है हमारा दिल, इसके अलावा अपने मन की श्रद्धा से कोई कुछ नहीं करता। हालांकी मैं यह नहीं कहती कि सभी एक जैसे होते हैं कुछ इंसान अच्छे भी है जिनका बड़ा दिल है मगर वो कहावत है ना कि

"एक गंदी मछ्ली पूरे तालाब को गंदा कर देती है" 

बस वैसा ही कुछ हाल इस विषय का भी है। अब जैसे नवरात्रि के नवे दिन लोग कन्या जिम्माते है उसमें से भी ज्यादातर लोग मुहल्ले में आस-पास रह रहे सम्पन्न परिवारों की कन्याओं को ही बुलाते हैं। बहुत कम परिवार ऐसे होंगे जो झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली कन्याओं को बुलाते हैं। आखिर क्यूँ ? है कोई जवाब?  नहीं है ना !!!मैं बताती हूँ क्यूँ....क्यूंकि आजकल इंसानी दिलों से भावनायें और इंसानियत जैसे शब्द मिट चुके हैं। रह गया है तो केवल दिखावा, ढोंग, या जरूरत इसके अलावा कुछ भी नहीं वो कहते है ना

"जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है"

इसी कहावत को चरितार्थ करते है लोग, जैसा मैंने पहले भी कहा जब खुद के घर पर कोई समस्या या डर मँडराता है तब ही लोगों को गरीबों की दुआयें की याद आती है। वरना उसके पहले किसी को याद नहीं आती कि बिना खुद की जरूरत के भी किसी का भला करे कोई, लेकिन शायद आज भी दुनिया के किसी कोने में इंसानियत ज़िंदा होगी ही कहीं न कहीं जिन्होने ऐसी संस्था बनाई। हालांकी आज कल के जमाने में सभी संस्थाओं पर भी आँख बंद करके भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह भी अपना काम पूरी ईमानदारी से करेंगी ही। मगर फिर भी जैसा मैंने कहा सब एक से नहीं होते और बिना किसी को परखे किसी पर इल्ज़ाम लगाना भी ठीक नहीं इसलिए मैं जिस संस्था की बात कर रही हूँ। मुझे नहीं मालूम कि वह संस्था कहाँ तक विश्वसनीय है   मगर जबसे उनके बारे में पढ़ा है अच्छा महसूस हुआ कि कोई तो है जिसने इस विषय में सार्थक कदम उठाने के बारे में कुछ सोचा।

ऐसी ही एक संस्था है यह "चाइल्ड हेल्प लाइन" नामक संस्था जिनका कहना है कि अगर आगे से कभी आपके घर में पार्टी / समारोह हो और खाना बच जाये या बेकार जा रहा हो तो बिना झिझके आप 1098 (केवल भारत में)प र फ़ोन करें - यह एक मज़ाक नहीं है - यह चाइल्ड हेल्पलाइन है । वे आयेंगे और भोजन एकत्रित करके ले जायेंगे। कृपया इस सन्देश को ज्यादा से ज्यादा प्रसारित करें इससे उन बच्चों का पेट भर सकता है जो भूखे हैं लाचार हैं गरीब है कृपया इस श्रृंखला को तोड़े नहीं, हम चुटकुले और स्पैम मेल अपने दोस्तों और अपने नेटवर्क में करते हैं ,क्यों नहीं इस बार इस अच्छे सन्देश को आगे से आगे मेल करें ताकि हम भारत को रहने के लिए दुनिया की सबसे अच्छी जगह बनाने में सहयोग कर सकें -"मदद करने वाले हाथ प्रार्थना करने वाले होंठो से अच्छे होते हैं " -हमें अपना मददगार हाथ दें। भगवान की तसवीरें फॉरवर्ड करने से किसी को गुडलक मिला या नहीं मालूम नहीं पर एक मेल अगर भूखे बच्चे तक खाना फॉरवर्ड कर सके तो इस से ज्यादा बेहतर बात और क्या हो सकती है. कृपया क्रम जारी रखें।

एक और ऐसी ही संस्था है जिसका नाम है "राम रोटी संस्था" जो भोपाल में चलाई जाती है इस संस्था के अंतर्गत अस्पताल में गरीब रोगियों के लिए खाना भिजवाया जाता है वो भी बिना किसी शुल्क के वह आपको एक दिन पहले आकर अपना खाने का डिब्बा दे जाते है साथ ही अस्पताल का पता भी ताकि यदि आपको किसी प्रकार की कोई शंका हो तो आप वहाँ जाकर पता कर सकते हैं उस डिब्बे में आपको दो रोटी दाल सब्जी बस इतना ही खाना रखकर तैयार रखना होता है अगले दिन उस संस्था का कोई व्यक्ति आकर आपके घर से वो डब्बा लेकर चला जाता है। आपको स्वयं वहाँ जाने तक की जरूरत नहीं इन दोनों संस्थाओं के काम को देखते हुए मेरा आप सभी से भी विनम्र अनुरोध है कृपया इंसानियत को ध्यान में रखते हुए इस इंसानियत के धर्म का भी पालन करने और इस संस्थाओं के माध्यम से गरीबों बच्चों और बुज़ुर्गों की सहायता करें........जय हिन्द.

38 comments:

  1. जी सोच रहे हैं :) वो यह कि लेख कहाँ से शुरू हुआ था और कहाँ कहाँ उलझ गया.ऐसा नहीं है कि लोग इस बारे में नहीं सोचते.मदद सही हाथों में जाये तो ज्यादातर सभी करना चाहते हैं...पर जैसा कि आपने खुद कहा कि भिखारियों तक पर यकीन नहीं किया जा सकता.
    दूसरी बात - कंजकों को आजकल कम ही लोग खिलते हैं..परन्तु जो लोग खिलाना चाहते हैं, अमीरों के बच्चे तो कदापि इस कार्य के लिए नहीं मिलते..काम बालियों के बच्चों को ही बुलाकर खिलाना पढता है..ये मेरा अपना निजी अनुभव है :).
    बरहाल यह संस्था अच्छा काम कर रही है..और इसे प्रोत्साहित करने के लिए लेख के रूप में आपकी यह पहल अच्छी है.

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  2. आपका अनुरोध सुन्दर प्रेरणा दे रहा है.
    अच्छे सार्थक अनुपम लेख के लिए आभार.

    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईएगा.
    मेरी पोस्ट 'हनुमान लीला भाग-३' पर आपके सुविचार आमंत्रित हैं.

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  3. अभी आप की पोस्ट पढ़ी, मुझे तो कहीं भी ये उलझी हुई नही लगी। ये तो सार्थक प्रेरणादायक लेख है। आप को सुन्दर जानकारी देने और प्रेरणा के लिए आभार

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  4. सार्थक पोस्‍ट।
    गंभीर विषय पर चिंतन।
    संस्‍था अच्‍छा काम कर रही है, प्रशंसनीय है।

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  5. आज कल नेकी करने के लिए भी 100 बार सोचना पड़ता है। एक बार ट्रेन में मुझे बुखार से पीड़ित व्यक्ति मिला। मेरे पास दवाई होते हुए भी उसे नहीं दे सका। सोचता रहा कि कहीं साधारण पैरासिटामाल से कहीं इसकी तबियत और अधिक खराब हो गई तो मुझे लेने के देने पड़ जाएगें। इसलिए जो भी किया जाए, सोच समझ कर किया जाए। अच्छा आलेख है आपका।

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  6. एक आम इंसान की भावनाओं ,और उसकी दुविधा , वर्तमान का सच ,बिल्कुल धाराप्रवाह आपने जस का तस उडेल दिया । बहुत ही अच्छा लगा । देश में अब भी बहुत सी संस्थाएं सचमुच ही अच्छा काम कर रही हैं और ये बहुत जरूरी है कि उनका हौसला टूटने न दिया जाए । हम खुद तलाश कर हर साल किसी एक में सहयोग के लिए उसे चुन लेते हैं । सिलसिला जारी है । सबसे बडी बात ये है कि जिस देश में ,160,0000000000000000/ रुपए मात्र का घोटाला खुद सरकार कर ले तो फ़िर उस देश में गरीब और गरीबी बदस्तूर जारी ही रहेगी

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  7. नेक काम के लिए ..हम सब को शुभकामनाएँ!
    आज के समाज का नंगा सच : सिर्फ दिखावा ,दिखावा और दिखावा !
    अपने बुरे कर्मों के लिए ..अच्छी दुआओं के लालच के लिए दिखावा !
    "मदद करने वाले हाथ प्रार्थना करने वाले होंठो से अच्छे होते हैं "
    सच } आप की सोच को ,सार्थक विचार को सलाम !
    बधाई !

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  8. बहुत कुछ शिखा जी की टिपण्णी से सहमत ! मेरे घर के पास में एक बालाजी का मंदिर है, और हर रोज खासकर मंगलवार को मुझे उस खास जहग पर गाडी निकालने में खासी दिक्कत होती है, बात मैं अपनी परेशानी की नहीं कर रहा बात कर रहा हूँ कि कम से कम हमारे हिन्दू समाज में अभी ऐसे बहुत से लोग है ( चाहे भगवान् को खुस करने की खुशफहमी ही क्यों न हो ) जो गरीबों को वहाँ पर खाना बांटते है ! बात वहाँ बिगड़ जाती है जम इंसान का मस्तिष्क सोचता है कि क्यों नहीं ये क़ानून और सरकारे उन कमीने , भ्रष्ट लोगो की संपती जब्तकर इन गरीबों में बाटती है, जिन्होंने चोरी कर देश का धन लूटा ? कोई टैक्स नहीं देते ! और तब और अधिक मन खिन्न होता है जब यह सोचते है कि इन भ्रष्ट सरकारों को चुनने में अहम् भूमिका भी यही लोग ( गरीब) निभाते है !

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  9. राम की दी रोटी राम के बन्दों को मिलती रहे बस, नगाड़े बजाने से भला क्या होगा, सार्थक अवलोकन

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  10. अच्छी जानकारी देता लेख ... सच है कि आज कल काम वाली भी खाना ले जाने को तैयार नहीं होतीं .. लेकिन कन्या पूजन में ज्यादा तार मैंने गरीब बच्चों को ही देखा है .. सार्थक लेख

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  11. सार्थक आलेख ……संस्था का कार्य बेहद प्रशंसनीय्।

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  12. बहुत ही सार्थक व सटीक लेखन ...आभार सहित बधाई ।

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  13. अच्छा लेख है ,आपका.... :)संस्था का कार्य बेहद प्रशंसनीय् और बहुत ही अच्छा लगा.... :)
    आपका अनुरोध प्रेरणा दे रहा है.... !! आप को शुभकामनाएँ.... !!

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  14. सोचने को बाध्य करता हुआ,
    सार्थक आलेख!

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  15. आदरणीय संगीता जी एवं शिखा जी, आप दोनों ही सही कह रही हैं कन्या पूजन में अब ज्यादा तर लोग बाइयों के बच्चों को ही खिलाने लग गए हैं मेरा खुद का भी अनुभव यही है। और मेरे परिवार में भी मेरी मम्मी बाई से ही कहती हैं कन्या लाने के लिए मगर शायद यह परिवर्तन भी कुछ लोगों के लिए मजबूरी है। क्यूंकि पहली बात जैसा कि शिखा जी ने खुद ही लिखा सम्पन्न परिवारों के बच्चे मिलते ही नहीं और यदि मिल भी जाएँ तो उनके नखरे बहुत हैं। इस ही मजबूरी के चलते शायद लोगों यह तरीका अपना लिया है। वरना अपने जमाने में तो हम भी गए ही हैं कन्या पूजन में खाना खाने...

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  16. आप ने जो कहा वो सच में सोचने योग्य है,पर सोचते कितने लोग है??? समाज में जरुरतमंदों के प्रति जो उदासीनता का भाव देखने को मिलता है उसे देख कर मेरा मन तो शर्म से झुकता है ,अगर हम जैसे लोग हर महीने सिर्फ १०,२० रूपये भी एकत्रित करके किसी इस तरह के काम में लगाये तो न जाने कितने ही जरुरतमंदों की जरूरतें पूरी हो सकती है ,पर सिर्फ इस तरह की बातों की तारीफ करते है लोग,आगे बढकर कोई नहीं कहता के,हम भी कुछ करना चाहते है ,बहुत हताशा होती है ये सब देख कर........

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  17. Nice post.

    पेट है, ग़रीबी है और भूख भी है। राजनीति केंद्रित सोच इसमें भी सत्ता परिवर्तन के अवसर तलाश कर लेती है और धर्म के नाम पर भी आदमी तब ही किसी को खिलाने को तैयार होता है जबकि उसे बदले में उसकी मुराद पूरी होने की उम्मीद हो। मुराद पूरी होने की उम्मीद पर ही जानवरों को खिलाता है। किसी भी कारण से आदमी खिलाए लेकिन भूखे को ज़रूर खिलाए। भूखा आदमी हो तो उसे भी खिलाए और जानवर हो तो उसे भी खिलाए।
    भूख इंसान से उसका ईमान और ज़मीर, उसकी ग़ैरत और उसकी शराफ़त यहां तक कि उसकी आबरू सब कुछ छीन लेती है। हमारा एक फ़ौजी परिचित है। वह ग़रीब इलाक़े में ड्यूटी देकर आया तो उसने बताया कि वहां की औरत मात्र 1 रूपये में अपना शरीर दे देती है।
    वह लम्हा हमारे लिए अविश्वसनीय था लेकिन दूसरों से उसकी तस्दीक़ की तो उसे सच पाया।
    रूह कांप जाती है हक़ीक़त से रू ब रू होने के बाद।
    एक तरफ़ मंदिरों में खरबों रूपये बंद यूज़लेस पड़े हैं, एक एक सेठ की तिजोरी में 200 हज़ार करोड़ बंद पड़े हैं और खरबों रूपये शराब और फ़िज़ूल की रस्मों में हर साल लग जाते हैं और दूसरी तरफ़ हालात यह हैं कि रोटी और दवा के लिए एक रूपया भी लोगों के पास नहीं है।
    सरकार तो यह मानती ही नहीं है कि ऐसा कुछ समाज में है भी। वह तो भूख से मरने वालों को भी कुपोषण से मरा बता देती है।
    ऐसे में उनसे कुछ मांग करना या उसे कोसना समस्या का हल नहीं है।
    समस्या का हल यही है कि हम आपस में संगठित होकर इस तरफ़ ध्यान दें और जो संस्थाएं इसके लिए वास्तव में काम कर रही हैं। उन्हें मदद दी जाए।

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  18. आपका प्रयास सार्थक है आपको साधू वाद ऐसी संस्थाओं को भी साधू वाद

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  19. सुन रखा है उन संस्थानों के बारे में, फेसबुक के जरिये ही...
    भिखारियों को मैं भीख कभी नहीं देता..
    लेकिन कुछ बार दिया भी है, दिल से..

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  20. चलिये यह बढ़िया रहा @abhi जी एक ही बार में सारी कसर पूरी करदी आपने ...धन्यवाद...:)

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  21. bahut sunder ,sarthak lekh..............

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  22. Ek bahut hi samayik,tathyapoorna aur soochanaprad lekh...

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  23. रोटी तो सबको मिले , इसके लिए जो प्रयासरत हैं उनका कार्य प्रेरणादायी और सराहनीय है , सार्थक विचार साझा किये

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  24. hhar baar ke tarah ek baar fir se prernadayak aalekh..!! kashi iss blog ko bada pathak varg mil paye.... to desh ke liye achchha hi rahega..:))

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  25. बहुत से बिन्दु हैं जो भूख बनाम ऐय्याशी के असंतुलन से जुडे हैं । एक ओर भूख का ताण्डव है वहीं दूसरी ओर शादी ब्याह जैसे लोकदिखाऊ आयोजनों में अन्न और धन की बेशुमार बरबादी भी है ! ठेकेदारों द्वारा श्रमिकों का दोहन भी है । बाल श्रम के रूप मे तो असंतुलन का कोई छोर ही नही । नक्सली यूँ ही नही बनता कोई । वज़ह होती है । जब करोडों के घोटालेबाज निर्भीक राजकाज चलाते हों तो यह विसंगति आनी ही है । ठेकेदार, राजनेता, अभिनेता सब जानते हैं कि इस देश की प्रजा पंगु है , शिखंडी है । इसीलिये वे सब निर्भीक है और असंतुलन अमर है । हमारा यह युग बहुत दंश दे रहा है । इसी देश के कायर और भ्रष्ट लोग सत्ताधीश है। यह युग जयचन्दो का युग है । सत्य कहने सुनने का साहस कितनों को है ? क्रांति होनी चाहिये । पल्लवी का यह नोट भी इस दिशा में कारगर होगा ।

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  26. ऐसी योजनाएँ मानवता का सिर ऊँचा करती हैं. जो इनमें अपना योगदान करते हैं वे धन्य हैं. इस जानकारी के लिए आपका आभार.

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  27. ऐसे कार्यों में योगदान ही सच्ची पूजा है.सार्थक लेख.

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  28. मानवीयता का समर्थन करता और अनुकरणीय संदेश देता उपयोगी आलेख।
    आपके सुझावों पर अमल करने का प्रयास करेंगे।

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  29. बहुत ही विचारनीय लेख....

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  30. कथन तो आपकी बिलकुल सही है कि दान-पुण्य करने के कई तरीके हैं पर आजकल दूसरों पर उतना विश्वास नहीं होता इसलिए बेहतर यही है कि अपने हाथों ही कुछ पुण्य कमा लें..
    जैसे गरीबों में खाना खूद बांटें, सर्दी के समय रात को कम्बल खुद बांटें, इत्यादि..
    सोचने वाली पोस्ट है, इसलिए हमने भी ज़रा सा सोचा है पर सोचने से ही सब कुछ नहीं होता, अमल में लाना भी बहुत ज़रूरी है..

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  31. पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूँ ...अच्छा लगा कि चलो हमारे आसपास अभी बहुत सारे लोग जागरूक हैं सार्थक चिंतन और सार्थक लेखन ! दीनो कि सेवा ही नारायण सेवा है ..साधुवाद आपको!

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  32. sarthak lekh...kafi kuch sochne ko majboor karti hai..

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  33. एक गंदी मछ्ली पूरे तालाब को गंदा कर देती है

    -सार्थक पोस्ट.

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  34. सभी के विचार पढ़े | विचार पढ़ने में कम से कम आधा घंटा लगा | सभी ने लेख की तारीफ़ की या उन संस्थाओं की | लेकिन ! किसी ने भी इसी तरह की एक और संस्था के निर्माण की बात नहीं की | ऐसी ही एक और संस्था से शायद जरूरतमंद की मदद की जा सकती हैं | यहाँ पर जिन महानुबावों ने टिप्पणी की है क्या वो सभी मिलकर ऐसी एक और संस्था का निर्माण नहीं कर सकते | हम सभी जो एक लेखक हैं और मेरे ख्याल से सभी अच्छी-खासी आमदन कमाते हैं | कमाते हैं तभी तो इस ब्राड-बैंड का खर्चा उठा पाते हैं | क्यों न हम सभी मिलकर एक ऐसी संस्था का निर्माण करें जिस में सभी कुछ न कुछ योगदान दें | मेरे ख्याल से सभी कुछ न कुछ योगदान कर सकते हैं | ये मेरा सुझाव है यदि सभी को सहमत लगे तो तो इस प्रकार की संस्था के निर्माण में भागीदार बने व परोपकार करें

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  35. पल्लवीजी
    आपके ब्लॉग मैं पढ़ता रहता हूँ । आप तो स्थापित लेखक हैं , और बहुत अच्छा लिखतीं हैं । आग्रह के बाद भी समय से नहीं लिखसका क्योकि मेरी टाइपिग बेहद धीमी है । मेरे बूढ़े दिमाग मे कीबोर्ड की छवि ही नहीं बन पाती । एक एक अक्षर ढूंदना पड़ता है । फिर हिन्दी टाइप करना तो और भी मुश्किल । अस्तु :
    गरीब बच्चों को खाना खिलाने के संदर्भ मे , मैं अपने कुछ अनुभव लिखता हूँ । भोपाल की संस्था "matra-chaya" से शायद आप अवगत होंगी । वे अनाथ , परित्यक्त , एवं सड़कों , अस्पतालों मे छोड़े गए नवजात शिशुओं का पालन , बड़े ही सेवभाव से करते हैं । 2-3 महीने पहले जब मैं गया था , वहाँ 25-30 बच्चे थे । अधिकांश 1वर्ष से कम । पूछने पर बताया की अब वे बना हुआ खाना और कपड़े नहीं लेते । बना खाना खाने से अक्सर बच्चे बीमार हो जाते थे । ज़ाहिर है बना खाना एकत्रित करने और लेजाने मे स्वच्छता का उतना ध्यान नहीं रह पता । हाँ , परिवार के लोग स्वयं लगन से , (और सीमित मात्र मे) करें तो अलग बात है ।
    मेरा अनुभव यह भी है की भोपाल जैसे शहर मे झुग्गी झोंपड़ी मे रहनेवाले लोग , लगभग माध्यम परिवार की हैसियत रखते हैं । वे बना खाना अपने बच्चों को नहीं खिलना चाहेंगे । आपके ब्लॉग मे छपी फोटो जैसे नजारे भोपाल मे कम ही दिखेंगे । मुझे तो वह फोटो प्रायोजित , या किसी गाँव मे आयोजित कार्यक्रम की लगती है।
    8-10 दिन पहले , नगर पालिका निगम का पार्षदों की मीटिग मे एक 5 सितारा होटल से लंच मंगाया गया । उसे खाकर कुछ लोग बीमार हो गए । मीडिया मे बहुत हल्ला हुआ। संक्षेप मे, बना और बचा हुआ खाना खिलाने की सद्भावना से ज़्यादा पेरेशानियाँ है । हाँ, व्यक्तिगत संबंध और विश्वास अर्जित करके यह काम किया जा सकता है ।
    मैं यह नहीं कहता की शहरों मे बच्चे भूखे नहीं रहते । अनेकों को भर पेट खाना नहीं मिलता , लेकिन उनको एकत्रित करना और शुद्धता से खाना खिलना एक समर्पित , संस्थागत कार्य है । यह एक सामान्य ग्रहकार्य के रूप मे बहुत मुश्किलों भरा हो सकता है ।
    तथापि मेरे विचार गलत भी हो सकते हैं ।
    शुभकामनाओं सहित ................. वी ॰ एन ॰ सक्सेना

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