अपनी इस पोस्ट को क्या नाम दूँ समझ में नहीं आ रहा है। सभी के जीवन में एक शब्द होता है उम्मीद, वो उम्मीद जो अकसर हम चाहे अनचाहे दूसरों से लगा बैठते हैं। कई बार यूँ भी होता है कि हम जानबूझ कर किसी से कोई उम्मीद लगाते है और उस उम्मीद के पूरा होने की आशा भी करते हैं। जैसे अगर मैं एक उदाहरण के तौर पर कहूँ कि पढ़ाई को लेकर माता-पिता की उम्मीद बच्चों से होती है। सभी यही चाहते हैं कि उनका बच्चा अपनी कक्षा में अव्वल दर्जे पर आये। पूरी कक्षा में उनके ही बच्चे के सबसे अच्छे अंक हो वगैरा-वगैरा। आखिर कौन नहीं चाहता कि उनका बच्चा तरक़्क़ी करे फिर भले ही उसका क्षेत्र कोई भी क्यूँ न हो, कोई भी क्षेत्र से यहाँ मेरा तात्पर्य है, जीवन में आगे बढ़ने का कोई भी सही रास्ता, ना कि कोई गलत तरीके से किसी गलत रास्ते को अपना लेना। इस प्रकार सभी के जीवन में अलग-अलग मुक़ाम पर अलग-अलग उम्मीदें जुड़ती चली जाती है।
वो कहावत है न " ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी" क्यूंकि मेरा ऐसा मानना है कि इंसान को सबसे ज्यादा दर्द उसकी उम्मीदें टूटने पर ही होता है और यही एक कारण रिश्तों में दूरियाँ आने वजह बन जाता है। इस उम्मीद शब्द से याद आया, कि हमारे समाज में आज भी ज्यादातर किसी लड़की या औरत की उम्मीदों पर बड़ी आसानी से पानी फेर दिया जाता है। फिर चाहे उसकी इच्छा हो, या ना हो। वैसे देखा जाये तो एक औरत की ज़िंदगी में आमतौर पर यह सिलसिला उसके बचपन से लेकर उसका जीवन खत्म होने तक किसी न किसी रूप में चलता ही रहता है। मगर इसका मतलब यह ज़रा भी मत सोचियेगा कि बेचारे पुरुषों या लड़कों के जीवन में उनकी उम्मीदें नहीं टूटा करती। बिल्कुल उनकी भी उम्मीदें जीवन में बहुत बार टूटती हैं, जैसे पढ़ाई को लेकर चुना गया विषय या फिर बेमन की नौकरी या फिर मन चाहा जीवनसाथी का साथ न मिल पाना वगैरा-वगैरा...
ज़ाहीर सी बात है जब भी कभी किसी की भी उम्मीद पर पानी फिरता है, या किसी की कोई उम्मीद टूटती है तो दर्द तो होता ही है, फिर चाहे वो मर्द हो या औरत, कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर क्या कभी किसी ने सोचा है। बचपन से लेकर अपने जीवन के लिए साथी चुने जाने तक एक आम लड़की की कितनी उम्मीदें टूट चुकी होती है। क्यूंकि उन उम्मीदों पर कभी पढ़ाई को लेकर, तो कभी समाज के बनाये नियम क़ानूनों को लेकर, न जाने कितनी बार पानी फेरा जा चुका होता है। इस सबके बावजूद भी उसे अपने जीवनसाथी से एक आस एक उम्मीद अपने आप ही बंध जाती है और वो सोच लेती है कि चलो अब तक जो हुआ सो हुआ, मगर अब मेरा जीवनसाथी कम से कम मुझे समझेगा, मेरी भावनाओं की पहले न सही मगर अब तो क़दर होगी। क्योंकि अब तो मेरा अपना घर होगा कम से कम वहाँ तो मेरी अपनी मर्ज़ी होगी। मगर ऐसा कितनों के साथ होता है ? शायद बहुत कम ही लोग होंगे जिन्हें ऐसा जीवनसाथी मिला होगा जो उनकी उम्मीद पर खरा उतरा हो।
काश इस पुरुष प्रधान देश और समाज का कोई व्यक्ति यह समझ पाता कि शादी के बाद एक लड़की की अपने जीवनसाथी से क्या उम्मीदें होती है, तो शायद आज हमारे समाज का चेहरा कुछ और ही होता। यहाँ मेरा मक़सद औरत और मर्द के बीच किसी प्रकार का झगड़ा खड़ा करना नहीं है। बस यहाँ मैंने औरतों की बात केवल इसलिए की क्योंकि मैंने पहले भी कहा है, बचपन से लेकर अपना जीवनसाथी चुने जाने तक और शादी के बाद भी सभी की ज्यादातर उम्मीदें केवल औरत से ही जुड़ी होती हैं। बहुतों को तो अपना जीवनसाथी खुद चुने जाने का अवसर भी नहीं मिलता। शादी के पहले माता-पिता को एक आदर्श बेटी की चाह होती है, तो शादी के बाद पति से लेकर परिवार के अन्य सदस्यों की अन्य उम्मीदें जैसे एक आदर्श बहू की उम्मीद, जो चुपचाप बिना कुछ बोले अपने कर्तव्यों का पालन करती रहे। पति के लिए आदर्श पत्नी की उम्मीद, जो दिखने में सुंदर हो, परिवार का ख्याल रखती हो, स्वभाव से मीठी हो, जिसमें धरती की भांति सहनशक्ति हो, जिसमें अहम या आत्मसम्मान नाम की कोई चीज़ न हो, यानी घर में बहू बनकर आने के बाद शायद एक औरत का सम्पूर्ण जीवन परिवार वालों की उम्मीदों को पूरा करने में ही गुज़र जाता है। मगर कभी कोई यह जानने की चेष्टा नहीं करता कि उसकी खुद की क्या उम्मीदें है क्या इच्छा। क्यूँ ?
ऐसा भी नहीं है कि यह चाहतें या यह उम्मीदें केवल कम पढ़ी लिखी या गाँव, देहात की महिलाओं से ही की जाती है। बल्कि आज भी जबकि औरत पढ़ी लिखी हो, अच्छी से अच्छी पोस्ट पर कार्यरत ही क्यूँ ना हो, इन चाहतों और उम्मीदों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। बल्कि नौकरी वाली महिलाओं के साथ तो यह उम्मीदें दुगनी हो जाती है, कि वो एक आदर्श भारतीय नारी की तरह घर और बाहर दोनों की ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी संभालते हुए आपने कर्तव्य का निर्वाहन करती रहे। मैं यह नहीं कहती कि किसी से कोई उम्मीद रखना कोई बहुत ही गलत बात है या बुरी बात है। हर रिश्ते की अपनी एक माँग होती है, जिसके आधार पर लोगों की उम्मीदें भी बन जाती है और यह स्वाभाविक है। मगर मैं बस इतना कहना और पूछना चाहती हूँ, कि जो लोग किसी से कोई उम्मीद रखते हैं, वही लोग खुद भी कभी औरों की उम्मीदों पर खरे उतरने का प्रयास क्यूँ नहीं करते ? क्यूँ लोग आगे बढ़कर अपनी पत्नी से यह पूछने में हिचकिचाते हैं कि तुम्हारी क्या इच्छा है।
कभी आप लोग जानकर तो देखिये आपकी अपनी बहू-बेटी की इच्छा क्या है वो क्या चाहती हैं। तो शायद आपको पता चल सके कि इतने सारे रिश्तों की मान मर्यादा को ध्यान में रखते हुए सभी की उम्मीदों और इच्छाओं को पूरा करने की जी तोड़ कोशिश करती हुई एक औरत मात्र केवल इतनी सी इच्छा और उम्मीद रखती है, कि उसका जीवनसाथी उसकी भावनाओं को समझे, उसे समझे, उससे प्यार करे उस पर विश्वास करे, जीवन में हर कदम पर उसका साथ निभाये, उसके आत्मसम्मान को अपना आत्मसम्मान समझ कर चले, उसके परिवार वालों को भी उसके ससुराल में उतना ही मान सम्मान मिले जितना वो आपने सास-ससुर को देती है। उसका पति भी उसके परिवार में दामाद की हैसियत से नहीं, बल्कि बेटे की हैसियत से उसके परिवार अर्थात उसके मायके के लोगों की उम्मीदों पर खरा उतर सके। बस.....तो क्या एक औरत को इस समाज से, अपने परिवार से इतनी भी उम्मीद रखने का कोई हक़ नहीं है ?
ऐसा नहीं है कि यह सारी उम्मीदें एक पति को अपनी पत्नी से नहीं होनी चाहिए। लेकिन मेरे कहने का मतलब बस इतना है, कि यदि इन उम्मीदों के पूरा होने से आपके जीवन में खुशहाली आती है। तो इन्ही उम्मीदों को पूरा करने से भी आपके और आपकी पत्नी के बीच आपके रिश्ते को मज़बूती, प्यार और विश्वास जैसी अमूल्य भावनायें मिलेंगी जिससे आपका रिश्ता जीवन की खुशियों से भर जाएगा। ज़रा एक बार प्यार और विश्वास से अपने जीवनसंगिनी की तरफ हाथ बढ़ा कर तो देखिये.... J जय हिन्द....
बात उम्मीद से शुरू हुई और मियाँ बीबी के रिश्ते पर आकर खत्म हुई:)
ReplyDeleteसच है कि ये उम्मीद ही सारे फसाद की जड़ है पर फिर इसी उम्मीद पर दुनिया कायम है इसके बिना काम भी नही चलता
बढ़िया आलेख.
होना चाहिए और होता है या हो रहा है में बड़ा फर्क है…कहीं पढ़ा था कि 'अपेक्षा को उपेक्षा के लिए तैयार होना चाहिए' …अपेक्षा यानी उम्मीद…और लड़कियों को भी मातृभक्ति और पितृभक्ति के जाल से निकलकर कुछ कहना सीखना होगा ही…
ReplyDeleteउम्मीद से शुरू होकर बात कहां आ पहुंची।
ReplyDeleteकुछ देर के लिए आप कल्पना करें कि दुनिया में 'उम्मीद' शब्द ही नहीं है.... कितनी बेमानी लगेगी दुनिया।
यही तो है जिसका पूरा होना और टूटना जिंदगी में कुछ करने... कुछ सहने की ताकत देता है।
बहरहाल आपने भावनाओं का बेहतर प्रस्तुतिकरण किया..... 'उम्मीद' है आगे भी आपके ब्लाग पर इसी तरह की बढिया प्रस्तुति पढने मिलेगी।
आभार...........
अच्छी और विचारणीय पोस्ट ...
ReplyDeleteकभी आप लोग जानकर तो देखिये आपकी अपनी बहू-बेटी की इच्छा क्या है वो क्या चाहती हैं।
इनकी चाहत तो बता दी आपने ...
एक बात अभी अभी ज़ेहन में आई है ..कभी इस पर भी विचार करें कि
कभी माँ और सास से कोई बेटी या बहू पूछे कि वो क्या चाहती हैं ? ... इसका क्या जवाब होगा ?
आपका पोस्ट अचछा लगा । मेरे पोस्ट पर आकर मेरा भी मनोबल बढाएं धन्यवाद ।
ReplyDeleteविचारणीय आलेख।
ReplyDeleteउम्मीदों की ज़मीन पर समझदारी हो तो बेवजह की उम्मीदों से बचा जा सकता है !
ReplyDeleteखूबसूरत प्रस्तुति |
ReplyDeleteत्योहारों की नई श्रृंखला |
मस्ती हो खुब दीप जलें |
धनतेरस-आरोग्य- द्वितीया
दीप जलाने चले चलें ||
बहुत बहुत बधाई ||
उम्मीदे प्रेम बढाती भी हैं और घटाती भी हैं। वर्तमान युवापीढी में आपसी समझ बढी है और वे एकदूसरे की उम्मीदों पर खरे भी उतर रहे हैं।
ReplyDeleteपल्लवी जी नमस्कार
ReplyDeleteकहते हैं उम्मीद पर ही तो दुनियाँ कायम है
आपके इस रचना से बहुत सारे घरों के रिश्तों में प्रगाड़ता आएगी मेरा ऐसा मानना है बधाई हो आपको
http://www.facebook.com/mitramadhur/
MADHUR VAANI
BINDAAS_BAATEN
MITRA-MADHUR
बहुत ही अच्छा लेखन है आपका विचारणीय प्रस्तुति के साथ मनन करती पोस्ट ।
ReplyDeleteआपका आलेख पढ़ कर कई विचार मन में कौंध गए.
ReplyDeleteएक सनातन परंपरा है कि सास बहु को और बहु सास को नौकरानी की तरह इस्तेमाल करना चाहती है. परिवार में उस सदस्य को सबसे अधिक प्रशंसा और कार्य का भार मिलता है जो स्वयं पर ज़िम्मेदारियाँ ओढ़ कर कार्य करता जाता है. इसके रुकने पर उसकी अहमियत का पता चलता है. आपकी पोस्ट नानक देव जी की उन पंक्तियों के बहुत पास पड़ती है जिनमें कहा गया है- धिक् उनका जीवन, जिन्हें पराई आस. उम्मीद स्वयं से करना बेहतर है.
बहुत सुन्दर लिखा है आपने बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और विचारणीय आलेख्।
ReplyDeletesach hee to kah rahee ho
ReplyDeleteवैसे तो उम्मीद पर ही दुनिया कायम है।
ReplyDeleteसंगीता आंटी और भूषण अंकल की बात से मैं भी सहमत हूँ।
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कल 22/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
ज़रा एक बार प्यार और विश्वास से अपने जीवनसंगिनी की तरफ हाथ बढ़ा कर तो देखिये.
ReplyDeleteबहुत अच्छा जी, ... जहां से शुरु हो, पहला कदम तो बढ़ा ही देना चाहिए।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
सबसे ज़रूरी है स्वयं से उम्मीद रखना।
ReplyDeleteबहुत विचारणीय आलेख...संबंधों में एक तरफा अपेक्षा ही मुख्यतः तनाव का कारण होती है..जहां आपसी संबंधों में निर्पेक्ष समझदारी हो वहां यह समस्या पैदा ही नहीं होगी.
ReplyDeleteपल्लवी जी,....क्या नाम दू,..लेख मुझे पसंद आया,खास तौर पर आपकी लेखनी और प्रस्तुतीकरण ढंग लाजबाब है...बधाई..साथ ही दीपावली अग्रिम शुभकामनाएँ...आपके ब्लॉग में पहली बार आया आना सार्थक रहा....
ReplyDeleteपल्लवी जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया जो आप मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी की. पल्लवी जी मैं एक छोटे जगह से ताल्लुक रखता हू. इसलिए और जगहों की बात नहीं कर सकता. पर मैं भी संगीता जी की बातों से सहमत हू. जहाँ तक मेरा मानना है लड़कियां कुछ हद तक स्वंय जिम्मेदार होती है. और जहाँ तक उम्मीद का सवाल है आपने सही कहा है वो हर किसी की पूरी नहीं होती. आदरणीय और मरहूम गज़ल गायक जगजीत सिंह जी ने एक गज़ल गाया था
ReplyDeleteहजारों खावाहिशें ऐसी की हर खावाहिशों पर दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले.
दोनों पक्षों को ही एक दूसरे की ईच्छाओं के बारे में सोचना चाहिए !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और विचारणीय आलेख्| दीवाली की शुभ कामनाएं|
ReplyDeleteउम्मीद पर ही तो दुबिया टिकी है खैर कम से कम भगवान् से उम्मीद तो रखी ही जानी चाहिये। अच्छा लिखा है आपने थोड़ा पोस्ट को छोटा करने का प्रयास करे लंबे लेख अमूमन पाठक पूरा नही पढ़ता। लिख कर उसमे देखिये कि कितना हिस्सा निकालने पर भी लेख की रोचकता और संदेश बरकरार रहेगा।
ReplyDeleteबड़ी अच्छी पोस्ट ....
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
दीपावली कि हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteअच्छी रचना...!
सही समस्या उठाई है आपने .पर अब धीरे-धीरे स्थितियाँ बदल रही हैं,लोगों की मानसिकता भी - जहाँ स्त्री अपने पाँवों पर खड़ी है वहाँ तेज़ी से,और जहाँ आश्रित है वहाँ अभी भी परवश है .
ReplyDeleteदीपावली की शुभ-कामनायें स्वीकार करें!
विचारणीय!
ReplyDeleteye sach hai ki ummid hai to duniya hai, ummid toot jaaye to man bikhar jata hai. log dusre ki ummid todte rahte hain, visheshkar auraton kee ummid har kadam par tootati hai, fir bhi unse ummid ki jaati hai ki wo jivan ke har pahlu mein kartavyanishth hon. ispar badi paricharcha ho sakti hai. bahut achchha aalekh. shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteबेटी बचाओ - दीवाली मनाओ.
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक शुभकामनायें.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeletebahut hi sunder wa sarthak lekh..
ReplyDeletesach bhi yahi hai.
apko sa-pariwar diwali ki hardik subhkamnaye.
आपको और आपके परिवार को हम सभी की ओर से दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteआप सबको भी दीपावली शुभ एवं मंगलमय हो!
ReplyDeleteआपको सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
ReplyDeleteसादर
पल्लवी जी, बहुत ही विचारोत्तेजक प्रस्तुति है आपकी.
ReplyDeleteसार्थक चिंतन मनन की उम्मीद जगाती हुई.
आपने सुन्दर विश्लेषण किया है उम्मीद का.
दीपावली के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
अच्छी पोस्ट....
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें....
आप सभी पाठकों का हार्दिक धन्यवाद कि आप यहाँ आए और अपने बहुमूल्य विचारों से मुझे अनुग्रहित किया। मेरी और से भी आप सभी पाठकों और मित्रों को दीपावली कि हार्दिक शुभकामनायें....
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