Friday 7 October 2011

बस यूँ हीं, कुछ कही अनकही भावनायें.....


कल मैंने “कौन बनेगा करोड़ पति” का दूसरा मौक़ा के एक अंक का एक एपिसोड देखा। जिसमें एक ऐसी महिला को खेलने का मौक़ा दिया गया था। जिसके पति पुलिस विभाग में काम करते हुए शहीद हो गए थे। इस खेल के दौरान उस महिला ने जिस तरह से अपने मन की बातें और अपने पति से जुड़ी यादों के बारे में बताया वो सब कुछ मुझे बहुत ही मार्मिक लगा। एक औरत का अपने पति के लिए इतना प्यार और सम्मान देखकर बहुत अच्छा लगा। ख़ास कर जब उसने यह बताया था, कि वह रात को अपनी बेटी और अन्य घर के सभी सदस्यों के सो जाने के बाद डायरी लिखती है। जिसमें वह दिन भर की सारी बातें लिखा करती है, कि दिन भर में आज क्या-क्या हुआ। उसकी ढाई साल की बेटी की सारी गतिविधियाँ कि आज उसने क्या क्या-क्या किया वगैरा-वगैरा। उसकी इस बात को सुनकर इस कार्यक्रम के होस्ट, माननीय श्री अमिताभ बच्चन जी ने उस महिला को आग्रह किया कि आगे जाकर आप अपनी इस डायरी को पब्लिश ज़रूर कर वाइयेगा क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है, कि आपकी इस डाइरी में कोई न कोई ऐसी संवेदनशील, या भावनात्मक बात ज़रूर होगी जिसे हमारे देश की जनता ज़रूर पढ़ना चाहेगी, खास कर मैं तो ज़रूर पढ़ना चाहूँगा। :)  

इस कार्यक्रम के चलते उस महिला ने यह भी बताया कि वो इसलिए यह डायरी लिखती है क्यूँकि डायरी लिखते वक्त उसे यह महसूस होता है कि वह अपने पति से बातें कर रही है और जैसा आम परिवारों में होता है, हमारे और आपके साथ भी कि सुबह से शाम तक अपने-अपने कामों की व्यस्तता के चलते जब हम शाम को या रात को कुछ पल अपने जीवनसाथी के साथ बैठ कर बातें करते है। जिसे हमको अपने जीवनसाथी के साथ बैठकर बातें करने का मौक़ा तो मिलता ही है, साथ-साथ उस एकांत और शांति पूर्ण माहौल में बातें करने से मन को भी सारे दिन की भाग दौड़ और थकान के बाद बहुत सुकून और शांति मिलती है, एक दूसरे की परेशानी समझने का मौक़ा मिलता है। जिसके माध्यम से आपसी रिश्ते को बहुत गहरी मज़बूती मिलती है, हौसला मिलता है।

खैर मुझे लगता है मैं विषय से भटक गई हूँ। :) मैं उस महिला की बात कर रही थी जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है। मुझे उस महिला का नाम ठीक से याद नहीं है उसके लिए माफ़ी चाहती हूँ। यह सब बताने का मेरा मुख्य उदेश्य यह था कि हमारे देश में न जाने कितने ही ऐसे परिवार हैं जिनके सपूतों ने अपने देश की आन–बान और शान को बनाये रखने के लिए कुर्बानियाँ दी हैं। उन सभी के परिवार में सभी सदस्यों की कुछ ऐसी ही कहानी होगी शायद, मगर हर किसी के जीवन में परिवार के साथ-साथ एक खास इंसान की एक खास जगह होती है  और वह जगह या तो पत्नी की होती है, या फिर महबूबा की होती है। :)  है ना!!! जैसा कि उस महिला ने बताया था। इस खेल के माध्यम से जीती हुई राशि से वह अपने शहीद पति की याद में उसकी यादों को ज़िंदगी भर सहज कर रखने के लिए एक कमरा बनवाना चाहती है। जिसमें वह अपने पति की सारी चीजों को बड़े प्यार और सम्मान के साथ संभाल कर, सँजो कर रखेगी। ताकि उसकी बेटी के मन में अपने पिता के लिए प्यार और सम्मान की भावनाओं के साथ-साथ उनकी यादें भी रहे।

ताकि जब उसकी बेटी बड़ी हो, तो अपने पापा को उनकी चीजों के माध्यम से जान सके पहचान सके। बाकी बची हुई राशि भी और अपना सर्वस्व भी वो केवल अपनी बेटी को देना चाहती है। वह अपनी बेटी के अंदर वो सारे गुण और आदर्श देखना चाहती है जो वह अपने पति में देखा करती थी। यहाँ तक की वह अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर IPS आफिसर बनाना चाहती है। आमतौर पर इस विषय को लेकर मेरा जो अनुभव रहा है। उसके तहत  मैंने यह देखा है, कि सामान्यतः पुरुष केवल अपने प्यार का इज़हार सिर्फ और सिर्फ जीवन में एक ही बार करते हैं। जब वो किसी लड़की के समक्ष प्यार का प्रस्ताव रखते है। फिर चाहे वह लड़की उनकी ज़िंदगी में उनकी पत्नी बन जाये तब भी या सिर्फ महज़ गए वक्त की प्रेमिका बनकर रह जाये तब भी, मुझे ऐसा लगता है कि बहुत कम ही लोग ऐसे होते है खास कर पुरुष जो प्रम के अलावा अपनी कोई और भावनाओं को ज़ाहिर करते हैं।

फिर चाहे वह भावनायें प्यार की हों या कोई दर्द ओ ग़म, पुरुष वर्ग ज्यादातर अपनी भावनाओं को छुपाया करता है। वह आसानी से किसी पर अपनी भावनाओं को ज़ाहिर नहीं होने देता। जिसके चलते एक आम राय यह बनी हुई है कि वह लोग बहुत कठोर होते हैं। उन्हें किसी बात का इतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना की एक औरत को पड़ता है। उदहारण के तौर पर लड़की की विदाई के समय पिता और बड़े भाइयों को आपने बहुत ही कम रोते देखा होगा। ज्यादातर औरते ही रोती हुई दिखती हैं। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि उन पिता और भाइयों को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। फर्क तो उनको भी पड़ता है, आखिर वो भी तो एक इंसान हैं उन्होने भी तो अपनी बेटी या बहन के साथ बचपन से लेकर विदाई तक का हर लम्हा जिया होता है। मैं तो ऐसा ही मानती हूँ। मेरे हिसाब से किसी भी बात का जितना प्रभाव एक औरत पर पड़ता है, उतना ही एक पुरुष पर भी पड़ता है। बस फर्क सिर्फ इतना ही है, कि औरतें ज़ाहिर कर देती हैं और पुरुष उसे अंदर ही जज़्ब कर लेते हैं। 

बाहर से खुद को कठोर दिखाने में न जाने पुरुषों को कौन सा सुकून मिलता है। मगर होते ज्यादातर लोग नारियल के समान ही हैं बाहर से सख़्त और अंदर से नरम, जाने क्यूँ उनको ऐसा लगता है, कि यदि हमने अपनी भावनायें ज़हीर करदीं तो हम भी कमज़ोरों की श्रेणी में आ जायेगे, पता नहीं लोगों की यह मानसिकता क्यूँ है कि औरत कमज़ोर होती है। उसमें मानसिक दर्द सहन करने शक्ति नहीं होती है इसलिए रोती है। न जाने कब यह सोच बदलेगी ,कभी बदल भी पायेगी या नहीं ? राम ही जाने। लेकिन मैं यह ज़रूर कहना चाहूँगी कि पुरुषों में वो मानसिक पीड़ा या आघात सहन करने कि शक्ति औरतों से कम ही होती है। भले ही वह खुद को कितना भी बहादुर और कठोर दिखाने का प्रयत्न क्यूँ ना करें। इसलिए दिल के दौरे से मरने वाले लोगों में अधिकतर पुरुष ही होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दोनों ही इंसानों को भगवान ने बनाया है और एक सी ही शक्तियाँ प्रदान की है कोई किसी से किसी भी मामले में न कम है और ना ही ज्यादा तभी तो दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और एक बिना दूजा सदैव अधूरा।

खैर यहाँ मेरा मक़सद इस विषय को लेकर स्त्री और पुरुष के मध्य किसी प्रकार का कोई झगड़ा खड़ा करना नहीं है। वो तो बस मेरे मन में बात आई तो मैंने लिख दिया। अंत में तो बस हिन्दी फिल्म के एक गीत कि इन पंक्तियों के साथ बस इतना ही कहना चाहूँगी, कि

“हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िंदगी, 
छाँव है कभी, कभी है धूप ज़िंदगी, 
हर पल यहाँ हंस के जियो, 
जो है यहाँ कल हो ना हो” 

जय हिन्द....



25 comments:

  1. वह अपनी बेटी के अंदर वो सारे गुण और आदर्श देखना चाहती है जो वह अपने पति में देखा करती थी।

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति ||

    बहुत बहुत बधाई ||

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  2. में समझता हूँ आज कल सभी कार्यक्रम इस तरह की बातें दिखा कर सहानभूति स्वरुप अपनी TRP बड़ा रहे हैं...

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  3. एक शहीद की पत्‍नी का दर्द क्‍या होता है..यह वह ही जानती है.... मैंने ऐसे कई परिवारों को करीब से देखा है.. या ये कहूं कि आए दिन ऐसे दृश्‍य देखने मिल जाते हैं जिसमें किसी का पति शहीद हो जाता है... किसी मासूम बच्‍चे के सिर से पिता का साया उठ जाता है तो किसी मां बाप का जवान बेटा चला जाता है..... उनके दर्द का... तकलीफों का कोई अंत नहीं होता... ताउम्र वो सालता रहता है....ऐसे में कोई महिला यदि अपने पति की यादों को अपनी कमजोरी न बनाकर अपनी ताकत बनाकर पेश करे तो वो मिसाल है, इस दुनिया में।

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  6. ...पुरुषों में वो मानसिक पीड़ा या आघात सहन करने कि शक्ति औरतों से कम ही होती है। भले ही वह खुद को कितना भी बहादुर और कठोर दिखाने का प्रयत्न क्यूँ ना करें। इसलिए दिल के दौरे से मरने वाले लोगों में अधिक तर पुरुष ही होते हैं...सही है...बढ़िया प्रस्तुति...!!!

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  7. यदि किसी पुरुष के वाह्य आवरण के परे रखी चीजों को डायरी में पढ़ने को मिले तो यह तथ्य सिद्ध हो जायेगा।

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  8. यह कहना तो ठीक नहीं। यह संयोग या परिस्थितियाँ हैं कि स्त्री की तुलना में पुरुष अक्सर पहले मर जाता है। बिन बाप के जितने लोग हैं, उनसे बहुत बहुत कम बिन माँ के हैं। इससे कौन इनकार कर सकता है? तो स्त्री को ही पालना होता है, आगे बढ़ना होता है ऐसे समय में। इसलिए यह धारणा बनाना ठीक नहीं कि पुरुष की तुलना में स्त्री में मानसिक आघात सहने की शक्ति अधिक है। …ध्यान रहे कि यह बात जो यहाँ कह रहा हूँ, अधिकांश लोगों को पसन्द नहीं आएगी……

    एक शेर है---

    उस शख्स के ग़म का कोई अन्दाजा लगाए,
    जिसे कभी रोते देखा न किसी ने।
    बस, इतना ही…

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  9. बहुत सकारात्मक सोच। सारगर्भित आलेख...

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  10. मैं सब के बारे में नहीं जानता, लेकिन मेरे एक मित्र ऐसे हैं, जो बाहर से देखने में काफी सख्त लगते हैं लेकिन अंदर से काफी कमज़ोर....
    प्रवीण भैया की बातें मस्त लगी मुझे!!

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  11. विचारणीय है। लगभग इसी विषय पर कुछ समय पूर्व,दिव्या जी ने एक बहुत अच्छी पोस्ट लिखी थी।

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  12. कल का वह एपीसोड मैंने भी देखा था। बार-बार मन भींगता रहा।

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  13. कोई एक नियम किसी के लिए नहीं बना सकते है हर तरह के स्त्री पुरुष होते है | ऐसा भी नहीं है की सभी पुरुष अन्दर से नरम ही हो और हर महिला अत्यधिक कोमल |

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  14. अच्छी पोस्ट । फ़ौजी के चले जाने के बाद उसके परिवार का हाल क्या होता है ये तो वही समझ सकते हैं । मन को छू लेने वाला प्रसंग

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  15. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  16. यह एपीसोड मैंने भी देखा था और उस महिला की दर्दभरी कहानी एवं संवेदनशीलता ने मुझे भी बहुत प्रभावित किया था ! उसके प्रति मन में अनायास ही श्रद्धा और प्यार उमड़ आया ! आप दूर मेनचेस्टर में बैठी यह कार्यक्रम देख रही थीं और यही अनुभव कर रही थीं जान कर अच्छा लगा !

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  17. sundar .. sahi kahaa ki purush kathor pane ka dikhawa kartaa hai .. aur aisa honaa bhi chahiye warnaa apat ghadiyon me dhery bandhane wala kon hogaa

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  18. आपने लिखा है- "बस फ़र्क सिर्फ़ इतना ही है कि औरतें ज़ाहिर कर देती हैं और पुरुष उसे अंदर ही जज़्ब कर लेते हैं।" शायद इसी का नतीजा है कि दुनिया में महिलाओं के मुकाबले परुषों में पागलपन के मामले अधिक देखे जाते हैं :))
    बढ़िया आलेख.

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  19. वो एपीसोड हमने भी देखा था और सभी का मन भीग गया था।

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  20. हर घड़ी बादल रही है रूप ज़िंदगी,
    छाँव है कभी, कभी है धूप ज़िंदगी,
    हर पल यहाँ हंस के जियो,
    जो है यहाँ कल हो ना हो”

    प्रस्तुति अच्छी लगी । धन्यवाद ।

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  21. एक शहीद की पत्नी वह नायिका है जो जीवन के रंगमंच पर अपनी भूमिका बहुत बहादुरी से निभाती है उन्हें प्रणाम ....पर टी. आर. पी वाली बात भी कहीं न कहीं महसूस होती है अमिताभ जी जरूर संवेदनशील दिखाई देते हैं लेकिन आयोजकों के बंधन भी लक्षित होते हैं ....इस पोस्ट में आपके द्वारा उठाया गया मूल मुद्दा सराहनीय है लिखना वाकई एक औषधि की तरह काम करता है

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  22. संवेदनशीलता शायद स्त्री -पुरुष में भेदभाव नहीं करती .

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  23. accha lekh hai ...taareef toh banti he aap k liye ,
    aasha karta hoo aur bhi aise lekh aatey rahengey aap k dwara

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