Monday, 7 November 2011

मन: स्थिति .....


यूँ तो यह विषय अब बहुत पुराना हो चुका है और बहुत लोग इस बारे में बहुत कुछ, एवं बहुत अच्छा-अच्छा लिख चुके है। कुछ ऐसा जो मन को छू जाये। मगर मैंने अपना यह लेख उन कई लोग से तुलना करने के लिए नहीं लिखा, कि मेरा उन से बेहतर है, या नहीं। बल्कि आज मैंने भी अपने मन में उठती हुई कुछ तरंगों को शब्द रूप देना का प्रयत्न किया है। मन के बारे में क्या कहूँ, कहाँ से शुरुआत करूँ इस एक शब्द के विस्तार की, जो कि  एक भावनाओं का समुंदर है। या फिर यूँ कहिए कि भावनाओं का मकड़ जाल है। जिसमें हम चाहे अनचाहे पड़ ही जाते है और हर पल इस समुद्र रूपी मन में भावना रूपी कोई न कोई लहर उठती ही रहती है। जो हर पल कुछ न कुछ सोचने को मजबूर करती है। जैसे "शिखा जी" ने अपने ब्लॉग में भी लिख रखा है अंतर मन से उठती हुई भावनाओं की तरंगें" जो कभी सुखद होती हैं, तो कभी दुखद भी। वो कहते हैं,
“मन के हारे हार है,
 मन के जीते जीत” 

कितनी गहरी बात है। देखने और पढ़ने में भले ही इस बात का अर्थ बहुत ही साधारण प्रतीत होता हो, कि यदि आपका मन अच्छा है, तो आपको अपने आस-पास सब कुछ अच्छा लगता है और आप हर परिस्थिति पर विजय पाने में सफल होने की क्षमता रखते हो। कहने का मतलब यह कि जब आप का मन खुश होता है, तब आपकी सोच सकारात्मक होती है और जब आपका मन दुःखी होता है, निराश होता है, तब आपकी सोच नकारात्मक हो जाती है। मगर इन दो पंक्तियों में जीवन का सार छुपा है, जो अपने आप में एक इंसान के सम्पूर्ण जीवन को दर्शाता है कि एक इंसान किस तरह अपने मनोभावों के साथ जीता है। क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि इंसान बना ही भावनाओं से है, जो उसे अन्य जीवों से अलग करती हैं। जिस इंसान के अंदर भावनायें नहीं होती वो मेरे हिसाब से तो इंसान कहलाने लायक ही नहीं है।
मुझे तो आज तक अपने जीवन में, अब तक ऐसा कोई इंसान नहीं मिला जिसके अंदर भावनायें न हो। हाँ कुछ लोग खुद को जानबूझ कर कठोर दिखाने का प्रयत्न जरूर करते हैं, किन्तु वास्तव में वह लोग खुद अंदर से बहुत ही साफ दिल और नरम स्वभाव के होते है। बिलकुल नारियल की तरह बाहर से सख़्त और अंदर से नरम।J कभी सोचो तो ऐसा लगता है जैसे मन और भावनायें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। फिर कभी यूं भी होता है कि हम अपने ही मन को समझ पाने में असमर्थ हो जाते हैं। हम खुद ही नहीं समझ पाते कि हम क्या चाहते हैं। जब कभी हम बहुत खुश होते हैं, तो लगता है जैसे हम ने सब कुछ पा लिया हो। अब और कुछ पाने की चाह नहीं और उस ख़ुशी में भी हमारी आँखें छलक जाती है और दिल यह गीत गुनगुनाने लगता है। J  
"आज फिर जीने की तमन्ना है 
आज फिर मरने का इरादा है"


इस गीत में भी तो कुछ ऐसे ही भावों को व्यक्त किया गया है न J कई बार हमारा मन बहुत छोटी-छोटी बातों में,चीजों में, सुकून ढूंढ लेता है। तो कई बार सब कुछ होते हुए भी कहीं सुकून नहीं मिल पाता। कई बार आपने भी देखा और महसूस किया होगा कि सुकून की तलाश में तनहाई कारगर साबित होती है। जब अकेले में हमको खुद  से बातें करने और खुद को समझने का मौक़ा मिलता है। आपने आस-पास हो रही गतिविधियों पर गौर करने का मौक़ा मिलता है, कि हमारे लिए क्या सही है, क्या गलत है। कभी-कभी सारी परेशानियों से भाग कर मन करता है, किसी ऐसी जगह चले जाने को जहां शांत माहौल हो। अगर कुछ शोर हो या आवाज हो तो केवल प्राकृतिक हो जैसे समुंदर का किनारा या फिर किसी झील के किनारे किसी सुनसान जगह पर आप बैठे हो ठंडी बहती हुए हवा और पक्षीयों का करलव हो, इसके अतिरिक्त और कुछ न हो। जब उस एकांत माहौल में जहां दूर-दूर तक नज़र डालने पर भी सिवाय शांति के और कुछ महसूस ना हो तो मन को उस वक्त जो सुकून महसूस होता है, उस एहसास, उस सुकून को शब्दों में बयां कर पाना मेरे लिए संभव नहीं।J

एक ऐसी शांति का एहसास जो समुद्र की लहरों के शोर से भी भंग नहीं होती, बल्कि मन को बहुत सुकून देती है और आपको एक अलग ही दुनिया में दूर कहीं ले जाती है। जहाँ सिर्फ आप इस रंज़ ओ ग़म कि दुनिया से दूर केवल आपकी तनहाई आपके साथ होती है। मन एकदम शांत होता है, किसी प्रकार की कोई परेशानी आप पर हावी नहीं होती। तब जब आप अपने अंतर मन में उठते सभी सवालों का हल पा लेते हो, अर्थात किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में या किसी निर्णय को लेने में कामयाब हो जाते हो।उस वक्त और शांत वातावरण में जो मन: स्थिति होती है उसकी तलाश में तो शायद लोगों का सारा जीवन बीत जाता हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि "भगवान बुद्ध" ने कहा था, शायद, मुझे ठीक से याद तो नहीं मगर, ऐसा कुछ कि इंसान के मन में उठते सभी प्रश्नों का उत्तर स्वयं उसके मन में ही छुपा होता है। जरूरत होती है, तो केवल अपने आप से उस प्रश्न को ईमानदारी से और ठंडे दिमाग एवं शांत मन से पूछने की, जो साधारण तौर पर हम कर नहीं पाते और नतीजा सारी उम्र भटकते रहते हैं, उस शांति रूपी संतुष्टि की तलाश में जो साधारण तौर पर इंसान को कभी नहीं मिलती। जिस प्रकार एक मृग अपने ही अंदर छुपी कस्तूरी की खोज में भटकता रहता है, ठीक उसी प्रकार इंसान भी शांति और संतुष्टि की खोज में मृगतृष्णा कि भांति ही भटकता रहता है। अतः इन मन में उठती हुई तरंगों कि बातों को, इस मकड़ जाल को, जिसमें फंस जाने के बाद शायद कभी बातों का अंत ही न हो, मैं यहीं इन कुछ मशहूर शेरों के साथ यही विराम देती हूँ।J 

“कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता , 
कभी ज़मी तो कभी आसमान नहीं मिलता” 
या फिर 
इंसान की ख्वाइश की कोई इंतहा नहीं 
दो गज़ ज़मीन चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद 

39 comments:

  1. जिस प्रकार एक मृग अपने ही अंदर छुपी कस्तूरी की खोज में भटकता रहता है, ठीक उसी प्रकार इंसान भी शांति और संतुष्टि की खोज में मृगतृष्णा कि भांति ही भटकता रहता है।

    इस कथन से सहमत हूँ। मनः स्थिति पर आपका लेख बखूबी प्रकाश डालता है।

    सादर

    ReplyDelete
  2. हम तो यही कहेंगे की मन को पिंजड़े मत डालो आपसे सहमत हूँ एक सारगर्भित पोस्ट आभार

    ReplyDelete
  3. कुछ ऐसे ही भटकाव से आजकल हम गुजर रहे हैं शायद ...निकलते हैं किसी समुन्द्री किनारे की तरफ.

    ReplyDelete
  4. अपन तो माँ गंगा के तट पर मस्त हैं।
    ..बढ़िया लिखा है आपने।

    ReplyDelete
  5. बेहतरीन आलेख..

    ReplyDelete
  6. मन के रंग अनोखे साधो..

    ReplyDelete
  7. “मन के हारे हार है,
    मन के जीते जीत”

    यह सोच हर हाल में रखनी होगी......

    ReplyDelete
  8. मेरे भी प्रिय लेखक प्रेमचंद जी ही हैं आपके ब्लॉग पैर पहली बार आयी हूँ बहुत सुंदर लेख है

    ReplyDelete
  9. मन के अनेक संदर्भों को उजागर करने का सयास रूपक है यह आलेख।

    ReplyDelete
  10. मन चाहे कभी उडना नीले आकाश में, कभी चाहे ठहरना अपनों के पास में , कभी ले जाय बीते कल की गलियों में , कभी चला जाय भविष्य के प्रवास में ...
    यूँ तो मन की स्थिति को लिखना आसान नही , मगर आपका लेख इसके कई पहली को छूता नजर आता है ....

    ReplyDelete
  11. अच्छी प्रस्तुति. यह जानकर ख़ुशी हुई की आप भी भोपाल से ही हैं.

    ReplyDelete
  12. बेहतरीन प्रस्‍तुति।
    भावनाओं के बगैर जीवन की कल्‍पना ही नहीं की जा सकती।

    ReplyDelete
  13. सच ही तो है:

    “मन के हारे हार है,
    मन के जीते जीत”

    ReplyDelete
  14. बढ़िया हाल मन का ....
    शुभकामनायें आपको !

    ReplyDelete
  15. आपने तो हारे को जीवन मंत्र दे दिया

    ReplyDelete
  16. मत की स्थिति पर अति सुंदर आलेख है, आप एक बेहतरीन मनोवैज्ञानिक हैं

    ReplyDelete
  17. bahut hi sunder aalekh ... satik varnan paristhiti ka
    badhai .man ko samajh pana aur uske shabdo mai uttam tarike se dhalna kisi kala se kam nahi .


    .aapke blog par aa kar accha laga . aapko join karti hoon .
    http/sapne-shashi.blogspot.com

    ReplyDelete
  18. सच है
    “मन के हारे हार है,
    मन के जीते जीत”

    ReplyDelete
  19. मन की भावनाओ को उजागर करती खुबशुरत पोस्ट ..अच्छी लगी
    मेरे नए पोस्ट में स्वागत है...

    ReplyDelete
  20. कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ,
    कभी ज़मी तो कभी आसमान नहीं मिलता”

    यह आपके विचारों की संवाहक सी लगती है । मेरे पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  21. एक ऐसी शांति का एहसास जो समुद्र की लहरों के शोर से भी भंग नहीं होती, बल्कि मन को बहुत सुकून देती है और आपको एक अलग ही दुनिया में दूर कहीं ले जाती है।bahut hi sundar sach hai mrigtrishna to hai hi.padhkar kuch panktiyan yaad aa gai man changa to kathote main ganga....

    ReplyDelete
  22. bahut achhi post,bahut achhe bhaav likhe hain aapne !

    ReplyDelete
  23. पल्लवी जी नमस्कार बहुत बढिया आलेख्।

    ReplyDelete
  24. सारगर्भित पोस्ट!

    ReplyDelete
  25. मन के विचारों का मकड़जाल मित्र भी है और शत्रु भी. हमें प्रकृति ने चुनाव करने की शक्ति दी है कि हम इसे मित्र बना लें. इसके बिना गुज़ारा भी नहीं. एक ही पोस्ट में मन के इतने रंगों से एक तस्वीर आपने बना दी है कि तारीफ़ के लिए शब्द कम रहेंगे. उम्दा पोस्ट.

    ReplyDelete
  26. बहुत पहले मैंने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी थी,जहाँ से मैंने पढाई की वहाँ की एक मंदिर के बारे में....वहाँ मुझे पता नहीं क्यों बहुत शान्ति मिलती थी..मैं जब भी दुखी या निराश होता था तो उसी मंदिर के कम्पाउंड में जाकर बैठता था..और वहाँ बैठे बैठे लगता था की जैसे सभी संकट धीरे धीरे दूर हो जायेंगे..हर इम्तिहान के पहले वाली शाम मैं मंदिर में जरुर जाता था...

    और फिलहाल इन दिनों जिन जबरदस्त मानसिक दुविधाओं से गुजर रहा हूँ, जबरदस्त तम्मना है की ऐसे किसी शांत जगह चला जाऊं जहाँ खुद की खातिर कुछ फैसले लेने में आसानी हो, शान्ति मिले और थोडा दिल हल्का हो..

    ReplyDelete
  27. प्रिय पल्लवी, ये पूरा विचार ही मुझे लम्बी कविता-सा लगा. पढ़ाते हुए लगा, मै कविता ही पढ़ रहा हूँ, जीवन का दर्शन बहुत ही खूबसूरती के साथ रूपायित हुआ है. इन विचारों को छंद में भी गूंथा जा सकता है. शुभकामनाये, इस सोच के लिए.

    ReplyDelete
  28. बहुत-बहुत धन्यवाद गिरीश अंकल, कि आपने मेरे इस लेख को पसंद किया साथ ही, उत्साह वर्धन करने के लिए भी आपका हार्दिक धन्यवाद। अभी तो कहना मुश्किल है मगर, हो सकता यूं हीं लिखते-लिखते शायद कभी कोई कविता भी बन जाये। :-)

    ReplyDelete
  29. Man ke bare me bahut hi gahan vishleshan...man,atma aur hamara dil..ye hi tin to mukhya sanchalak hain hamare sharir ke aur inme apas me samanjasya baithane vala vyakti hi siddh purush ban jata hai...bahut achchha lekh.
    Hemant

    ReplyDelete
  30. अनुभव को पढ़ते समय सहजता का अनुभव हुआ लगा जैसे कोई प्रत्यक्ष अपने संस्मरण सुना रहा हो।

    ReplyDelete
  31. मन की विभिन्न स्तिथियों का बहुत सार्थक विश्लेषण...बहुत सुंदर पोस्ट...

    ReplyDelete
  32. लेख्न शैली ने इस सार्गर्भित आलेख को और भी रोचक बना दिया है.बधाई.

    ReplyDelete
  33. इंसान की ख्वाइश की कोई इंतहा नहीं
    दो गज़ ज़मीन चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद

    सार्थक लेख और बेहतरीन शैली ...बहुत सुन्दर

    ReplyDelete
  34. आपका ब्‍लाग मुझसे क्‍यों छूटा जा रहा था, समझ नहीं आ रहा है। बहुत अच्‍छी बात लिखी है आपने। अपने मन को खोजने से ही सब कुछ मिलता है। आपकी फोलोवर बन रही हूँ जिससे मुझे आपकी सभी पोस्‍ट अब पढने को मिल जाएंगी।

    ReplyDelete
  35. आभारी हूँ शशि जी एवं अजित जी, कि आप लोग यहाँ मेरे ब्लॉग पर आए और आपने महत्वपूर्ण विचारों से मुझे अनुग्रहित किया साथ ही मेरे ब्लॉग को follow भी कर रहें हैं। धन्यवाद...

    ReplyDelete
  36. आप सभी पाठकों और मित्रों का भी तहे दिल से शुक्रिया। कृपया यूँ हीं समपर्क बनाये रखें... धन्यवाद

    ReplyDelete
  37. मन की गति पर भला कभी कोई काबू पा सका है, परंतु मानव चाहे तो प्रयत्न कर मन को भी काबू में कर सकता है।

    ReplyDelete

अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए यहाँ लिखें