आज मैं जिस विषय पर लिख रही हूँ उस विषय पर में पिछले कई वर्षों से अनुभव कर रही थी लेकिन किसी न किसी कारणवश इस विषय पर लिख पाना संभव ही नहीं हो पा रहा था। वह है "छोटी-छोटी दुकानों का खोता हुआ अस्तित्व", जो इन बड़े-बड़े शॉपिंग माल के आ जाने के कारण कहीं खो गया है। एक नज़र से देखो तो लगता है, अच्छा ही हुआ, अब कम से कम बनिये कि दुकान के कर्ज़ से तो लोगों को मुक्ति मिल जाएगी, तो वहीं दूसरी और लगता है, एक तरफ तो लोग बातें करते हैं 32 रुपये पाने वाला इंसान गरीबी रेखा के नीचे नहीं आयेगा और दूसरी तरफ मिट रहा है उन छोटी-छोटी दुकानों का स्वरूप, जहां से कभी पूरे दाम चुका कर, तो कभी उधार लेकर हर घर में चूल्हा तो कम से कम जल ही जाया करता था। मगर क्या आजकल के महँगाई के इस दौर में 32 रुपये कमाने वाला इंसान सुख से दो वक्त की रोटी खा सकता है?
इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आप ही लोग मुझे बताइयेगा, कि मैं इस विषय के साथ इस विषय पर लिखते हुए न्याय कर पाई या नहीं। वैसे तो मेरा भी मानना यही है, कि उधार से बुरी शायद दुनिया में और कोई चीज़ नहीं, अतः किसी भी तरह का उधार आपके सर पर ना ही हो, तो अच्छा, लेकिन जिस तरह जीवन का हर पहलू किसी न किसी वजह से आपके जीवन में भावनात्मक रूप में भी जुड़ा होता है। वैसे ही यह विषय मेरे जीवन से जुड़े होने के साथ-साथ, कहीं न कहीं शायद यदि मैं गलत नहीं हूँ, तो आप सभी के जीवन से भी जुड़ा होगा। भले ही वो आपके बचपन की यादों में ही क्यूँ न हो, मुझे तो आज इस विषय पर लिखते हुए याद आ रहे हैं, वो बचपन के दिन जब छोटी-छोटी दुकानों पर जाकर ही उन दिनों हम बच्चों की सभी ज़रूरतें पूरी हो जाया करती थी। उस वक्त तो बस चीज़ मिलने से मतलब हुआ करता था। फिर चाहे वो नारंगी रंग की संतरे वाली गोली हो, या फिर महज़ पक्की हुई इमली को रंग बिरंगी पन्नियों में बंधे होने के कारण उसकी तरफ बड़ा हुआ आकर्षण, या फिर वो “गटागट” की गोलियाँ जिन्हें खाने के पहले "हाइजीन" के बारे में सोचना नहीं पड़ता था। तब न तो हमारे माता-पिता को हाइजीन की चिंता सताती थी और न हमें, उद्देश्य केवल एक होता था उस चीज़ के स्वाद का भरपूर मज़े लेना। J
वो भी क्या दिन हुआ करते थे, जब स्कूल के बाहर छुट्टी होने के बाद जैसे टूट पड़ते थे, सब वो सूखे हुए बेर खाने के लिए जिन पर वो स्कूल के बाहर बैठी औरत नमक मिर्च डाल कर देती थी, मात्र एक दो रुपये के वो बेर खाकर जैसे मन अंदर तक तृप्त सा हो जाता था। याद है आपको वो कबीट के गोले, खट्टी इमली, वो सूखे हुए बेर, वो लालिपोप बाबा बच्चा, वो चटर-मटर और खास कर वो गुड और मूँगफली से बनी गुड पट्टी जिसे आज खाने का सोचो तो शायद दाँत टूट जाएँ, मगर उस वक्त उसमें जो स्वाद मिला करता था, वो आज कल की ferrero rocher में भी नहीं मिल सकता। हा हा हा J मेरे मुँह में तो लिखते हुए भी पानी आ रहा है। J यह तो बचपन के उन दिनों की बातें हैं जिन दुकानों पर से हमारी ज़रूरतें पूरी हो जाती थी। कभी-कभी एक आद बार यूँ भी होता था, कि किसी राशन की दुकान से कोई चीज़ घर में आई मगर छुट्टे पैसे न होने कारण मम्मी ने बोल दिया कल वल ले लेना, या हम ही को दुकान पर भेजा, बोलने के लिए कि चाचा मम्मी ने कहा है, आज अभी खुल्ले पैसे नहीं है, कल भिजवा देंगे और दुकान वाले चाचा कहा करते थे। अरे बेटा कोई बात नहीं घर की बात है। अपनी दुकान कहीं भागी थोड़ी न जा रही है... आप भी यही हो, हम भी यहीं है। जब पैसे हों तब भिजवा देना कोई जल्दी नहीं है। तब हम लोग घर आकर समाचार पत्र कि तरह मम्मी के सामने खड़े होकर पूरी बात दोहरा दिया करते थे।J
मगर आजकल की इस बढ़ती हुई आधुनिकता के दौर में वो मिठास ज़रा भी नहीं, यहाँ तो यदि आप किसी शॉपिंग माल में गए हो और एक पेन्स(रुपया) भी कम है तो आपको पूरा सामान लौटाना पड़ेगा कल के लिए कोई कुछ नहीं छोड़ता। फिर चाहे बच्चों का दिल टूटे या आपका, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। माना कि व्यापार में भावनाओं की जगह नहीं होती, और वो उनका नियम होने के साथ काम भी है। वो भी मजबूर हैं, ऐसा करने के लिए, वरना शायद हर दूसरा इंसान उधारी करने लगेगा। मगर व्यापार तो पहले भी हुआ करता था। परंतु तब एक इंसान दूसरे इंसान की भावनाओं को समझ भी लिया करता था। क्यूँकि तब किसी भी व्यापार की नींव विश्वास हुआ करती थी। जो आज ज़रा भी नहीं है। आज तो इंसान को खुद आपने परिवार के लोगों पर विश्वास नहीं है, तो व्यापार क्या चीज़ है। कहने को शॉपिंग माल में आपको बहुत सारी नई से नई चीज़ें देखने को मिलती है, पता चलता है कि दुनिया में क्या चल रहा है। आपके पास अपनी पसंद का सामान चुनने के लिए बहुत सारी चॉइस होती है। फिर चाहे वो कोई भी वस्तु क्यूँ न हो, उस वस्तु से संबन्धित आपको इतनी सारी चीज़ें देखने को मिलती है, कि कभी-कभी तो यह तय करना पाना मुश्किल हो जाता है, कि क्या लें और क्या ना लें। मैं यह नहीं कहती कि शॉपिंग माल में सब कुछ महँगा ही होता है या सब आपके बजट के बाहर ही होता है, मगर मुझे ऐसा लगता है कि इतना सस्ता भी नहीं होता कि 32 रूपये पाने वाला इंसान वहाँ से अपनी ज़रूरतों की पूर्ति कर सके।
शॉपिंग माल कुछ तो आज की जरूरत बन गए हैं और कुछ समाज में दिखावे का कारण भी, जिसे हम अँग्रेज़ी में "स्टेटस सिंबल" कहते हैं। सही मायने में देखा जाये तो आज कल यह "सिंबल" यह दिखावा ही हमारे लिए कई बार कई सारी मुसीबतों की जड़ बन जाता है। क्यूंकि जब पहले छोटी-छोटी दुकाने घर के आस पास हुआ करतीं थी तब ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम इस बात का सुख तो था कि कभी अचानक कोई चीज़ की जरूरत पड़ जाये तो आप फटाक से जाकर ला सकते हो न पार्किंग का जंझट न ज्यादा कुछ और सोचने की ज़रूरत, यहाँ तक कि आप फोन करके भी घर पर समान मँगवा सकते हो, यह सब सोच कर तो यही लगता है कि यार राजाओं वाली ज़िंदगी जीना केवल अपने इंडिया में ही संभव है, यहाँ यूके में नहीं। आधुनिकता ने ना केवल महँगाई ही बड़ाई है बल्कि उसके साथ-साथ इंसान पर से दूसरे इंसान का भरोसा भी छीन लिया है। ज़ाहिर सी बात है बच्चे भी जैसा देखते हैं, वैसे ही सीखते हैं और करते भी हैं। कपड़ों का मामला हो या खिलौनो का यदि उन पर किसी बड़ी ब्रांडेड दुकान का नाम चिपका है, तो आपका बच्चा भी बड़े गर्व से अपने दोस्तों से कहता है अरे यह खिलौना मैंने फलाना शॉप से लिया है। एक ज़माना था जब हम लोग पेड़ से तोड़कर कोई भी फल यूँ ही खा लिया करते थे और एक आज का दौर है, कि मेरा बेटा माल से लाये हुए फलों को भी मेरे बिना कहे भी धोए बिना नहीं खाता। आदत अच्छी है, मगर विश्वास खो गया है, कि यदि बिना धोए खा लिया तो कहीं बीमार न पड़ जाएँ।
देखने मे आकर्षित लगती हुई चीज़ कोई भी हो सभी बच्चे वो खाने को हमेशा तैयार रहते है। मगर कोई ऐसी चीज़ जो देखने में ज़रा भी आकर्षित नहीं है, वो खा ही नहीं सकते। माना कि बच्चों को हमेशा आकर्षित करने वाली चीज़ें ही ज्यादा पसंद आती हैं। भई आख़िर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। J मगर खासकर जिनकी पेकिंग सुंदर हो, दिखने में सुंदर लगे केवल वही चीज़ उनके मन को भाती हैं। फिर चाहे उसमें स्वाद हो, या न हो। मगर हम लोग भी तो कभी बच्चे थे और सब कुछ खा लिया करते थे। फिर चाहे वो रंगबिरंगा बर्फ़ का गोला हो, या क्वालिटी की कोई ice cream हमें तो मतलब केवल स्वाद से हुआ करता था। मगर आज स्वाद की जगह भी बनावट ने ले ली है और इन बड़े-बड़े शॉपिंग माल ने उन छोटी–छोटी दुकानों के अस्तित्व को खत्म कर दिया है। जहां आप कभी-कभी भले ही पूरे दाम देने में असमर्थ हो जाते थे। मगर बच्चों का दिल नहीं टूटा करता था। आज अभी यदि आप किसी छोटी दुकान पर जाते हैं तो दुकानदार आपकी चाय से खातिर ज़रूर करता है।शायद छोटी दुकानों में आज भी इंसान को इंसान पर भरोसा है जैसा पहले हुआ करता था, कि आज नहीं तो कल दाम मिल ही जायेगे। गरीब के घर उधारी में ही सही, मगर चूल्हा जल जाया करता था। जिसकी तो शायद आज कल्पना भी ना मुमकिन है।
अंततः बस इतना कहना चाहती हूँ कि मैं शॉपिंग माल के खिलाफ नहीं हूँ, ना ही मुझे उनसे कोई शिकवा है मगर इस पोस्ट के ज़रिये मैंने कोशिश की है, उन छोटी-छोटी दुकानों के खोते अस्तित्व पर लिखने की इसलिए उन पर ही ज्यादा ज़ोर दिया है। जय हिन्द .....
शॉपिंग माल कुछ तो आज की जरूरत बन गए हैं और कुछ समाज में दिखावे का कारण भी, जिसे हम अँग्रेज़ी में "स्टेटस सिंबल" कहते हैं। सही मायने में देखा जाये तो आज कल यह "सिंबल" यह दिखावा ही हमारे लिए कई बार कई सारी मुसीबतों की जड़ बन जाता है। क्यूंकि जब पहले छोटी-छोटी दुकाने घर के आस पास हुआ करतीं थी तब ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम इस बात का सुख तो था कि कभी अचानक कोई चीज़ की जरूरत पड़ जाये तो आप फटाक से जाकर ला सकते हो न पार्किंग का जंझट न ज्यादा कुछ और सोचने की ज़रूरत, यहाँ तक कि आप फोन करके भी घर पर समान मँगवा सकते हो, यह सब सोच कर तो यही लगता है कि यार राजाओं वाली ज़िंदगी जीना केवल अपने इंडिया में ही संभव है, यहाँ यूके में नहीं। आधुनिकता ने ना केवल महँगाई ही बड़ाई है बल्कि उसके साथ-साथ इंसान पर से दूसरे इंसान का भरोसा भी छीन लिया है। ज़ाहिर सी बात है बच्चे भी जैसा देखते हैं, वैसे ही सीखते हैं और करते भी हैं। कपड़ों का मामला हो या खिलौनो का यदि उन पर किसी बड़ी ब्रांडेड दुकान का नाम चिपका है, तो आपका बच्चा भी बड़े गर्व से अपने दोस्तों से कहता है अरे यह खिलौना मैंने फलाना शॉप से लिया है। एक ज़माना था जब हम लोग पेड़ से तोड़कर कोई भी फल यूँ ही खा लिया करते थे और एक आज का दौर है, कि मेरा बेटा माल से लाये हुए फलों को भी मेरे बिना कहे भी धोए बिना नहीं खाता। आदत अच्छी है, मगर विश्वास खो गया है, कि यदि बिना धोए खा लिया तो कहीं बीमार न पड़ जाएँ।
देखने मे आकर्षित लगती हुई चीज़ कोई भी हो सभी बच्चे वो खाने को हमेशा तैयार रहते है। मगर कोई ऐसी चीज़ जो देखने में ज़रा भी आकर्षित नहीं है, वो खा ही नहीं सकते। माना कि बच्चों को हमेशा आकर्षित करने वाली चीज़ें ही ज्यादा पसंद आती हैं। भई आख़िर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। J मगर खासकर जिनकी पेकिंग सुंदर हो, दिखने में सुंदर लगे केवल वही चीज़ उनके मन को भाती हैं। फिर चाहे उसमें स्वाद हो, या न हो। मगर हम लोग भी तो कभी बच्चे थे और सब कुछ खा लिया करते थे। फिर चाहे वो रंगबिरंगा बर्फ़ का गोला हो, या क्वालिटी की कोई ice cream हमें तो मतलब केवल स्वाद से हुआ करता था। मगर आज स्वाद की जगह भी बनावट ने ले ली है और इन बड़े-बड़े शॉपिंग माल ने उन छोटी–छोटी दुकानों के अस्तित्व को खत्म कर दिया है। जहां आप कभी-कभी भले ही पूरे दाम देने में असमर्थ हो जाते थे। मगर बच्चों का दिल नहीं टूटा करता था। आज अभी यदि आप किसी छोटी दुकान पर जाते हैं तो दुकानदार आपकी चाय से खातिर ज़रूर करता है।शायद छोटी दुकानों में आज भी इंसान को इंसान पर भरोसा है जैसा पहले हुआ करता था, कि आज नहीं तो कल दाम मिल ही जायेगे। गरीब के घर उधारी में ही सही, मगर चूल्हा जल जाया करता था। जिसकी तो शायद आज कल्पना भी ना मुमकिन है।
आपने जिस शॉपिंग मॉल का उल्लेख किया है उसे तनिक ध्यान से देखें तो मालूम पड़ता है वहाँ मुख्यतः मैदा शॉप्स हैं जो युवाओं के गुर्दों को कमज़ोर कर रही हैं. ये पाचन तंत्र को बहुत हानि पहुँचाती हैं और केवल पैसा बनाने की मशीनें हैं. अब तो MNCs हमारे देश के ग़रीबों को चने बेचने की तैयारी में होंगी ताकि दूर-दराज़ से पैसा इकट्ठा कर सकें :)) मोहल्ले के दुकानदार का वह पर्सनल टच के साथ दिया दाल का मीठ-खट्टा लड्डू आज भी याद आता है.
ReplyDeleteआपका सरोकार मन को छू गया.
बड़े बड़े मॉलों को चलाने के लिये न जाने कितने छोटी छोटी दुकानों की आहुति चढ़ी है।
ReplyDeleteआधुनिकता और आवश्यकता के भेंट चढ़ गयी यह दुकानें अच्छा आलेख
ReplyDeleteपता नहीं इन नुक्कड़ की दुकानों का क्या होगा?
ReplyDeleteऔर जब ये न होंगे तो हम कहां खड़ा होकर मोहन बगान और ईस्ट बंगाल के बीच होने वाले मैच पर बहस करेंगे??
ज़मीनी सरोकारों से जुड़ा बढ़िया आलेख!
ReplyDeleteइस बार गजब का विषय चुना आपने…भूषण जी की बात ध्यान देने लायक। फिर कह रहा हूँ विषय बहुत अलग है…लेकिन बैलगाड़ी तो एक दिन जानी ही है न?…
ReplyDeleteबढिया विषय।
ReplyDeleteबडे बडे शापिंग माल्स ने न सिर्फ छोटी दूकानों को खत्म करना शुरू कर दिया है बल्कि इसने भावनाओं को भी खत्म करने का काम किया है।
छोटी दूकानों में ग्राहक को आदर भी मिलता था और व्यवहार भी पर माल संस्कृति में ये सब कहां।
कुछ समय में यह छोटी दुकानें यादों और किताबों में सिमट जायेंगी. बड़ी मछली छोटी मछलियों का भक्षण कर अपना अस्तित्व साबित करती है.
ReplyDeleteबड़ी मछली हमेशा से छोटी मछलियों का शिकार करती रही है, फ़िर भी ऐसी दुकानें और ऐसे दुकानदार बने रहेंगे। मेरे मानने के पीछे मॉल कल्चर का समर्थन करना नहीं बल्कि ये विश्वास है कि ’वैक्यूम’ की स्थिति स्वाभाविक स्थिति नहीं है। इतनी जनसंख्या के चलते कस्टमर शिफ़्टिंग होती भी है तो यहाँ खाली हुई जगह को भरने और नीचे से लोग आते रहेंग। और इसके अलावा हम जैसे लोग तो हैं ही जो आज भी मॉल्स की बजाय ऐसे दुकानें जहाँ आत्मीय रिश्ते भी जुड़े हैं, को पसंद भी करते हैं और प्रेफ़्रर भी करते हैं। बस ऐसे मुद्दे साईडलाईन नहीं होने चाहिये क्योंकि इनसे जाने कितने ही परिवारों की रोजी रोटी भी जुड़ी है।
ReplyDeleteछोटी दुकानों की प्रसांगिकता आज भी है और आगे भी रहेगी चाहे कितने भी माल बन जाए छोटी दूकान का अस्तित्व खत्म नहीं हो सकता बशर्ते छोटी दूकान वाले भी अपनी सेवाओं को थोड़ा सुधारे|
ReplyDeleteआज जब भी किसी छोटी दूकान पर जाते है एक तो कहीं मूल्य सूचि नहीं होती जिससे विभिन्न उपत्पदों के मूल्य में तुलना नहीं की जा सकती और न ही दुकानदार सब बताने की जहमत उठाता| बल्कि उसकी सोच रहती है कि जो वो सजेस्ट करें उसे ही ग्राहक ले जाए|
अत: छोटी दुकानों के अस्तित्व संकट के लिए ये बड़े बड़े माल जितने जिम्मेदार है उससे ज्यादा जिम्मेदार ये छोटी दुकान वाले खूद है|
Gyan Darpan
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परिवारवत छोटी दुकाने भी रहेंगी और दुनिया को बाजार बनाते बड़े मॉल भी पनपेंगे। वैसे यह एक गम्भीर समस्या है जो प्रत्येक देश में पैर पसार रही है।
ReplyDeleteपल्लवी जी, पहले तो मैं गोल्ड-स्पॉट वाले फोटो पर अटका रह गया, और फिर पोस्ट के जरिये अपने बचपन की कितनी बातें याद आ गयी...बहुत अच्छी पोस्ट!!
ReplyDeleteGOLD SPOT...The Zing Thing!! :) :)
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक व सटीक लेखन ...।
ReplyDeleteSourabh said by mail :) अच्छा लिखा हैं, आज कल भावनाए मर गयी हैं, आज भी अगर आप पुराने शहर की पुरानी दुकानों पे जाओगे तो भले ही आप सामन लो ना लो दुकानदार चाय से आपकी खातिर करना नहीं भूलता...
ReplyDeleteसही ,सटीक और सार्थक लेखन
ReplyDeleteजाने क्या क्या याद आ गया ...सच में नुक्कड़ की दूकान से लेकर संतरे की गोली खाने में जो मजा था वो मॉल में जाकर कैंडी खरीदने में कहाँ.
ReplyDeleteहालाँकि सस्ता - महंगा तो शायद अब नहीं रहा मॉल में भी बहुत सी दुकानों में बनिए की दूकान से सामन कई बार सस्ता भी मिल जाता है.बाय वन गेट वन फ्री की तर्ज़ पर.पर फिर भी ..
बहुत अच्छा लिखा है.
अच्छा आलेख। भूषण जी से सहमत!
ReplyDeleteसादर
लेख की भावना उत्तम है परंतु प्रदर्शन एवं प्रतिस्पर्धा के युग में, मुझे नही लगता कि हम छोटी दुकानों को पल्लवित करने की दिशा में कुछ सार्थक कर सकेंगे ।
ReplyDeleteयथार्थपरक सार्थक आलेख !
ReplyDeleteशोपिंग माल्स पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित हैं ।
कुछ खूबियाँ हैं तो कुछ खामियां भी ।
jab bhi kuchh bada hota hai to bahut saare chhoto ki jaan jati hai.........!!
ReplyDeleteaur ye bilkul sach hai ki in chhote dukano ki bahut jarurat abhi bhi dikhti hai:)
बहुत ही सही विषय पर लिखा है पल्लवी जी आपने....वैसी चीजे जिनपर हम ध्यान नहीं देते है....लेकिन यही छोटी भूल हमारी एक दिन हमारे नुकसान के लिये कारगर होती है....छोटी मछलियाँ कही लुप्त ना हो जाये बड़ो की भीड़ में...सुंदर विषय और उतम लेखनी...आभार।
ReplyDeleteSahi!
ReplyDeleteसबसे पहले तो बधाई सुंदर आलेख और उम्दा विषय को उठाने के लिये. अब यह डर सही ही है कि छोटी परम्परागत दुकाने कब तक चल पाएंगी और अपना अस्तित्व बनाये रख पाएंगी. स्कूल के बाहर के फेरीवालों की चर्चा ने बचपन याद दिला दिया.
ReplyDeleteबहुत सही विषय चुना है आपने |यह बिलकुल सच है की छोटे व्यवसाई समाप्त होते जा रहे हैं इन मॉल्स के कारण |
ReplyDeleteलेख बहुत अच्छा लगा |
आशा
पल्लवी जी,
ReplyDeleteविषय आपने सही उठाया,लेकिन ये बात शहरों
में लागू होती है,गाँव में आज भी छोटी२ दुकाने
है फिर भी आपका लेख पसंद आया,..बधाई ..
मेरे पोस्ट में स्वागत है....
सही मुद्दा उठाया..सार्थक आलेख !
ReplyDeleteउस वक्त तो बस चीज़ मिलने से मतलब हुआ करता था। फिर चाहे वो नारंगी रंग की संतरे वाली गोली हो, या फिर महज़ पक्की हुई इमली को रंग बिरंगी पन्नियों में बंधे होने के कारण उसकी तरफ बड़ा हुआ आकर्षण, या फिर वो “गटागट” की गोलियाँ जिन्हें खाने के पहले "हाइजीन" के बारे में सोचना नहीं पड़ता था। तब न तो हमारे माता-पिता को हाइजीन की चिंता सताती थी और न हमें, उद्देश्य केवल एक होता था उस चीज़ के स्वाद का भरपूर मज़े लेना।
ReplyDeleteबचपन याद आ गया. ऐसा बचपन शायद उन सब ने बिताया है जिन्होंने बचपन में घर में मिट्टी का चूल्हा देखा है.मॉल का क्रेज़ एक विशेष आयु वर्ग में है या उन्हें है जो अपनी आयु को भ्रम लेकर जीते हैं या उनमें जिनके घर लक्ष्मी की बरसात हो रही है.जब जेब खर्च की उम्र निकल जाती है और खर्च के लिये जेब टटोलनी पड़ती है तब नुक्कड़ वाली दुकान ही काम आती है.चिंता न करें, छोटी दुकानों का अस्तित्व नहीं मिटेगा. गटागट, गुड़ पापड़ी और बेर खानेवाले सदाबहार ग्राहक इन्हें मिटने नहीं देंगे.
सबके बचपन को कुरेदती अच्छी पोस्ट .हाँ थाली संसद में १० रूपये की तथा एस्कूर्ट्स अस्पताल के बाहर ३० रूपये में (दो सब्जी ,चावल ,एक दाल ,सलाद )लेकिन बी पी ओ के लिए आहलुवालिया कहतें हैं ३२ रुपया प्रति व्यक्ति पार्टी दिन का खर्ची कॉफ़ी .दूकानों पर लिखा होता है -किसी सामान की कोई गारंटी नहीं .उधार का तो अब सवाल ही कहाँ है सेल के इस दौर में .पैसा फैंको तमाशा देखो .खेल ख़तम पैसा हज़म .
ReplyDeletebahut hi sundar prastuti hai...
ReplyDeletebahut khoob likha hai aapne... badhayi....
ReplyDeleteआपने जो शिषय चुना है, उसका तो सटीक चित्रण किया ही है, जो कि आपकी योग्यता का परिचायक है, मगर आपने जो विषय चुना है, उसने अत्यधिक प्रभावित किया है, असल में यह नजर का ही कमाल है, आपकी नजर इस विषय पर गई, जहां आम तौर पर किसी की जाती नहीं है, वाह,
ReplyDeleteबचपन की यादों को फिर से ताज़ा कर दिया.यह सही है कि बढती हुई मॉल संस्कृति ने छोटी दुकानों के अस्तित्व पर एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया है, लेकिन विकास को एक स्तर पर ही नहीं रोका जा सकता. परिवर्तन प्रकृति का नियम है. यह सही है कि पडौस की दुकान से एक अपनापन जुड जाता था और वहाँ से उधर लेने में भी कोई परेशानी नहीं होती थी, लेकिन मॉल से भी कितने लोग नगद पैसा देकर सामान खरीदते हैं, यहाँ भी भुगतान ज्यादातर credit card से ही करते हैं जो एक प्रकार से उधार ही है और ज्यादा सुविधा जनक है.
ReplyDeleteपडौस की दुकान पर सामान खरीदने पर आप की पसन्द सीमित रहती है, जब कि मॉल में आप विभिन्न ब्रांड और उनकी कीमत देख कर सही चीज खरीदने का निर्णय ले सकते हैं. एक ही जगह से आप को सब सामान मिल जाता है.
वैसे भारत में मॉल और दुकानों का अस्तित्व साथ साथ चल रहा है.आप महीने की खरीदारी मॉल में एक बार जाकर कर लेते हो, लेकिन प्रतिदिन की अन्य ज़रूरी चीजें अब भी पडौस के दुकानदार से ही खरीदते हैं. अभी तक तो नहीं लगता कि कोई पडौस की दुकान बंद हुई हो या नुकसान में चल रही हो.
दोनों का अस्तित्व अपनी अपनी जगह है और दोनों एक दूसरे के पूरक होकर रह सकते हैं. अभी भी बहुत लोग कुछ व्यक्तिगत कारणों से पडौस की दुकान से सारा सामान खरीदते हैं.
बहुत ही विचारोत्तोजक लेख...आभार
पल्लवी जी,
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग काव्यांजली में आपका स्वागत है,...
आपने सबसे पहले तो बचपन याद दिला दिया संतरे की गोली,इमली वाली भूरी और सुनहरी पन्नी में बंधी चाकलेट ,गटागट,चोरी छुपे खाए जाने वाली तली गली नमकीन सब याद आ गया :) सच है उन छोटी छोटी दुकानों के दम पर कुछ चूल्हे जला करते होंगे.समय बदला गया है पर इस mall culture को लेकर एक बात याद आई ,जब हम कॉलेज में थे तो एक बहस के दौरान ये बात कही थी किसी ने देश में बढ़ता mall culture और लड़कियों का माल हो जाना आने वाले समय में बड़ी समस्या होगी.लड़कियों को माल कहने वाली इस टिपण्णी के क्षमा चाहती हू पर यहाँ इसका मतलब सिर्फ लड़कियों के बिगड़ने से है .सच है अब वो समस्या मुह बाए खडीहै
ReplyDeleteकिसी से किसी की रोज़ी-रोटी नहीं छिनती। कालांतर में ऐसी तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित होती हैं और रोज़गार के नए रूप सामने आते हैं।
ReplyDeleteaapne nayee aur poorane dookandari vyavstha ka bahut hi achha chittran kiya hai pallvi ji
ReplyDeleteसुंदर आलेख और उम्दा विषय ,बचपन याद दिला दिया
ReplyDeleteआप सभी पाठकों एवं दोस्तों का तहे दिल से शुक्रिया कृपया यूं ही समपर्क बनाये रखें...
ReplyDeleteछोटी छोटी दुकाने भारत में तो र्सहने वाली हैं .. लंबे समय तक ... ये संस्कृति का हिसा हैं ... अपने पण का भाव जो इनमे रहता है बड़े बह्दे माल में नहीं मिलता ...
ReplyDeleteमाल और बड़ी दुकानों का अपना गणित है, जिस पर अभी मंथन चल रहा है, परंतु बचपन की गटागट की गोलियों की और सूखे बेरों की याद दिला दी :) यम्मी यम्मी लगते थे, और आज भी लगते हैं, बस अब ये चीजें अपने ही शहर में मेलों में मिलती हैं ।
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